घरेलू कलीसिया का इतिहास

घरेलू कलीसिया का इतिहास
क्या अन्य जातियों के लोगों को यह प्रतीत होता है कि आपकी कलीसिया स्वर्ग की एक झाँकी है ? पहिली सदी की कलीसिया के सदस्य ऐसे प्रेम से रहते थे कि अड़ोस-पड़ोस के लोग बिना प्रचार किए कलीसियाओं में सम्मिलित होते जाते थे (यूहन्ना 13ः 34-35)। परन्तु यीशु मसीह ने पहिले से ही यह चेतावनी दी थी कि मेरे जाने के बाद झूठे ख्रीष्ट और भविष्यवक्ता आयेंगे (मत्ती 24ः 24) जो भेड़ियों के समान भेड़ों को नाश करके तितर-बितर कर देंगे। पौलुस, पतरस और यहूदा ने भी अधर्मी, भक्तिहीन लोगों, झूठे शिक्षकों और अगुवों को न केवल चेतावनी दी परन्तु उन्हें श्राप भी दे डाला। (गलातियों 1ः 8-10; 1 पतरस 2ः 1-2; यहूदा: 3-6)

शैतान आरम्भ ही से प्रभु की कलीसिया को बिगाड़ने का प्रयास करता रहा। आज संसार में क़रीब तैंतीस हज़ार मसीही सम्प्रदाय (डिनामिनेशन्स) हैं। शायद आपका यह विचार है कि केवल आपका ही सम्प्रदाय ठीक है बाकी सब पथभ्रष्ट हो गये हैं। ऐसा विचार क़रीब-क़रीब सभी सम्प्रदाय वालों का है। शैतान को यह देखकर बड़ा आनंद आता होगा। कई आत्मिक अगुवों का ख्याल है कि शैतान ने संसार की लगभग सारी कलीसियाओं को भ्रष्ट कर चुका है।

नये नियम की कलीसिया घरेलू कलीसिया थी। कलीसिया में पहिली ग़लत शिक्षा, प्रकाशितवाक्य की सात कलीसियाओं में से इफिसुस और पिरगमुस कलीसियाओं के नीकुलाउस नामक एक व्यक्ति के द्वारा आई, जो स्तिफनुस का साथी था (प्रेरितों के काम 6ः 5)। नीकुलाउस ने ‘‘सुनने वाले साधारण सदस्य’’ (लेमेन) और ‘‘बोलनेवाले अगुवों’’ अर्थात धर्मोपदेशक ;च्तपमेजद्ध को अलग करने की प्रणाली शुरू की। हालाकि प्रभुजी ने स्वयम् इस विभाजन की भत्र्सना की और यहां तक घृणा प्रगट की कि इस विभाजन की तुलना मूर्तिपूजा और व्यभिचार से की (प्रकाशितवाक्य 2ः 6, 14-15)। परन्तु आज भी हमारी कलीसियाओं में पास्टर और लेमेन के मध्य विभाजन का पाखंड पूरी तरह से प्रचलित है। बाईबल के अनुसार हम लेमेन नहीं परन्तु राजपदधारी याजक हैं और कलीसिया याजकों का समाज है। (1 पतरस 2ः 9)

