पाप का दासत्व

पाप का दासत्व 

सर्व व्यापक - स्वभाव

मानव की सबसे भंयकर समस्या उसका पाप बन्धन है। मनुष्य देह में जन्में किसी भी प्राणी को इस दुष्ट पातक स्वभाव ने डंसने से नही छोड़ा। सन्त, साधु, सन्यासी, पंडित, नबी, पादरी या मौलवी, रहस्यवादी या फकीर! महाराजा या दास; धनपति या कंग्प्रल - सबके सब पापी की आक्रामक शक्ति के शिकार हुये है।

प्रभु यीशु के शिष्य अपनी दैनिक प्रार्थना में परमपिता से यह विनय किया करते है, जैसे हमने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही आप भी हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए। इसी प्रकार वैष्णव ब्राम्हमण अपने गायत्री मन्त्रोच्चार के बाद प्रायः यह निम्न प्रार्थना अर्पित करते हैः 

पापोहं पापकर्माहें पापात्मा पापसंभवः।

त्राहिमाम् पुण्डरिकाक्षम् सर्व पाप हर हरे।।

मैं तो एक पापी, पापकर्मी, परिपिष्ट तथा पाप में उत्पन्न हूँ। हे कमलनयन परमेश्वर, मुझे बचालो और सारे पापों से दूर करो। 

पवित्र ग्रन्थ बाइबल ने कभी भी अथवा कहीं भी किसी कुलपति का चाहे वह आदम, इब्राहिम, मूसा, दाऊद, सुलेमान या प्रेरित पतरस व पौलुस हो पाप नहीं छिपाया है। हिन्दू धर्मग्रन्थों ने भी अपने देवताओं, ऋषियों अथवा मुनियों के पापों को गिनवाने में भूल नहीं की है। इस्लाम के एक आधुनिक शायर ने भी तो ऐसा ही भाव व्यक्त किया है।

ज़िन्दगी क्या है, गुनाहे आदम,

ज़िन्दगी है तो गुनहगार हूँ मैं।

अपने समस के विख्यात सर्वोदयी नेता बाबू जय प्रकाश नारायण जी ने कहा था कि, ‘‘मनुष्य के भीतर तो एक हैवान बसा हुआ है, यदि इसका दमन नहीं हुआ तो जगत का विनाश निश्चित है!’’

इस पाप के छोटे - बड़े बहुतेरे नाम हैं। धर्मग्रन्थों ने इसको भिन्न-भिन्न स्वरूपों में दर्शाया है, जैसे - पाप, पातक, एनस अध, दुरित, दुष्कृत, किल्विष, मल, अमृत, तमस्, अपराध, बन्धन, माया, प्रकृति, अज्ञान, अविद्या, खता, कसूर, गुनाह, तकसीर, पाश अथवा अंगे्रजी भाषा में sin, evil, trespass, iniquity,अथवा transgression इत्यादि।

वेदों में इस पाप को पाश भी कहा गया है। पाप एक ऐसा बन्ध है, जो पशु को अर्थात पाप दासत्व में पड़े प्राणी को, अपने स्वामी पशुपति के मिलन से रोकता है। इसमें बंधा हुआ पापी ऐसे बछड़े के सदृश है जो शक्तिशाली रस्सियों में बंधा हुआ हो, ऋग्वेद 2ः28ः5-61 पाप परमेश्वर एंव समाज के प्रति अपराध है, ऋग्वेद 8ः13, ऋग्वेद 7ः86ः3 यह परमेश्वर की व्यवस्थाओं एंव उसके धर्म का उल्लंघनकारी स्वभाव है, ऋग्वेद 7ः89ः5 जिसमें भ्राता, मित्र, पड़ौसी या परदेशी का अहित होता रहा हो, ऋग्वेद 5ः85ः7-8। 

पवित्र ग्रन्थ बाइबल के अनुसार पाप परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लघंन है, यूहन्ना 3ः4 तथा सृजनहार के विरूद्ध मानव विद्रोह और अवज्ञा है, व्यवस्था विवरण 9ः7 यहोशू 1ः181 पाप, अपने उद्देश्य से भटकने और सभी प्रकार के अधर्म का नाम है, निर्गमन 10ः16ः1 यूहन्ना 5ः17। 

जिस पाप - बन्धन की चर्चा यहां हो रही है, वह मनुष्य की खोई भेड़, खोया हुआ सिक्का या खोया हुआ पुत्र के दृष्टान्तों में स्पष्ट किया है (लूका 15 अध्याय) और साथ ही देखिए छंदोग्य उपनिषद् 6ः14ः1-2

पाप की यह गहन ता सर्वव्यापी है, क्योंकि सबने पाप किया और परमेश्वर की कृपा से रहित हो गये हैं (रोमियों 3ः23), तथा कोई भी प्राणी उसकी दृष्टि में दोष में दोष नही ठहर सकता (भजन संहिता 143ः2)

श्रीमद् भगवत गीता भी प्रमाणित करती है कि न तो पृथ्वी पर कोई न स्वर्ग में देवताओं में , और न प्रकृति से उत्पन्न किसी वस्तु में कोई इस त्रिगुणी स्वभाव के बन्धन से मुक्त हैः 

न तदस्ति पृथिव्यां वा विवि देवेषु वा पुनः

स्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।। (118ः4)

और यही त्रिगुणी स्वाभाव (ध्यान में रहे कि सत्व अर्थात सुकृत का गुण भी इसमें शामिल है!) इस जीवात्मा को दासत्व में बांधे है, गीता 14ः81 गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितनी स्पष्टता से इसकी व्याख्या की है कि: 

काम क्रोध मद लोभ की, जब लग में खान।

तब लग पंडित मूरखी, तुलसी एक समान।। 

अर्थात जब तक मनुष्य के मन में काम, क्रोध, घंमड और लोभ जैसे पाप स्वभाव की खान मौजूद है, क्या विद्वान और क्या मूर्ख, दोनो एक ही समान है। एक और स्थान पर गोस्वामी जी ने कहा है: 

तुलसी या जग आयके, कौन भयो समरथ।

कंचन वो कुचन पे, किन न पसारो हाथ।।

जिसका तात्पर्य है कि संसार में जिसने भी जन्म पाया, उनमें से कौन अपने आपको धन सम्पदा तथा नारी देह के लोभ से बचाने में समर्थ हुआ?

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