घरेलू कलीसिया और पाँच वरदानी सेवकाई
घरेलू कलीसिया और पाँच वरदानी सेवकाई
उसने कुछ को प्रेरित, कुछ को नबी और कुछ को कलीसिया में रखवाले और कुछ को शिक्षक नियुक्त किया और उन्हें दायित्व सौंपा जिससे पवित्र लोग सिद्ध हो जांए और वे सेवा का काम करें जिससे मसीह की देह निर्मित होकर उन्नति पाए। (इफिसियों 4ः 11-12)
हमारी नये नियम की माता कलीसिया छोटे-छोटे घरों में प्रति दिन स्थापित होती जाती थीं, क्योंकि इसमें अनेक वरदानी सेवक होते थे जिससे इनकी गुणात्मक वृद्धि होती थी। (प्रेरितों के काम 6ः 7)
एक नगर में प्रभु के नाम की कई मंडलियां होती थीं परन्तु वे सब उस नगर के नाम से जानी जाती थी। जैसे कुरिन्थियों, गलातियों, रोम और प्रकाशितवाक्य की सात कलीसियाएं-सभी अपने शहर या क्षेत्र के नाम से जानी जाती थीं।
कलीसिया का अटल सिद्धांत है कि प्रत्येक अंग एक साथ मिलकर ठीक-ठीक कार्य करें जिससे सम्पूर्ण देह की उन्नति हो। एक नगर की स्थानीय कलीसियाओं में पूरी एकता होना अनिवार्य है अन्यथा प्रभु के देह में उन्नति नहीं होगी। इस अटल सिद्धान्त से परे होने के कारण मनुष्यों की ठग विद्या, धूर्तता, भ्रम की युक्ति और सिद्धान्त रूपी हवा के झोंकों से नगर की कलीसियाएं इधर-उधर भटकती रहती हैं। (1 कुरिन्थियों 10ः 16-17; इफिसियों 4ः 14-16)
जिन कलीसियाओं में परिपक्व अगुवे नहीं होते हैं या विद्रोही तत्व होते हैं तो वहाँ कलीसिया आसानी से भटक सकती है (3 यूहन्ना: 9-10)। यह स्थिति आज और ज़्यादा खतरनाक है क्योंकि एक ही अगुवा सालों-साल अकेला अगुवाई करता है और दूसरी कलीसियाओं से एकता का विरोध करता है। चूंकि कोई भी अगुवा पूरी तरह से सिद्ध नहीं होता इसलिए आज मंडली का भटकना बहुत आसान है।
इसके निवारण के लिए प्रभु ने प्रेम भेंट देकर आगे से प्रावधान किया है कि कलीसियाओं में प्रेरित, नबी, प्रचारक, पास्टर (रखवाला) और शिक्षक आपस में मिलकर अगुवाई करें और निगरानी रखें कि कलीसिया अपने लक्ष्य में अटल रहे। ऐसा ज़रूरी नहीं कि हर मंडली में ये सब वरदान हों परन्तु वे आस-पास की कलीसियाओं में भ्रमण करके शिक्षा तथा चेतावनी दे सकते हैं। वर्तमान में यह प्रावधान न होने से एक व्यक्ति विशेष की अगुवाई में अधिकांश कलीसियाएं भटकी हुई हैं क्योंकि वे अपनी कमियों को देखने में असमर्थ हैं।
कलीसिया बनाने की तुलना एक घर बनाने से की जा सकती है। घर बनाने के लिए मज़दूर, मिस्त्री, बढ़ई, बिजली फिट करने वाला और पानी के लिए पाईप लगाने वाले अलग-अलग कारीगर होते हैं। केवल एक मिस्त्री अकेले घर नहीं बना सकता। वैसे ही कलीसिया एक ही अगुवे के द्वारा कदापि नहीं चलाई जा सकती। जैसे एक हाथ केवल एक उंगली से नहीं चल सकता ठीक उसी प्रकार कलीसिया को चलाने के लिए पांचो वरदानी सेवकाईयों का अपना-अपना स्थान है।
