विश्वास और आज्ञाकारिता - हमारे विजय स्तंभ

 विश्वास और आज्ञाकारिता - हमारे विजय स्तंभ

यह दोनो कारण एक साथ मिलकर एक स्तंभ बनाते हैं जो विश्वासी के आत्मिक हथियारों के शस्त्रागार को सहारा देते हैं। विश्वास और आज्ञाकारिता एैसे गुथे हैं, जैसे एक के बिना दूसरा अधूरा हो।

आपके पास विश्वास होना चाहिये कि ये हथियार जो कि आपको परमेश्वर की महिमा हेतु प्रदान किया गए हैं, वे अवश्य काम करेंगे। प्रभु यीशु के नाम पर विश्वास रखिये। प्रभु यीशु की सामर्थ पर विश्वास रखिये। विश्वास रखिये कि वही सामर्थ आप में वास करती है जिससे आप उससे भी अधिक महान कार्य करने के लिए सक्षम हैं क्योंकि प्रभु यीशु आप में रहता है। (यूहन्ना 14ः 12)

प्रभु यीशु ने उनको उत्तर दिया कि विश्वास पर विश्वास रखो। मैं तुम से सच कहता हूँ कि जो कोई इस पहाड़ से कहे, कि तू उखड़ जा और समुद्र में जा पड़ और अपने मन में संदेह न करे वरन् प्रतीति करे कि जो कहता हूँ वह हो जाएगा, तो उसके लिए वही होगा। इसलिए मैं तुम से कहता हूँ कि जो कुछ तुम प्रार्थना करके मांगो, तो प्रतीति कर लो कि तुम्हें मिल गया और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। (मरकुस 11ः 22-24)

अपने विश्वास का अभ्यास परमेश्वर के वचन और यीशु द्वारा दी गई विजय को जोर से बोलकर घोषित कीजिए। जब पवित्र आत्मा किसी परिस्थिति के लिए कोई पद धर्मशास्त्र में से तेजी से देवे तो उसे विश्वास वचन के समान बोलें, परमेश्वर के वचन के विरोध में उठी हर एक कल्पनाओं का प्रभु यीशु के नाम से तुरन्त खंडन करें। (2 कुरिन्थियों 10ः 5)

          समस्त डर, शंका और अविश्वास  को कौन समाप्त करता है ?

         परमेश्वर पर विश्वास, पक्का विश्वास और दृढ़ विश्वास।

आप अपने विश्वास को एक आदेश के रूप में जोर से बोल सकते हैं:

वह बहुत दिन तक ऐसा ही करती रही परन्तु पौलूस दुखित हुआ और मुंह फेर कर उस आत्मा से कहा मैं तुझे प्रभु यीशु मसीह के नाम से आज्ञा देता हूँ कि उसमें से निकल जा और वह उसी घड़ी निकल गई। (प्रेरितों के काम 16ः 18)

एक आज्ञाकारी मध्यस्थ के नाते आपका कार्य निरंतर चुनौती भरा है। आप अपने को उस व्यक्ति के स्थान पर रखते हैं जिसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं इसलिए उसकी जरूरतों का अहसास करें। इस प्रकार की प्रार्थना आत्मा की आवाज के प्रति अविचलित समर्पण चाहती है। एक चेतावनी- ‘‘मध्यस्थता को अपना बोझ न बनने दे।’’ आत्मा में प्रार्थना की बुलाहट हेतु प्रतिउत्तर देने में आज्ञाकारी बनना सीखें। तब अपने प्रार्थना बोझ को प्यारे स्वर्गीय पिता पर छोड़ दें।

‘समर्पण’ का अर्थ है कि हम किसी कार्य को पूरा करने की जिम्मेदारी लेते हैं। इस कारण आपका समर्पण एवं दृढ़ निष्चय शत्रु पर आक्रमण कर, उसे पराजित करके परमेष्वर का राज्य स्थापित करना है। शत्रु आपके इस गुण से परिचित है। किसी ने ठीक ही कहा है कि एक संत को घुटनों पर देख कर नर्क कांपने लगता है। इसी कारण शत्रु आपको प्रार्थना से दूर रखेगा। आपकी आज्ञाकारिता और समर्पण उसकी योजना को नष्ट कर देगा।

जैसे-जैसे आप अपना जीवन प्रतिदिन अधिक से अधिक मध्यस्थता की प्रार्थना में बितायेंगेे, वैसे-वैसे आपके नगर में परिवर्तन दिखाई देगा। वहां अपराध, भ्रष्टाचार, अराजकता, शोषण और गंदगी दूर होने लगेगी और परमेश्वर की अद्भुत शांति का राज्य स्थापित होने लगेगा।

और वे मेम्ने के लहू के कारण और अपनी गवाही के वचन के कारण उस पर जयवन्त हुए और उन्होंने अपने प्राणों को प्रिय न जाना, यहां तक कि मृत्यु भी सह ली। (प्रकाशित वाक्य 12ः 11)

आपका जीवन मसीह के साथ परमेश्वर में छिपा है (कुलुस्सियों 3ः 3) क्योंकि उसने अपना जीवन तुम्हें दे दिया, इसलिये तुम्हें भी अपना जीवन अपने भाइयों के लिये दे देना चाहिए। (1 यूहन्ना 3ः 16)

यह बात सच है कि यदि हम उसके साथ मर गये हैं तो उसके साथ जीएंगे भी। यदि हम धीरज से सहते रहेंगे तो उसके साथ राज्य भी करेंगे। यदि हम उसका इन्कार करेंगे तो वह भी हमारा इन्कार करेगा। यदि हम अविश्वासी भी हों तो भी वह विश्वास योग्य बना रहता है। क्योंकि वह आप अपना इंकार नहीं कर सकता। (2 तिमुथियुस 2ः 11-13)


Comments

Popular posts from this blog

पाप का दासत्व

श्राप को तोड़ना / Breaking Curses

भाग 6 सुसमाचार प्रचार कैसे करें?