घरेलू कलीसिया और बपतिस्मा
यरूशलेम नगर के मंदिर के चारों ओर बहुत से कुण्ड थे जिसे इब्रानी भाषा में मिकवे (Mikve) बोलते थे। अभी तक अस्सी कुण्ड मिल चुके हैं जबकि अनुमान लगाया जाता है कि वहां करीब 200 कुण्ड थे। इन कुण्डो में ‘‘शुद्धिकरण का स्नान’’ “Bath of Purification” लिया जाता था। अलग-अलग नगरों से आये लोग कुण्ड के पास डेरा करते थे और जिन्होंने पाप किया है वे पहिले पश्चाताप करते थे और तत्पश्चात शुद्धिकरण का स्नान लेते थे। इस प्रक्रिया के लिए दो गवाहों का उपस्थित होना अनिवार्य था। किसी याजक या पास्टर की कोई आवश्यकता नहीं होती थी। कोई भी दो साधारण विश्वासी पर्याप्त होते थे।
महिलाएं अलग कुण्ड में शुद्धिकरण का स्नान लेती थीं। वहां पुरूषों का उपस्थित होना उनके संस्कृति के अनुसार अनुचित था।
इन्हीं कुण्डों में पिन्तेकुस्त के दिन तीन हजार लोगों ने पश्चाताप करके ‘‘शुद्धि करण का स्नान’’ लिया। 120 लोग जिन्होंने पवित्रात्मा पाया था वे उनके साथ दो या तीन गवाह के रूप में उपस्थित थे। स्वाभाविक है कि स्त्रियों के बपतिस्में में पवित्रात्मा पाई हुई स्त्रियां गवाह के रूप में उपस्थित थीं।
जब बाईबल का अनुवाद हुआ तो बपतिस्मा शब्द का अनुवाद राजनैतिक दबाव के कारण नहीं हुआ क्योंकि उस समय तक बच्चों में छिड़काव के जल संस्कार ने जड़ पकड़ लिया था। बपतिस्मा एक यूनानी शब्द है जिसका अर्थ होता है ’शुद्धिकरण का स्नान’ “Bath of Purification” पानी में डुबाया जाना (Immersion) या ‘गाड़ा जाना’। जिस तरह मुट्ठी भर मट्टी से मुर्दा गड़ाया नहीं जा सकता उसी प्रकार चुल्लु भर पानी से ‘‘शुद्धिकरण का स्नान’’ अर्थात बपतिस्मा नहीं लिया जा सकता।
डूब के विषय पर बाईबल में अनेक संदर्भ पाये जाते हैं:-
1. यूहन्ना ने प्रचार किया कि, ‘‘मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है। ...तब ...सारे देश के लोग उसके पास निकल आये। और अपने अपने पापों को मानकर यरदन नदी में उससे शुद्धिकरण का स्नान लिया’’। पवित्र नगर यरूशलेम के कुंडो को छोड़कर दूर के यरदन नदी में शुद्धिकरण का स्नान करना एक क्रांतिकारी घटना थी। (मत्ती 3ः 1-6)
2. यूहन्ना के द्वारा डूब लेने से रोके जाने पर यीशु ने कहा, ‘‘...हमें इसी रीति से सब धार्मिकता को पूरा करना उचित है, ... और यीशु डूब लेकर तुरन्त पानी में से ऊपर आया,’’ (मत्ती 3ः 13-16) यदि प्रभु यीशू ने डूब का बपतिस्मा लिया तो हमें भी डूब का बपतिस्मा लेना आवश्यक है।
3. यीशु ने प्रचार करना आरम्भ किया कि, ‘‘मन फिराओ...।’’ ‘‘फरीसियों ने सुना है, कि यीशु यूहन्ना से अधिक चेले बनाता, और उन्हें शुद्धिकरण का स्नान देता है। यद्यपि यीशु आप नहीं वरन उसके चेले बपतिस्मा देते थे।’’ यहां बारह शिष्यों से मतलब नहीं है क्योंकि अभी उनका चयन नहीं हुआ था। यहां साधारण शिष्य बपतिस्मा दे रहे थे। पास्टर और शीर्ष नेताओं द्वारा नहीं परन्तु बपतिस्मा देना कलीसिया के साधारण सदस्यों का काम है (यूहन्ना 4ः 1-2)