प्रेरित - अर्थात सुसंदेश वाहक हाथ के अंगूठे के समान होता है जिसको आधा हाथ माना जाता है क्योंकि उसके बिना एक पानी का गिलास भी उठाना सम्भव नहीं है। प्रेरित की सेवकाई कलीसिया में सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है (1 कुरिन्थियों 12ः 27-28)। पौलुस के समान प्रेरित घर बार छोड़कर प्रचार, शिक्षा और अन्य-अन्य साधनों से कलीसिया रोपण में लगे रहते हैं। प्रेरित परमेश्वर के राज्य की वृद्धि के लिए अत्याधिक परिश्रम करते हैं और हर कष्ट को सहने को तैयार रहते हैं।
सुसंदेश वाहकों की ख़ासियत यह है कि कलीसिया में जैसे ही स्थानीय अगुवे तैयार हो जाते हैं तो वे दूसरी जगह चले जाते हैं और नयी कलीसिया का निर्माण करने में लग जाते हैं।
वर्तमान में संसार में हज़ारो नई-नई घरेलू कलीसियाएं स्थापित की जा रहीं हैं। इस दशक में विश्व में तीस लाख नयी घरेलू कलीसिया बनने का लक्ष्य निर्धारित हो चुका है। इसका सीधा मतलब निकलता है कि परमेश्वर पिता प्र्रेरितीय सेवकाई को ख़ास तौर से आशिषित कर रहा है।
जवान एवं बूढ़े, दास और दासियां, सब दर्शन देख रहे हैं और हज़ारों सुसंदेश वाहक तैयार हो रहे हैं। कई सेवक अपने को प्रचारक समझते हैं परन्तु वे यथार्थ में प्रेरित हैं क्योंकि वे कलीसिया रोपण करते हैं।
भविष्यवक्ताः- यह हाथ की पहिली उंगली के समान होता है। इसका काम बड़ा मुश्किल होता है क्योंकि ये लोगों को और कलीसिया को उंगली दिखाकर सीधा-सीधा वही सुनाता है जिसकी प्रेरणा उसको परमेश्वर से मिलती है। उसकी आँखे और कान हमेशा परमेश्वर की ओर लगे रहते हैं। नबी बहुधा कलीसियाओं में लोकप्रिय नहीं होते क्योंकि वे परमेश्वर का वचन ख़रा-ख़रा बोलते हैं चाहे आपको भला लगे या बुरा परन्तु जिन कलीसियाओं में नबी नहीं होते हैं, वे कलीसियाएं भ्रष्ट हो जाती हैं। (आमोस 7ः 7-17)
कलीसिया में बोलने का पहिला प्रावधान भविष्यवक्तााओं को ही है (1 कुरिन्थियों 14ः 26-31)। सन्त पौलुस यह आव्हान देते हैं कि हम सब आत्मिक वरदानों से परिपूर्ण हो जाएं, ख़ास कर भविष्यवाणी करें (1 कुरिन्थियों 14ः 1-3)। संत पौलुस हमें चुनौती देते हैं कि आत्मिक वरदानों की धुन में लगे रहो क्योंकि जो भविष्यवाणी करता है, वह आत्मिक उन्नति, सैद्धान्तिक शिक्षा तथा सांत्वना देने के लिए मनुष्यों से बोलता है। (1 कुरिन्थियों 14ः 1-5; 39)
प्रचारक - प्रभु की कलीसिया में प्रचारक का स्थान हाथ की छोटी ऊंगली के समान होता है। उसका कार्य स्थान-स्थान में जाकर ईसाईयों के मध्य नहीं परन्तु अन्य जातियों के बीच जाकर प्रचार करना है। प्रभु ने आज्ञा दी कि सब प्राणियों को प्रचार करो। जो विश्वास करेगा और बपतिस्मा लेगा वह उद्धार पाएगा। वह चिन्ह और चमत्कार द्वारा दूसरों को शिष्य बनाएगा और सिद्धता की ओर ले जाएगा। (मरकुस 16ः 15-20)
मात्र पर्चे या साहित्य बांटना, फिल्म दिखाना या गाँव में गीत संगीत और उपदेश देकर प्रचार करना अधूरा काम है।
