प्रार्थनाएं क्यों उत्तरहीन रह जाती हैं ?
प्रार्थनाएं क्यों उत्तरहीन रह जाती हैं ?
प्रार्थना से सम्बंघित हमेशा एक प्रश्न है कि मेरी प्रार्थना उत्तरहीन क्यों हो गई ? कई बार इसका अर्थ है जैसा आप चाहते थे, उसके अनुरूप उत्तर आपको नहीं मिला या आप कहें कि मैं जानता था परमेश्वर यह कर सकता था परन्तु उसने क्यों नहीं किया ?
हमारे पास इसके सभी उत्तर नही हैं कि प्रार्थनाए उत्तरहीन क्यों हो जाती हैं। परन्तु परमेश्वर के वचन पर आधारित कुछ उत्तर हमारे पास हैं। इस अध्याय में हम दस कारणों को केन्द्रित करने जा रहे हैं। कभी-कभी एक नकारात्मक बात का परिणाम सकारात्मक हो जाता है। यही तरीका यहां उपयोग किया गया है।
परमेश्वर से सहभागिता नहीं रखना:
परमेश्वर से सहभागिता 1 कुरिन्थियों 1ः 9 के अनुसार एक बुलाहट है। सहभागिता का अर्थ है - बुलाहट, संगति, मित्रता, वार्तालाप, उसके साथ साधारणतः समय बिताना। बुलाहट का अर्थ है - आव्हान करना, प्रार्थना करना, निमंत्रण देना। यीशु का पहाड़ पर जा कर पूरी रात प्रार्थना करना एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। विशेषतः जब बड़े फैसले किये जाने हैं। (लूका 6ः 12-13)
परमेश्वर से प्रभु यीशु के नाम से प्रार्थना नहीं करना:
प्रभु यीशु ने अपने चेलो को सिखाया कि किस प्रकार प्रार्थना करना चाहिये। यह विश्वास किया जाता है कि प्रभु यीषु ने जिस तरीके से, जो भी करने को कहा, वही तरीका आज के दिन भी वैसा ही है। प्रार्थना यीशु के नाम से पिता को सम्बोधित होना चाहिए। यह साधारण सत्य है कि सब इसका पालन नहीं करते। केवल कुछ ही इसका पालन करते हैं। (यूहन्ना 6ः 23)
नहीं मांगना या गलत उद्देश्य से मांगना:
कुछ व्यक्ति विश्वास करते हैं कि परमेश्वर बहुत व्यस्त है और उनकी छोटी सी प्रार्थना नहीं सुन सकता, परन्तु वह कहता है कि जो कुछ तुम मांगो वह सुनता है। परमेश्वर आपको आपकी आवश्यकताओं की सूची से ज्यादा देना चाहता है। यर्थात में वह आपके साथ भोजन करना चाहता है। इन सत्यों को याकूब 4ः 2-3 एवं प्रकाशित वाक्य 3ः 20 में दिखाया गया है।
परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं मांगनाः
परमेश्वर की इच्छा को उसके वचन पढ़ने एवं सुनने तथा उसके साथ समय बिताने पर सीखा जाता है। परमेश्वर के वचन में उद्धार एक सम्पूर्ण उदाहरण है। बाइबल में वर्णित परमेश्वर के लोग जब प्रार्थना करते थे वे परमेश्वर की इच्छा को जानते थे। निर्ममन 32ः 11ः 14 में मूसा का अच्छा उदाहरण है। (पढ़ें 1 यूहन्ना 5ः 14-15)
परमेश्वर का वचन आप में नहीं रहता:
प्रभु यीशु ने यूहन्ना 15ः 7 में कहा ‘‘यदि तुम मुझ में बने रहो और मेरी बातें तुम में बनी रही, तो जो चाहो मांगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा।
शंका और अविश्वास:
याकूब 1ः 5-8 आपको बतलाता है कि परमेश्वर से बिना शंका विश्वास से प्रार्थना मे मांगे तो आपकी प्रार्थना पूरी की जाएगी। यीशु ने अपने चेलों को बतलाया कि विश्वास से जो भी प्रार्थना में मांगो वह तुम्हें मिल जाएगा। एल्लिय्याह भविष्यवक्ता जो हमारे समान स्वभाव का था, उस ने प्रार्थना से महान विजय प्राप्त की। (1 राजाओं का वृतांत 18) परन्तु जब शंका आई तो इज़ेबेल स्त्री से डर कर भाग गया। (1 राजाओं का वृतांत 19)