प्राथमिक कलीसिया विशेष भवनों में नहीं परन्तु घरों में एकत्रित होती थी, वह मात्र रविवार को नहीं परन्तु प्रतिदिन संगती करती थी, वहां अगुए वेतनधारी नहीं परन्तु स्वयं सेवक होते थे। वे संस्थावादी नहीं थे परन्तु प्रेम का घनिष्ट सम्बन्ध होता था। प्रथम तीन सौ वर्षों तक कलीसिया का स्वरूप लगभग नये नियम की माता कलीसिया का सा बना रहा। परन्तु इन तीन सौ सालों में घरेलू कलीसियाओं ने अत्यन्त कष्ट सहे। रोमन सम्राटों ने ख़ास कर नीरो ने हज़ारों मसीहियों को मनोरंजन के लिये स्टेडियम में भीड़ इकट्ठा कर के भूखे जंगली जानवरों को खिलाया। उन्हें आरी से कटवाया और तरह-तरह से सताया। परन्तु प्रभु का काम तेजी से बढ़ता ही गया। शैतान ने जब देखा कि पिटाई से काम नहीं चलेगा तो उसने मिठाई देने की योजना बनाई।
रोम के शासक कांस्टेन्टाइन ने सन् 312 में मसीही धर्म स्वीकार कर लिया, जिससे सारे संसार में खुशी फैली। परन्तु शैतान ने इस मनुष्य के द्वारा बहुत से ग़लत काम करवाये। उसने मसीही धर्म को ‘‘सरकारी धर्म’’ घोषित कर दिया और मसीहियों को बहुत सुविधाएँ देने लगा। जिसके कारण स्वार्थवश बहुत से लोग मसीही धर्म अपनाने लगे। कांस्टेन्टाइन ने अपने आपको ‘‘कलीसिया का प्रधान’’ घोषित कर दिया। राजा ने जब घरेलू कलीसियाओं को देखा तो बहुत दुःखी हुआ कि मैं महल में रहता हूं और परमेश्वर के लोग छोटे-छोटे घरों में मिलते हैं। उसने एक राजा के लायक पहिला भव्य आराधना भवन, (कैथीड्रल अर्थात विशप का सिंहासन) बनाया। इसके प्रभाव से सभी जगह आराधनालय बनाये जाने लगे। इसके बाद सब लोग जो घरेलू कलीसियाओं में प्रेम से इकट्ठे होते थे वे आराधनालय में आकर बेंच की शोभा बढ़ाने वाले हो गए। प्रचार का काम और अगुवे तैयार होना बंद हो गया।

आराधनालय में एक वेतनधारी धर्माचार्य (प्रीस्ट) की नियुक्ति हुई जो धीरे- धीरे पोप बन गया। इस विभाजन के बाद धर्माचार्यों का वर्चस्व पूरे संसार में धीरे-धीरे छा गया और जहां भी उनके अधिकार का उल्लंघन होता था, वहां वे विश्वासियों को धमकी देते थे और कभी-कभी तो जान से मरवा डालते थे। सरकार भी धर्म गुरूओं के द्वारा जनता पर नियंत्रण रखने लगी। आर्थिक सहायता देकर धर्म के अगुवों को राजा के आधीन कर लिया गया। आज भी सारे यूरोप में पास्टरों का वेतन सरकारें देती हैं। इसके बाद तो कलीसिया राजनैतिक रूपी शराब के नशे में चूर होकर प्रभु से बहुत दूर भटक गई (2 यूहन्ना: 9) और प्रभु को छोड़कर वेतन देने वालों की दुहाई देने लगी।

बिशप थियोडाॅसियस तथा ग्रेशियन ने प्रत्येक निवासी के लिए चर्च की सदस्यता अनिवार्य कर दिया। अतः चर्च बिना उद्धार पाये मसीहियों और सांसारिक लोगों से भर गया और कलीसिया का ‘‘नये नियम’’ का स्वरूप समाप्त हो गया। कलीसिया को पूरी तरह से अपने कब्जे में लाने के लिए उन्होंने सन् 380 में घरेलू कलीसिया को ग़ैर कानूनी घोषित करवाया और यदि कोई अपने घर में आराधना करता था तो उसे अपराधी घोषित करके या तो बंदीगृह में डाल दिया जाता था या ख़त्म कर दिया जाता था। एक हज़ार सात सौ साल बाद भी यह प्रवृत्ति कम नहीं हुई है बल्कि यह पाखंडपन बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही (1997) में रूस देश के आर्थोडाॅक्स चर्च के दबाव से सरकार ने घरेलू कलीसियाओं को ग़ैर कानूनी घोषित किया है। इस तरह से प्रभु की पहिली सदी की कलीसिया जो प्रेरितों, भविष्यवक्ताओं और प्राचीनों द्वारा चलाई जाती थी वह ख़त्म हो गई। इसके साथ-साथ कलीसियांओं में उद्धार पाए हुए लोगों की बढ़ोत्तरी का सिलसिला ठप्प हो गया। आज भी कलीसियाओं में अधिकांश सदस्य नामधारी गुनगुने ईसाई होते हैं। 