परिपूर्ण शिष्य बनाना एक घटना नहीं परन्तु एक प्रक्रिया है (कुलुस्सियों 1ः 28-29)। प्रचारक एक ऐसी जगह खोजता है जहां पहिले प्रचार नहीं किया गया है (रोमियों 15ः 20) परन्तु उसे फ़सल बटोरना नहीं आता और न वह स्थायी परिणाम के लिए परिश्रम करता है इसलिए उसके जीवन में ‘‘फल जो बना रहता है’’ वे नहीं दिखाई पड़ते।
बड़े-बड़े कन्वेन्शनों और क्रूसेडों के कुछ समय बाद कोई भी स्थायी फल दिखाई नहीं देता। आज तो इसका पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो चुका है। क्रूसेडों में लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी स्थानीय कलीसियाओं में कोई वृद्धि नहीं होती। दूसरी ओर पैसों और मंच की कुर्सियों में बैठने के विवाद में अगुवों में फूट पड़ जाती है जिससे सारा वातावरण विषैला हो जाता है। वक्ता और उसके सहयोगियों की महिमा होती है और उन्हें आर्थिक लाभ होते हैं (रामियों 16ः 18), परन्तु अन्यजातियों में से थोड़े बहुत जो शारीरिक चंगाई पाते हैं उनके आत्मिक उद्धार के लिए कोई प्रक्रिया नहीं की जाती।
ये क्रूसेड और कन्वेन्शन उन मिशन अस्पताल के समान है जहां शारीरिक चंगाई प्रदान की जाती है परन्तु आत्मिक उद्धार के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया जाता या यह उन मिशन स्कूल के समान है जो अपना मिशन खो बैठे हैं। प्रभु ने यहां तक कहा कि जो बटोरता है वह मेरे साथ है और जो बिथराता है वह मेरा विरोधी है (मत्ती 12ः 28-30)। इस कारण क्रूसेड जैसी महासभाएं ख्रीष्ट विरोधी हैं क्योंकि फसल बटोरना इनका लक्ष्य ही नहीं है।
पहिली सदी की कलीसिया में ऐसे क्रूसेड नहीं होते थे क्योंकि इससे अक्सर विरोध खड़ा हो सकता था और कलीसिया की उन्नति का काम रूक जाता था। आज भी छोटे गाँवो में छोटे प्रचारकों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब अन्य जातिओं के लोग बड़ी आशा से इन बड़ी सभाओं में आते हैं और बिना चंगाई प्राप्त किए असन्तुष्ट होकर वापस लौट जाते हैं, तब इन छोटे-छोटे प्रचारकों को व्यंग्य सहना और पिटाई खाना पड़ता है या कभी-कभी सेवकाई ही बंद करनी पड़ती है।
वास्तव में आजकल छोटी-छोटी घरेलू कलीसियाओं में इतनी बड़ी संख्या में चिन्ह चमत्कार और चंगाईयां हो रहें हैं जो इन सब बड़ी-बड़ी महासभाओं में नहीं हो पातीं।
माता कलीसिया में प्रचार बड़ी सावधानी से चुप-चाप उन्हीं लोगों के बीच किया जाता था जहां फल मिलने की आशा होती थी। प्रभु ने हमें सिखाया की शैतानी शक्तियों को बांधकर, चिन्ह और चमत्कार का अनुभव तथा बीमारियों से चंगाई प्राप्त किए हुए लोगों को परमेश्वर के राज्य में बटोरना आवश्यक है (मत्ती 12ः 28-30)। यद्यपि प्रभु का दर्शन है कि हर एक जन सत्य को जाने और उसका उद्धार हो (1 तीमुथियुस 2ः 4) परन्तु उन्होंने साफ कहा कि सूअरों के सामने अपने मोती मत फेंको क्योंकि वे ज्ञान, विज्ञान के कीचड़ में वापस चले जाएंगे। जन साधारण के बीच जहां ‘‘फल जो बना रहे’’ मिलने की आशा है वहां ज़्यादा प्रयास कीजिये। (मत्ती 7ः 6; लूका 8ः 20-21)
