घरेलू कलीसिया और पवित्र दिन

घरेलू कलीसिया और पवित्र दिन



मसीही लोग यहूदियों के सब्त के दिन और मसीह के जी उठने के दिन, सप्ताह के पहिले दिन अर्थात रविवार में भ्रमित रहते हैं। मूसा की दस आज्ञा के अनुसार सब्त का दिन अर्थात शनिवार यहूदियों द्वारा पवित्र विश्राम का दिन माना जाता था (निर्गमन 20ः 8-11)। इसके बहुत से विधि विधान थे जिसे सख्ती से माना जाता था। यह शुक्रवार की शाम को शुरू होता था और शनिवार की शाम को समाप्त होता था। इसको मनाने के इतने कड़े नियम यहूदी धर्मगुरूओं ने अविष्कार कर निकाला था कि यह आशीष के बदले एक बड़ा बोझ बन गया था। आज भी कट्टरपंथी यहूदी शनिवार को न तो खाना पकाते हैं और न कोई शारीरिक काम करते हैं। 

आश्चर्य की बात है कि प्रभु ने एक पैदायशी यहूदी होते हुए भी सब्त के बन्धन को तोड़ने की भरसक कोशिश की। उनके चेलों ने सब्त के दिन खेत में से बालें तोड़कर खाया जो ग़लत था (मत्ती 12ः 1)। वे आराधनालय में गए और एक विकलांग को देखकर धर्म गुरूओं से पूछा कि क्या सब्त के दिन भला करना चाहिये ? परन्तु उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इस पर प्रभु ने गुस्से से आज्ञा दी कि हाथ बढ़ा और वह चंगा हो गया। धर्मगुरू इतने नाराज हुए कि उन्होंने यीशु को ख़त्म करने की ठान ली (मरकुस 3ः 1-6)। 

इसी प्रकार से जब एक औरत जो अठारह साल से कुबड़ी थी तो यीशु ने जान बूझ कर सब्त के दिन उसे छुटकारा दिया और उसे इब्राहीम की संतान कहा क्योंकि यहूदी, स्त्रियों को अशुद्ध और हीन मानते थे (लूका 13ः 10-17)। परन्तु सब्त के बारे में यहां तक रूढ़ीवाद हो चुका था कि आराधनालय के अधिकारी ने गुस्से से कहा कि छः दिन काम करने के लिए निर्धारित है परन्तु सब्त को चंगाई नहीं होना चाहिये। सबसे ज़्यादा नाराज़गी तो उस वक्त हुई जब प्रभु ने एक अड़तीस साल के लकवे से ग्रसित इन्सान को चंगा किया और सब्त के दिन उसे आज्ञा दी कि अपनी खाट उठा कर चला जा। सब्त के दिन खटिया उठाने से यहूदी अगुवे आग बबूला हो गए (यूहन्ना 5ः 1-18)। परन्तु प्रभु ने घोषणा की कि, प्रभु और उनका पिता हमेशा काम करते हैं (यूहन्ना 5ः 17) 

और मनुष्य सब्त के लिए नहीं परन्तु सब्त मनुष्य के लिए बनाया गया है (मरकुस 2ः 27)
और वे सब्त के भी प्रभु हैं। (मत्ती 12ः 8)

प्रभु यीशु ने सब्त के दिन कभी विश्राम नही किया। यदि आप भी रविवार के दिन चर्च न जाकर महान आदेश की पूर्ति के लिए निकल जाएंगे तो आप का भी कड़ा विरोध हो सकता है।

  जब अन्य जातियों मेें से नए मसीही बनने लगे तो यहूदी मसीहियों ने कड़ा विरोध किया और कहा इन्हें पहिले यहूदी बनना पड़ेगा जिसके लिए उन्हें खतना कराना पड़ेगा और सब्त को मानना पड़ेगा (प्रेरितों के काम 15ः 1)। इस सम्बंध में एक महासभा बुलाई गई जिसमें सब प्रमुख प्रेरित तथा प्राचीन उपस्थित थे। सौभाग्य वश यह निष्कर्ष निकला कि नए विश्वासियों को यहूदी रीति-रिवाज़, खतना करवाना तथा सब्त का दिन मानने की कोई आवश्यकता नहीं है (प्रेरितों के काम 15ः 1-29)। इस महासभा के निष्कर्ष के बाद अब रविवार को सब्त के दिन की मान्यता देने का कोई औचित्य नहीं रहा। 

