वैदिक संवाद में "नाम की महिमा" "रामायण (मानम एंव तुलसी कृत)"

रामायण (मानस एंव तुलसी कृत) में........ नाम की महिमा

दोहाः  दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन, जन मन अमित नाम किए पावन।।
          निसिचर निकर दले रघुनंदन, नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।
                          बालकाण्ड (मानस 23ः4; तुलसी 30ः4)

अर्थातः प्रभु श्रीरामजी ने भयानक दण्डक वन सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्रीरघुनाथजी ने राक्षसों के समुह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है। 

दोहाः सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
         नाम उघारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथा।।
                 बालकाण्ड (मानस 24; तुलसी 31)

अर्थातः श्रीरघुनाथ जी ने तो शाबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों ही को मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अनगनित दुष्टों का उद्धार किया नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है।

दोहाः राम सुकंठ बिभीषन दोऊ, राखे सरन जान सबु कोऊ।।
          नाम गरीब अनेक नेवाजे, लोक बेद बर बिरिद बिराजे।।
                         बालकाण्ड (मानस 24ः1; तुलसी 31ः1)

अर्थातः श्रीरामजी ने सुग्रीव और विभीषण दो को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते है, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है, नाम का यह सुन्दर विरद लोक और वेदों में विशेष रूप से प्रकाशित है।

दोहाः अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ, भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।
          कहौं कहां लगि नाम बड़ाई, रामु न सकहिं नाम गुन गाई।। 
                      बालकाण्ड (मानस 25ः4; तुलसी 32ः4)

अर्थात: नीच अजामिल, गज और गणिका वेश्या भी श्रीहरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक करूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।

दोहाः हुँ जग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊं, कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।
बालकाण्ड (मानस 21ः4; (ब) तुलसी 28ः4 (ब))

अर्थात: चारों युगों में और चारों वेदों में नाम का प्रभाव है। परन्तु कलियुग में विशेषरूप से है, नाम को छोड़कर दूसरा उपाय ही नहीं है। दूसरे शब्दों में ‘‘कलयुग केवल नाम अधारा सुमर सुमर नर उतरे पारा।

किसका सुमरन करने से मनुष्य सिद्ध होता है?
श्रीराम चरित्र मानस में सृष्टिकर्ता परमेश्वर की बंदना गुरू के रूप में एंव चमत्कारी, बुद्धियुक्त, अद्भुत पराक्रमी ईश्वर के रूप में किया है। 

सोरठा : जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।।
              करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
              मुक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
             जासु कृपां सो दयाल द्रवड सकल कलि मलदहन।।
                          बालकाण्ड (मानस सोरठा 1 और 2)

अर्थात: जिसके सुमरन करने मात्र से मनुष्य सिद्ध हो जाता है, मैं उस विश्व के सृष्टिकर्ता परमेश्वर की वन्दना करता हूँ, वह मुझ पर अनुग्रह करें, क्योंकि वह बुद्धि की खान और उनका स्वभाव शुभ है, और वे भक्तों के शरण स्थल है। 
जिसकी कृपा से गुंगा बहतुत सुन्दर बोलने वाला हो जाता है, और लँगड़ा लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु प्रभु है मुझ पर दया करें।

गणनायक पर टिप्पणी: गण का अर्थ संख्या या समुह से है, इस धातु से गण शब्द सिद्ध होता है। नायक अर्थात अधिपति, या समुह से है, नायक अर्थात अधिपति, प्रभु स्वामी, पति, पालने वाला सिद्ध होता है। ‘‘गणेश‘‘ - यदि हम गणेश शब्द की सन्धी विग्रह करें। गण एश गणेश । अर्थात संख्या और एश अर्थात ईश या परमात्मा। इस प्रकार गणेश का अर्थ गणों का ईश या परमात्मा। ‘‘गणपति‘‘ - शब्द से यही अर्थ सिद्ध होता है।

अर्थात समस्त तत्वों और पदार्थाे का कर्ता स्वामी परमेश्वर है। परमेश्वर के नाम को गणनायक, गणेश, गणपति नामों से पुकारा गया है। यह सम्पूर्ण ब्रम्हांड का नायक सृष्टिकर्ता है। यह शिव पार्वती का सुंड वाला पुत्र गणेश उत्पन्न नहीं हुआ था। असली विघ्न विनाशक गणेश वह नही है जिसे आप समझ रहे हैं परन्तु असली गणेश सृष्टि कर्ता परम पिता परमेश्वर है। (सत्यार्थ प्रकाश पेज नं.17)

छन्द: कोटिहुँ बदन नहिं बनैं बरनत जग जननि सोभा महा।
         सचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा।।
         छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।।
         अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरू जहाँ।।
                            बालकाण्ड (मानस दोह नं.99)

अर्थात: जग जननी पार्वती जी की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वती जी भी कहते हुए सकुचा जाते है। तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनती में है, सुन्दरता और शोभा की खान माता भवानी मण्डप की बीच में जहाँ शिवजी थे वहाँ गयी। वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरण कमलों को देख नहीं सकती परन्तु उनका मन तो वहीं था। 

दोहा: मुनि अनुसासन गनपतिहि पुजेऊं संभु भवानि।
         कोउ सुनि संसय करै अनि सुर अनादि जियँ जानि।।
            बालकाण्ड (मानस दोहा 100 तुलसी दोहा 112)

अर्थात: मुनियो की आज्ञा से शिवजी और पार्वती जी ने गणेश जी की पुजा की, मन में देवताओं को अनादि समझकर कोइ इस बात को सुनकर शंका न करें कि गणेश जी तो शिव पार्वती की सन्तान है, अभी विवाह से पूर्व कहां से आ गए।

सोरठाः बंदऊं गुरू पद कंज कृपा सिन्धु नर रूप हरि।
             महामोह तम पुंज जासू बचन रबि कर निकार।।
                           बालकाण्ड (मानस सोरठा नं. 5)

अर्थात: मैं उस गुरू महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के सागर और नर रूप में हरि है। और निके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार के नाश करने के लिये सूर्य - किरण के समूह है।

मनुष्य की उत्पत्ति और पाप में गिरना

मनुष्य अन्य जीवों और प्राणियों से भिन्न आत्मिक प्राणी है। बाईबल वचन उत्पत्ति नामक पुस्तक में प्रकट करता है, कि परमेश्वर ने मनुष्य (पुरूष-स्त्री) को अपने ही स्वरूप् में और समानता में उत्पन्न किया। रामायण भी मनुष्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कथन प्रकट करती है। - 

दोहा: सुनहु तात यह अकथ कहानी, समुझत बनई न जाइ बखानी।।
         ईश्वर अंश जीव अबिनाशी, चेतन अमल सहज सुखरासी।।
                      उत्तरकाण्ड (मानस 116ः1; तुलसी 197ः1)

अर्थात: हे तात यह अकथनीय कहानी सुनिये यह समझ में तो आती है, परन्तु कही नहीं जा सकती, यह जीव ईश्वर का अंश है अतएव वह अविनाशी, चेतन, निर्मल, बलशाली और सुख की राशी है। परमेश्वर आत्मा है उसने आत्मिक स्वरूप में मनुष्य की सृष्टि की है। रामायण उस आत्मिक स्वरूप का उल्लेख करती है। ये पंच तत्व आत्मिक हैं जिसका उल्लेख रामायण कर रही है। स्मरण रहे कि परमेश्वर ने पंच आत्मिक तत्वों से मनुष्य की सृष्टि की है। 

1 - अविनाशी: अर्थात अमर बनाया है। परमेश्वर ने मृत्यु नही दी। परमेश्वर जैसे अविनाशी है, उसने मनुष्य को भी अविनाशी बनाया।

2 - चेतन: आत्मा, विवके, बुद्धि। जिस प्रकार परमेश्वर आत्मा है। परमेश्वर ने भी  मनुष्य में आत्मा रखा ताकि मनुष्य और परमेश्वर का सम्बन्ध बना रहे।

