घरेलू कलीसिया और पास्टर
घरेलू कलीसिया और पास्टर
पास्टर शब्द का मतलब है-रखवाला (इफिसियों 4ः 11)। प्रभु के अनुसार दो प्रकार के रखवाले होते हैं। एक पेशेवर होता है और खतरा देखते ही भेड़ों को भेड़ियों द्वारा नष्ट होने के लिए छोड़ कर भाग जाता है। दूसरा समर्पित होता है जो भेड़ों के लिए अपनी जान देने को तैयार रहता है (यूहन्ना 10ः 11-15)। प्रभु यीशु ने कहा कि मैं अपनी कलीसिया बनाऊंगा परन्तु यह नहीं कहा कि इस कलीसिया का अगुवा एक वैतनिक पास्टर होगा।
पहिली तीन सदियों तक कोई वैतनिक पास्टर कलीसिया का अगुवा नियुक्त नहीं किया जाता था। उस समय तक कलीसिया का विस्तार विस्फोटक रूप से होता रहा। हमारी पहिली सदी की माता कलीसिया में उपवास और प्रार्थना सहित प्राचीन नियुक्त(Ordination) किए जाते थे। (प्रेरितों के काम 14ः 23)
इसके विपरीत आज बिना नया जन्म पाये हुए लोग अनुचित रूप से खानपान और तामझाम के साथ दीक्षित (Ordination) किये जाते हैं। अधिकांश प्राचीन स्वयम् सेवक होते थे और अपनी योग्यता के अनुसार अपना समय और दान देते थे। वैसे भी इन छोटी-छोटी कलीसियाओं के खर्च बहुत कम थे क्योंकि इनके वैतनिक अगुवे नहीं थे और वे भवनों के बदले घरों में मिलते थे। जो कुछ दान एकत्र किया जाता था वह कलीसिया रोपकों या गरीबों के लिए दे दिया जाता था। (1 कुरिन्थियों 16ः 1-3; रोमियों 15ः 26-28)
पास्टर शब्द संज्ञा के रूप में पूरे नए नियम में केवल एक बार आया है वह भी चैथी श्रेणी में (इफिसियों 4ः 11)। बिशप चार बार, प्राचीन पाॅच बार, शिष्य उन्तीस बार और ‘भाई’ 346 बार और प्रेरित सात सौ बार।
यरूशलेम महासभा की शिष्यों और भाइयों ने अगुवाई की। वहां पर पास्टर और विशप का कोई रोल नहीं था। पतरस ने अपने आप को मात्र प्राचीन कहा (प्रेरितों के काम 15ः 13; 1 पतरस 5ः 1)। परन्तु पास्टर एक मंडली के अगुवे के रूप में कहीं भी नहीं दर्शाया गया है। और न उसे किसी प्रेरित ने कोई पत्री लिखी और नमस्कार भी नहीं भेजा।
नए नियम की अनेक पत्रियां प्राचीनों, डीकनों तथा महिलाओं (2 यूहन्ना: 1) को लिखी गईं परन्तु किसी पास्टर को कभी नहीं लिखी गईं क्योंकि पास्टर कलीसिया का अगुवा नहीं होता था। यह हमारा आधुनिक अविष्कार है। कलीसिया की अगुवाई, प्रेरित, भविष्यवक्ता, प्रचारक, पास्टर और शिक्षक परस्पर मिलकर किया करते थे (इफिसियों 4ः 11-12)। कलीसिया में कोई चुपचाप निष्क्रिय नहीं बैठता था। हर एक जन भजन या शिक्षा या अन्य भाषा या प्रकाशन इत्यादि में भाग लेता था। (1 कुरिन्थियों 14ः 26)
पास्टर अकेला नहीं परन्तु सम्पूर्ण कलीसिया चुने हुए राजपदधारी याजकों का समाज है अर्थात हर एक सदस्य का लक्ष्य, चाहे स्त्री हो या पुरूष, रखवाले बन कर एक या अनेक छोटे-छोटे झुण्डों को तैयार करना।
इस पद्धति से जल्दी-जल्दी नए अगुवे तैयार होते हैं जो जाकर नई-नई कलीसियाएं अपने अड़ोस-पड़ोस में स्थापित करते हैं जिससे कलीसिया की निरन्तर वृद्धि होती है।
पास्टर के तीन प्रमुख काम होते हैं ?
