भाग 8 एकता की ओर एक कदम
भाग 8 एकता की ओर एक कदम
कोई भी पूछ सकता है कि क्या ये छोटे घरेलू कलीसिया पूरे शहर में फैले हुए प्रभु की देह को विभाजन और फूट डाल सकती है? सत्य तो यह है कि छोटी कलीसिया उतनी ही तरह विभाजित करती है जैसे की बड़ी कलीसिया बड़ी बड़ी कलीसियाओं और बड़े छोटे कलीसियाओं दोनें के पास एकता कायम रखने की चुनौती है।
संगठन में एकता दें या आत्मिक एकता:
1970 के दशक में मै मसीही संस्था में जुड़ा हुआ था जो ‘‘यूहन्ना सत्रह इक्किस‘‘ यह एक कोशिश थी कि एक दूसरे को उतसहित कर सकता को मसीह की देह में बढ़ाना अमेरिका में और अन्य देशो में। यह संस्था यीशु की प्रार्थना पर आधारित थी जो यूहन्ना 17ः21 से मिलती है ‘‘कि वे सब एक हो जैसा तू हे पिता मुझ में है, और मैं तुझ में हूँ वैसे ही हम में हो , जिस से संसार बिश्वास करे कि तू ही ने मुझे भेजा है‘‘। एक शहर - एक चर्च
नये नियम में सिर्फ एक प्रकार की एकता का संर्तम आया है और वह आत्मिक एकता और उस का परिणाम। हम व्यर्थ बाईबिल में कुछ भी शब्द किसी संस्था, सोसाईटी, मिशन और कुछ भी जो वर्तमान में हमारे संगठन के ढाचें के समान दिखता है।
जो हमें नये नियम में मिलता है वह आत्मक अधिकार से मिशन सेवकाई के लिये प्रेरित और भविष्यद्धक्ता को भेजा जाता था। हम कलीसियाओं में इस प्रकार के प्रेरिताई और भविष्यद्धक्ता के अधिकार को ग्रहण करते हुए देखा है। हम एकता के सूत्र में बन्धे कलीसिया को देखते है एक शहर के अन्दर देखते है।
पौलूस प्रेरित ने कभी पत्र एक शहर की कलीसियाओं के लिये लिखा, वह हमेशा अपने पत्र को उस विशेष नगर की कलीसिया को सम्बोधित करता था।
हर शहर और क्षेत्र में केवल एक ही चर्च था। उसने रोम, इफेसुस, कौरिन्थ इत्यादि में जो कलीसिया थी उनको पत्र लिखा, परन्तु उसने गलातिया की कलीसियाओं और एशिया की कलीसियाओं को लिखा। क्योंकि ये प्रान्त थे और शहर नही थे।
यह हो सकता है कि किसी नगर में बहुत से या सैकड़ो कलीसिया मिलती है, परन्तु हम कह सकते है कि वहा एक ही कलीसिया/चर्च है। यह एक चर्च बहुत सी छोटी छोटी मसीही झुण्डो से उन शहर में मिल के बना है। जिस प्रकार सारे चर्चेस कलीसियायें, संसार के शहरो में मिलकर मसीह की देह वैवे चर्चेस। कलीसियायें एक क्षेत्र में उस नगर की कलीसिया बनती है।
एकता बनायें रखो:
और यत्न करो कि मेल के बन्धन में आत्मा की एकता सुरक्षित रहे, एक ही देह है और आत्मा भी एक है ठीक उसी प्रकार अपनी बुलाहट की एक आशा में तुम भी बुलाए गए थे, एक ही प्रभु, एक ही विश्वास, एक ही बपतिस्मा, और सब का एक ही परमेश्वर पिता है जो सब के ऊपर और सब के मध्य और सब में है। (इफिसियों 4ः3-6)
ऊपर लिखे अनुच्छेद में पौलूस ने यह नही कहा कि आत्मा में एकता बनायें रखे यह जरूर कहा, आत्मा में एकता बनाये रखो। ऐसा लगता है कि यह एकता पहिले ही से स्थापित हो चुकी थी। वहां ऐकता के विषय में कह रहा है कि ऐकता अपने आप आती है क्योंकि एकता मसीही बन्डल का एक भाग है।