हम देखते हैं कि नई कलीसियाएं प्रति दिन घरों में मिलती थी इसी कारण प्रभु उनकी संख्या में प्रति दिन उन्नति करते थे (प्रेरितों के काम 2ः 46-47)। सब्त के दिन वे अक्सर यहूदी आराधनालय (सिनेगाॅग) में जाकर यहूदियों से वार्तालाप करते थे और उन्हे मसीह में लाने की कोशिश करते थे (प्रेरितों के काम 13ः 13-16)। आप भी अपने चर्च जाकर नामधारी ईसाइयों को कामधारी मसीही बनाने की कोशिश कीजिए। कई जगह तो कलीसिया संशोधन का कार्य रेव्हरेन्ड से ही शुरू करना पड़ेगा। (प्रेरितों के काम 6ः 7)

रविवारीय आराधना की परम्परा रोमी शासक काॅन्सटेन्टाईन के समय चैथी शताब्दी में आरम्भ हुयी।  विश्वासियों को भटकने से बचाने के लिए प्रतिदिन इकट्ठा होकर एक दूसरे को प्रोत्साहित करने के लिए हमें आदेश मिले हैं अन्यथा बहुत से मसीही, दुष्ट और अविश्वासी होकर परमेश्वर से दूर हो जाते हैं। (इब्रानियों 10ः 24-25; 3ः 12-13)

रविवार को धर्मशास्त्र में कहीं भी पवित्र दिन नहीं माना गया है। यथार्थ में रविवार शब्द ही नहीं मिलता। केवल सप्ताह के पहिले दिन अपनी आय में से कुछ अंश मिशनरियों के लिए अलग करने की आज्ञा अवश्य मिली है। (1 कुरिन्थियों 16ः 1-2)

रोटी तोड़ने और शिक्षा पाने के लिए पौलुस ने सप्ताह के पहिले दिन में इफिसियों के प्राचीन लोगों को एकत्रित किया। परन्तु यहूदियों का सप्ताह का पहिला दिन शनिवार की शाम को शुरू होता था। यथार्थ में यह शनिवार रात की मीटिंग थी। रविवार की सुबह पौलुस जहाज पकड़कर एसास चला गया और बाकी लोग अपने-अपने काम-धन्धों में चले गए। (प्रेरितों के काम 20ः 7-13)

मूसा की दस आज्ञाओं में से नौ आज्ञाओं का पुष्टिकरण नए नियम में हुआ है परन्तु सब्त के दिन अर्थात् शनिवार या रविवार को विश्रामवार मानने का कोई प्रावधान नहीं है। 
संगति के लिए सब दिनों को समानता दी गयी है। नया नियम हमें साफ-साफ सिखाता है कि कोई एक दिन को मानता है तो दूसरा किसी और दिन को महत्वता देता है पर परमेश्वर की महिमा दोनों से होती है। (रोमियों 14ः 5-6)

आज हमारे आराधना भवन और रविवार की आराधना परमेश्वर के राज्य की बढ़ोत्तरी में सबसे बड़े अवरोधक बन गये हैं।

प्रति रविवार को स्वेच्छा से करोड़ों मसीही भवनों में आराधना के नाम से स्वयम् कैद हो जाते हैं जिससे वे बाहर जाकर संसार में गवाही नहीं दे पाते। शैतान ने ईश्वर के लोगों की आंखो को भी बंद कर रखा है (2 कुरिन्थियों 4ः 4) और यदि प्रभु की कलीसिया उस अन्धकार को दूर करने का प्रयास ही नहीं करती और रविवारीय कैद में रहना पसन्द करती है, तो उससे अच्छी बात, उस अंधकार के महाराज के लिए क्या हो सकती है ?
ऐसी कई कलीसियाएं हैं जहां विधिवत आराधना हर रविवार को चलाई जाती हैं परन्तु सालों-साल एक भी आत्मा नहीं जीती जाती। हम शायद इस भ्रम में है कि शिष्य बनाना किसी और का काम है। सत्य तो यह है कि यदि आप विश्वासी हैं तो यह आपका काम है। क्योंकि अन्य जातियों के उद्धार का रहस्य केवल विश्वासियों को दिया गया है (कुलुस्सियों 1ः 26- 28)। 

एक दुकान जो छः दिन बंद रहती है और सातवे दिन केवल घंटे-दो-घंटे के लिए खुलती है वह कदापि परमेश्वर के उद्धार के मार्ग को अन्य जातियों को नहीं बता सकती। वैसे भी किसी दुःखी ने कहा है कि धर्म के अगुवे छः दिन आराम करते हैं और सातवें दिन सब का आराम हराम कर देते हैं। अपने पालन पोषन के लिये जो धन आपको कमाने में पूरा सप्ताह लगता है उसे धर्म के व्यापारी अपनी दुकान में दो घंटे में कमा लेते हैं।

वास्तविकता तो यह है कि हमें हमारे पिता और प्रभु के समान रोज़ काम करना है (यूहन्ना 5ः 17; 9ः 4; 4ः 34)। हमारे प्रभु के जी उठने के बाद का पहिला रविवार बड़ा व्यस्त दिन था। बड़े तड़के मृत्यु पर जयवंत होकर वे कबर से निकले, मरियम मग़दलीनी से उनका वार्तालाप हुआ (यूहन्ना 20ः 15-18),