3 - अमल: अर्थात जिसमें मैल न हो। परमेश्वर ने मनुष्य को पवित्र बनाया, क्योंकि परमेश्वर पवित्र है।

4 - सहज: अर्थात बलशाली वह सहज में अपने शत्रु को हरा सकता है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है।

5 - सदा सुखराशी: जैसे परमेश्वर  सर्वदा सुख और आनन्दमय है। वैसे ही मनुष्य को अनन्तकाल के सुख और आनन्द स्वरूप बनाया। 

बाईबल परमेष्वर के विषय प्रगट करता है:- 
परमेश्वर परमात्मा है, उसके गुण अपार है, वह अनादि अनन्त और निर्विकार है, वह सर्व उपस्थित है, वह सर्वशक्तिमान, सर्वदर्शी, सर्वज्ञानी, सच्चा, धर्मी, पवित्र, भला, प्रेममय और दयालु है। 

मनुष्य का पाप में गिरना

रामायण स्पष्ट रूप से उल्लेख करती है कि मनुष्य जो ईश्वर अंश अर्थात आत्मिक पंच तत्वों से सृर्जा गया। वह माया (शौतान) के बहकावे में आकर अपने आप ही पाप में गिरा।

दोहा: सो मायाबस भयऊ गोसाई, बँध्यों कीर मरकट की नाई।
          जड़ चेतनहि ग्रन्थि परि गई,  जदपि मृषा छुटत कठिनाई।।
                       उत्तरकाण्ड (मानस 116ः2; तुलसी 197ः2)

अर्थात - हे गोसाई वह ईश्वर अंश जीव माया के वशीभूत होकर तोते और वानर के भाँति अपने आप ही बँध गया, इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रन्थि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि यह ग्रन्थि मिथ्या है, तथापि उसके छुटने में कठिनता है।

दोहा: तब ते जीव भयउं संसारी, छुट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
          श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई, छुट न अधिक अधिक अरूझाई।।
                       उत्तरकाण्ड (मानस 116ः3; तुलसी 197ः3)

अर्थात: तभी से जीव संसारी (जन्म से मरने वाला) हो गया। जब तक गांठ (ग्रन्थि) न छुटे, वह सुखी नहीं हो सकता। वेदों और पुराणों ने ग्रंन्थि (गांठ) से छुटने के बहुत से उपाय बतलाए हैं। पर वह ग्रंन्थि (गांठ) छुटती नही वरन अधिकाधिक उलझती जाती है। 

दोहा: जीव हृदय तम मोह बिसेषी, ग्रंन्थि छूट किमि परई न देखी।।
          अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरूअरई।।
                         उत्तर काण्ड (मानस 116ः4; तुलसी 197ः4)

अर्थात: जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अन्धकार विशेषरूप से छा रहा है, उसे गांठ देख ही नही पड़ती, तो वह छूटे कैसे? जब ईश्वर का संयोग हो जाए, तब भी कदाचित ही वह ग्रन्थि छुट पाती है।

पाप और अनन्त मृत्यु

हमारे आदि माता पिता जो परमेश्वर के स्वरूप और समानता से सृजे गए थे। दुष्ट के वशीभूत होकर परमेश्वर की आज्ञा का उलंघन करने से पाप और मृत्यु के बन्धन में फंस गए। इसी रीति से पाप और पाप का प्रतिफल मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई।

रामायण: अग जग जीव नाग नर देवा, नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
                अंड कटाह अमित लयकारी, कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।

                              उत्तरकाण्ड (मानस 93ः4; तुलसी 145ः4)

अर्थात: हे नाथ जग में मनुष्य देवता आदि चर अचर जीव तथा सारा जगत काल का कलेवा है। अंसख्य ब्राम्हणों का नाश करने वाला काल सदा ही अनिर्वाय है।

देवता भी पतित है: 

दोहा:बार बार गहि चरण संकोची, चली बिचारी बिबुध मति पोची।।
         ऊँच निवासु नीचि करतूती, देखि न सकहिं पराई विभूती।।

                      अयोध्याकाण्ड (मानस 11ः3; तुलसी 12ः3)

अर्थातः बार बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच मेें डाल दिया। तब वह यह विचार कर चली कि देवताओं की बुद्धि ओछी है, उनका निवास तो ऊँचा है, पर उनकी करनी नीची है, ये दूसरे का एश्वर्य नही देख सकते।

दोहा: हम देवता परम अधिकारी, स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।।
         भव प्रवाहँ संतत हम परे, अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे।।

                     लंका काण्ड (मानस 109ः6; तुलसी 204ः6)

अर्थात: हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थ परायण हो आपकी भक्ती भुलाकर निरन्तर भवसागर के प्रवाह (जन्म मृत्यु के चक्र) में पड़े है, अब हे प्रभु हम आपकी शरण में आ गए है, हमारी रक्षा कीजिये।

दोहा: न नदस्ति प्रथिण्यं वा दिवि देवेषु वा पुनः।।
          सत्वं प्रकृति जैर्मुक्तं यदेभि स्यात त्रिभिर्गुणें।। 
(गीता 18ः40)

अर्थात: न तो इस पृथ्वी पर न देवताओं में ही कोई ऐसा प्राणी है जो प्रकृति (स्वभाव) से उत्पन्न हुए इन तीन गुणों (सत्, रजश, तमस) से मुक्त हो अर्थात सब ने पाप किया है और पाप बन्धन में जगड़े हुए है।

पाप पर दण्डादेश 

                                                          पाप फल नरकादिमास्तु।।
                                                     (मुण्डक (मंडल) ब्रम्हमोपनिषद 2ः4)
अर्थात: पाप का प्रतिफल अनन्त नरक है।

                                                    अनेक चितविभ्रान्ता मोहजाल समावृताः।
                                                     प्रसक्ता कामभोगेषु पतन्ति नरके शुचै।। (गीता 16ः16)

अर्थात: अनेक विचारों के कारण भ्रान्त मुढ़ता के जाल में फंसे हुए और इच्छाओं की तृप्ति के आदी बने वे अपवित्र नरक में गिरते है।

                                         यान्ति देवव्रता देवान पितृन्यान्ति पितृव्रता
                                         भूतानि यान्ति भुतेज्य यान्ति मद्याजिनोस्पि माम्।। (गीता 9ः25)

अर्थात: देवताओं के पुजारी देवताओं को प्राप्त होते है, पितरों के पुजारी पितरो को प्राप्त करते है, भुतों के पुजारी भुतों को प्राप्त करते है और जो मेरी पुजा करते है, वे मुझे प्राप्त करते है।

पुनर्जन्म या जन्म जन्मान्तर का सिद्धान्त

एक मसीही विश्वासी का पुनर्जन्म या जन्म जन्मान्तर पर कोई सहमति नही। वह इस सिद्धान्त पर विश्वास नही करता। पुनर्जन्म या जन्म जन्मान्तर का सिद्धान्त हमारे प्रिय हिन्दु मित्रों के लिये बहुत ही कठोर और पीड़ा जनक है। जिसका सीधा अर्थ है 84 (चैरासी लाख) योनियों में जन्म लेना और मरना। यदि प्राणी एक योनिकाल औसतन दस वर्ष तक पीड़ा और शोक के दुर्भाग्य में फंसा रहेगा। ऐसा पुनर्जन्म उसे घृणित योनियों की परिधि तक ले जाता है, जिससे अनेक अपवित्र एंव भयावाह प्राणी, कीट पतंगे, पेड़ पौधे तथा और भी बहुत शामिल है।

इसलिए श्रीमद् भगवद्गीता पुनर्जन्म को ‘‘दुःखालयम शाश्वतम्’’ (गीता 8ः15)

