घरेलू कलीसिया और आराधनालय
प्रभु यीशु और उनके शिष्यों ने आराधनालय को कोई महत्व नहीं दिया, न ही कहीं उनका उद्घाटन किया बल्कि यीशु मसीह ने यरूशलेम के भव्य मंदिर के ढा दिये जाने की घोषणा अवश्य की (मत्ती 24ः 1-2)। जब उनका पहाड़ी पर दिव्य रूपान्तर हुआ जहां मूसा और एलिय्याह आए हुए थे तब पतरस को बहुत बढ़िया विचार आया कि यहां तीन भवन बनाए जाएं परन्तु प्रभु ने उसे ठुकरा दिया (मरकुस 9ः 1-8)। स्तिफनुस ने भी शहीद होते-होते यह शिक्षा दी कि परमेश्वर मनुष्य के हाथों द्वारा बनाए गए भवनों में नहीं रहता। स्वर्ग उसका सिहांसन और पृथ्वी उसके पाँवों तले की चैकी है। तुम उसके लिए कौन सा भवन बनाओगे। (प्रेरितों के काम 7ः 48-49)
कटु सत्य यह है कि एक भव्य आराधनालय निर्माण करने से परमेश्वर की महिमा कम होती है और बनाने वाले की तारीफ़ ज़्यादा होती है। एक अन्य जाति के भाई ने टिप्पणी की कि कोई मंदिर अपनी मेहनत की कमाई से नहीं बनाता परन्तु नम्बर दो के पैसे से। सत्य तो यह है कि कलीसिया प्रभु का घराना है इसलिए इसे एक विशेष आराधना भवन की आवश्यकता ही नहीं है। (इफिसियों 2ः 19-22)
माता कलीसिया का प्राथमिक उद्देश्य शिष्य तैयार करना था (Equipping) (यूहन्ना 15ः 8; इफिसियों 4ः 11-12) न कि मात्र आराधना करना इसलिए आराधनालय की कोई ज़रूरत नहीं थी। इसलिए पहिली सदी की कलीसिया में विस्फोटक रूप से बढ़ोतरी हुई। पेन्तीकुस्त के तुरन्त बाद एक दम तीन हज़ार ने शुद्धिकरण का स्नान लिया (प्रेरितों के काम 2ः 41) जिसमें अनेक देशों के लोग यरूशलेम आए हुए थे (प्रेरितों के काम 2ः 5-11)। कुछ ही दिन के पश्चात् पाँच हज़ार अतिरिक्त विश्वासी पुरूष सम्मिलित हो गए (प्रेरितों के काम 4ः 4)। इस के बाद भीड़ की भीड़ प्रभु में आने लगी (प्रेरितों के काम 4ः 32)। यहां तक कि पूरा यरूशलेम शिष्यों की शिक्षाओं से भर गया (प्रेरितों के काम 5ः 28)। थोड़़े ही समय में हज़ारों लोग प्रभु के पास आ गए और सदी के अंत तक तो लाखों लोग प्रभु में आ चुके थे।
क्या आपने कभी सोचा कि इन सभों को कहां सम्मिलित किया गया? ताज्जुब की बात यह है कि इन्होंने कोई छोटे या बड़े भवन बनाने की नहीं सोची। सब विश्वासी घर-घर में ही प्रेरिताई शिक्षा, प्रार्थना, भजन भक्ति करते थे, आनन्द से रोटी तोड़ते थे और उन्हें किसी प्रकार की घटी नहीं थी (प्रेरितों के काम 2ः 42-46)। शिष्य कुछ समय तक मंदिर में प्रार्थना के समय, प्रार्थना के लिए नहीं, परन्तु लोगों से सम्पर्क करने जाते रहे मगर शीघ्र ही उन्हें मंदिर परिसर से निष्कासित कर दिया गया और कलीसिया की सारी बढ़ोतरी का काम छोटे-छोटे झुंडों में विश्वासियों के घरों में होने लगा।
आपने देखा होगा कि जिस दिन से भवन बनाने की योजना बनती है उस समय से आपसी प्रेम और सहभागिता ख़त्म हो जाती है। आपस में मतभेद और एक दूसरे के विरूद्ध झगड़े खड़े हो जाते हैं और हर प्रकार की आर्थिक और आत्मिक घटी हो जाती है।
जैसे ही यरूशलेम की माता कलीसिया की बढ़ोतरी का काम शिथिल होने लगा तो वहां उपद्रव हो गया जिससे वहां के विश्वासी तितर-बितर हो गए (प्रेरितों के काम 8ः 1)। इस उपद्रव में शाऊल (पौलुस) का योगदान सबसे ज़्यादा था। कलीसिया को सताने के लिए वह मंदिर में नहीं गया वरन उसको मालूम था कि वे किन-किन घरों में इकट्ठे होते थे। उसने उन्हें घर-घर से निकाल कर प्रताड़ित किया (प्रेरितों के काम 8ः 3)। ये विश्वासी तितर-बितर होकर दूसरे स्थानों में चले गए। वहां उन्होंने अपने घावों की मरहम पट्टी नहीं की वरन उन्होंने नई-नई कलीसियाएं स्थापित की परन्तु भवन का निर्माण कहीं नहीं किया। (प्रेरितों के काम 8ः 4)