4. स्वर्गारोहण के पहिले प्रभु ने चेलों को आज्ञा दी, ‘‘...तुम जाकर ...चेला बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से शुद्धिकरण का स्नान दिलाओ ...। इस महान अभिषेक के द्वारा अब हर एक विश्वासी को बपतिस्मा देने और लेने का अधिकार है। (मत्ती 28ः 18-20)
5. पिन्तेकुस्त के दिन यरूशलेम में पतरस ने कहा, ‘‘मन फिराओ ...तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये ... शुद्धिकरण का स्नान ले,’’ (प्रेरितों के काम 2ः 37-38)। बपतिस्मा कोई देता नहीं परन्तु नया विश्वासी स्वयं शुद्धिकरण का स्नान लेता है।
6. फिलिप्पुस से सुसमाचार सुनने के बाद, खोजे ने कहा, ‘‘मुझे बपतिस्मा लेने में क्या रोक है। फिलिप्पुस ने कहा, यदि तू सारे मन से विश्वास करता है तो हो सकता है ...दोनों जल में उतर पड़े और उसने उसे शुद्धिकरण का स्नान दिया। जब वे जल में से निकलकर ऊपर आये...।’’ सड़क के किनारे के एक छोटे से तालाब में एक अन्य जाति के व्यक्ति को एक साधारण व्यक्ति, फिलिप जो खाने की मेज़ पर काम करता था, ऐसे व्यक्ति द्वारा शुद्धिकरण का स्नान देना एक बहुत चैंकाने वाली घटना थी और यहूदियों के रीति-रिवाज के विपरीत थी। (प्रेरितों के काम 8ः 35-39)
यीशु ने चेलों को आज्ञा दी है कि तुम जाकर सब जातियों को सुसमाचार प्रचार करो। जो मन फिराये, विश्वास करे, उसे तुम चेला बनाओ और वह शुद्धिकरण का स्नान ले अर्थात जिसने मेहनत करके एक नए जन को विश्वास में लाया है वही उसमेे गवाह हो। पास्टर द्वारा शुद्धिकरण का स्नान देने का बाईबल में कोई प्रावधान नहीं है।
बपतिस्मा मात्र एक घटना है।
पूरी प्रक्रिया इस प्रकार है:-
1. हम पश्चाताप करते हैं। (प्रेरितों के काम 2ः 37-38)
2. हम यीशु मसीह को अपना प्रभु ग्रहण करते हैं। (इब्रानियों 6ः 1-2)
3. हम संसार की अभिलाषाओं से मर कर उसके साथ गाड़े जाते हैं।
4. फिर आत्मिक रूप से जी उठते हैं। (रोमियों 6ः 3-4; गलातियों 2ः 20)
5. हम पर संतों द्वारा हांथ रखा जाता है जिससे हम परिवत्रात्मा से परिपूर्ण हो जाते हैं। (प्रेरितों के काम 19ः 6) 6. अब हम नयी सृष्टी बन जाते हैं। (2 कुरिन्थियों 5ः 17)
7. अब हम परदेसी और मुसाफिर नहीं पर परमेश्वर के घराने के सदस्य हो गये हैं। (इफिसियों 2ः 19)
8. अब हम प्रभु के साथ स्वर्गीय स्थानों में बैठते हैं। (इफिसियों 2ः 6)
9. स्वर्ग से हम पृथ्वी पर प्रभु के राजदूत होकर सेवकाई करने आते हैं।
10. हमें सारी सृष्टी को उसके सृष्टीकर्ता से मेल मिलाप की सेवकाई मिली है। (2 कुरिन्थियों 5ः 18-20)
‘शुद्धिकरण का स्नान’ तुरन्त अर्थात जिस समय एक व्यक्ति विश्वास में आ जाता है तो उसी दिन उसे पानी में उसे डुबाया जाता है। पतरस ने 3,000 लोगों को तुरन्त शुद्धिकरण का स्नान करवाया (प्रेरितों के काम 2ः 41)। फिलिप्पुस ने इथोपिया के खोजे को विश्वास में आने पर तुरन्त डुबाया (प्रेरितों के काम 8ः 34-39)। यथार्थ में पतरस और पौलुस जैसे शीर्ष अगुवे बपतिस्मा नहीं देते थे परन्तु यह उनके संगी साथियों का काम था। (1 कुरिन्थियों 1ः 13-17)