हमारा जन्म उस एकता में होता है क्योंकि ‘‘एक ही देह एक ही आत्म एक प्रभु - एक परमेश्वर और पिता‘‘ और हमारा भाग केवल यह स्वकीकार करता है। कि हम सब एक है।
एक आज्ञा को पूरा करना, और आत्मा को एकता - शान्ती के सूत्र में रखना हमारे पास पहिले से है - आप उसको नही रख सकते जो आपके पास नही है।
यह एकता बाहरी ढान्चे में नही है। यह बाहरी रिश्तो में पैदा नही होती, नही बाहरी सम्बन्धो से रखी जाती है। यह आत्मा में जन्म लेती है और हमारे हृदय में रहती है। यह अन्दरूनी खैया है। यह व्यवहार दूसरे लोगो के लिये है जो परमेश्वर के लोग है।
असमानता में एकता:
हम जितनी असमानता संगठनो में, सम्प्रदाय मे, निगम, समाज, क्लब, फैलोशिप में आन्दोलन में, क्रूसेड और अभियानो में चाहे तो ला सकते है पर हम आत्मा में एक हो सकते है।
हम ‘‘पेपर मेम्बरशिप के द्वारा नही जुडे़ हुए हैं हम आपसी बन्धन में ‘‘आत्मा की एकता और शान्ति से बन्धे हुए है।दूसरी तरफ एक महा संगठन हो सकता है जिस में हर प्रकार के मसीही जो पृथ्वी पर है काम करते है परन्तु उन में आत्मिक एकता नहीं है। आपके पास संगठन में एक मत के हो सकते है पर उन में एकता नही है।
इफिसियों 4ः3-6 में मेल के बन्धन की चर्चा करता है एक बेल्ट या रस्सी जो बान्धे रखता है। वह मेल शक्ति है, उस को शान्ति का मेल कहते है। शान्ति के विपरीत युद्ध या लड़ाई है।
अगर आप प्रेम से व्यवहार और अपनाते है उन भाईयों और बहिनो से जो दूसरे चर्च के हैं तब आप शान्ती बनायें रखते है। आप उस को जन्म नही दे रहे है आप अपनी आत्मा में उसको जागरूक रख रहें है।
ऐसी ही जगह में एकता वास करती है वह आत्मा या हृदय है एकता भिन्न भिन्न रीति से प्रगट होती है। पर वह आत्म में वास करती है पवित्रात्मा के जरिये। उसके उल्टा अगर आप में लड़ाई की व्यवहारिकता है, विभाजन या साम्प्रदायिक, तब आप आत्म में एकता, एक शान्ति को सूत्र में बनायें नही रखते।
एक भीतरी कदम:
केवल एक ही कदम एकता की ओर मुझे रोमियों 14ः1;15ः7 जहां पौलुस कहता है ‘‘जो बिश्वास में निर्बल है, उसे अपनी संगती मे ले लो, परन्तु उसकी शंकाओ पर विवाद करने क लिये नही जैसा मसीह ने परमेश्वर की महिमा के लिये तुम्हें गृहण किया है वैसा ही तुम भी एक दूसरे को गृहण करो।
जो शब्द ग्रहण करने के लिये लिया है उसका मतलब, स्वागत, गले लगाना, स्वीकार करना, बिरादरी को मान्यता देना, ग्रहण करने का मतलब, अंगीकार करना और पुष्टी करना कि हम सब एक है।
हम एक है क्योंकि एक नये जन्म से हम सब एक आत्मिक परिवार में जन्म लिये है। हम सब भाई और बहिन है क्योंकि यीशु हमारा मुक्तीदाता है, परमेश्वर हमारा पिता है। जिस प्रकार यीशु ने हमें हमारी पूरी टूटी स्थिति में ग्रहण किया, हमारे कमजोरियों, और अपरिपक्वता मंे, तो हमें भी दूसरो को ग्रहण करना है। रोमियों 5ः8 ‘‘परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रकट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा‘‘
अब कदम उठाओ:
अब आपको इस एकता के लिये एक कदम उठाना है, जहां भी आप इस समय है, आप प्रभु की ओर मुड़ कर यह प्रार्थना कर सकते है।
पिता हम प्रभु यीशु मसीह के नाम से अंगीकार करते है कि हम आपकी आत्मिक देह के अंग है, वह है इस नगर की कलीसिया है और सारे संसार में फैला है। मैं आपके प्रत्येक सनतान को ग्रहण करता और स्वीकार करता हूँ क्योंकि आप हमारे पिता है। आपकी सनातन कहां है उस का कुछ मतलब नहीं, किस जाति से वे आते है कोई फर्क नही पड़ता और यह भी फर्क नही पड़ता कि किस बिश्वास और नियम पालन करते थे। और उन्होंने छिड़काव या डुब का बपतिस्मा लिया है कोई फर्क नही करना और क्या वे परम्परागत, स्वतन्त्रता और केरिसमैटिक या पेन्तेकुस्त और एन्टीकाॅस्टल थे। और यह भी फर्क नही पड़ता कि वे चर्च शनिवार, सोमवार, या मंगलवार को जाते थे, और यह भी फर्क नही पड़ता कि किस सम्प्रदाय के वे सदस्य है।
अब मैं यीशु मसीह के नाम से जो नासरत के था, घोषणा करता हूँ कि वह परम परमेश्वर का बेटा है और मैं उन के साथ जिन्होंने नया जन्म पाया है एक हूँ जो अभी जीवित है, जो जीवित रह चुके है और भविष्य और अनन्तकाल तक जीवित रहेंगे। मैं उन्हें गृहण करूंगा मैं उनके लिये प्रार्थना करूंगा।
जैसे आप अगुवाई करेंगे प्रभु मैं उन के साथ काम करूंगा मै पूरी कोशिश करूंगा की आत्मा की एकता जो शान्ती का बन्धन है। ‘‘आमीन‘‘ अगर आपने पूरेमन की सच्चाई से ऊपरी प्रार्थना करेंगे तो आपमें एकता की ओर बड़ा कदम उठा लिया है।
सिद्धान्तिक एकता:
पर आप पूछेंगे कि सिद्धान्तिक एकता कहां है? हम कैसे साथ चेलेंगे जब तक हम एक मत के ना हो?
सबसे पहिली बात यह है कि परमेश्वर हम सब से एक ही रास्ते पर चलने के लिये नही कह रहा है। दूसरी बात, हमें इफिसियों 4ः13 में बताया गया है कि हमें आत्मा की एकता में बने रहना है जब कि हम सब के सब बिश्वास और परमेश्वर के पुत्र की पहिचान में एक ना हो जायें यह पद हमें बताता है कि हमारे पास आत्मिक एकता रहती है जैसे हम सिद्धान्तिक एकता में बढ़ते जाते है।
एक प्रमुख सत्य:
पूरो संसार में एक प्रमुख सत्य है जिस पर हम सब एकता की घोषणा कर सकते है। वह सत्य एक शिक्षा नही है, एक तथ्य, एक आधारभूत सत्य, एक सिद्धान्त नही है, वह एक चर्चा साम्प्रदाय या आन्दोलन नही है। वह सत्य एक व्यक्ति है यीशु ही सत्य है क्योंकि उस ने कहा ‘‘मैं ही मार्ग, और सच्चाई और जीवन हूँ‘‘ (यहून्ना 14ः6)
जब हम उसके पास आते है जो वह हमें जीवन देता है। हम नया जन्म अनुभव करते हैं। जब फिलिप जेलर में पौलूस और सीलास से पूछा सज्जनो उद्धार पाने के लिये मै क्या करूं? उसका उत्तर यह नही था ‘‘हमारी सिद्धान्तो पर बिश्वास करो और हमारे साम्प्रदाय में शामिल हो जाओ, उनका उत्तर ‘‘प्रभु यीशु पर बिश्वास कर तो तू और तेरा घराना उद्धार पायेगा। (प्रेरिातें के काम 16ः30,31)
जब हम यीशु मसीह पर बिश्वास करते है तब हमारा जन्म ज्योति के राज्य में होता है। जब हमारा सम्बन्ध यीशु से होता है तब हम एक दूसरे से जुड़ जाते है, हम यीशु में सब एक है।