फिर वे क्लियोपास और एक अन्य शिष्य के साथ दस किलोमीटर दूर इम्माउस को पैदल गए। रास्ते भर उन्होंने उन्हें शिक्षा दी (लूका 24ः 13-18)। उसके बाद उसी दिन शाम को वापस यरूशलेम में गुप्त रूप से इकट्ठे शिष्यों से संगति की और उन्हें दीक्षा  दिया कि जैसे पिता ने मुझे भेजा है वैसे ही मैं भी तुम्हें भेजता हूँ (यूहन्ना 20ः 19-23)। रविवार के दिन, तड़के सुबह से देर रात तक व्यस्त, प्रभु को मानने वाले, यदि हम रविवार को पवित्र समझकर केवल विश्राम करते हैं तो यह सरासर ग़लत है। स्वर्ग में तो चारो प्राणी, चैबीस प्राचीन और अनगिनत स्वर्गदूत रात और दिन उसकी बड़ाई, महिमा और आदर करते हैं (प्रकाशित वाक्य 4ः 4-11)। 

इस संसार के करोड़ों लोग सीधे नरक में जा रहे हैं और प्रभु के लोग विश्राम कर रहें हैं। विश्राम के दिन की योजना के लिए हम शैतान को ही धन्यवाद दे सकते हैं। प्रभु इस संसार में इसलिए आया कि सब का उद्धार हो और प्रतिदिन हो। (लूका 13ः 29-33)

यदि हम रविवार को सुन्दर से चर्च में प्रभु प्रभु कहकर, सप्ताह भर कुछ और करने में लग जाएं तो प्रभु को हमारे चर्च जाने से कितना दुःख होता होगा इसका अन्दाज़ा शायद हम आज न लगा सकेंगे। परन्तु इस अनुग्रह के समय को हम बरबाद कर रहे हैं इसमें दो मत नहीं। चाहे रविवार हो या सप्ताह का कोई और दिन, हर एक दिन संघर्षपूर्ण (2 कुरिन्थियों 10ः 3-6; इफिसियों 6ः 10-18) होना चाहिए। 

हर दिन प्रभु के पवित्र स्वर्गदूत, आपके द्वारा आत्माऐं जीतने पर खुशी से नाचने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। (लूका 15ः 10) इस दशक में अमेरिका के पेन्सीकोला कलीसिया के पास्टर किलपेट्रिक ने दुःखी होकर दो हज़ार सदस्यों की रविवारीय आराधना समाप्त कर दी और घोषणा की कि वे सब मिल कर प्रतिदिन प्रार्थना करेंगे। इसका पेन्टीकाॅस्टल कलीसिया द्वारा बड़ा विरोध हुआ परन्तु क़रीब दो साल प्रार्थना करने के बाद पवित्र आत्मा बड़े सामथ्र्य के साथ उतरा और अभी तक क़रीब पच्चीस लाख लोग वहां जाकर प्रोत्साहित हो चुके हैं और क़रीब साढ़े तीन लाख लोग उद्धार पा चुके हैं। आपको भी आज्ञा मिली है कि इन नाश होने वालों को बचाइये और रविवार की आराधना में व्यस्त रहने का बहाना नहीं चलेगा। (नीतिवचन 24ः 10-12)

प्रभुजी दो हज़ार साल से प्रतिदिन मध्यस्थता की प्रार्थना कर रहे हैं (इब्रानियों 7ः 25)। परन्तु हिन्दीभाषी क्षेत्र से निवेदन के अभाव में बड़े दुःखी होंगे (1 तिमुथियुस 2ः 1-4)। हो सकता है कि समय आ गया है कि आप भी रविवारीय औपचारिक आराधना बंद कर के प्रतिदिन मध्यस्थता की प्रार्थना (भजन संहिता 2ः 8) करते हुए प्रभु के महान आदेश की पूर्ति में लवलीन हो जाएं।

रविवार को पवित्र विश्राम का दिन मनाने का पूरे धर्मशास्त्र में कोई प्रावधान नहीं है।

कोई तो एक दिन को दूसरे से बढ़कर मानता है और कोई सब दिन एक जैसा मानता है। हर एक अपने ही मन में निश्चय कर ले। जो किसी दिन को मानता है, वह प्रभु के लिए मानता है क्योंकि वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है। (रोमियों 14ः 5)

कलीसिया के रेजिस्टर में नाम लिखाने से कोई स्वर्ग नहीं जाता। मेम्ने की किताब में नाम लिखाने के लिए ‘‘मनुष्यों के मछुए’’ बनना आवश्यक है। (मरकुस 1ः 17-20)

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