पास्टर हाथ की चैथी उंगली के समान है। पुराने लोगों का विचार था इस उंगली की खून की नस सीधे दिल में जाती है इसलिए शादी का छल्ला इसी में पहनाया जाता है। वरदानी पास्टर का प्रेम का सम्बंध ठीक इसी प्रकार अपनी भेड़ों के लिए होता है। वरदानी पास्टर का आज के प्रशिक्षित पेशेवर पास्टर से कोई सम्बंध नहीं है। हो सकता है कि आपके अगुवे पास्टर कहलाते हों परन्तु वास्तव में उनके पास दूसरे वरदान हों। दुःख की बात यह भी हो सकती है कि उनके पास कोई भी वरदान न हो। यह तो उनके फलों से ही पता चलेगा (मत्ती 7ः 16, 20)। यदि आपकी कलीसिया में आत्मांए नहीं जीती जा रही है तो आपका पास्टर वरदानी रखवाला नहीं है। हर कलीसिया में स्त्री और पुरूष पाए जाते हैं जिनमें भेड़ों की सुधि लेने के गुण होते हैं जो बीमारी और किसी घर में दुःख तकलीफ आने पर उनकी सुधि लेेते हैं। ये वे लोग होते हैं जिसमें एक नम्र और समर्पित दास के गुण होते हैं।
पास्टर और प्रचारक में बहुत अंतर होता है। प्रचारक अन्य जातियों में प्रचार करके उन्हें विश्वास में लाकर बपतिस्मा देकर उद्धार प्राप्त कराता है और वहां चिन्ह और चमत्कार के काम होते हैं (मरकुस 16ः 15-20)। कलीसिया में पुलपिट से प्रचार नहीं किया जाता क्योंकि वहां सभों ने उद्धार के सुसमाचार को सुन लिया है। वहां तो उन्हें परिपक्व करने के लिए अर्थात सताव का सामना करते हुए आत्मा जीतने के लिए वरदानी शिष्य तैयार करने वाले की ज़रूरत हैै।
यदि आपके पास्टर की सेवकाई से कलीसिया के सदस्य परिपक्व होकर बाहर जाकर अपनी सेवकाई आरम्भ नहीं कर रहें हैं तो आपका पास्टर वरदानी शिक्षक नहीं हैं क्योंकि आप अभी तक दूध पीते हुए कच्चे मसीही हैं। (इब्रानियों 5ः 13-14; कुलुस्सियों 1ः 28-29)
वरदानी शिक्षक का स्थान हाथ की सबसे लंबी उंगली के समान होता है। उसका योगदान कलीसिया की परिपक्वता के लिए अति महत्वपूर्ण होता है। शिक्षक का ध्यान हमेशा धर्मशास्त्र और उससे सम्बंधित किताबों की ओर लगा रहता है। वह शास्त्र की गूढ़ बातों को सीखता और सिखाता है। उसे हर बात के लिए धर्मशास्त्र से पुष्टीकरण की ज़रूरत पड़ती है। बिना वरदानी शिक्षकों के कलीसिया सुसमाचार की गहराई को नहीं समझ सकती और दूध पीने वाली बच्ची ही रह जाती है। हर एक कलीसिया के सदस्य को चुनौती है कि वह धर्म शास्त्र की गहराई को समझे और स्वयम् शिक्षक बन जाए। (प्रेरितों के काम 17ः 11-12; इब्रानियों 5ः 12-14)
एक पेड़ का हरा भरा और फलवंत होना उसकी ज़मीन के नीचे छुपी जड़ पर निर्भर करता है। शिक्षक एक पानी के स्त्रोत के समान होता है जो इस जड़ के पास से निरन्तर बहता है जिससे विश्वासी हरा-भरा और फल दायक बन जाता है। अच्छे शिक्षकों से ज़रूर संपक रखें जिससे आप भी फलदायक वृक्ष बन सकें (भजन संहिता 1ः 3)
मात्र रविवार को नहीं वरन प्रतिदिन हमें शिक्षा लेने और देने की आवश्यकता है। (इब्रानियों 3ः 13)