1. पास्टर का पहिला काम उन भेड़ों को खोजकर लाना है जो अभी प्रभु की भेेड़शाला की नहीं हैं और विश्वासियों का एक झुंड तैयार करना है। (यूहन्ना 10ः 16; लूका 19ः 10)
2. पास्टर का दूसरा काम भेड़ों की रखवाली करना है (यूहन्ना 20ः 15-17)। उन्हें सदस्यों के सुख और दुःख में प्रतिदिन सहभागिता करना, सांत्वना देना और उनके सलाहकार व प्रार्थना साथी होना है। उन्हें सतर्क रखवाले की तरह भटकती हुई भेड़ों को तुरन्त वापस मार्ग पर लाने में व्यस्त रहना है (1 पतरस 5ः 2-4)। हर एक सदस्य को शिक्षा देकर मसीह में सिद्ध, सामर्थी और फलदायक बनाना अर्थात एक दूध पीते हुए विश्वासी को महान आदेशीय मसीही बनाना है।
3. पास्टर का तीसरा काम योग्य व्यक्तियों को रखवाले के रूप में तैयार करना है जिससे नए नए रखवाले निरन्तर तैयार हों जो नई-नई भेड़शालाओं को स्थापित करें। (2 तीमुथियुस 2ः 2)
यदि इन तीन कार्यों के लिए समय का अभाव है तथा किसी और बहाने से मात्र रविवारीय उपदेश को प्राथमिकता दी जा रही है तो यह पास्टर की उपाधि की अवहेलना करना है। थोड़ी सी सांसारिक सुविधाओं के लिये एक निष्क्रिय पुरानी कलीसिया का पास्टर बनकर स्वयम् निष्क्रिय हो जाना अपनी सच्ची बुलाहट की उपेक्षा करना है। ऐसे पहरेदार और रखवाले जिन्हें अन्य जातियों का बोझ नहीं होता उन्हें प्रभु ने अंधा, गूंगा कुत्ता, सुस्त, नींद से प्रेम करने वाला, लालची और बेसमझ इत्यादि नामों से श्रापित किया है। (यशायाह 56ः 6-11)
शादी लगाना पास्टर का नहीं बल्कि साधारण सदस्यों का काम था। काना की शादी एक घर में सम्पन्न हुई न कि आराधनालय (Synagogue) में। यहाँ प्रभु यीशु ने कोई नया धार्मिक विधि-विधान शुरू नहीं किया। इस उदाहरण से हमारे प्रधान पास्टर अर्थात यीशु मसीह ने दिखा दिया कि शादी सम्पन्न करना पास्टर का काम नहीं है। वैसे भी आज पास्टर सरकारी रजिस्ट्रार की हैसियत से शादी देता है, जिसके लिए उसे सरकार से लाइसेंस मिलता है। कई देशों में सरकारी कार्यालय में विवाह पंजीकृत करा लेने के बाद घर में आकर मसीही संगति और आशीष पायी जाती है।
मुर्दो को मुर्दा गड़ाने दो:
हनन्याह और सफीरा जब पतरस के पैर के पास झूठ बोल कर मर गए तो जवानों ने बिना पास्टर के उन्हें गड़ा दिया। इसी तरह जब स्तिफनुस पत्थरवाह करके मार डाला गया तो दुःखी विश्वासियों ने उसे गड़ा दिया (प्रेरितों के काम 8ः 2)। पहिली सदी के अधिकांश मसीही मार डाले गए, काट डाले गए और सिंहो द्वारा खा लिए गए। उन्हें पास्टर द्वारा गड़ाने का कोई वृत्तान्त नहीं है परन्तु इसमें दो मत नहीं कि वे सीधे स्वर्ग चले गए। प्रभु ने तो यहां तक कह दिया कि मुर्दों को मुर्दे गड़ाने दो। पास्टर के विधि-विधान से गड़ाने से कोई स्वर्ग नहीं