अर्थात: शोक दुःखों का निवास स्थान जो अमरत्व का प्रतिफल है। मनीषी याज्ञवल्क्य ने मानवीय जीवन को असत्, तमस् तथा मृत्यु स्वरूप बताया है। (वृहदारण्य कोपनिषद 1ः3ः28) आदि ने पुनर्जन्म को पुनर्भुत्यु कहा है। विद्वत प्रभुमि शंकराचार्य की आत्मा को इस असत्, तमस् एंव मृत्यु के महापाश ने ऐसी दुरदान्तता से छेद दिया कि वह गुहार करने लगे।
                                          पुनरपि जननं पुनरपि मरणं।
                                          पुनरपि जननी जठरे शयनं।।
                                          इस संसारे बहु दुस्तारे।
                                          कृप्यास्पारे पाहि मुरारे।। (भज गोविन्दम्)
अर्थात: बार बार जन्म लेना, बार बार मर जाना और बार बार माता के गर्भ में सोना। इस कर्म संसार को पार करना बड़ा ही दुस्तर है, हे मुरारी अपनी अपार कृपा से मुझे पार लगा दो।

पाप का स्वभाव का प्रतिफल - 
                                       
                                          रोग शोक परिताप बन्धन व्यस्नानि च
                                          आत्मा पराध वृक्षाणां फलानि एतानि दे हिनाम्।। (मित्रलाभ 41)

अर्थात: रोग शोक संताप बन्धन तथा क्लेश ये सब मनुष्य के पाप रूपी वृक्ष के फल है।
            
        मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सुला।।
             उत्तरकाण्ड (मानस 120ः15 (अ) तुलसी 207ः15 (अ) )

अर्थात: सब रोगो की जड़ पाप (अज्ञान) है उन व्याधियों से फिर और बहुत से शुल उत्पन्न होते है।

दोहा: एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
         पीड़हि संतत जीव कहुं सो किमि लहै समाधि।।
              उत्तरकाण्ड (मानस 121 तुलसी 208 (क) )

अर्थात: एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते है, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग है। ये जीव को निरन्तर कष्ट देते रहते है, ऐसी दशा में वह शान्ति को कैसे प्राप्त करे?

दोहा: नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
         भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।
            उत्तरकाण्ड (मानस 121; तुलसी 208 (ख) )

अर्थात: नियम धर्म, उत्तम आचरण, तप, ज्ञान, जप दान तथा और भी करोड़ो ओषधियाँ है, परन्तु हे गरूड़ जी उनसे ये रोग नहीं जाते।

चैपाई: एहि बिधि सकल जीव जग रोगी, सोक हरष भय प्रीति बियोगी। 
           मानस रोग कछुक मैं गाए, कहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।
                       उत्तरकाण्ड (मानस 121ः1; तुलसी 208ः1)

अर्थात: इस प्रकार जगत में समस्त जीव रोगी है, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हैं। मैंने ये थोड़े से मानस रोग कहे हैं, ये तो सब में है परन्तु विरजे ही इन्हें जान पाते हैं।

मनुष्य पतित स्वभाव है जिसे प्रशासन व्यवस्था अथवा धार्मिक कर्मकाण्ड कदापि सुधार नहीं सकती क्योंकि मनुष्य अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों से बन्धा हुआ है, और ये ज्ञानेन्द्रिया उसकी स्वप्रकृति की दासता में काम करती है। हितोपदेश पर हम ध्यान करें।

                              न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं 
                              न चापि वे दाध्यनं दुरात्मनः
                              स्वभावेवात्र तथारिच्यते
                              यथा प्रकृत्या मधुरं गवा पयः। (मित्र लाभ 17)

अर्थात: मनुष्य इसलिए भ्रष्ट नहीं कहलाता कि उसने धर्मशास्त्र नहीं पढ़े अथवा वेदाध्यन नहीं किया। परन्तु अपने स्वाभाविक गुणों के कारण ही वह पतित है, जिस प्रकार दुध अपने स्वाभाव ही से मधुर होता है।

पाप बन्धन और मृत्यु पाश से छुटकारे की गुहार । 

                         असतो मा सद् गमय। 
                         तमसो मा, ज्योर्तिगमय।
                        मृत्योर्मा अमृत गमय।।
(बृहदारण्यक उपनिषद 1ः3ः28 तथा शत्पथ ब्राहमण 4ः3ः1ः30)

अर्थात: हे प्रभु असत् से निकालकर मुझे सत् तक पहुचाईये, अन्धकार से निकालकर ज्योति में लाईये और मृत्यु से पार करके अमरत्व में प्रवेश दिलाइये।
भरतीय भक्ति काल की सारी आत्मिक खोज यात्रा का आधार एक में शाश्वत सृजनहार परमेश्वर पर केन्द्रित है, जो अपनी कृपा और अनुग्रह से जीवात्मा को इस भयावह मृत्यु, पाश से स्वतंत्र कर सकता है। संत गोस्वामी तुलतीदास की एक स्तुति पर ध्यान करें।

                     जाऊँ कहाँ तजि चरण तुम्हारे?
                     काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे।
                     देव दनुज मुनि, नाग, मनुज सब, माया विवश विचारे।।

अर्थातः हे प्रभु अपके चरणों को त्याग कर कहाँ जाऊँ? इस जगत में ऐसा कौन है जिसका नाम पतित पावन है ऐसा कौन है जो पतितों से प्रेम करने वाला है? क्योंकि देवता, राक्षस, ज्ञानी नाग और सब मनुष्य माया (पाप बन्धन) के वश में हैं।

मैं इस संसार समुद्र को कैसे तरूंगा, मेरी क्या गति होगी, क्या इसका कोई उपाय है? मैं तो नही जानता। हे प्रभु तु ही मार्ग बता कि संसार के दुःखों से कैसे बच सकुंगा? (विवेक चूडामणी 42)

हे अग्नि के अधिष्ठात देवता, हमें परम धनरूप परमेश्वर की सेवा में पहंुचाने के लिए शुभ मार्ग से ले चलिये, हे देव आप हमारे सम्पूर्ण कर्मो को जानने वाले हैं, अतः इस मार्ग के प्रतिबन्धक यदि कोई पाप है तो उन सब को दूर कर दीजिये। आपको बार बार नमस्कार करते है। (ईशावस्योपनिषद 18)

               यदिह घोरं, यदिह क्रूरं, यदिह पापम्।
               तच्छान्तं ताच्छिवं सर्वमेव शमस्तु नः।। (गीता पृष्ट 76)

अर्थात: यहाँ जो कुछ भी घोर है, क्रूर है, और पापमय है। हें प्रभु वह शान्त हो जाए, सब वस्तु हमारे लिए कल्याणकारी और शान्ति पूर्ण हो जाए।

जीवात्मा परमात्मा से बिछुड़ा हुआ है, अनन्तकाल से वह अनवरत संसार रूपी बिहड़ वन में इधर उधर सुख की खोज में भटक रहा है। सुख समझकर जहाँ भी जाता है, वहीं धोखा खाता है। सर्वथा साधन हीन और दयनीय है। जब तक वह परम सुख स्वरूप परमात्मा के पास नही पहुँच जाता तब तक उसे सुख शान्ति नहीं मिल सकती।  (कठोपनिषद 1ः3ः4)

दोहा: अन्तर्यामी एक तुम आत्मा के आधार।
         जो तुम छोड़ो हाथ तो कौन उतारे पार।। (संत कबीर)

अर्थात: हे प्रभु आप हृदय की बात जाननेवाले और आप ही आत्मा के सहारे हो, जो तुम ही छोड़ दोगे तो हमें कौन पार करेगा। आप ही बुद्धि देकर हमें भवसागर से पार कीजिये।

         पापोहं पापकर्माहं पापात्मा पापसंभवः।
         त्राहिमाम् पुण्डरिकाक्षम् सर्व पाप हर हरे।। (ऋग्वेद 7ः86ः3)

अर्थातः मैं तो एक पापी, पापकर्मी, पापिष्ट तथा पाप में उत्पन्न हूँ। हे कमल नयन परमेश्वर मुझे बचालो और सारे पापों से दूर करो।