जिसके पास यीशु है उसके पास जीवन है जिसके पास यीशु नही है उसके पास जीवन नही है। हमारा उद्धार एक सिद्धान्तिक शिक्षा पर नही पर यीशु ख्रीष्ट को ग्रहण करने से होता है।
एक दूसरे को ग्रहण करो:
प्रत्येक चर्च, चाहे वह घरेलू कलीसिया हो या अन्य प्रकार का चर्च हमें सब को यह सिखाना चाहिए कि एक दूसरे बिश्वासियों को स्वकीकार करो। हम सब एक ही देह के सदस्य है चाहे हम अलग अलग साम्प्रदाय के मेम्बर क्यों ना हो। परमेश्वर हमारी अगुवाई करेगा जब हम दूसरे बिश्वासियों के साथ मिल कर प्रोजेक्ट में उसके राज्य की बढ़ोत्तरी करेंगे। किन्तु एक महत्वपूर्ण एकता का चिन्ह एक साथ मिलकर सुदृढ़ता प्रकट करें और सामाजिक प्रोजेक्ट कर ही नही है। पर एक दूसरे को गृहण करना और उनके कार्यो को प्रभु के लिये कर रहें है प्रोत्साहन करना।
अनेक इकाई - एक शक्तिशाली सेना:
हम एक साथ एक युद्ध मैं है इसमें बहुत से सामान्य लेफटेनन्द कैपटन और साधारण मैनिक है। किन्तु एक ही मुखिया है हमारा सेनापति, जो प्रमुख है जो यीशु मसीह है। उसमें कहां ‘‘मैं अपनी कलीसिया बनाऊंगा‘‘ और वह कार्य कर रहा है (मत्ती 16ः18) हमें उसे कार्य करने के लिये जगह देनी चाहिए, वह अपने सेना की छोटी ईकाई का स्वामी है।
हम विभिन्न भागो में, छोटी इकाईयो में शायद आगे हों, पर हम सब एक सेना में है। हम सब एक लोग एक ही लड़ाई में अन्धकार के राज्य से युद्ध में जुटे हुए है। हम सबको प्रोत्साहन करना तथा सहायता करना अपनी भिन्ना भिन्न सेवामें, यह न सोचे कि हम सब अलग है क्योंकि हम एक ही जगह, सब एक ही कार्य में, एक समय में अपने झण्डे के नीचे जुटे हुए है।
बहुत सी जातियां - एक देश:
इस्राएल में बारह गोत्र थे हर एक का एक क्षेत्र था, उनकी वंशावली, अगुवा और झण्डा था फिर भी वे एक लोग यानी इस्राएल कहलाये जाते थे। हम सब अनेक प्रकार के हजारों हजार संप्रदाय संगठन और चर्चेस से बने हुए है। परन्तु हम सब एक लोग है। परमेश्वर के लोग - जो इस्राएल का यहोवा है।
हम सब शारिरिक रूप से एक टी व्यम को एक झण्डे के नीचे करना है कि हम एक कहलाये। हम सब एक साथ है। सो आईये हम अपनी एकता को निडरता से घोषित करें। हम सब अपने काम को राज्य की बढ़ोत्तरी में करना है, साथ में दूसरो को प्रोत्साहित करना, ग्रहण करना और एक दूसरे को स्वीकार करना। वह ही है जो आत्मा की एकता को शान्ती के सूत्रो में बान्धी रखती है।
कई वर्षो तक हम परमेश्वर के लोगो को ट्रीट, घटनाये, परेड, जूलूस, प्रार्थना में एकत्रित होना प्रतियोगिता इत्यादि से सम्पर्क करते थे। हम सोचते थे कि हमारी संगठित एकता संसार देख कर विश्वास करेगा। जब मैं उनके साथ तब मेरे सारे ऊपाय निष्फल रहे। ऐसा नही है कि ऊपर लिखी घटनाओ का महत्व नही है, निसन्देह उनका महत्व है परन्तु हम एकता को संगठित करने की कोशिश कर रहे थे और एकता नही आ रही थी। एकता को आयोजित नही किया जा सकता। एकता तभी होती है जब हम आत्मिक रीति से समझते है कि एकता क्या है?
