घरेलू कलीसिया और प्रेरितीय सेवकाई
प्रेरित का अर्थ होता है संदेश वाहक या दूत (Apostle)। प्रेरित के सब से बड़े आदर्श तो प्रभु यीशु ही हैं (इब्रानियों 3ः 1) उसके बाद उनके बारह शिष्य, प्रेरित कहलाए। वे विशिष्ट प्रेरित थे और उनके नाम नये यरूशलेम की नीव पर लिखे हैं (प्रकाशित वाक्य 21ः 14)। कई लोगों का ख्याल है कि केवल ये ही प्रेरित हैं परन्तु नए नियम में क़रीब बाईस प्रेरितों के नाम आएं हैं और प्रेरित शब्द भिन्न-भिन्न रूप में क़रीब सात सौ बार पूरी बाईबल में आया है। हर एक जगह यह ‘‘भेजे गए’’ सेवक के लिए काम आया जिसे आज हम ‘मिशनरी’ कहते हैं।
जब प्रभुजी को खबर मिली कि राजा हेरोदेस उन्हें मार डालना चाहता है तो उन्होंने कहा ‘‘जाकर उस लोमड़ी से कह दो कि देख मैं आज और कल दुष्ट आत्माओं को निकालूंगा और बीमारों को स्वस्थ करूंगा ... फिर भी मुझे आज और कल और परसों चलते रहना अवश्य है...। (लूका 13ः 31-33)
प्रभु यीशु ने अपनी कलीसिया को प्रेम के वरदान दिए जिसमें प्रेरितीय सेवकाई को सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण माना गया है (इफिसियों 4ः 11-12; 1 कुरिन्थियों 12ः 27-31)। अन्य जातियों के उद्धार का रहस्य पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरितों और भविष्यवक्ताओं को ही दिया गया है। (इफिसियों 2ः 20-22; 3ः 5-6)
अन्ताकिया की कलीसिया में भविष्यवक्ता और शिक्षक थे परन्तु जब वे उपवास और प्रार्थना कर रहे थे तो पवित्र आत्मा ने पौलुस और बरनबास को प्रेरिताई सेवकाई के लिए चुनकर दूर भेज दिया। (प्रेरितों के काम 13ः 1-3)
प्रेरित का दर्शन बड़ा होता है और वह न केवल अपनी कलीसिया का परन्तु अपने शहर, जिला, प्रान्त और पूरे देश में नई-नई कलीसिया स्थापित करने में संलग्न रहता है। वह प्रचारक से बहुत अलग होता हैं क्योंकि प्रचारक अन्य जातियों में प्रचार करके वापस आ जाता है परन्तु प्रेरित जहां भी जाता है तो नई कलीसिया का निर्माण करने में लग जाता है। यहां तक क्लेश उठाकर परिश्रम करता है कि जब तक कि वहां स्थानीय प्राचीन नियुक्त न कर ले (प्रेरितों के काम 14ः 23)। यदि उसके वरदान को पहचाना जाता है तो वह शीघ्र कलीसिया की कमजोरियों को पहिचान लेता है और एक आत्मिक पिता के समान भटकी हुई भेड़ों को सीधे रास्ते पर ले आता है। इसके अलावा वह निडर होता है और साफ-साफ बोलने में नहीं हिचकता। आत्मिक पिता होने के कारण वह जो कुछ चेतावनी देता है वह प्रेम से ही देता है (इफिसियों 4ः 15) क्योंकि उसको मसीह की देह की उन्नति की चिन्ता लगी रहती है, वह कोई ऐसा काम नहीं करेगा जिसका धर्म शास्त्र से पुष्टिकरण न हो। ऐसे व्यक्ति को कलीसिया में ज़्यादा आदर और सम्मान नहीं मिलता क्योंकि कलीसिया में दर्शन वाले लोग कम होते हैं।