क्योंकि नया नियम हमें सिखाता है कि जो कोई मसीह की शिक्षा में बना नहीं रहता वह बहुत दूर भटक जाता है और उसके पास परमेश्वर नहीं परन्तु जो उसकी शिक्षा में स्थिर रहता है उसके पास पिता और पुत्र दोनों ही हैं। (2 यूहन्ना: 9)
प्रभु यीशु द्वारा दी गई इन प्रेम भेंट रूपी पांचो वरदानी सेवकाईयों द्वारा कलीसिया में निरन्तर वृद्धि होती है और नए-नए झुंड़ तैयार होते हैं (इफिसियों 4ः11-12)। यदि यह प्रक्रिया आपकी कलीसिया में नहीं है तो आप अपनी माता कलीसिया से बहुत दूर भटक गए हैं। किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं परन्तु ये वरदान सब विश्वासियों के लिए उपलब्ध हैं पर इसे प्रार्थना और उपवास के साथ मांगना पड़ेगा और कष्ट सहने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। (1 कुरिन्थियों 12ः 28, 31; 2 तीमुथियुस 3ः 10-17)
अन्य जातियों को प्रभु में लाने के रहस्य का ज्ञान केवल प्रेरितों और भविष्यवक्ताओं को दिया गया है (इफिसियों 3ः 4-6)। यही कारण है कि कलीसिया का छोटा होना अनिवार्य है जिससे वरदान आसानी से पहिचाने जा सकें और विकसित किए जा सकें।
पहिली शताब्दी में पास्टर ही स्वयंसेवक होता था बाकि प्रेरित, भविष्यवक्ता, शिक्षक और प्रचारकों को आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती थी क्योंकि उन्हें हमेशा यहां वहां जाना पड़ता था। दो चार साल सेमिनरी में प्रशिक्षण लेने के बाद, बिना उनके वरदानों को पहिचानें, उन्हें एक मडंली में पास्टर के रूप में बैठा देना उनके गुणों का सर्वथा दुरूपयोग है। उनका कार्य क्षेत्र विशाल और विस्तिृत होना चाहिये।
एक पास्टर बेचारा क्या-क्या करेगा। वह रविवारीय आराधना चलाए, वह गीत संगीत गाने वाला हो, सारा प्रशासन करे, बीबी कमाने जाए जिससे आर्थिक स्थिति सम्भले, घर और बच्चों को सम्हाले, खाना पकाए, दूसरों के दुखड़ों का निवारण करे, न करने पर गाली खाए, कोर्ट कचहरी जाए, सबको खुश करने वाला हो, नाखुश करने पर सबकी नुक़्ता-चीनी का विषय हो, घर घर जाकर विज़िट करे-ये सब असम्भव काम के लिए एक छोटी सी रकम पकड़ा दी जाए। बेचारे पास्टर पर रहम कीजिए। इसमें से 90ः काम तो साधारण सदस्य कर सकते हैं। सच तो यह है कि स्थानीय पास्टर को बरखास्त करके इन सब कार्यो से मुक्त कर देना चाहिये और उन्हें केवल अन्य जातियों में से आत्माएं जीतने की जिम्मेदारी देकर फिर से नियुक्त कर लेना चाहिए।
अपना वरदान पहचानिए और प्रार्थना पूर्वक ऐसे क्षेत्र में सक्रिय हो जाइए जहां अभी तक सुसमाचार प्रचारा नहीं गया (रोमियों 15ः 20)। यदि आप ऐसा करते हैं तो आपके जिन वर्षों को उजाड़नेवाली और कतरनेवाली टिड्डियो ने चर्च में बैठे-बैठे बरबाद कर दिया है उसकी हानि परमेश्वर पिता आपके जीवन में पूरा करेगा। (योएल 2ः 25)
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