एक दिन मैं हमारी समझ को यूहन्ना 17ः21 को प्रश्न करने लगा। मैंने देखा कि हम लोगो ने यीशु की प्रार्थना का अर्थ ठीक से नही किया यीशु उस प्रार्थनाओं में संगठन की एकता के लिये इस सन्दर्भ में नही कर रहा था। वह आत्मिक एकता के लिये बिश्वासियों में प्रार्थना कर रहा था। वह प्रार्थना कर रहा था कि प्रत्येक बिश्वासी का मिलाप पिता से हो वह बिश्वासियों की आपसी एकता के लिये प्रार्थना नही कर रहा था।
यीशु मसीह ने बिश्वासियों की एकता की समस्या के विषय में यूहन्ना 13ः35 का हल किया था, वह उसने उनके लिये प्रार्थना नही की परन्तु उनको आज्ञा दी अगर हमें शिष्य बनना है तो एक दूसरे से प्रेम करना है नही तो संसार उन्हें स्वीकार नही करेगा। प्रेम के द्वारा वे योग्य शिष्य बनेंगे।
दूसरी तरफ पूरा सन्देह यूहन्ना 17 में यीशु की प्रार्थना का मुख्य लक्ष्य था कि एक व्यक्ति का सम्बन्ध पिता और बेटे में कैसा है। वह एक बिश्वासी का दूसरे बिश्वासी के साथ वैसा सम्बन्ध है इशारा नही करता। इस प्रार्थना का गलत अर्थ दुःखी और निराश करता है और जो सच्चा अर्थ है वह खो बैठता है।
यूहन्ना 17ः24 का भावाअर्थ इस तरह से है ‘‘ताकि हर एकजन आप के साथ एक हो, पिता जैसे आप मुझ में है और मैं आप में हूँ तो संसार यह बिश्वास करे कि आप ने मुझे भेजा है।
संसार कभी स्वीकार नही करेगा कि यीशु समीह है और वह जीवते परमेश्वर का बेटा है और संगठन की एकता के जरिये। परमेश्वर हमेशा स्त्री और पुरूष को इस्तेमाल करता है जिनका वही रिश्ता एकता लाता है जैसे पिता का यीशु के साथ था।
परमेश्वर की योजना अभी तक वही है कि मानव को पवित्रात्मा से भरे और उनके जरिये अपना प्रेम और सामर्थ प्रगट करे। जो उसने यीशु के साथ किया वह पूरे संसार में करना चाहता है।
परमेश्वर हमारे अन्दर रहना और चलना चाहता है। वह प्रेम और अनुग्रह के कार्य हमारे जरिये करना चाहता है जैसे उस ने यीशु के साथ किया यह है सही अर्थ यूहन्ना 17ः21 का। एक शहर - एक चर्च नये नियम में सिर्फ एक प्रकार की एकता का संर्तम आया है और वह आत्मिक एकता और उस का परिणाम। हम व्यर्थ बाईबिल में कुछ भी शब्द किसी संस्था, सोसाईटी, मिशन और कुछ भी जो वर्तमान में हमारे संगठन के ढाचें के समान दिखता है।
जो हमें नये नियम में मिलता है वह आत्मक अधिकार से मिशन सेवकाई के लिये प्रेरित और भविष्यद्धक्ता को भेजा जाता था। हम कलीसियाओं में इस प्रकार के प्रेरिताई और भविष्यद्धक्ता के अधिकार को ग्रहण करते हुए देखा है। हम एकता के सूत्र में बन्धे कलीसिया को देखते है एक शहर के अन्दर देखते है।
पौलूस प्रेरित ने कभी पत्र एक शहर की कलीसियाओं के लिये लिखा, वह हमेशा अपने पत्र को उस विशेष नगर की कलीसिया को सम्बोधित करता था।
हर शहर और क्षेत्र में केवल एक ही चर्च था। उसने रोम, इफेसुस, कौरिन्थ इत्यादि में जो कलीसिया थी उनको पत्र लिखा, परन्तु उसने गलातिया की कलीसियाओं और एशिया की कलीसियाओं को लिखा। क्योंकि ये प्रान्त थे और शहर नही थे।