मोक्ष कितना आवश्यक कितना दुर्लभ

मोक्ष की वास्तविक प्राप्ति मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या तथा एकमात्र आवश्यक्ता है। श्रीमद् भागवत का कथन हितना सत्य है - ‘‘मनुषं लोकम् मुक्तिद्वारम’’ अर्थात - यही मनुष्य योनि हमारे मोक्ष का द्वार है।
       
       वदन्तु शास्त्राणि याजन्तु देवान।
       कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः।
       आत्मैक्यबोधेन विनापि भक्तिर्न। 
        सिध्याति ब्रहमशतान्तरेस्पि।। (विवे चूड़ाणी 6)

अर्थातः लोग शास्त्र बाचें, देवो को यज्ञ अर्पित करे, कर्म इत्यादि करते रहें, और देवताओं का भजन भी करें, परन्तु ब्रम्हाजी के शतान्तर दिनों तक भी मुक्ति प्राप्त नही होगी, जाब तक कि परमात्मा के साथ एकत्व का ज्ञान न हो जाए।

ब्रहमशतान्तरः- उसक काल का नाम है सिके अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रम्हाजी का केवल एक दिन मानव आयु गणना के तिरतालिस करोड़ बीस लाख (43,20,00,000) वर्षो के बराबर होता है।

        न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया।
       ब्रहमात्मैकत्व बोधेन मोक्षः सिध्यते नान्यथा।। (विवेक चूड़ामणी 58)

अर्थात: मोक्ष न तो योग से या संाख्य अर्थात ब्रम्ह के तत्व चिन्तन और न ही कर्म तथा विद्या लाभ से, परन्तु परमात्मा और जीवात्मा के एकत्व बोध से सिद्ध होता है। किसी भी अन्य प्रकार से नहीं।
मोक्ष धर्म पालन के द्वारा भी सम्भव नहीं है। धार्मिक क्रिया कलायें को पूरा करते रहने के तदन्तर भी धर्म के द्वारा मोक्ष को प्राप्त कर लेना। सम्भव नहीं। यद्यपि धर्म उत्तम है तथा समाज का ढांचा जिस पर जीवित उसका आधार है।

       पृथिवी धर्मणा धृतां। (अथर्तवेद 12ः1ः17)
अर्थात: धर्म ही पृथ्वी का आश्रय है।
     
      धर्मो धरयते प्रजाः। (महाभारत कर्ण पर्व)
अर्थात: धर्म ही समाज का आधार है।

दोहा: बड़े भाग्य मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
          साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाई न जेहिं परलोक संवारा।।
                     उत्तरकाण्ड (मानस 42ः4; तुलसी 65ः4)

अर्थात: बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिाल है। सब ग्रन्थ यही कहते है कि यह शरीर देवताओं को दुर्लभ है। यह साधन धाम है और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया।

दोहा: नर तनु भव बारिधि कहँ बेरो, सन्मुख मरूत अनुयह मेरो।। 
          करनधार सद्गुरू दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
उत्तरकाण्ड (मानस 43ः4; तुलसी 66ः4)

अर्थात: यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तरने के लिए बेडा (जहाज) है, मेरी कृपा ही अनुकुल वायु है। सद्गुरू इस शरीर रूपी जहाज को खेनेवाले है। इस प्रकार कठिनता से मिलने वाले साधन सुलभ होकर उसे प्राप्त हो गए है।

दोहा: जो न तरे भव सागर नर समाज अस पाइ।
          सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।
                   उत्तरकाण्ड (मानस 44; तुलसी 67)

अर्थात: जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर न तरे, वह कृतघ्न और मन्द बुद्धि है और आत्महत्या करने वालों की गति को प्राप्त होता है।

दोहाः जौं परलोक इहाँ सुख चहहूँ, सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहूँ।। 
         सुलभ सुखद मारग यह भाई, भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।
                            उत्तरकाण्ड (मानस 44ः1; तुलसी 67ः1)

अर्थात: यदि परलोक में और यहाँ दोनो जगह सुख चाहते हो तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़े रहे। हे भाई यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है।

माया और उसका परिवार 

दोहा:   यह सब माया कर परिवारा, प्रबल अमिति को बरनै पारा।
            सिव चतुरानन जाहिं डेराहिं, अपर जीव केहि लेखे माहीं।।
                         उत्तरकाण्ड (मानस 70ः4, तुलसी 101ः4)

अर्थात: यह सब माया का बड़ा बलवान परिवार है। यह अपार है, इस का वर्णन कौन कर सकता है? शिवाजी और ब्रम्हाजी भी जिससे डरते है, तब दुसरे जीव तो किस गिनती में है।

दोहा: ब्याधि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
           सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड।।
                 उत्तरकाण्ड (मानस 71, तुलसी 102)

अर्थातः माया की प्रचण्ड सेना संसार भर में छायी हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेना पति है, और दम्भ, कपट और पाखण्ड योद्धा है।

दोहा: सुनहु तात माया कृत गुन अरू दोष अनेक।
          गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।
                  उत्तरकाण्ड (मानस 41, तुलसी 164)

अर्थात: हे तात सुनो माया से रचे हुए ही अनेक गुण और दोष है। इसकी कोई वास्तविक, सत्ता नही है। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेकी है।

दोहा: एक दृष्ट अतिसय दुखरूपा, जा बस जीव परा भवकृपा।।
          अरण्यकाण्ड (मानस 14ः3 (आ); तुलसी 25ः3 (अ) )

अर्थात: एक अविद्या (अज्ञान) दुष्ट (दो युक्त) है और अत्यन्त दुःख देनेवाला है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएं में पड़ा है। 

ब्रहम जो ज्ञान दीपक है।

दोहा: सोहमस्मि इति वृति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, सब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
उत्तरकाण्ड (मानस 117ः1; तुलसी 201ः1)

अर्थातः सोहमस्मि (वह ब्रम्हां मैं हूँ) यह जो अखण्ड (कभी न टूटने वाली) वृति (संहार करने का एक प्रकार का शस्त्र) है, वह (उस ज्ञान दीपक की) मरम प्रचण्ड दीप शिखा (लौ) है। इस प्रकार जब आत्म अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम नाश हो जाता है।

दोहा: प्रबल अविद्या कर परिवारा, मोह आदि तम मिटइ अमारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजियारा, डर गृहँ बैठि ग्रंठि ग्रंथि निरूआरा।।
उत्तर काण्ड (मानस 117ः2; तुलसी 201ः2)

अर्थात: और मान बालवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट जाता है। तब वही (विज्ञान रूपणि) बुद्धि (आत्मानुभवरूप प्रकाश को पाकर हृदय रूपी घर में बैठकर उस जड़ चेतन की गाँठ को खोल देती है।

दोहाः छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई, तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया, विध्न अनेक करइ तब माया।।
उत्तरकाण्ड (मानस 117ः3; तुलसी 201ः3)

अर्थात: यदि वह (विज्ञान रूपणी बुद्धि) ठस गांठ को खोलने पावे तब यह जीव कृतार्थ हो। परन्तु हे पक्षिराज गरूढ़जी गांठ खोलते हुए जानकर माया फिर उनको विध्न करती है।

दोहाः रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई, बुद्धिहि लोभ दिखावहि आई।।
            कल बल छल करि जाहिं समीपा, आंचल बात बुझाहिं दीपा।।
उत्तरकाण्ड (मानस 1174; तुलसी 201ः4)


अर्थात: हे भाई वह बहुत सी रिद्धि सिद्धियों को भेजती है जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती है वे रिद्धि सिद्धियां कल (कला) बल और छल करके समीप जाती है, और आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दिपक को बुझा देती है।

दोहा: होइ बुद्धि जौं परम सयानी, तिन्ह तन चितवन न अनहित जानि।।
जौ तेहि विध्न बुद्धि नहिं बाधी, तौ बहोरी सुर करहिं उपाधी।।
उत्तरकाण्ड (मानस 117ः5; तुलसी 201ः5)

