घरेलू कलीसिया और संस्कृति
पूरे धर्मशास्त्र में संस्कृति के बारे में अनेक रूप से बहुत कुछ लिखा गया है क्योंकि विश्वास और संस्कृति का गहरा सम्बंध होता है। यीशु मसीह यहूदी संस्कृति में पैदा हुए, उनके रीति-रिवाज़ों को माना और उनके वस्त्र पहिने, उनका भोजन खाया और उनकी भाषा बोली। परन्तु उनका दर्शन दूरगामी और पृथ्वी की छोर तक का था। पहिले उन्होंने प्रशिक्षण के समय अपने चेलों को केवल यहूदियों के बीच भेजा (मत्ती 10ः 5-6) परन्तु जब वे तैयार हो गए तब प्रभु यीशु ने आज्ञा दी कि सब जाति के लोगों को शिष्य बनाओ। (मत्ती 28ः 19)
आरम्भ में ठीक इसके विपरीत शिष्यों ने केवल यहूदियों के बीच प्रचार किया (प्रेरितों के काम 11ः 19)। नए यहूदी विश्वासियों का यह मत था कि मसीही बनने से पहिले अन्य जातियों को यहूदी बनना ज़रूरी है। उनका ख़तना करवाया गया और उन्हें यहूदी रीति-रिवाजों को मानने के लिए बाध्य किया गया (प्रेरितों के काम 15ः 1) यहां तक की पतरस जब अन्य जाति के कुरनेलियुस सूबेदार के घर गया तो यहूदियो ने उससे वाद-विवाद किया (प्रेरितों के काम 11ः 1-3)। इसके बाद एक महासभा बुलाई गई और ग़ैर यहूदियों को पहिले यहूदी बनाने की जालसाज़ी से बचाया गया और इसके बाद ही मसीही धर्म अन्य जातियों में ख़ास कर यूनानियों में बड़ी तेज़ी के साथ फैला। (प्रेरितों के काम 13ः 41-52)
यहूदियों के बाद यूनानियों ने मसीहत को जकड़ लिया। चूंकि नया नियम यूनानी भाषा में लिखा था अतः वहां के आर्थोडाॅक्स (कट्टरपन्थी) कलीसिया ने कहा कि उद्धार केवल इसी कलीसिया के द्वारा है। उन्होंने पुराने नियम के बहुत से विधि-विधानों को जो यरूशलेम के मंदिर में प्रचलित थे अपनाया। आज भी वे धूप जलाते हैं, पुरानी भाषा में आराधना करते हैं जिसे कोई समझता नहीं और यही कारण है कि ह कलीसिया पतन की ओर है।
इसके बाद हम देखते हैं कि रोम में लतीनी भाषा में बाईबल का अनुवाद किया गया और रोमन केथोलिक चर्च ने एक हज़ार साल के लिए मसीहत पर कब्ज़ा कर लिया। आज जैसे अंग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व है वैसे ही लतीनी भाषा का वर्चस्व था। सारी आराधना लतीनी भाषा में होती थी जिसे आम जनता परमेश्वर की भाषा मानती थी मगर समझती कुछ नहीं थी। साधारण सदस्य को बाईबल पढ़ना सख्त मना था। यह केवल प्रीस्ट लोगों का अधिकार था। आज भी अधिकांश केथोलिक इसी बंधन में हैं।
सोलहवीं शताव्दी में लूथर के विद्रोह के बाद धर्मशास्त्र का अनेक भाषाओं में अनुवाद होना शुरू हुआ और जैसे-जैसे लोगों ने अपनी-अपनी भाषा में सुसमाचार को पढ़ना शुरू किया, वैसे-वैसे ही मसीही धर्म विस्फोटक रूप से फैलना शुरू हुआ। परन्तु धर्मशास्त्र के अनुवादकों को भी अधिकारियों का क्रोध भुगतना पड़ा। विकलिफ नाम एक अनुवादक की हड्डियों को कब्र में से खोदकर बाहर फिकवा दिया गया। सोलहवीं शताब्दी में इस संसार में मसीहियों से ज़्यादा मुसलमान थे। परन्तु उन्होंने कुरान का अरबी से अन्य भाषाओं में अनुवाद कराने से इन्कार कर दिया क्योंकि वे अरबी को अल्लाह की भाषा मानते हैं। यही कारण है कि वे पीछे रह गए और आज वे केवल 110 करोड़ हैं जबकि मसीही उनसे दुगने हो गए और तेज़ी से फैल रहे हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में परमेश्वर ने नये सिरे से कलीसिया रोपण का कार्य आरम्भ किया, जिसे किसी हद तक पहिले पिन्तेकुस्त और फिर केरिस्मेटिक लोगों ने जकड़ लिया। क्योंकि आरंभ में वे सिर्फ अन्य भाषा तक ही सीमित रहे। इसके बाद साम्यवाद (Communism) ने रूस, चीन, और पूर्वी यूरोप के देशों में कलीसिया पर क़रीब पचहत्तर साल के लिए कब्ज़ा कर लिया जिससे अभी-अभी छुटकारा मिलना शुरू हुआ है।