यह हो सकता है कि किसी नगर में बहुत से या सैकड़ो कलीसिया मिलती है, परन्तु हम कह सकते है कि वहा एक ही कलीसिया/चर्च है। यह एक चर्च बहुत सी छोटी छोटी मसीही झुण्डो से उन शहर में मिल के बना है। जिस प्रकार सारे चर्चेस कलीसियायें, संसार के शहरो में मिलकर मसीह की देह वैवे चर्चेस। कलीसियायें एक क्षेत्र में उस नगर की कलीसिया बनती है।
एकता बनायें रखो:
और यत्न करो कि मेल के बन्धन में आत्मा की एकता सुरक्षित रहे, एक ही देह है और आत्मा भी एक है ठीक उसी प्रकार अपनी बुलाहट की एक आशा में तुम भी बुलाए गए थे, एक ही प्रभु, एक ही विश्वास, एक ही बपतिस्मा, और सब का एक ही परमेश्वर पिता है जो सब के ऊपर और सब के मध्य और सब में है। (इफिसियों 4ः3-6)
ऊपर लिखे अनुच्छेद में पौलूस ने यह नही कहा कि आत्मा में एकता बनायें रखे यह जरूर कहा, आत्मा में एकता बनाये रखो। ऐसा लगता है कि यह एकता पहिले ही से स्थापित हो चुकी थी। वहां ऐकता के विषय में कह रहा है कि ऐकता अपने आप आती है क्योंकि एकता मसीही बन्डल का एक भाग है।
हमारा जन्म उस एकता में होता है क्योंकि ‘‘एक ही देह एक ही आत्म एक प्रभु - एक परमेश्वर और पिता‘‘ और हमारा भाग केवल यह स्वकीकार करता है। कि हम सब एक है।
एक आज्ञा को पूरा करना, और आत्मा को एकता - शान्ती के सूत्र में रखना हमारे पास पहिले से है - आप उसको नही रख सकते जो आपके पास नही है।
यह एकता बाहरी ढान्चे में नही है। यह बाहरी रिश्तो में पैदा नही होती, नही बाहरी सम्बन्धो से रखी जाती है। यह आत्मा में जन्म लेती है और हमारे हृदय में रहती है। यह अन्दरूनी खैया है। यह व्यवहार दूसरे लोगो के लिये है जो परमेश्वर के लोग है।
असमानता में एकता:
हम जितनी असमानता संगठनो में, सम्प्रदाय मे, निगम, समाज, क्लब, फैलोशिप में आन्दोलन में, क्रूसेड और अभियानो में चाहे तो ला सकते है पर हम आत्मा में एक हो सकते है।
हम ‘‘पेपर मेम्बरशिप के द्वारा नही जुडे़ हुए हैं हम आपसी बन्धन में ‘‘आत्मा की एकता और शान्ति से बन्धे हुए है।दूसरी तरफ एक महा संगठन हो सकता है जिस में हर प्रकार के मसीही जो पृथ्वी पर है काम करते है परन्तु उन में आत्मिक एकता नहीं है। आपके पास संगठन में एक मत के हो सकते है पर उन में एकता नही है।
इफिसियों 4ः3-6 में मेल के बन्धन की चर्चा करता है एक बेल्ट या रस्सी जो बान्धे रखता है। वह मेल शक्ति है, उस को शान्ति का मेल कहते है। शान्ति के विपरीत युद्ध या लड़ाई है।
अगर आप प्रेम से व्यवहार और अपनाते है उन भाईयों और बहिनो से जो दूसरे चर्च के हैं तब आप शान्ती बनायें रखते है। आप उस को जन्म नही दे रहे है आप अपनी आत्मा में उसको जागरूक रख रहें है।