आप सोचें कि शायद वे गरीब थे इसलिए भवन नहीं बना सके। परन्तु कुर्नेलियस जैसे प्रभावशाली व्यक्ति, लुदिया जैसे धनाड्यों को बैंजनी वस्त्र की व्यापारी और इथियोपिया देश के खजांची इत्यादि सम्पन्न लोग थे जो आसानी से भव्य भवन बना सकते थे। सताव का भी उतना महत्व नहीं था। क्योंकि हर समय और हर जगह सताव नहीं था। घरेलू कलीसिया का लक्ष्य परिवारिक प्रेम का वातावरण रखना है जो बड़े भवनों में असम्भव है (प्रेरितों के काम 8ः 4)
परमेश्वर की योजना के तहत अब भवन का समय पूरी तरह से ख़त्म हो गया था। मंदिर का परदा फट चुका था और प्रभु की भविष्यवाणी के अनुसार चालीस साल के बाद रोमी राजा टाईटस ने मंदिर को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया और वहां पत्थर पर पत्थर न रहा। यहां तक की अति पवित्र स्थान जहां महायाजक बलिदान चढ़ाता था, वे भी नाश हो गये। इसका प्रमुख कारण था कि प्रभु यीशु स्वयम् बलिदान हो चुके थे और वेदी का कोई औचित्य नहीं रह गया था। सब से प्रमुख बात यह थी कि पत्थर के भवन का कोई महत्व नहीं रहा क्योंकि मनुष्य का हृदय अब परमेश्वर का मंदिर बन गया (1 कुरिन्थियों 6ः 19; यर्मियाह 24ः 7)। स्वर्गीय नए यरूशलेम में भी मंदिर का कोई प्रावधान नहीं है (प्रकाशित वाक्य 21ः 22)। क्योंकि परम प्रधान और मेम्ना स्वयं उपस्थित हैं। प्रभु ने भी आश्वासन दिया है कि जहां दो या तीन मेरे नाम से इकट्ठे होते हैं वहां मैं उपस्थित होता हूं। जहां मेम्ना उपस्थित है वहां भवन और वेदी की आवश्यकता नहीं होती। (मत्ती 18ः 19-20)
हमने इन सारी शिक्षाओं के विपरीत काम किया है। आज संसार में लाखों छोटे बड़े भवन प्रभु के नाम से बनाए जा चुके हैं। पास्टर और कलीसिया की यह तीव्र इच्छा होती है कि जैसे अन्य जातियों के पास अपने इष्ट देवी-देवताओं के लिए मंदिर इत्यादि होते हैं वैसे ही उनके पास भी एक भवन हो जाए, परन्तु यह विचार नए नियम की शिक्षा के विरूद्ध हैं। अन्य जातियों को प्रभु में लाने की प्रक्रिया आपके पुलपिट से उपदेश देने से कदापि नहीं हो सकती। इसके लिए उनके घर जाना आवश्यक है।
कलीसिया की बढ़ोत्तरी में भवन सबसे बड़ा अवरोधक बन गया है क्योंकि लोग बाहर जाकर शिष्य बनाने के विपरीत अंदर आकर बैठ जाते हैं।
बढ़ोत्तरी के लिए तो, घर-घर जाकर (प्रेरितों के काम 20ः 20) शिष्य बनाना पड़ेगा। हमें छोटी-छोटी घरेलू कलीसियाएं, हर बस्ती, झुग्गी झोपड़ी और गाँव में एकत्र करना है। गारा और पत्थर के भवन बनाने का समय अब पूरी तरह समाप्त हो गया है। अतः हमें यहां मकान बनाने कि ज़रूरत नहीं क्योंकि प्रभु के द्वारा अमूल्य रत्नों से बना हुआ हमारा मकान स्वर्ग में हैं। (यूहन्ना 14ः 2-3)
परमेश्वर स्वयम् अपने मंदिर को हमारे जैसे जीवित पत्थरों से बना रहा है (इफिसियों 2ः 19-22)। अभी यह मंदिर पूरी तरह से बन नहीं पाया है, क्योंकि अभी भी बहुत सी अन्य जातियों का आना शेष हैं (इफिसियों 3ः 6)। अभी हम अधूरे मंदिर में पुजारी (याजक) हैं और पुजारी का काम बलिदान चढ़ाना होता है (1 पतरस 2ः 5)। हमें याजक के रूप में अन्य जातियों का बलिदान चढ़ाने अर्थात आत्माएं जीतने के लिए नियुक्त किया गया है (रोमियो 15ः 16)। अभी अनुग्रह का समय है जो शीघ्र समाप्त हो जाएगा। इसलिए सब कुछ छोड़कर (मत्ती 13ः 44-46) महान आदेश की पूर्ति में लग जाइए (मत्ती 28ः 18-20), ताकि कलीसिया रूपी मंदिर में नये जीवित पत्थर जोड़े जा सकें। (1 पतरस 2ः 5; इफिसियों 2ः 19-21)
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