अर्थातः यदि बुद्धि बहुत ही सियानी हुई, तो वह उन (रिद्धि सिद्धि) को अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी ओर ताकती नही। इस प्रकार यदि माया के विध्नों से बुद्धि बधीन हुई तो फिर देवता बिध्न करते है।

देवताओं को ज्ञान नहीं सुहाता

दोहा:  इंद्री द्वार झरोखा नाना, तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।
               आवत देखहिं विषय बयारी, ते हठि देहिं कपाट उघारी।।
उत्तर काण्ड (मानस 117ः6; तुलसी 201ः6)

अर्थात: इन्द्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेको झरोखे है वहाँ वहाँ देवता अड्डा जमाकर बैठे है, ज्योंहि वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं त्यों ही हृठ पूर्वक किवाड़ खोल देते है।

दोहा: जब सो प्रभंजन डर गृहं जाई, तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
                  ग्रंथि न छुटि मिटा सो प्रकाशा बुद्धि बिकल भइ विषय बतासा।। 
उत्तरकाण्ड (मानस  117ः; तुलसी 201ः7)


अर्थातः ज्योंहि वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्योंहि वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गांठ भी नही छुटी औ वह आत्मा अनुभव प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गयी (सारा) किया कराया चैपट हो गया।

दोहा: इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई, विषय भोग पर प्रीति सदाई।।
विषय समीर बुद्धि कृत भोरी, तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।
उत्तरकाण्ड (मानस 117ः8; तुलसी 291ः8)

अर्थातः दन्द्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान हीं सुहाता क्योंकि उनकी विषय भोगों में सदा ही प्रीति रहती है। और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर से दुबारा उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे।फिर से दुबारा उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे।

ज्ञान की महीमा

दोहा: कहत कठिन समझुत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यह अनेक।।
उत्तर काण्ड (मानस 118ःतुलसी 203)

अर्थात: ज्ञान कहने और समझने में कठिन है, ज्ञान समझने में कठिन है, और साधने में भी कठिन है। यदि संयोग वश कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए तो फिर उसे बचाए उखने में अनेकों बिध्न हैं।

चैपाईः ग्यान पंथ कृपान कै धारा, परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिध्न पंथ निर्बहई, सो कैवल्य पर पद लहई।। 
उत्त्रकाण्ड (मानस118ः11; तुलसी 203ः1)

अर्थात: ज्ञान मार्ग कृपाण (दुधारी तलवार) की धारा के समान है। हे पक्षिराज इस मार्ग से गिरते देर नही लगती। जो इस मार्ग को बिना बिध्न के निबाह लेता है वह कैवल्य (मोक्ष) रूप परम पद को प्राप्त करता है।

दोहा: सत्यं ज्ञानमनत्वं ब्रहा विशुद्धं परं स्वतः सिद्धम्।
नित्यानन्दैकरसं प्रत्यगभिन्नं रिरन्तरं जयति।। (विवेक चूड़ामणि 227)

अर्थात: ब्रम्हा सत्य, ज्ञान स्वरूप और अनन्त है। वह शुद्ध, परम, स्वंय सिद्ध, नित्य एकमात्र आनन्दरस स्वरूप और अभिन्न है, तथा निरन्तर उन्नतिशील है।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योग संसिद्ध कालेनात्मनि विन्दति।।
(गीता 4ः38)
अर्थात: इस पृथ्वी पर ज्ञान के सदृश पवित्र वस्तु और कोई नही है। जो व्यक्ति योग द्वारा पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। वह समय आने पर स्वंय अपने अन्दर ही अपने इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पाप कृत्तम।
सर्वं ज्ञानप्लेवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।
(गीता 4ः36)
अर्थात: चाहे तु सब पापियों से बढ़कर पापी क्यों न हो। फिर भी तू केवल ज्ञान की नाव द्वारा सब पापों के पार पहुंच जाएगा।
ईश्वरानुग्रहादेव पुंसाम द्वैतवासना।
महाभय परित्राण द्वित्राणामुपजायते।।
(अवधुत गीता (गीता पृष्ठ 69)
अर्थात: केवल परमात्मा की दया से ही ज्ञानवान मनुष्यों में अद्वैत अनुभव के प्रति रूचि उत्पन्न होती है। जो महान संकट से उनकी रक्षा करती है।

मोक्ष (उद्धार, छुटकारा, त्राण)

मोक्ष संस्कृत भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ दासत्व या बन्धनों से छूटना है। वेदान्त में इसका तात्पर्य प्राणी के कर्म-फल व्यवस्था के बन्धनों के परिणाम स्वरूप उसे प्राप्त होने वाले जन्म-जन्मान्तरों या पुर्नजन्म से मुक्त या स्वतंत्र हो जाना। 

मोक्ष ईश्वरीय मिलन का अनुभव अथवा कर्म बन्धनों से छुट जाना जिसके परिणाम स्वरूप प्राणी का परमेश्वर में शाश्वत मिलन हो जाना मोक्ष प्राप्ति है। विवेक चुडामणी शास्त्र में मोक्ष क्या है? प्रकट किया गया है।

देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः।
अविद्याा हृदय ग्रन्थि मोक्षो मोक्षो यतस्ततः।।
(विवेक चूड़ामणी 559)

अर्थात: मोक्ष हृदय की अविद्या (अज्ञानता, अंधकार) रूप ग्रन्थि के नाश को ही कहते हैं। इसलिए देह अथवा दण्ड कमण्डल के त्याग का नाम मोक्ष नहीं है। 

व्याख्या: मोक्ष का बाहरी वस्तुओं का त्याग नहीं है। सब कुछ छोड़कर जंगल चले जाना, भस्मी लगा लेना, दण्ड, कमण्डल का त्याग कर देना, तथा नग्न रहने से मोक्ष नही मिलता बल्कि हृदय में जो अज्ञान ग्रन्थि है इसका मिटना ही मोक्ष है। जिससे मनुष्य को ब्रम्ह एंव आत्मा की एकता का बोध हो जाए। इसी से अनात्म वस्तुओं का त्याग स्वंय हो जाता है। यही मोक्ष है। 

अन्तस्त्यागो बहिस्त्यागो विरक्तस्यैव युज्यते।
त्यजत्यन्तर्बहिः संग विरक्तस्तु मुमुक्षया।।
(विवेक चुड़ामणी 373)

अर्थातः विरक्त (विमुख) पुरूष का ही आन्तरिक और बहारी दोनों प्रकार का त्याग करना ठीक है। वही मोक्ष की इच्छा से आन्तरिक और बहारी संग को त्याग देता है। 

व्याख्या: मोक्ष की इच्छा रखने वाले को अन्तरिक और बाहरी दोनो प्रकार के विषयों का त्याग कर देना चाहिए। तथा इनका कभी भी संग नही करना चाहिए। विषयों से विरक्ति (विमुखता) ही ज्ञान के द्वार खोलती है। विषयों में लिप्त मनुष्य ज्ञान का अधिकारी नही होता।

मोक्ष अति दुर्लभ
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद, संत पुरान निगम अगाम बद।।
(उत्तरकाण्ड (मानस 118ः2 (अ); तुलसी 203ः2 (अ))
अर्थात: संत पुराण वेद और तन्त्र आदि शास्त्र सब कहते है कि कैवल्यरूप परमपद (मोक्ष) अत्यन्त दुर्लभ है।

मोक्ष की सुलभता
सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। (गीता 18ः66)

अर्थात: सब धर्मो (कर्तव्यों) को त्याग कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। तू दुःखी मत हो, मैं तुझे पापों से मुक्त कर दूंगा।

व्याख्याः हमें स्वेच्छा पूर्वक उस परमात्मा के दबाव के प्रति आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। हमें उसकी ईच्छा के सन्मुख पूरी तरह झुक जाना चाहिए और उसके प्रेम में शरण लेनी चाहिए। यदि हम अज्ञानता और अंधविश्वास को नष्ट कर दें और उसके स्थान पर परमात्मा में पूर्ण विश्वास जमा लें, तो वह परमात्मा हमारा उद्धार करेगा। परमात्मा हमसे पूर्ण आत्मसमर्पण चाहता है और उसके बदले आत्मा की शक्ति प्रदान करता है। जो प्रत्येक परिस्थिति को बदल देती है।