हतोत्साहित होना या छोड़ देना:
कई प्रार्थनाएं उत्तरहीन हो जाती हैं क्योंकि लोग हताश होकर प्रार्थना करना छोड़ देते हैं। इसे लूका 18ः 1 में अच्छी तरह समझाया गया है। प्रभु यीशु मसीह कहते हैं कि हमें निरंतर प्रार्थना करना चाहिये तथा डरपोक, बेसुध या हताश होकर छोड़ना नहीं चाहिये। निरंतर मांगने पर विधवा को जवाब मिल गया था।
असहमत रहना:
प्रभु यीशु ने सहमती के बारे में मत्ती 18ः 19 में कहा-
फिर मैं तुमसे कहता हूँ यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिये जिसे वे मांगे, एक मन के हों, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। (मत्ती 18ः 19)
पृथ्वी पर सबसे मजबूत सहमती विवाह है। झगड़ा एवं कलह एकता के विपरीत है। ये प्रार्थना को रोकेंगे। (मत्ती 12ः 25; 1 पतरस 3ः 7)
क्षमा नहीं करना:
प्रभु यीशु का सबसे दृढ़ कथन प्रभु की प्रार्थना में मिलता है। मत्ती 6ः 14-15 में प्रभु यीशु कहते हैं कि यदि तुम मनुष्यों के अपराघ क्षमा नहीं करोगे तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा नहीं करेगा। क्या मत्ती 18ः 21-22 में प्रभु यीशु का मतलब 490 बार था ? जब निरंतर क्षमा दी जाय तो स्लेट साफ हो जाती है और पुनः एक से गिनती शुरू होती है। जब क्षमा मांगी जाती है तो परमेश्वर हमारे पापों को स्मरण नहीं करता। (यशायाह 43ः 25)
दशवांश और भेंट नहीं देना:
दशवांश पुराने नियम में प्रचलित था परन्तु नये नियम में विश्वासी दशवांश से सीमित नहीं थे, वरण सब कुछ देने के इच्छुक रहते थे। (प्रेरितों के काम 2ः 44-47; 4ः 32-37) प्रभु यीशु ने देने और आषीश के बारे में बहुत कुछ कहा। अक्सर हम पूछते हैं कि क्या हम भरपूरी से दान देते हैं ? परन्तु सही प्रश्न तो यह है कि क्या हम भरपूरी से आशीष चाहते हैं ? जितना ज्यादा या कम हम देंगे उतना ही ज्यादा या कम हमे मिलेगा।
उत्तरहीन प्रार्थना के कुछ अन्य कारण नीचे दिये गये हैं। यदि वे लागू होते हैं तो आप अधिक अध्ययन करना चाहेंगे।
1. अनाज्ञाकारिता:
(व्यवस्था विवरण 1ः 42-45; यशायाह 1ः 19ः20; इब्रानियों 4ः 6)
2. पक्षपात एवं घृणा:
(नीति वचन 26ः 24-28; 1 यूहन्ना 2ः 9-12; 3ः15-22)
3. छिपा पाप जिसके लिए अभी तक पश्चाताप नहीं किया:
(भजन संहिता 19ः 12-13; 66ः 18; यषायाह 59ः 1-2)
4. अपने शरीर (परमेश्वर के मंदिर) की देख भाल ठीक से नहीं करना:
(नीति वचन 23ः 1-8; लूका 21ः 34; 1 कुरिन्थियों 3ः 16)
5. परमेश्वर के अभिशिक्तों को हानि पहुंचाना:
(1 शमूएल 26ः 5-11; भजन सहिता 105ः 15)
6. भय:
(भजन सहिता 56ः 4,11; नीतिवचन 29ः 25; 1 यूहन्ना 4ः 18)
7. प्रभु भोज के पहले स्वपरीक्षण नहीं करना:
(1 कुरून्थी 11ः 18-31)
8. उपेक्षा:
(नीति वचन 1ः 24-28)
9. दया की उपेक्षा:
(नीति वचन 21-13)
10. एक दूसरे का आदर नहीं करना:
(व्यवस्था विवरण 5ः 16; 1 पतरस 3ः 7)
11. मूर्ती, किसी भी वस्तु या इन्सान को परमेश्वर से ज्यादा महत्व देना:
(व्यवस्था-विवरण 7ः 25-26; यहोषू 7; यहेजकेल 14ः 3)
12. भाईयो की निन्दा करना:
(गलतियों 5ः 26; याकूब 4ः 11; 5ः 9)
13. परमेश्वर के वचन से घृणा:
(नीति वचन 28ः 9)
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