कलीसिया की सदस्यता बढ़ाने के लिए बच्चों का बपतिस्मा सन् 416 में घोषित कर दिया गया। धर्म में अशिक्षित माँ-बाप को डरा-धमका कर कि अगर बच्चा मर गया तो नरक चला जाएगा, बच्चों का बपतिस्मा कराने के लिए विवश किया। इस तरह से चर्च की सदस्यता धोखाधड़ी से बढ़ाई गई। 

सन् 431 में इफिसुस की काॅसिंल ने मरियम को परमेश्वर की माँ के रूप में पूजा करने की घोषणा की। अगस्त 1997 में लाखों रोमन केथोलिक लोगों ने पोप को ज्ञापन दिया कि माता मरियम को यीशु मसीह की बराबरी अर्थात उद्धारकर्ता और मध्यस्थ (Co-Redeemer & Intercessor) का दर्जा दिया जाए। दुःख की बात है कि मदर टेरेसा ने भी इस प्रार्थना पत्र पर दस्तख़त किया था। इस से यह साफ पता चलता है कि, यह विश्व ख्याति प्राप्त महिला, बाईबल के प्रभु यीशु पर नहीं परन्तु रोमन केथोलिक चर्च के धर्म सिद्धान्तों और मरियम पर ज़्यादा विश्वास करती थीं। बाईबल हमें साफ-साफ सिखाती है कि मरियम को भी उद्धार की ज़रूरत थी, इसलिए वह शिष्यों के साथ ऊपरी कोठी में पिन्तेकुस्त के दिन गिड़गिड़ा कर प्रार्थना कर रही थी। (प्रेरितों के काम 1ः 14)

घरेलू कलीसियाओं में प्रीस्ट या फादर आदि नहीं होते थे। कलीसियाएँ प्राचीन तथा सेवकों की अगुवाई में चलतीं थीं। धीरे-धीरे प्राचीनों के स्थान पर प्रीस्ट नियुक्त किये जाने लगे। पोप लियो प्रथम (सन् 440-461) ने प्रीस्टों का जीवन पर्यन्त अविवाहित रहना अनिवार्य बना दिया। यह परम्परा आज तक चली आ रही है। सन् 500 तक सभी चर्चो में प्रीस्टों की नियुक्ति हो गई और वे सफेद चोगा पहनने लगे। इसके बाद प्राचीनों ;म्सकमतेद्ध का वर्चस्व ख़त्म हो गया। आज सभी कैथोलिक चर्च में प्रीस्ट, फादर आदि पाए जाते हैं और हमारे कुछ पास्टर भी अपने को प्रीस्ट या फादर कहने से पीछे नहीं हटते।
रोमन साम्राज्य के पतन होने पर, सन् 607 में रोम के बिशप बाॅनीफेस प्प्प् ने अपने आप को ‘‘पाॅन्टीफेक्स मेक्सिमस’’ अर्थात ‘‘बड़ा पुल बनाने वाला’’ घोषित किया। इस उपाधि को संक्षिप्त में पोप कहा जाता है। यह पहिले रोमी सम्राट की उपाधि थी, जो रोमन राज्य का महायाजक और ईश्वर माना जाता था। रोम साम्राज्य के पतन होने पर वहां के बिशप ने यह उपाधि हड़प ली। पोप को मनुष्य और परमेश्वर के मध्य एक पुल माना जाता है जो कोई गलती नहीं कर सकता, परन्तु इतिहास इसके सर्वदा विपरीत है। ज़्यादातर पोप ने भेड़ियों के समान घरेलू कलीसियाओं में घुसकर अबोध विश्वासियों की निर्ममतापूर्वक हत्या की (प्रेरितों के काम 20ः 29-30)। मार्टिन लूथर ने रोम भ्रमण और पोप दर्शन के बाद कहा कि रोम में मूसा की दसों आज्ञाओं का पूरी तरह से उल्लंघन हो रहा है और रोमियों 13ः 13 में जो पाप गिनाये गये हैं - जैसे लीला-क्रीड़ा, पियक्कड़पन, व्यभिचार, कामुकता, झगड़े और बैर, खुले आम पोप और उसके सहयोगियों द्वारा किये जाते हैं।
सन् 709 में प्रतिमाओं और सन्तो के अवशेषों जैसे बाल, दाँत, शव आदि की पूजा शूरू हुई।
सन् 1096 में मुसलमानों के बढ़ते हुए वर्चस्व को रोकने के लिए मसीह के नाम पर निकले क्रूसेडर्स (क्रूस के योद्धाओं) ने हज़ारों मुस्लिम और यहूदियों की हत्या की, लूट-पाट की और बलात्कार किया। परिणाम स्वरूप मुसलमान और यहूदी, आज भी ईसाइयों से घृणा करते हैं। 