जाता। गरीब लाज़रस जब मर गया तो उसकी लाश शायद बिना किसी विधि-विधान के निपटा दिया गया, परन्तु वह सीधे स्वर्ग चला गया। इसके विपरीत धनी मनुष्य की दफ़नाई सारे विधि-विधान, रोने-गाने और बैण्ड बाजे के साथ हुई, मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। वरदानी पास्टर का काम संसार में परमेश्वर के राज्य की घोषणा करना है न की मुर्दा गड़ाना। (लूका 9ः 60)
बपतिस्मा (डूब) के अलावा बाईबल में बिशप शब्द का भी अनुवाद राजनैतिक दबाव के कारण नहीं किया गया। यूनानी भाषा में बिशप का अर्थ मात्र प्रबंधक या निरीक्षण करने वाला ;व्अमतेममतद्ध होता है जिसका काम पहिली सदी की कलीसिया में विभिन्न स्थानों में जाकर गुप्त सभाओं का प्रबंध करना था। बाद में इसको अत्याधिक ऊंची पदवी एवं अधिकारी के रूप में मान्यता मिली जिसका धर्मशास्त्र में कोई संदर्भ नहीं है। रेव्हरेन्ड अर्थात प्रतिष्ठित या भययोग्य उपाधि केवल पवित्र परमेश्वर के लिए आरक्षित है (भजनसंहिता 111ः 9; व्सक ज्ञण्श्रण्टण्)। केवल ईश्वरों का ईश्वर तथा प्रभुओं का प्रभु ही अति महान, पराक्रमी और भययोग्य रेव्हरेन्ड है। अपने आपको रेव्हरेंड कहना सरासर ग़लत है क्योंकि यह परमेश्वर की बराबरी करना है। हमारा पवित्र परमेश्वर मात्र रेव्हरेन्ड रह गया परन्तु हमारे बिशप ‘राइट रेव्हरेन्ड’ हो गए और माॅडरेटर ‘मोस्ट रेव्हरेन्ड’ हो गए। सच्चाई तो यह है कि नये नियम में बिशप, डीकन, प्राचीन, सेवक इत्यादि में कोई अन्तर नहीं है और हर एक को बराबरी का दर्जा हासिल है। (प्रेरितों के काम 20ः 28)
कई लोग अपने आप को फादर या पादरी (पिता) कहते हैं। पादरी एक लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ पिता और मालिक होता है। सिवाय परमेश्वर के हमारा कोई आत्मिक पिता या मालिक नहीं है। अपने आप को फादर या पादरी कहलाना प्रभु यीशु की शिक्षा के विरूद्ध है। हमारे प्रभुजी ने अपने आप को नम्र और दीन किया और कहा तुम अगुवे न कहलाना..... परन्तु जो तुम में बड़ा है वह तुम्हारा सेवक होगा (मत्ती 23ः 4-12; लूका 16ः 15)। उन्होंने यह भी कहा कि यदि कोई प्रथम स्थान चाहे तो सबसे अन्तिम हो और सब का सेवक बने। मसीह में सेवक की उपाधि सबसे बड़ी है। हमारे कुछ अगुवे ठीक इसके विपरीत फरीसियों की तरह चलते हैं (मरकुस 9ः 35)
प्रभु यीशु ही हमारे आदर्श, प्रधान पास्टर (रखवाले) तथा बिशप हैं (1 पतरस 5ः 4)। वे नगरों और गाँवों में जाकर राज्य के सुसमाचार का प्रचार करते थे और सब प्रकार के रोगियों को चंगा करते थे और दुष्ट आत्माओं को निकालते थे (लूका 13ः 33)। उन्होंने कहा पकी फ़सल तो बहुत है पर मज़दूर थोड़े हैं इसलिए खेत के स्वामी से मज़दूर भेजने के लिये प्रार्थना करो। उन्होंने बारह शिष्यों