तमेव शरणं गच्छ, सर्व भावेन भारत। 
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।। (गीता 18ः62)

अर्थातः इसलिये हे भारत (अर्जुन) तु सब प्रकार से उस परमात्मा की शरणं को प्राप्त हो जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तु परमशांति और शाश्वत परमधाम को प्राप्त होगा।
वशेषः मोक्ष प्राप्ति के हेतु जीवात्मा को सर्वश्रेष्ठ एंव सर्व सुलभ साधन के रूप में परमेश्वर के अनुग्रह की शरणगति प्राप्त करने का निर्देश देती है।

वेदों में प्रभु मसीह यीशु का दर्शन

-ः सृष्टि-ः सृष्टिकर्ता, प्रजापति व यीशु की पहचान:-
(ऋग्वेद 10ः90, 10ः121 और यीशु ग्रन्थ यूहन्ना 1ः1-18)

वेदान्त का मूल ग्रन्थ ऋग्वेद है। जिसमें प्रजापति परमेश्वर का महान स्थान है। प्रजापति कौन? है प्रजापति सांख्या दर्शन के आदि ‘‘पुरूष’’ हैं। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 90 सुक्ति को ‘‘पुरूष सुक्त’’ कहा गया है।

प्रजापति कौन है?  यीशु कौन है?

1.
प्रजापति ही वेदों के संख्यावाद के ‘‘पुरूष’’ सर्वेश्वर हैं। (
कठ. उप.1ः3ः11,2ः2ः8)
1. यीशु और परमेश्वर पिता एक हैं। (यूहन्ना 10ः30, निर्णमन 3ः14,15)

2. प्रजापति ही ‘‘विश्वकर्मा’’ है। (ऋग्वेद 10ः82 (1ः6ः7
2. यीशु ही सृष्टिकर्ता है। (यूहन्ना 1ः3)

3. प्रजापति ही परब्रम्ह हैं। (शत्पथ ब्राम्हण 7ः3ः1ः42)
3. यीशु ही परमेश्वर है। (यूहन्ना 1ः2)

4. प्रजापति शब्द ब्रम्ह हैं।
4. यीशु परमेश्वर के शब्द हैं।

5. प्रजापति की प्रथमजा (पहलौठा) है। (ऋग्वेद 1ः164ः17; महान उपनिषद 34ः2ः7
5. यीशु ही प्रथमजा (पहलौठा) हैं। (रोमियों 8ः29; कुलुस्सियों 1ः15,18)

6. प्रजापति ही यज्ञ (बलिदान) है। (वृहद उपनिषद 3ः9ः6, 1ः1ः1; शतपथ ब्राम्हण 1ः6ः1ः20 (1ः2ः7)
6. यीशु ही यज्ञ (बलिदान) है। (यूहन्ना 1ः29)

7. प्रजापति ‘‘ब्रम्हास्मि’’ है। (वृहद उपनिषद 1ः4ः1) (वह ब्रम्हा मैं ही हूँ)।
7. यीशु ने कहा ‘‘पिता और मैं एक हूँ।" (यूहन्ना 10ः3, निर्गमन 3ः14) (वह परमेश्वर मैं ही हूँ।)

ए को देव, तद् एकम् माम् एकम्

अर्थात: परमेश्वर एक ही है, दुजा नही है। वह एक ही है। मैं एक ही हूँ। लोग अज्ञानता वश एक ही परमेश्र को भिन्न भिन्न नामों से पुकारते है। (ऋग्वेद 1ः164ः46)

परमात्मा एक है, ब्रम्हाण्ड एक, मानव एक, पाप बंधन और मृत्यु बंधन एक, मोक्ष द्वार एक, पाप दण्ड का भंजनहार एक, उद्धार और अनन्त जीवन एक ही है। भेद इतना है कि इस्राएली वंश और वैदिक वृन्द अब तक मसीहा और प्रजापति के प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रहे है। जबकि यीशु भक्त और इतिहास साक्षी है। कि यीशु प्रभु आ चुके, बलिदान दे चुके और मृत्युंजयी भी हो गए और न्याय के दिन फिर आने वाले हैं।

यीशु मसीह शाश्वत वचन एंव सृजनहार - पवित्र बाइबल तथा वेदान्त ग्रन्थ दोनो ही परमेश्वर को ‘‘वचन’’ या ‘‘शब्द ब्रहम’’ सम्बोधित करते हैं। जो सृष्टि रचना का नायक है। यूहन्ना का सुसमाचार यीशु के विषय उल्लेखित करते है कि सब कुछ उसके द्वारा उत्पन्न हुआ विसमें से कुछ भी उसके बिना उत्पन्न नहीं हुआ। 

‘‘अदृश्य परमेश्वर अपने वचन’’ मसीह के द्वारा जगत पर प्रकाशित हुआ।

वाग् वै ब्रहम (बृहदारण्यक उपनिषद 1ः321, 4ः1ः2)
अर्थात: वचन परमेश्वर है।
शब्दोब्रहम (ब्रहमबिन्दु उपनिषद 17)
अर्थात: शब्द ही ब्रहम (सृष्टि का सृजक परमेश्वर) है।
शब्दाक्षरं परं ब्रहम (ब्रहमबिन्दु उपनिषद 16)
अर्थात: शब्द अविनाशी परं ब्रहम है। (ऋग्वेद 10ः125 का ‘‘वाक’’ (शब्द) अथवा ‘‘वाग’’ (वचन) ही इस ब्रहमाण्ड की रचना करने वाला परमप्रधान नायक है।
यीशु निष्पाप - दैही (निष्कलंक, परम पुरूष) - विश्व के चार प्रमुख धर्म (वैदिक, यहूदी, मसीही और इस्लाम धर्म) प्रभु यीशु मसीह के निष्पाप - दैही होने की स्पष्ट साक्षी देते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख पुराणों में से एक है जो ‘‘भविष्य पुराण’’ कहलाता है (सम्भावित रचना काल 7वी शताब्दी ईस्वी) अपने प्रति सर्ग के भारतखंड में प्रभु यीशु मसीह का चित्रण एक से अधिक पृष्ठ में करता है। 

ईशमुक्तिः दि प्राप्ता नित्यशुद्धा शिवकारी।
ईशा मसीह इतिच मम् नाम प्रतिष्ठतम।। (पद 31)

अर्थात: जिस परमेश्वर का दर्शन सनातन, पवित्र, कल्याणकारी एंव मोक्षदाया है, जो हृदय में निवास करता है, उसी का नाम ईशा मसीह अर्थात अभिषिक्त मुक्तिदाता प्रतिष्ठित किया गया है।
पुराण ने इस उद्धारकर्ता पुर्णावतार का वर्णन करते हुए निम्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है। - 

पद 22 में 
1. पुरूष शुभम् - निष्पाप एंव परम पवित्र पुरूष। 
2. बलवान राजन - प्रभुतायुक्त राजा।
3. गौरंग - गोरे रंग वाला।
4. श्वेत वस्त्रकम् - श्वेत परिधान पहिने। 
पद 23
5. ईश पुत्रं - परमेश्वर का पुत्र। 
6. कुवांरी गर्म सम्भवम् - कुवांरी के गर्भ से जन्मा। 
पद 24
7. सत्यवृत परायणम् - सत्य मार्ग का प्रतिपालक।

यीशु जगत का पाप वहनकर्ता

बाइबल और वेद दोनों ही सृजनकर्ता परमेश्वर को दूसरों की पीड़ा के बदले में यातना सहनेवाला प्रतिनिधि वर्णित करते है। पालनहार ‘‘पिता’’ तथा बोझ का हरनेवाला ‘‘हरि’’ और पापों से छुडानेवाला ‘‘त्राता’’ होकर परमेश्वर अपने लोगों को उद्धार देता है। परमेश्वर को ‘‘पापनुंद’’ अर्थात पापों का दमन या नाश करने वाला सम्बोंधित किया गया है। (श्वेताश्वतर उपनिषद 6ः6)