प्रेरित में एक और ख़ासियत होती है कि वह अनेक प्रेरितों को तैयार करता है। क्योंकि उसका दर्शन बड़ा होता है इसलिए उसे मालूम है कि वह अकेला मसीह की देह की उन्नति का काम नहीं कर सकता। जैसा मसीह ने प्रेरितों को तैयार किया और कहा कि जैसा पिता ने मुझे भेजा है वैसे मैं भी तुमको भेजता हूँ (यूहन्ना 20ः 21)। सारी कठिनाईयों के बीच प्रेरित अपने जीवन काल में अनेक प्रेरित तैयार कर के भेज देता है। प्रेरित जिस को शिक्षा देकर प्रेरितीय सेवकाई के लिए तैयार करता है उसे वह एक विद्यार्थी समझ कर केवल ज्ञान नहीं देता परन्तु उसे आत्मिक पुत्र की तरह गोद में ले लेता है और उसे बड़े प्यार और ताड़ना और परिश्रम से तैयार करता है (2 तीमुथियुस 2ः 1-2; 1 कुरिन्थियों 4ः 17; तितुस 1ः 4; फिलेमोन 1ः 10)। प्रभु यीशु ने भी अपने शिष्यों से कहा कि मैं तुम्हे दास नहीं कहता परन्तु मित्र कहता हूँ। (यूहन्ना 15ः 15)
प्रेरित एक प्रार्थना करने वाला व्यक्ति होता है। वह पौलुस के समान अपने आत्मिक बच्चों के लिए दावे से कह सकता है कि मैं तुम्हारे लिए निरन्तर प्रार्थना करता हूं कि तुम्हारी आंखे ज्योतिर्मय हो, कि तुम जान सको कि उसके बुलाहट की आशा क्या है (2 तिमोथी 1ः 3; इफिसियों 1ः 16-18)। दूसरों के लिए मध्यस्थता की प्रार्थना करना जिससे मसीह की देह उन्नति करे, यह प्रेरित की ख़ासियत होती है।
कई श्रेणी के प्रेरित होते हैं। सबके सब पौलुस की बराबरी के नहीं होते। यह उनके दर्शन, अनुग्रह और विश्वास के ऊपर निर्भर करता है। (रोमियों 12ः 3)
प्रेरित कभी अकेले काम नहीं कर सकता। पौलुस तिमोथी, तीतुस और इपफ्रुदीतुस (फिलिप्पियों 2ः 25) को आत्मिक पिता की तरह तैयार कर रहा था, परन्तु उसे स्वयम् सिलास की सहायता की ज़रूरत थी जो एक नबी था। (प्रेरितों के काम 15ः 32, 40)
बिना भविष्यवक्ता की अगुवाई के प्रेरित का काम मुश्किल है। अन्य सेवकाईयों की तरह प्रेरित की सेवकाई स्वतंत्र नहीं होती बल्कि दूसरे वरदानी लोगों पर निर्भर करती है। धर्मशास्त्र हमको सिखाता है कि एक से दो अच्छे हैं और तीन लड़ियों से बंटी रस्सी जल्दी नहीं टूटती (सभोपदेशक 4ः 9-12)। इसीलिए प्रभु ने हमें सिखाया कि यदि तुम में से बिनती के लिए दो जन एकमत हो तो स्वर्गीय पिता उस बिनती का आदर करेगा और जहां दो या तीन प्रभु के नाम से इकट्ठे हों वहाँ प्रभु स्वयम् उपस्थित हो जाते हैं।
दो या तीन जन जहां भी इकट्ठे होते हैं वहां कलीसिया बन जाती है क्योंकि प्रभु अपने वायदे के अनुसार उपस्थित हो जाते हैं और आराधना के केन्द्र बिन्दु बन जाते हैं। जहां मंडली बड़ी हो जाती है तो भटक जाती है क्योंकि पास्टर उसका केन्द्र बिन्दु बन जाता है। (मत्ती 18ः 18-20)