ऐसी ही जगह में एकता वास करती है वह आत्मा या हृदय है एकता भिन्न भिन्न रीति से प्रगट होती है। पर वह आत्म में वास करती है पवित्रात्मा के जरिये। उसके उल्टा अगर आप में लड़ाई की व्यवहारिकता है, विभाजन या साम्प्रदायिक, तब आप आत्म में एकता, एक शान्ति को सूत्र में बनायें नही रखते।
एक भीतरी कदम:
केवल एक ही कदम एकता की ओर मुझे रोमियों 14ः1;15ः7 जहां पौलुस कहता है ‘‘जो बिश्वास में निर्बल है, उसे अपनी संगती मे ले लो, परन्तु उसकी शंकाओ पर विवाद करने क लिये नही जैसा मसीह ने परमेश्वर की महिमा के लिये तुम्हें गृहण किया है वैसा ही तुम भी एक दूसरे को गृहण करो।
जो शब्द ग्रहण करने के लिये लिया है उसका मतलब, स्वागत, गले लगाना, स्वीकार करना, बिरादरी को मान्यता देना, ग्रहण करने का मतलब, अंगीकार करना और पुष्टी करना कि हम सब एक है।
हम एक है क्योंकि एक नये जन्म से हम सब एक आत्मिक परिवार में जन्म लिये है। हम सब भाई और बहिन है क्योंकि यीशु हमारा मुक्तीदाता है, परमेश्वर हमारा पिता है। जिस प्रकार यीशु ने हमें हमारी पूरी टूटी स्थिति में ग्रहण किया, हमारे कमजोरियों, और अपरिपक्वता मंे, तो हमें भी दूसरो को ग्रहण करना है। रोमियों 5ः8 ‘‘परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रकट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा‘‘
अब कदम उठाओ:
अब आपको इस एकता के लिये एक कदम उठाना है, जहां भी आप इस समय है, आप प्रभु की ओर मुड़ कर यह प्रार्थना कर सकते है।
पिता हम प्रभु यीशु मसीह के नाम से अंगीकार करते है कि हम आपकी आत्मिक देह के अंग है, वह है इस नगर की कलीसिया है और सारे संसार में फैला है। मैं आपके प्रत्येक सनतान को ग्रहण करता और स्वीकार करता हूँ क्योंकि आप हमारे पिता है। आपकी सनातन कहां है उस का कुछ मतलब नहीं, किस जाति से वे आते है कोई फर्क नही पड़ता और यह भी फर्क नही पड़ता कि किस बिश्वास और नियम पालन करते थे।
और उन्होंने छिड़काव या डुब का बपतिस्मा लिया है कोई फर्क नही करना और क्या वे परम्परागत, स्वतन्त्रता और केरिसमैटिक या पेन्तेकुस्त और एन्टीकाॅस्टल थे। और यह भी फर्क नही पड़ता कि वे चर्च शनिवार, सोमवार, या मंगलवार को जाते थे, और यह भी फर्क नही पड़ता कि किस सम्प्रदाय के वे सदस्य है।
अब मैं यीशु मसीह के नाम से जो नासरत के था, घोषणा करता हूँ कि वह परम परमेश्वर का बेटा है और मैं उन के साथ जिन्होंने नया जन्म पाया है एक हूँ जो अभी जीवित है, जो जीवित रह चुके है और भविष्य और अनन्तकाल तक जीवित रहेंगे। मैं उन्हें गृहण करूंगा मैं उनके लिये प्रार्थना करूंगा।
जैसे आप अगुवाई करेंगे प्रभु मैं उन के साथ काम करूंगा मै पूरी कोशिश करूंगा की आत्मा की एकता जो शान्ती का बन्धन है। ‘‘आमीन‘‘ अगर आपने पूरेमन की सच्चाई से ऊपरी प्रार्थना करेंगे तो आपमें एकता की ओर बड़ा कदम उठा लिया है।
सिद्धान्तिक एकता:
पर आप पूछेंगे कि सिद्धान्तिक एकता कहां है? हम कैसे साथ चेलेंगे जब तक हम एक मत के ना हो?