को बुलाकर बीमारों को चंगा करने और दुष्ट आत्माओं को निकाल कर परमेश्वर का राज्य स्थापित करने केे लिये भेज दिया (मत्ती 9ः 35; 10ः 1)। यथार्थ में हमारे प्रधान पास्टर के समान सभी बिशपों, वरदानी पास्टरों और सारे अगुवों का भी यही काम है। जिस कलीसिया में प्रार्थना और वचन से सामथ्र्य के काम नहीं होते वह कलीसिया नपुंसक है। क्योंकि परमेश्वर का राज्य दफ्तर में बैठकर प्रशासन करने से या केवल पुलपिट पर की बातों से कभी सामथ्र्य के साथ संसार में नहीं आ सकता है। (1 कुरिन्थियों 4ः 20; 2 तीमुथियुस 3ः 5)
हर एक पास्टर का यह कत्र्तव्य है कि वह उन शिक्षाओं पर चले जो हम को हमारे प्रधान पास्टर से मिली हैं (मत्ती 15ः 3)। संत पौलुस कहते हैं कि जैसा मैं मसीह का अनुकरण करता हँू वैसा ही तुम भी मेरा अनुकरण करो और शिक्षाओं का पालन ठीक उसी प्रकार करो जिस प्रकार मैंने तुमको सौंपा है (1 कुरिन्थियों 11ः 1-2)। यदि स्वर्गदूत भी आकर तुम्हें दूसरा सुसमाचार सुनाए तो तुम श्रापित हो (गलातियों 1ः 8-9) और जो बातें तूने बहुत गवाहों के समक्ष मुझ से सुनीं हैं उन्हें ऐसे विश्वास योग्य अगुवों को सौंप दे जो दूसरों को भी सिखाने के योग्य हों। (2 तीमुथियुस 2ः 2)
प्रभु ने जब भीड़ को देखा तो तरस खाया क्योंकि वे उन भेड़ों के समान थे जिनका कोई पास्टर (रखवाला) नहीं। वे व्याकुल और भटके हुए थे। आज भी हिन्दू और मुसलमान व्याकुल होकर यहां वहां परमेश्वर को खोजते हुए भटकते हैं। कोई कष्ट सह कर तीर्थ जाता है, कोई दान दक्षिणा चढ़ाता है, कोई उपवास और अखंड पाठ करता है, कोई चादर चढ़़ाता है तो कोई बलिदान करता है। नाना प्रकार से वे परमेश्वर को खेाज रहे हैं। हमारे प्रधान पास्टर ने भीड़ पर तरस खाया और आदेश दिया कि खेत के मालिक से मज़दूर भेजने के लिए प्रार्थना करो। परन्तु अफ़सोस है कि हमने कुछ नहीं किया। उनके लिए प्रार्थना भी नहीं किया।
हमारे देश में ख़ास करके हिन्दी भाषी क्षेत्र में निन्यान्बे प्रतिशत भेड़ें, भेड़शालाओं के बाहर बिना रखवाले के, भेड़िये (शैतान) द्वारा खुले आम नाश की जा रही हैं। मात्र एक प्रतिशत भेड़ें जो भेड़शाला के अंदर हैं, वे सालों साल हर रविवार को चार दीवारों के अंदर अनर्थ सज-धजकर बैठने में समय बरबाद कर रहें हैं और गुमी हुई भेड़ों को तुरंत खोज कर लाने के आदेश का पूरी तरह से उल्लंघन कर रहे हैं। (लूका 15ः 7)
पास्टर नहीं परन्तु ‘‘शांति के संतान’’ की आवश्यकता है:-
प्रभु ने अपने शिष्यों को सिखाया की जब तुम सुसमाचार सुनाने के लिये किसी गाँव या बस्ती में जाते हो तो सबसे पहिले ‘‘शांति के संतान’’ एक योग्य व्यक्ति की खोज करो और वहीं रहो, भोजन करो, संगति करो और चिन्ह - चमत्कार करो, तथा गवाही के द्वारा शिक्षा दो। (लूका 10ः 5-9)