हालांकि तस्वीरों में इन्हें साफ सुन्दर कपड़े पहिने, हाथों में फूल माला लिये, चेहरे पर मुस्कान और सिर के चारों ओर ज्योति इत्यादि के रूप में दिखाया जाता है। परन्तु बाईबल के अनुसार प्रेरितों की वास्तविक्ता कुछ और है। वे दिखने में कमज़ोर (2 कुरिन्थियों 10ः 10), जेल यात्री (प्रेरितों के काम 16ः 23), भूखे प्यासे और रद्दी कपड़े पहिनने वाले (1 कुरिन्थियों 4ः 11), मेहनत करते-करते खुरदुरे हाथ (प्रेरितों के काम 18ः 3), कभी-कभी बहुत बीमार और दुःखी (2 कुरिन्थियों 1ः 8-11; गलातियों 4ः 13; 2 कुरिन्थियों 11ः 30), हर किस्म के जोखिम और खतरे में पड़ने वाले, पिटाई खाने वाले और बेइज़्जत होने वाले थे। (2 कुरिन्थियों 11ः 23-28)।
बाईबल की यह तस्वीर तो बिलकुल फर्क है। इसलिए प्रेरितीय सेवकाई केवल उनके लिए है जो प्रभु के समान अपना क्रूस रोज़ उठाने के लिए तैयार रहते हैं। यह सेवकाई त्यौहारी और रविवारीय गुनगुुने ईसाईयों के लिए नहीं है जिनको प्रभु अपनेे मुंह से उगल देगा (प्रकाशित वाक्य 3ः 16)। यह सेवकाई उनके लिए भी नहीं जो बढ़िया सूट, रेशमी कपड़े पहन कर काॅनफ्रेन्स, और क्रूसेड में जाते हैं परन्तु अन्य जातियों में से आत्मा जीतने के लिए कुछ नहीं करते। यह सेवकाई उनके लिए भी नहीं है जो कभी-कभी जोश में आकर बरसाती मेंढक के समान बस्तियों में हल्ला-गुल्ला करके और परचे बांट कर वापस आ जाते हैं।
तो क्या आज भी प्रेरित हमारे बीच पाए जाते हैं? प्रेरित अवश्य आज भी प्रचुर मात्रा में हैं परन्तु अदृश्य हैं क्योंकि वे खेतों में हैं और खलिहानों में आत्मिक फसल को इकट्ठा करने में व्यस्त हैं। वे आपको कलीसिया की आराधना में आराम से बैठे नहीं मिलेंगे। प्रभु ने स्वयम् यह प्रेम वरदान कलीसियाओं को प्रदान किया है जिससे मसीह की देह उन्नति पाए (इफिसियों 4ः 11-12)। प्रेरित और भविष्यवक्ता की सेवकाई के बिना, कलीसिया भटक जाती है और उसकी उन्नति के बदले उसमें उपद्रव होने लगता है।
प्रेरित एक बहुगुणीय व्यक्तित्व वाला इन्सान होता है जो प्रभु की ओर से कलीसिया को दिया गया वरदान है जिसके द्वारा कलीसिया का चहँुमुखी विकास होता है। यही कारण है कि कलीसिया की पाँचो वरदानी सेवकाई के पंजे में प्रेरितीय सेवकाई को अंगूठे का स्थान प्राप्त है।
प्रेरितीय सेवा का वरदान प्रत्येक स्त्री-पुरूष और जवान के लिये उपलब्ध है। बस प्रार्थना में प्रभु से मांगने भर की देर है। धर्मशास्त्र हमें चुनौती देता है कि, हम ऊँचे से ऊँचा वरदान माँग लें (1 कुरिन्थियों 13ः 13, 14ः 1)। परन्तु यह वरदान मांगने से पहिले सोच समझकर मांगना चाहिये, क्योंकि ‘‘परमेश्वर ने हम प्रेरितों को सब के बाद उन लोगों की नाई ठहराया है, जिन की मृत्यु की आज्ञा हो चुकी है; क्योंकि हम जगत और स्वर्गदूतों और मनुष्यों के लिये एक तमाशा ठहरे हैं। ...हम आज तक जगत के कूड़े और सब वस्तुओं की खुरचन की नाई ठहरे हैं।’’ (1 कुरिन्थियों 4ः 9-13)
सुसन्देश वाहक प्रेरित बनिये और अनेको-अनेक छोटी-छोटी कलीसियाएं स्थापित करके अपने क्षेत्र को परमेश्वर की महिमा के ज्ञान से ऐसा भर दीजिए जैसे समुद्र पानी की बूंदों से भर जाता है। (हबक्कूक 2ः 14)
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