परमेश्वरम् एंव तेषां योगक्षेमं वहति। वेदान्त (गीता पृष्ठ 245)
अर्थात: परमेश्वर अपने भक्तों के सारे बोझ और सब चिन्ताओं को स्वंय संभाल लेता है। 

प्रजापति यज्ञः (शतपथ ब्राम्हण 1ः13, 4ः15)
अर्थातः जगत का सृजनहार परमेश्वर एक मात्र यज्ञ (बलिदान) है। जो देह के रूप में प्रकट होकर स्वंय को बलिदान चढ़ाये जाने हेतु देवताओं को सौंपता है। (ऋग्वेद10ः90ः6)
प्रजापति देवेभ्य आत्मानम् यज्ञम् कृत्वा प्रायच्चत्। (सामवेद - ताण्डीय महाब्राम्हण)
अर्थात: परमेश्वर अपने आपको बलिदान में देगा। और पापों के लिए प्रायश्चित् ग्रहण करेगा।

तस्य प्रजापति रर्धमेव सत्र्यमासिद्धार्थ मारूतम्। (शतपथ ब्राम्हण)
अर्थात: परमेश्वर आधा नश्वर और आधा अमरबन गया। अर्थात वह अपने आप में मानव और स्वर्गीय दोनो का मेल बन गया। पुरूष युक्त में पढ़ते है - ‘‘ब्रम्ह देव का बलिदान’’ किया जाता है। यह स्पष्ठ है कि एक सत्य और महान उद्धारकर्ता का बलिदान होगा। जो इस संसार के स्वामी सृजनहार परमेश्वर द्वारा किया जाएगा। वह नश्वर और अमर दोनो बनकर अभिषिक्त परमेश्वर मानव बनेगा, और फिर बलिदान का पशु बनकर मनुष्यों को उनके पापों से छुटकारा देगा।
पापों की क्षमा (छुटकारा, मोक्ष)

तैरतियारणायका पद 3 का वचन

सर्वपापः परिहरो रक्तः परोक्षणः भवस्यम्।
तद् रक्तं परमात्मा पुण्यदाना बलियागम्।।

अर्थात: रक्त के ही बहाए जाने से सब पापों की क्षमा (छुटकारा, मोक्ष) सम्भव है। परन्तु यह रक्त परमेश्वर के स्वंय बलिदान द्वारा बहाया गया हो।

पुरूषा सुक्त कहता है - पुरूषा प्रजापति के बलिदान से बहाया रक्त के सिवाय दुसरा और कोई मार्ग नहीं है। ‘‘पुरूषों अव्यज्ञनं’’ (चान्दोक्य उपनिषद 3ः16ः1)

-ः सहस्त्र नामावली में प्रभु यीशु का दर्शन:-
1. ओम श्री ब्रम्ह पुत्रेय नमः - प्रभु परमेश्वर पुत्र की वन्दना करते हैं।
2. ओम श्री आमात्याय नमः - प्रभु जी आत्मा से उत्पन्न हुआ वन्दना करते है।
3. ओम श्री कन्या सुधायनमः - प्रभु जी कुंवारी से जन्मा वन्दना करते है।
4. ओम श्री दरीद्र नारायणया नमः - प्रभु जो हमारे लिये गरीब (दीन) बन गया वन्दना करते है।
5. ओम श्री पंचगयय नमः - प्रभु जिसे पांच घावें से घायल किया गया वन्दना करते है।
6. ओम श्री वृक्ष शुल अरूत्या नमः - प्रभु जिसने अपने आपको त्रिशुल रूपी वृक्ष पर बलि होने के लियेक समर्पित किया वन्दना करते है।
7. ओम श्री मृत्युंजय नमः - प्रभु जिसने मृत्यु पर विजय पाई वन्दना करते है।
8. ओम श्री शिवबिलिस्तय नमः - प्रभु जिसने प्रसन्नता से अपनी देह संतों को खाने के लिय दिया वन्दना करते हैं।
9. ओम श्री तट्चीनी मूर्तियः नमः - प्रभु जो पिता परमेश्वर के पास बैठ कर हमारे जिये बिन्ती करते है वन्दना करते है।
10. ओम श्री महा देवाय नमः - प्रभु जो प्रभुओं का प्रभु है वन्दना करते हैं।

मनुष्य योनि

नर तन सम नहि कवनिउ देही, जीव चराचर जाचत तेही।
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी, ज्ञान बिराग भगति सुभदेनी।।
(
उत्तरकाण्ड मानस 120ः5; तुलसी 207ः5)

अर्थात: मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है, चर अचर सभी जीव। उसकी याचना करते है, यह मनुष्य शरीर नरक स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याण कारी, ज्ञान, बैराग्य और भक्ति देनेवाला है।

सो तनु धरि हरि मजहिं न जे नर, होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेहीं, कर ते डारि परस गनि देहीं।।
उत्तरकाण्ड (मानस 120ः6; तुलसी 207ः6
)

अर्थात: ऐसे मनुष्य शरीर धारण करके भी हरि भजन नहीं करते और नीच से नीच विषयों में अनुरक्त रहते है, वे पारसमणि को हाथ से फैंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते है।

एहि तन कर फल बिषय न भाई, स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तनु पाइ विषयं मन देही, पलटि सुधा ते एठ विष लेहीं।।
उत्तरकाण्ड (मानस 43ः1; तुलसी 66ः1
)

अर्थात: हे भाई इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषय भोग नहीं है। (इस जगत के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अन्त में दुःख देनेवाला है, अतः जो लोग शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते है, वे मूर्ख अमृत को बदल कर विष लेते हैं।

हानि कि जग यहि सम कछु भाई, भजिये न रामहिं नर तनु पाई।।
अद्य कि बिन तामस कछु आना, धर्म कि दया सरिस हरि याना।।
उत्तरकाण्ड (
मानस 111ः5; तुलसी 187ः5)

अर्थातः मानव जीवन पाकर भी भगवान का स्मरण न करने से जो हानि होती है, उसके समान कोई हानि नही है, क्या तमोगुण के बिना पाप हो सकता है? हे गरूड दया के समान क्या काई धर्म है?

नर शरीर धरि जो पर पीरा, करहिं ते सहहिं महाभव भीरा।।
करहिं मोह वश नर अधनाना, स्वरथरत परलोक नशाना।।
उत्तरकाण्ड (मानस 40ः2; तुलसी 63ः2
)

अर्थातः जो देह पाकर भी दूसरों को क्लेश पहुँचाते है, वे जग में महान कष्ट भोगते हैं, जो मनुष्य मोह के वश स्वार्थ में लीन अनेक पाप करते है, उनका परलोक विगड़ जाता है।

दोहा: तन सराय मन पहरू, मनसा उतरी आय।
को काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय।।
(
कबीर वाणी 71)

अर्थात: यह मानव शरीर सराय की तरह है और मन इसका पहरेदार है, इच्छांए लालसाएं इसमें अतिथि की तरह है, अच्छी बुरी दोनों तरक की लालसाएं मन में जन्म लेती है, किन्तु यह मानव के अधिकार में है, किं किसकी ग्रहण करता है और किस को त्यागता है। मानव को इस मोह माया में नहीं फंसना चाहिए। इस संसार में कोई किसी का नही होता कबीर दास जी कहते हैं कि यह बात उन्होंने अच्छी तरह से ठोंक बजाकर देखी है।

दोहा: पांच तत्व का पुतरा, मानुष धरिया नाम।
दिन चार के कारने, फिर फिर रोके ठाम।। (
कबीर दोहावली 271)

