परमेश्वर की आवाज सुनने हेतु मार्गदर्शन
परमेश्वर की आवाज सुनने हेतु मार्गदर्शन
शत्रु की आवाज को बांधे
जब भी आप प्रार्थना करें तो शत्रु बाघा डालेगा। इस कारण प्रार्थना शुरू करने के पूर्व शैतान की आवाज को यीषु मसीह के नाम से बांघे ताकि परमेष्वर की आवाज को आप स्पष्ट सुन सकें। तब पवित्र आत्मा पर पूर्ण विष्वास करें कि वह आपका मार्गदर्शन करे। (मत्ती 16ः 19; याकूब 4ः 7; यूहन्ना 14ः 26; 15ः26-27; 16ः13,15; 1 पतरस 5ः 8-9)
अपने सम्पूर्ण विचार एवं अपनी इच्छा और
तर्क को पवित्र आत्मा के अधीन करें
कई बार आपकी इच्छा एवं विचार, परमेश्वर की आवाज सुनने एवं उसके वार्तालाप में बाघक बन जाते हैं। अपनी समझ से सीखने के बदले परमेश्वर पर पूर्ण विष्वास एवं ह्नदय से भरोसा रखें। (भजन संहिता 119ः 104,125; नीति वचन 3ः5; 16ः3; 1 कुरिन्थियों. 2ः14,16; याकूब 4ः 7-8)
अपनी समस्याओं को दूर करें
अपनी समस्याओं से दूर हटाना अक्सर आसान नहीं है, परन्तु यदि सचमुच वार्तालाप करना है तो यह आवश्यक है। अपनी समस्या पर केन्द्रित रहने से, अनिश्चयता की बाधा के कारण परमेश्वर की बात का अर्थ गड़बड़ा जाता है। (भजन संहिता 37ः 5; 42ः 5; 43ः 5; नीति वचन 3ः 5; 14ः 30; यशायाह 26ः 3; फिलिप्पियों 2ः 4; 4ः 6-7; 1 पतरस 5ः 7)
परमेश्वर के वचन पर अपना अविभाजित ध्यान देवें
अपने मस्तिष्क को परमेश्वर के वचन पर केन्द्रित करें। सुनना निष्क्रिय है जबकि ध्यान से सुनना क्रियाशील है। इस हेतु मस्तिष्क के प्रयास एवं ध्यान की आवश्कयता होगी। परमेश्वर के वचनों के अघिक प्रकाशन के कारण शैतान इस पर आपसे युद्ध करेगा क्योंकि आप अंधकार के साम्राज्य हेतु डर का कारण बनेंगे। (भजन संहिता 37ः 7; नीति वचन 4ः 4,20,23; 1 कुरिन्थियों 2ः 10-12; 2 कुरिन्थियों 10ः 5)
अपना बोलना सीमित करें
परमेश्वर से अपना निवेदन एवं विनती करने के बाद शान्त होकर उसके लिये ठहरे रहें। एक प्रिय मित्र से जैसे बातचीत करते हैं वैसे ही करें। (गिनती 9ः 8; भजन संहिता 18ः 28; 27ः 14; 31ः 24; 37ः 5 श्रेष्ट गीत 2ः 14)
लिख कर रखिए
अपने भीतर के विचार एवं योजनाओं को सुने। परमेश्वर की आत्मा आपके मस्तिष्क के चित्रपट पर चित्र अंकित कर, बातें करेगा। जब यह हो तो उसे लिख डालें क्योंकि समय के अनुसार भूलने की संभावना है तथा परमेश्वर भविष्य में कुछ और जोड़ सकता है। जब आप निरंतर प्रार्थना करेंगे और अपने प्रश्नों के उत्तर का परिणाम देखेंगे तो आप पाएंगे कि सम्पूर्ण तस्वीर आपके लिये विषेश अर्थ रखती है और आपने पूर्व में जो लिखा है वह एक स्पष्ट आकार ले लेता है। (निर्गमन 17ः 14; भजन संहिता 16ः 7; 36ः 8-9 हल; 36ः 8बी, 9; 37ः 5; 77ः 6; नीति 9ः10; 16ः 3,9; 1 कुरिन्थियों 2ः 9-16बी.)