यूनानी शब्द (Huios Eirenes) का अर्थ होता है ‘‘शन्ति का पुत्र’’। पुत्र (Huios) शब्द का विस्तृत अर्थ होता है संतान या वंश इत्यादि। इसलिए यह शब्द पुरूष और स्त्री दोनों के लिए काम में लाया जा सकता है। यह एक ऐसा इन्सान होता है जिसकी समाज में इज़्जत होती है। (Eirenes) अर्थात शान्ति का अर्थ होता है कि जो गलत काम नहीं करता और उसका घर शान्ति से चलता है क्योंकि वह आशिषित मनुष्य होता है।
नये नियम में शान्ति की संतानो के अनेक उदाहरण है जैसे कुर्नेलियुस (प्रेरितों के काम 10ः 24), लुदिया (प्रेरितों के काम 16ः 15), मरकुस की माता मरियम (प्रेरितों के काम 12ः 5), तिरन्नुस (प्रेरितों के काम 19ः 9-10), यासोन (प्रेरितों के काम 17ः 5-9), युस्तुस, क्रिस्पुस (प्रेरितों के काम 18ः 7-8) इत्यादि।
यह सब लोग ‘‘शांति के संतान’’ थे जिन्होंने अपने घरों में कलीसिया स्थापित किया था। उनके परीश्रम के द्वारा सारे क्षेत्र में मसीहत फैल गयी। वैसे तो एक दरिद्र विधवा एलिय्याह नबी के लिए ‘‘शांति की संतान’’ बनी परन्तु साधारणतः ‘‘शांति के संतान’’, कुर्नेलियुस और लुदिया जैसे सम्पन्न और प्रभावशाली लोग होते हैं। प्रभु ने यह आदेश बड़े सोच समझकर अपने शिष्यों को दिया जिससे उनके रहने और खाने पीने की सुविधा एक सम्पन्न और शांत वातावरण में हो सके। इसीलिए प्रभु ने कहा कि उन्ही के घर में रहो, और भोजन करो (लूका 10ः 5-9)। ऐसे इन्सान का दबदबा होने के कारण उसका घराना और समाज शीघ्र प्रभु में आ जाता है। एक दरिद्र या कमजोर वर्ग की स्त्री या जवान को पहिले प्रभु में लाने से उनके लिए घर और समाज दोनों में अनेक समस्याएं आ जाती है।
विदेशी मिशनरियों ने यही गलती की जिससे उन्हें आश्रित लोगों के लिए मिशन कम्पाऊंड खोलना पड़ा। आज भी बडे़ पैमाने पर यही गलती की जा रही है जिससे गरीब नए विश्वासियों पर अत्याचार हो रहे हैं और शिक्षित और प्रभावशाली वर्ग को यह गलत धारणा हो जाती है कि मसीहत केवल गरीब और तिरिस्कृत लोगों के लिए है।
आज हर गाँव और बस्ती में प्रभावशाली एवं सम्पन्न ‘‘शांति के संतान’’ को पहचानना और प्रोत्साहित करना प्रत्येक विश्वासी का काम है। यही प्रभु का आदेश है कि दो-दो जाकर इस कार्य को करें और अनेक आत्मिक बच्चे पैदा करने वाली फलवंत कलीसियाएं स्थापित करने वाले ‘‘शांति के संतान’’ को स्थानीय पास्टर बनाएं। (2 यूहन्ना 1ः 4)
प्रभुजी ने हर एक विश्वासी को चाहे स्त्री हो या पुरूष, अन्य जातियों के बीच व्याकुल और भटकी हुई भेड़ों को प्रभु की भेड़शाला में लाकर एक ‘‘शांति के संतान’’ को अगुवा नियुक्त करने के लिए भेजा है। (प्रेरितो के काम 14ः 23)
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