अर्थात: पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, तत्व से मिलकर बने ढंाचे को नमुष्य नाम रख दिया। चार दिन के क्षणिक सुख विलास में लिप्त होकर जीव ने अपने मोक्ष का द्वार बन्द कर लिया है।

दुर्लभ त्रयमेवैतदेवानुग्रह हेतु कम।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूष संश्रयः।। (
विवेक चुड़ामणि 3)

अर्थातः मनुष्यतत्व मुमुक्षुत्व (मुक्ति की इच्छा होना) तथा महापुरूषों का संग ये तीनों ही भगवत्कृपा के ही हेतु है जो इनके बिना दुर्लभ है।

लब्धवा कथं चिन्नरजन्म दुर्लभं, तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपार दर्शनम।
यस्त्वात्ममुक्तौ न यतेत मुढधोः, स म्हात्महा स्वं विनिहन्त्यसदग्रहात।। (
विवेक चुड़ामणि 4)

अर्थात: किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुति सिद्धान्त का ज्ञान होता है ऐसा पुरूषत्व पाकर जो मूढ़ बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिये प्रयत्न नही करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है, वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।

इतः को न्वस्ति मुढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुष देहं प्राप्य तत्रापि पौरूषम्।। (विवेक चूढ़ामणि 5)

अर्थात: दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें भी पुरूषत्व को पाकर जो स्वार्थ साधन में प्रमाद (असावधानी) करता है, उससे अधिक मूढ़ कौन होगा।

वदन्तु शास्त्रणि यजन्तु देवान कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः।
आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिर्न सिध्यति ब्रम्हशतान्तरेस्पि।। (
विवेक चूड़ामणि 6)

अर्थातः मले ही काई शास्त्रो की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नान शुभ कार्य करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक ब्रम्ह और आत्मा की एकता का बोध नही होता तब तक सौ ब्रम्हाओं के बीत जाने पर भी (सौ कल्प में भी) मुक्ति नही हो सकती।

कथं तरेयं भवसिन्धुमेतं का वा गतिमे। कतमोस्त्युपायः।
जाने न किंचित्कृपयास्व मां प्रभो संसार दुःख क्षतिमातनुष्व।। (
विवेक चूड़ामणि 42)

अर्थात: मैं इस संसार समुद्र से कैसे तरूंगा? मेरी क्या गति होगी? उसका क्या उपाय है? यह मैं कुछ नही जानता, प्रभो कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरे संसार दुःख के क्षय का आयोजन कीजिये।

न योगेन न सांख्येन कर्मणा न विद्यया।
ब्रम्हात्मैकत्वबोधेन मोक्षः सिद्धयति नान्यथाः।। (
विवेक चूड़ामणि 58)

अर्थातः मोक्ष न योग से सिद्ध होता है, न सांख्य से, न कर्म से और न विद्या से। वह केवल ब्रम्ह और आत्मा की एकता के ज्ञान से ही होता है और किसी प्रकार से नहीं।

व्यख्या: स्वंय की आत्मा के ज्ञान मात्र से मुक्ति नही होती। मोक्ष की यह अवस्था योग, सांख्य, कर्म एंव विद्या से प्राप्त नही हो सकती ब्रम्ह और आत्मा की एकता की अनुभुति से ही प्राप्त होती है। जो सभी आत्माओं को भिन्न भिन्न मानते है, तथा ब्रम्ह (विश्वात्मा) में विश्वास नहीं रखते, वे मोक्ष को प्राप्त नहीं हुए है। यह निश्चय है, वे अभी मार्ग में ही भटकें हुए है।

अविज्ञाते परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।
विज्ञतेस्पि परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।। (
विवेक चूड़ामणि 61)

अर्थात: परम तत्व को यदि नही जाना तो शास्त्राध्ययन व्यर्थ ही है और यदि परम तत्व को जान लिया तो भी शास्त्राध्ययन अनावश्यक है।

व्याख्या: परम तत्व ब्रम्हज्ञान के लिए सर्वप्रथम शास्त्राध्ययन आवश्यक है। इसी मार्ग से मिलता है तथा वस्तुस्थिति का ज्ञान होता है। लेकिन जो शास्त्रध्ययन ही करते हैं नित्य गीता, रामायण, वेद, अपनिषद का पाठ किया करते है। किन्तु आत्मज्ञान की चेष्टा नहीं करते उनका शास्त्राध्ययन व्यर्थ ही है। केवल शास्त्र पढ़ लेने मात्र से परम तत्व का ज्ञान नही होता तथा ज्ञान बिना मुक्ति नही होती।

वासनावृद्धिः कार्य कार्यवृद्धया च वासना।
वधते सर्वथा पुंसः संसारों न निवतते।। (
विवेक चूड़ामणि 314)

अर्थातः वासना के बढ़ने से कार्य बढ़ता है और कार्य के बढ़ने से वासना बढ़ती है इस प्रकार मनुष्य का संसार बन्धन बिल्कुल नही छुटता।

व्याख्याः कार्य का आधार मन की वासनांए है। ज्यों ज्यों मनुष्य की वासना बढ़ती जाती है। वह नये नये कार्य अपने हाथ में लेता है। तथा इन कार्यो की सफलता से वासनाएं निरन्तर बढ़ती ही जाती है। वासना का कोई अन्त नही है। इसे किसी भी सीमा तक बढ़ाया जा सकता है। इन दोनो में फंसे रहने से मनुष्य इस संसार बन्धन से कभी मुक्त नही हो सकता। इसलिए वासना त्यागने से कार्य अपने आप बन्द हो जाते है। जीवन के लिए जो आवश्यक है, वे ही कर्म शेष रह जाते है।

देहस्य मोक्षी नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्लोः।
अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो यतस्ततः।। (
विवेक चूड़ामणि 559)

अर्थातः मोक्ष हृदय की अविद्या रूप ग्रन्थि के नाश को ही कहते है। इसलिए देह अथवा दण्ड कमण्डल के त्याग का नाम मोक्ष नही है।

व्याख्या: मोक्ष का अर्थ ब्रम्हा वस्तुओं का त्याग नही है। सब कुछ छोड़कर जंगल चले जाना, भस्मी लगा लेना, दण्ड, कमण्डल का त्याग कर देना तथा नग्न रहने से मोक्ष नही मिलता। बल्कि हृदय में जो अज्ञान ग्रन्थि है उसका मिटना मोक्ष है। जिससे मनुष्य को ब्रम्ह एंव आत्मा की एकता का बोध हो जाए। इसी से अनात्म वस्तुओं का त्याग स्वंय हो जाता है। यही मोक्ष है।

अर्थस्य निश्चयों दृष्टो विचारेण हितोक्तितः।
न स्नानेन न दानेन प्राणायमशतेन वा।। (
विवेक चूड़ामणि 13)

अर्थातः सत्य की दृढ़ धारण न तो स्नान वा दान वा सैंकड़ों प्राणायाम से। परन्तु विद्वानों के हितकर परामर्श पर विचार करने से प्राप्त होती है।

और इसकी तुलना भी करें। - 

न शरीर मल त्यागात् नरो भवति निर्मलः।
मनसु तु मले त्यक्ते भवत्यन्त सुनिर्मलः।। (
स्कन्ध पुराण, काशी खंड 6)

अर्थातः शरीर के मल को त्यागने से मनुष्य निर्मल नही हो जाता, परन्तु जब मन का मैल दूर हो जाता है। तब उसका अंतः करण शुद्ध ठहरता है। बलिदान, होम आदि रीातियों से भी नही।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहान्ति जन्तवः।। (
गीता 5ः15)

अर्थातः सर्वव्यापी परमेश्वर न तो किसी का पाप ग्रहण करती है और न किसी का पुण्य। ज्ञान सब ओर से अज्ञान द्वारा ढ़का हुआ है उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे है। (किकत्र्तव्यविमुढ़) हो जाते है।

ज्ञानेन तु नदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामा दित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। (
गीता 5ः16)

अर्थात: परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सृदश ठस सच्चिदानन्दन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।


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