आज भी जिस दिन एक व्यक्ति पश्चाताप करके विश्वास में आ जाता है उसी दिन उसका शुद्धिकरण का स्नान हो जाना चाहिए। यह बाईबल का सिद्धान्त है इसलिए स्नान लेने में विलम्ब करने का कोई औचित्य नहीं है। नए नियम में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जिसमें शुद्धिकरण का स्नान देने में विलम्ब किया गया। पौलुस ने तो रातों-रात जेलर और उसके घराने को शुद्धिकरण का स्नान करवाया।
घरेलू कलीसिया के प्राचीन शुद्धिकरण का स्नान लिए हुए विश्वासियों पर हाथ रख कर प्रार्थना करते थे और उनका सेवकाई के लिए अभिषेक करते थे। कभी-कभी तो पानी के डूब के पहिले ही अन्य जातियों के लोग पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जाते थे (प्रेरितों के काम 10ः 44)। बपतिस्मा का अन्य-अन्य भाषा बोलने से कोई सीधा सबन्ध नहीं है। प्रभुजी ने डूब लिया, पवित्र आत्मा पाया परन्तु अन्य-अन्य भाषा नहीं बोला! न हीं पिन्तेकुस्त के दिन तीन हज़ार डूब पाने वालों ने अन्य-अन्य भाषा बोला।
बपतिस्मा के बाद समर्पित सेवकाई आपकी प्राथमिकता: डूब संस्कार के बाद प्रभु बढ़ईगिरी करने के लिये वापस नासरत नहीं गये परन्तु वहां जाकर उन्होंने अपने मिशन की घोषणा की (लूका 4ः 18-19)। शुद्धिकरण का स्नान लेने के बाद हर एक विश्वासी को पूर्ण समर्पण के साथ सेवकाई में लग जाना चाहिए जैसे प्रभु, के शिष्यों और अन्य विश्वासियों ने किया। इसका मतलब ये नहीं कि आप अपनी नौकरी छोड़ दीजिए परन्तु अब आपकी प्राथमिकता नौकरी नहीं परन्तु परमेश्वर का राज्य स्थापित करना है। (मत्ती 6ः 33)
शुद्धिकरण का स्नान केवल मंडली के सदस्य बनाने के लिए नहीं लिया जाता क्योंकि चर्च के रजिस्टर में नाम लिखाने से कोई स्वर्ग नहीं जाता। स्वर्ग जाने के लिए मेम्ने की किताब में अपना नाम लिखाना पड़ता है जिसके लिये प्रति रविवार को चर्च के बेंचो को शोभायमान करना आवश्यक नहीं है परन्तु प्रति दिन परमेश्वर के खेतों से फसल बटोरना अनिवार्य है। (मत्ती 12ः 30; लूका 10ः 17-20)
आज मनुष्यों ने शुद्धिकरण के स्नान के बदले अनेक तरीकों को अपना लिया है। छिड़काव के जल संस्कार के बारे में धर्म शास्त्र में कोई भी संदर्भ नहीं पाया जाता, इसलिए यह मनुष्य-मात्र का अविष्कार है। पुराने जमाने में आधुनिक इलाज के अभाव में बहुत बच्चे बीमारी से मर जाते थे। माता-पिता के दबाव से प्रीस्ट लोग मरते हुए बच्चों को छिड़काव दे देते थे। बाद में यह प्रथा कलीसिया की संख्या बढ़ाने के लिए एक नियम बन गयी जो बाइबल की शिक्षा के विरूद्ध है। बच्चों का शुद्धिकरण का स्नान नहीं हो सकता क्योंकि धर्म शास्त्र सिखाती है कि जो विश्वास करेगा और शुद्धिकरण का स्नान लेगा उसी का उद्धार होगा। इसलिए शुद्धिकरण का स्नान केवल विश्वासियों का ही हो सकता है (मरकुस 16ः 17)।