मस्तिष्क में तर्क वितर्क न करें
कभी-कभी जब परमेश्वर की आत्मा बोलती है हम अपनी आदत के अनुसार स्वयं में तर्क वितर्क करने लगते हैं। यही तो मैं सोच रहा था, यही तो मेरी कल्पना है परन्तु यदि आप अपने पूर्व के लिखित नोट्स को पढ़ें तो देखेंगे कि परमेश्वर पूर्व में दिये दर्नशन में कुछ और जोड़ रहा है जो आपके लिए महत्वपूर्ण है। (यशायाह 46ः 10,11 बी.;1 कुरिन्थियों 2ः 16; 2 कुरिन्थियों 13ः1 बी.; फिलिप्पियों 2ः5; यूहन्ना 16ः13)
भाषान्तर के लिए परमेश्वर का इन्तजार करें
दर्शन पाने पर उसका भाषान्तर स्वयं न करेें। परमेश्वर के ज्ञान एवं समय का इन्तजार करें। (भजन संहिता 27ः 14; 36ः 6; नीतिवचन 2ः 6; दानिय्येल 2ः 22-23,28-30; यूहन्ना 10ः 4; इफिसियों 1ः 17; कुलुस्सियों 1ः 9)
पवित्र आत्मा के न आगे बढ़ें और न पीछे छूटें
कई बार जब परमेश्वर हमें कुछ दिखाता या बतलाता है तो हम उत्तेजित होकर सब को बताने दौड़ते हैं जबकि परमेश्वर की आत्मा ने हमारे साथ अभी पूर्ण नहीं किया है। उसे अपने विचार जो आपको दे रहा है विकसित करने तक ठहरिये, जब तक आप जान न लें कि वह पूर्ण कर चुका है। किसी बात को घटित न होने दें। (नीति वचन 16ः 9) बतलाता है ‘‘मनुष्य मन में अपने मार्ग पर विचार करता है, परन्तु परमेश्वर उसके पैरो को स्थिर करता हैै।’’ (2 कुरिन्थियों 4ः 6; 2 पतरस 3ः 9 अ; यर्मियाह 10ः 23; 1 कुरिन्थियों 4ः 5 अ)
भरोसेमन्द बनिए
परमेश्वर आपसे वैसी ही सहभागिता करता है जैसी आप अपने मित्र से सहभागिता करते हैं। वह आपसे वही अपेक्षा करता जैसी अपेक्षा आप अपने मित्र को अपनी व्यक्तिगत गोपनीय बातों हेतु रखते हैं। जितना ज़्यादा वह आप पर विश्वास करेगा उतना ही अअधिक गम्भीर एवं आंतरिक बातें आपको सौंपेगा। (यशायाह 45ः 3; भजन संहिता 25ः 14; उत्पत्ति 18ः 17-19; गिनती 12ः 7-8)
पवित्र आत्मा संगीत के माध्यम से बोलता है
कई बार आप सबेरे अपने मन में एक गाने के साथ जागते हैं। जब आप अपने हृदय में उठे गीत को गाते हैं तो उसके शब्दो को ध्यान से सुने। दिन में किसी भी समय वही शब्द आपका मार्गदर्शन एवं आपका विश्वास बढ़ाने की चाबी बन सकते हैं और आपको विजय दिला सकते हैं। (निर्गमन 15ः 1; 2 इतिहास 20ः 21-22; भजन संहिता 32ः 7 बी; 40ः 3; 42ः 8; 77ः 6; 138ः 5; कुलुस्सियों 3ः 16; इफिसियों 5ः 19)
अपने स्वप्नों पर ध्यान दें
परमेश्वर अक्सर स्वप्नों और दर्शन (शाब्दिक चित्र) द्वारा बातें करता है। आप देखेंगे कि कुछ समय बाद यही आकार बना लेते हैं। कुछ तस्वीरें या परिस्थितियां आपको यथार्थ लगेंगी और आप अपने स्वप्न को समझ सकेंगे। सभी स्वप्न परमेश्वर की ओर से नहीं आते। कुछ ही स्वप्न हैं जो उस की इच्छा से आप पर गहरा असर डालते हैं, वही परमेश्वर की ओर से होते हैं। जागने के बाद काफी समय तक यह आपको याद आएंगे। इसे याद से लिख लें। यदि आप स्वप्न को समझ नहीं पाए तो भी लिख लें कि आपके विचार से उसका क्या अर्थ है। (दानिय्येल 2ः 19,23; 4ः 18; 7ः 1-2,7,13; 9ः 21-22; 10ः 14,21; अय्यूब 33ः 14-16; मत्ती 1ः 20; 2ः 13)
चुप रहने से न घबराएं
कई बार परमेश्वर चुप रहता है यदि आप प्रार्थना में कुछ न सुनें तो परेशान न होवें। कई बार पवित्र आत्मा केवल परमेश्वर की आराघना करना चाहता है। जब आपका ह्नदय परमेश्वर के आगे स्वच्छ है तब वहां कोई गलती नहीं है। प्रभु यीशु की इच्छा होती है कि आप उसकी उपस्थिति में आकर आनन्दित हों क्योंकि आप उन्हें प्यार करते हैं और उसके साथ रहना चाहते है। शान्त रहें और जाने कि वह परमेश्वर है। (भजन संहिता 23ः 2; 45ः 11; 96ः 9; यशायाह 12ः 2-3; 30ः 15; 50ः 10; श्रेष्ठगीत 1ः 4)
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