आज कलीसिया पूरी तरह से पास्टरों और संगठन के नियमों के बंधन में बंधी है और जब तक इनसे छुटकारा नहीं मिलेगा तब तक सत्य को जानते हुए भी साधारण विश्वासियों का याजकीय समाज नहीं बन पायेगी (यूहन्ना 8ः 31-32)
परमेश्वर ने आज से क़रीब ढाई हज़ार साल पहिले एस्तर रानी के समय प्रधानमंत्री मोर्दीकई के द्वारा बहुत से यहूदियों को हिन्दुस्तान में प्रशासन करने के लिए भेजा (ऐस्तर 1ः 1)। इन्होंने अयोध्या, मथुरा, पुष्कर इत्यादि स्थानों में केन्द्र स्थापित किये। राम (उत्पत्ति 10ः 7), कृष्ण (यह एक इथियोपियन शब्द है जिसका अर्थ है काला), ब्राहृमण (अब्राहम से) और ऋषि मुनियों के अधिकांश नाम पलिस्तीनी या बेबिलोनियन नाम हैं। आर्य लोग मूर्ति पूजक नहीं थे परन्तु बाद में ये सब मूर्ति पूजा में गिर पड़े। इसके बाद जैनियों, बौद्धों और मुसलमानों ने मूर्ति पूजा के विरूद्ध अभियान छेड़ा पर असफल रहे। अंत में परमेश्वर ने पाश्चात्य् देशों द्वारा मसीहत को भेजा जिससे कि इन देशवासियों का उद्वार हो जाए। परन्तु वे भी अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो पाये, क्योंकि उनकी सेवा स्थानीय लोगों की संस्कृति के अनुकूल नहीं थी।
अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में जो मिशनरी भारत आये वे साधारण, पर समर्पित लोग थे। उन्होंने अनेक कष्ट सहते हुए प्रचार किया और कलीसियाएं स्थापित की। इसके बाद बुद्धिजीवी और प्रशिक्षित मिशनरी आये जिन्होंने स्कूल, काॅलेज और अस्पताल खोले परन्तु प्रचार और कलीसिया रोपण को प्राथमिकता नहीं दी। इन संस्थाओं ने कलीसिया के आर्थिक स्त्रोतों और योग्य व्यक्तियों को आकर्षित कर लिया। परिणमस्वरूप कलीसिया की बढ़ोत्तरी का काम अवरूद्ध हो गया। आज इन संस्थाओं का लगभग पूर्णतः व्यवसायीकरण हो चुका है।
हाॅलैंड देश में जवानों के बीच एक सर्वेक्षण से पता चला कि अधिकांश जवानों ने कहा कि हम यीशु से प्रेम करते हैं, परन्तु हमें चर्च से नफ़रत है। इसी प्रकार हिन्दुओं और मुसलमानों में प्रभु यीशु मसीह के लिए बड़ी सद्भावना, आदर और प्रेम है परन्तु पाश्चात्य् संस्कृति में लिप्त, मिशन कम्पाऊंड के बंदीगृह जैसे वातावरण में पली विदेशी धन पर आश्रित, अंतरकलह और भ्रष्टाचार में लिप्त कलीसिया आज उनके लिए ठोकर का कारण है।
हमारे योग्य एवं अच्छे विद्यार्थी थियोलाॅज़ी (धर्म विज्ञान) पढ़ने के लिए यूनानी, इब्रानी और जर्मन भाषा का विदेश जाकर कई साल अध्ययन करते हैं परन्तु साठ करोड़ हिन्दुओं को प्रभु में लाने के लिए संस्कृत या चैदह करोड़ मुसलमानों के लिए उर्दू या अरबी नहीं सीखते, न उन्हें बौद्ध धर्म, जैन धर्म या सिक्खों की गुरूवाणी के बारे में कुछ ज्ञान है।
आज भारत में 30 करोड़ ऊँची जाति के और 30 करोड़ मध्यम जाति के, सब मिलाकर 60 करोड़ हिन्दू हैं, जिनमें मसीही गवाही लगभग शून्य है। आज भी उच्च और मध्यम जातियों के हिन्दुओं के बीच इने गिने मिशनरी कार्यरत हैं। भारत में 14 करोड़ मुस्लिम हैं, जिनके मध्य में भी गवाही लगभग शून्य है। करोड़ों मुसलमानों के बीच वर्तमान में पूरे भारत वर्ष में कुल मिलाकर सौ से कम मिशनरी काम कर रहे हैं। यदि हम उनके लिए प्रार्थना भी न करें तो फिर उन्हें कट्टर कहने का क्या औचित्य ? सत्य तो यह है कि मुसलमान प्यार और आदर से मसीहियों से बर्ताव करते हैं और आज तक भारत में उन्होंने मसीहियों से टकराव नहीं लिया। इंडोनेशिया के बाद भारत दूसरे क्रम का मुस्लिम आबादी वाला देश है जहां मुसलमानों के बीच वैधानिक स्वतंत्रता से प्रचार किया जा सकता है। इंडोनेशिया में तो 25ः आबादी मसीही हो गयी, परन्तु भारतीय कलीसिया ने इस खुले अवसर का कोई फ़ायदा नहीं उठाया।