दूध पीते बच्चे समझ के साथ सुन नहीं सकते, पापों के लिए पश्चाताप नहीं कर सकते, प्रभु यीशु पर विश्वास नहीं कर सकते और न उन्हें डुबाया जा सकता है। माता-पिता अपनी संतान के पापों के लिए पश्चाताप नहीं कर सकते क्योंकि धर्मशास्त्र में इसका कोई प्रावधान नहीं है। छोटे बच्चे वैसे भी निर्दोष होते हैं। सारे पाप तो जवानी और बुढ़ापे में होते हैं। क्योंकि सब ने पाप किया है (रोमियों 6ः 23) और पाप की मज़दूरी मृत्यु है और यदि वह अपने स्वयं के पापों को मान लेता है तो प्रभु का लोहू उसे शुद्ध करने में सक्षम है। (1 यूहन्ना 1ः 9)
पहिली सदी में अक्सर घरानों का शुद्धिकरण का स्नान होता था परन्तु उन्हीं का होता था जो पश्चाताप और विश्वास करने के योग्य थे। माता-पिता अपने बच्चों के लिए पश्चाताप नहीं कर सकते इसलिए बच्चों पर प्राचीन केवल हाथ रख कर आशीष देते थे, जैसा प्रभु यीशु ने बच्चों पर हाथ रख कर आशीष दिया था (मत्ती 19ः 13-15)। कुछ लोग समझते हैं कि पूरे घराने का डूब हुआ अर्थात दूध पीते हुए बच्चों को भी डुबाया होगा। यह सरासर ग़लत है क्योंकि जैसा कोई कहे कि कल रात पूरे घराने ने चटपटी तरकारी खाई तो इसका मतलब यह नहीं है कि दूध पीते बच्चे ने भी खाया होगा।
यदि बच्चों में छिड़काव के संस्कार को मान्यता होती तो बालक यीशु इसके प्रथम और अत्यन्त योग्य उदाहरण होते। यदि बालक यीशु का बपतिस्मा नहीं हो सकता तो आपके बच्चों का कैसे हो सकता है?
दृढ़ीकरण (Confirmation) भी मनुष्यों का अविष्कार है क्योंकि धर्म शास्त्र में इसका कोई संदर्भ नहीं हैं। यीशु को बारह साल की उम्र में मंदिर जाने का अधिकार मिला। उनका यहूदी नियमानुसार सामाजिक दृढ़ीकरण (Bar Mitzvah) हुआ परन्तु यह डूब नहीं था। यहूदियों में छोटे बच्चों को अर्पित किया जाता था। परन्तु यह डूब नहीं था। यीशु का भी बचपन में अर्पण हुआ परन्तु बपतिस्मा वयस्क होने के बाद, 30 साल की उम्र में हुआ।
हमको विचार करना होगा कि हमने डूब, वचन के अनुसार उचित रीति से लिया है या नहीं। बाईबल के मापदंड से हमको अपने जल संस्कार का मूल्यांकन करना होगा। कलीसिया में बहुत से लोग हैं जो अपने को उद्धार पाया हुआ समझते हैं परन्तु यथार्थ में उनका सही जल संस्कार हुआ ही नहीं है। यदि आपने बिना मन फिराये जल संस्कार ले लिया है या किसी ग़लत विधि से लिया है तो, आपको अपनी गलती सुधारना आवश्यक है।
क्योंकि प्रभु यीशु ने आवश्यकता न होने पर भी 30 वर्ष की उम्र्र में डूब लेकर परमेश्वर की धार्मिकता पूरी की इसलिए हमें भी अपने प्रभु के समान वयस्क होने पर सारी धार्मिकता को पूरा करने के लिए डूब लेना चाहिए (मत्ती 3ः 14-15)
कलीसिया की सदस्यता मात्र, प्रभु भोज और रविवारीय ईसाई बनने के लिए डूब या छिड़काव लेना तथा देना या दृढ़ीकरण (Confirmation) करना या प्रमाण-पत्र (Certificate) के लिये बपतिस्मा लेना इस लोहू की वाचा का अनादर करना है। कानूनी ईसाई बनने के लिये कानूनी प्रक्रिया ज़रूरी है परन्तु मनफिराव का बपतिस्मा लेने के लिये पश्चाताप की ज़रूरत है। बपतिस्मा से जाति परिवर्तन नहीं होता केवल विश्वास परिवर्तन होता है। जाति परिवर्तन की ज़रूरत नहीं क्योंकि एक दिन हर जाति, कुल और गोत्र के विश्वासी परमेश्वर के सिंहासन के सामने खड़े होंगे। (प्रेरितों के काम 5ः 9-10)