सबसे पहिली बात यह है कि परमेश्वर हम सब से एक ही रास्ते पर चलने के लिये नही कह रहा है। दूसरी बात, हमें इफिसियों 4ः13 में बताया गया है कि हमें आत्मा की एकता में बने रहना है जब कि हम सब के सब बिश्वास और परमेश्वर के पुत्र की पहिचान में एक ना हो जायें यह पद हमें बताता है कि हमारे पास आत्मिक एकता रहती है जैसे हम सिद्धान्तिक एकता में बढ़ते जाते है।
एक प्रमुख सत्य:
पूरो संसार में एक प्रमुख सत्य है जिस पर हम सब एकता की घोषणा कर सकते है। वह सत्य एक शिक्षा नही है, एक तथ्य, एक आधारभूत सत्य, एक सिद्धान्त नही है, वह एक चर्चा साम्प्रदाय या आन्दोलन नही है। वह सत्य एक व्यक्ति है यीशु ही सत्य है क्योंकि उस ने कहा ‘‘मैं ही मार्ग, और सच्चाई और जीवन हूँ‘‘ (यहून्ना 14ः6)
जब हम उसके पास आते है जो वह हमें जीवन देता है। हम नया जन्म अनुभव करते हैं। जब फिलिप जेलर में पौलूस और सीलास से पूछा सज्जनो उद्धार पाने के लिये मै क्या करूं? उसका उत्तर यह नही था ‘‘हमारी सिद्धान्तो पर बिश्वास करो और हमारे साम्प्रदाय में शामिल हो जाओ, उनका उत्तर ‘‘प्रभु यीशु पर बिश्वास कर तो तू और तेरा घराना उद्धार पायेगा। (प्रेरिातें के काम 16ः30,31)
जब हम यीशु मसीह पर बिश्वास करते है तब हमारा जन्म ज्योति के राज्य में होता है। जब हमारा सम्बन्ध यीशु से होता है तब हम एक दूसरे से जुड़ जाते है, हम यीशु में सब एक है।
जिसके पास यीशु है उसके पास जीवन है जिसके पास यीशु नही है उसके पास जीवन नही है। हमारा उद्धार एक सिद्धान्तिक शिक्षा पर नही पर यीशु ख्रीष्ट को ग्रहण करने से होता है।
एक दूसरे को ग्रहण करो:
प्रत्येक चर्च, चाहे वह घरेलू कलीसिया हो या अन्य प्रकार का चर्च हमें सब को यह सिखाना चाहिए कि एक दूसरे बिश्वासियों को स्वकीकार करो। हम सब एक ही देह के सदस्य है चाहे हम अलग अलग साम्प्रदाय के मेम्बर क्यों ना हो। परमेश्वर हमारी अगुवाई करेगा जब हम दूसरे बिश्वासियों के साथ मिल कर प्रोजेक्ट में उसके राज्य की बढ़ोत्तरी करेंगे। किन्तु एक महत्वपूर्ण एकता का चिन्ह एक साथ मिलकर सुदृढ़ता प्रकट करें और सामाजिक प्रोजेक्ट कर ही नही है। पर एक दूसरे को गृहण करना और उनके कार्यो को प्रभु के लिये कर रहें है प्रोत्साहन करना।
अनेक इकाई - एक शक्तिशाली सेना:
हम एक साथ एक युद्ध में है इसमें बहुत से सामान्य लेफटेनन्द कैपटन और साधारण मैनिक है। किन्तु एक ही मुखिया है हमारा सेनापति, जो प्रमुख है जो यीशु मसीह है।
उसमें कहां ‘‘मैं अपनी कलीसिया बनाऊंगा‘‘ और वह कार्य कर रहा है (मत्ती 16ः18) हमें उसे कार्य करने के लिये जगह देनी चाहिए, वह अपने सेना की छोटी ईकाई का स्वामी है।
हम विभिन्न भागो में, छोटी इकाईयो में शायद आगे हों, पर हम सब एक सेना में है। हम सब एक लोग एक ही लड़ाई में अन्धकार के राज्य से युद्ध में जुटे हुए है।
हम सबको प्रोत्साहन करना तथा सहायता करना अपनी भिन्ना भिन्न सेवामें, यह न सोचे कि हम सब अलग है क्योंकि हम एक ही जगह, सब एक ही कार्य में, एक समय में अपने झण्डे के नीचे जुटे हुए है।
बहुत सी जातियां - एक देश:
इस्राएल में बारह गोत्र थे हर एक का एक क्षेत्र था, उनकी वंशावली, अगुवा और झण्डा था फिर भी वे एक लोग यानी इस्राएल कहलाये जाते थे।
हम सब अनेक प्रकार के हजारों हजार संप्रदाय संगठन और चर्चेस से बने हुए है। परन्तु हम सब एक लोग है। परमेश्वर के लोग - जो इस्राएल का यहोवा है।
हम सब शारिरिक रूप से एक टी व्यम को एक झण्डे के नीचे करना है कि हम एक कहलाये। हम सब एक साथ है। सो आईये हम अपनी एकता को निडरता से घोषित करें। हम सब अपने काम को राज्य की बढ़ोत्तरी में करना है, साथ में दूसरो को प्रोत्साहित करना, ग्रहण करना और एक दूसरे को स्वीकार करना। वह ही है जो आत्मा की एकता को शान्ती के सूत्रो में बान्धी रखती है।
Comments
Post a Comment