केवल हरिजन लोग जो 14 करोड़ और आदिवासी जो 10 करोड़ हैं, उनमें से 2.5 करोड़ मसीही हैं जिसके लिए हम परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं। परन्तु आदिवासी और दलित मसीहियों ने अपने रिश्तेदारों और अपनी जाति के लिए कुछ नहीं किया। इन्होंने अपने स्वयम् के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सारी सुविधाओं का लाभ उठाया, आराधनालय में अनुचित रीति से प्रभु भोज लिया और अपने बच्चों को गलत बपतिस्मा दिलाया परन्तु अपने दलित बन्धुओं के लिए कुछ नहीं किया।
पाश्चात्य सूट-बूट, पाश्चात्य भवन, पाश्चात्य वेश भूषा में शादी-विवाह, पाश्चात्य भाषा में आराधना, पाश्चात्य संगीत इत्यादि आज महान अवरोधक बन गए हैं।
हमें पाश्चात्य् संस्कृति के नशे में डूबी आधुनिक कलीसिया को साम्प्रदायिक (डिनामिनेशनल) चारदीवारी, अफ़सरशाही, धन-सम्पत्ति, कोर्ट-कचहरी और रीति-रिवाज़़ के बन्धनो से छुड़ाना पड़ेगा।
यदि गांधीजी पाश्चात्य् वस्त्र पहिनते तो वह भारतीय जनता में ग्रहण नहीं किये जाते। जिस प्रकार से उन्होंने लंगोटी पहिनी उसी प्रकार से मसीहियों कोे भी पाश्चात्य् संस्कृति और संगीत को त्यागना पड़ेगा और स्वदेशी संस्कृति में प्रभु को दिखाना होगा। तभी प्रभु, आम जनता को ग्रहण होंगे और परमेश्वर का दर्शन साकार होगा कि हरएक जीभ उसका जयजयकार करेगी और हरएक घुटना उसके सामने टिकेगा। प्रभु ने दो हज़ार साल पहिले लंगोटी पहनकर क्रूस पर सब जातियों के लिये अपना खून बहाया जिससे सब का उद्धार हो। इसलिए कलीसिया का पूरी तरह से स्वदेशीकरण आवश्यक है जिसके लिए घरेलू कलीसिया ही उपयुक्त है।
यरूशलेम में शीर्ष प्रेरितों के द्वारा एक महासभा का आयोजन किया गया जिसमें संस्कृति के बारे में मंथन किया गया और यह निष्कर्ष निकला कि अन्य जातियों से आए हुए नये विश्वासियों पर मात्र चार प्रतिबंध लगाएं जाएं। 1. मूर्तियों की अशुद्धताओं से। 2. व्यभिचार से। 3. गला घोटे हुए पशुओं के मांस से। 4. खून के सेवन से दूर रहें। (प्रेरितों के काम 15ः 20)
दुःख के साथ कहना पड़ता है हमारे अगुवे अन्य जातियों से आने वाले नए विश्वासियों पर व्यर्थ के नियम थोपते हैं जैसे मांथे की बिन्दी और सिर का सिंदूर, जिनका नहीं लगाना स्त्रियों के विधवापन का संकेत है तथा उनकी चूड़ियां और छोटे-मोटे गहने उतारने इत्यादि पर ज़्यादा ध्यान लगाते हंै और स्वयं अपनी पुत्रियों के विवाह में लाखों रूपयों का डावरी (दहेज) देते हैं। वे उन्हें मांस खाने, अंग्रेज़ी नाम रखने और पाश्चात्य् संस्कृति में लाने पर ज़ोर देकर उनको हतोत्साहित कर देते हैं।
आप भी पौलुस के साथ कहिये - ‘‘यद्यपि मैं सब मनुष्यों से स्वतन्त्र हूं फिर भी मैंने अपने आप को सब का दास बना लिया है कि और भी अधिक लोगोें को जीत सकूं। यहूदियों के लिए मैं यहूदी जैसा बना कि यहूदियों को जीतूं।.... मैं निर्बलों के लिए निर्बल बना कि निर्बलों को जीत लाऊं। मैं सब मनुष्यों के लिए सब कुछ बना कि किसी न किसी प्रकार कई एक का उद्धार करा सकूं। और मैं सब कुछ सुसमाचार के लिए करता हूं कि अन्य लोगों के साथ उसका सहभागी बन जाऊं।’’। (1 कुरिन्थियों 9ः 19-23)
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