उद्धार के लिये प्रभु की आज्ञा का अक्षरशः पालन करना अनिवार्य है। यदि नामान कोढ़ी यरदन नदी में आज्ञानुसार डूब लेने के बदले में यरदन के पानी से छिड़काव ले लेता तो उसका कोढ़ दूर नहीं होता। यदि यहूदी यह सोच कर कि सारा घर तो बध किए हुए मेम्ने के खून से भरा ही है, चैखट पर खून नहीं लगाते तो नाश हो जाते। यदि इस्राएली यरीहो का चक्कर केवल छः दिन लगाते और सातवें दिन विश्राम करते तो यरीहो की दीवारे नहीं गिरती। उसी प्रकार यदि अंधा अपनी आँखों से मिट्टी धोने के लिए दो किलोमीटर दूर शीलोह के कुण्डोे में नहीं, पर कहीं और जाता तो उसकी आँखे नहीं खुलती। इसलिए यदि प्रभु स्वयम् कह रहे हैं कि जो विश्वास करेगा और शुद्धिकरण का स्नान लेगा उसका उद्धार होगा (मरकुस 16ः 16), तो फिर इस आज्ञा का उल्लंघन करना अनाज्ञााकारिता की पराकाष्ठा ही हो सकती है जिसका अन्त विनाश है।
यद्यपि प्रभु यीशु मसीह ने शिक्षा दी कि पानी और पवित्र आत्मा के बिना परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते (यूहन्ना 3ः 3-5), परन्तु प्रभु के पास बिना डूब लिए लोगों को भी स्वर्ग ले जाने का पूरा अधिकार है। सबसे पहिले डाकू मसीही, प्रभु यीशु के साथ-साथ स्वर्गलोक चला गया। उसने केवल पश्चाताप किया परन्तु उसका कोई जल संस्कार नहीं हुआ। उन धार्मिक अगुवों को जो बिना डूब वालों को प्रभु भोज नहीं देते, स्वर्ग में उस डाकू के समान एक बड़ी भीड़ मिलेगी जिनका जल संस्कार नहीं हुआ है परन्तु उन्होंने सच्चा पश्चाताप और विश्वास किया तथा महान आदेश की पूर्ति की।
आज की स्थिति में कुछ ऐसे देश हैं जहां खुले आम शुद्धिकरण का स्नान संस्कार नहीं लिया जा सकता जैसे - मुस्लिम देश। हमारे देश में भी मध्य प्रदेश, उड़ीसा और अरूणाचल गुजरात तथा तमिलनाडु में डूब संस्कार लेने पर कानूनी प्रतिबन्ध है। वैसे भी सारे देश में अन्य जातियों के जल-संस्कार का विरोध होता है जिसके कारण चाहते हुए भी बहुत से लोग शुद्धिकरण का स्नान नहीं ले पाते। परन्तु जब तक अनुग्रह का समय है, तब तक प्रभु यीशु की आज्ञा और उनके उदाहरण के अनुसार शुद्धिकरण का स्नान लेना चाहिए। जो संस्कार पहिली सदी की कलीसिया में था उसको बदल कर मनुष्यों द्वारा आविष्कार की गई विधि का पालन करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। (मरकुस 7ः 6-9)
कलीसिया पूरी तरह से भ्रमित है कि केवल पास्टर बपतिस्मा दे सकता है। इसका बाइबल में कोई संदर्भ नहीं है। वे अपने को नये नियम के प्राचीन होने का दावा करते हैं। यथार्थ में नये नियम में परिपक्वता के अनेक कदम थे जैसे पहिले विश्वासी, फिर शिष्य बनना, तदपश्चात प्राचीन, आगें वरदानी सेवक और अन्त में प्रेरित होकर भेजे जाना इत्यादि। शिष्य वह होता है जो शिष्य बनाता है... मेरे पिता की महिमा इसी से होती है कि तुम बहुत-सा फल लाओ; तब ही तुम मेरे शिष्य ठहरोगे। (यूहन्ना 15ः 8) । जो पास्टर अन्य जातियों में से शिष्य नहीं बनाता वह तो स्वयं शिष्य नहीं है तो वह प्राचीन कैसे हो सकता है ?
यथार्थ में अनेक पास्टर विश्वासी भी नहीं हैं क्योंकि बाइबल की परिभाषा के अनुसार एक विश्वासी मात्र रविवार को भाषण नहीं देता परन्तु वह प्रतिदिन पवित्रात्मा की सामर्थ से बीमारों को चंगा करता है और दुष्टात्माओं से ग्रसित लोगों से छुटकारा दिलाता है। (मरकुस 16ः 17-18)
प्रभु की योजना के तहत हर एक विश्वासी एक राजपदधारी याजक है (1 पतरस 2ः 9) और उसे अधिकार मिला है कि वह बपतिस्मा दे। (मत्ती 18ः 29)
पास्टर द्वारा डुबाने के लिये नए नियम में कोई प्रावाधान नहीं है। पास्टर नहीं परन्तु याजक की हैसियत से सारे विश्वासियों को पानी में डुबाने का अधिकार है। इस विषय पर सही शिक्षा के अभाव से आज हज़ारों लोगों का शुद्धिकरण का स्नान ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। हम सब विश्वासी एक पवित्र याजकीय समाज के सदस्य हैं इसलिए क्या स्त्री क्या पुरूष, हर एक को शुद्धिकरण के स्नान लेने और देने का अधिकार है? प्रभु ने स्त्री और पुरूष दोनों को आदेश दिया कि जाकर सब जाति के लोगों को शिष्य बनाओं और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से शुद्धिकरण का स्नान दिलाओ। (मत्ती 28ः 19)
बपतिस्मा लेकर, फोटो उतरवाकर एक प्रमाण-पत्र (Certificate) को दीवार में लटकाने से कोई फायदा नहीं है और न चर्च में सफेद वस्त्र पहिन कर सज-धज कर बैठने से। पूरी तरह से समर्पित होकर महान आदेश की र्पूिर्त करना अर्थात अन्य जातियों को शिष्य बनाना उन्हें बपतिस्मा देना, और उन्हें मसीहत के सिद्धान्तों को सिखा कर वापस अपनी जाति के मध्य मनुष्यों के मछुए बना कर भेजना, सही मायने में मसीही मत को समझना है।
पिन्तेकुस्त के दिन से लेकर आजतक कलीसिया के जागरूक होने का सबसे अच्छा मापदंड बपतिस्मा की संख्या है। यदि आप की कलीसिया में प्रतिदिन अन्य जाति नहीं जुड़ते तो आपकी कलीसिया बांझ है।
पिन्तेकुस्त के दिन से शिष्य बनाना तथा बपतिस्मा देना एक जन आन्दोलन बन गया जिस आधिकार को बाद में कलीसिया के अगुवों ने हड़प लिया। अभी भारत में करोड़ो लोगों को शिष्य बनाकर बपतिस्मा देना है। ये किसी कलीसिया के अधिकारी के बस की बात नहीं है। जिस तरह से अभी कार्य चल रहा है उससे यह देश कभी भी मसीही देश नहीं बन सकता। इसके लिए पहिली शताब्दी के समान पुनः एक जन आन्दोलन शुरू करना पड़ेगा जिसमें हर एक विश्वासी शिष्य बनाएगा, बपतिस्मा देगा तथा उन्हें मनुष्यों के सक्षम मछुए बनाकर वापस अपने जाति के मध्य काम करने भेज देगा। यही है सही मसीही सेवा।
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