सन् 1184 से चर्च के विधि विधान के ऊपर कोई प्रश्न उठान का दुस्साहस करने पर तुरन्त ‘‘चर्च विरोधी’’ घोषित कर दिया जाता था और एक खम्बे से बांध कर सबके सामने जला दिया जाता था जिससे जनता बहुत डर जाती थी। ऐसा कहा जाता है कि चर्च ने क़रीब ढ़ाई करोड़ विश्वासियों को मरवा डाला। कार्डिनल जोसेफ रेटज़िंगर ने 22 जनवरी 1998 में बताया कि रोम में 4,500 प्राचीन ग्रंथ हैं जिनमें इन शहीदों के नाम हैं। परन्तु ऐसा विश्वास है कि इनमें केवल एक तिहाई शहीदों का रिकार्ड है। इनमें से अधिकांश शहीद छोटी-छोटी घरेलू कलीसियाओं के सदस्य थे जिन्होंने धर्म शास्त्र पर आधरित कलीसिया आरम्भ किया था परन्तु बड़ी और संगठित लेकिन भ्रष्ट कलीसिया ने उनकी हत्या कर दी।

सन् 1515 में इरेसमस नामक धर्म संशोधक ने केथोलिक गद्य से हटकर बाईबल का सरल भाषा में टिप्पणी के साथ अनुवाद किया और उसकी भूमिका में महान आदेश की प्राथमिकता की व्याख्या की, जिसका प्रभाव उस समय के सब धार्मिक अगुवों पर पड़ा और कलीसिया में क्रांति की स्थिति आ गयी। स्काटलैंड के जाॅन नाॅक्स नामक अगुवे पर इतना असर हुआ कि उसने प्रार्थना की कि ‘‘प्रभु मुझे पूरा स्काटलैंड दे अन्यथा मेरे लिए मर जाना भला है।’’ आज जाॅन नाॅक्स के समान लोगों की ज़रूरत है जो अपने क्षेत्र के लिए समर्पित हों। (भजन संहिता 2ः 8)

सन् 1517 में मार्टिन लूथर ने धर्म संशोधन अभियान शुरू किया जिसने पूरे केथोलिक चर्च को जड़ से हिला दिया। उसने याद दिलाया कि नया नियम यह सिखाती है कि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से उद्धार होता है (इफिसियों 2ः 8)। अभी तक यह प्रचार किया जा रहा था कि उद्धार चर्च के द्वारा है, अनुग्रह प्रीस्ट के द्वारा तथा पोप कोई गलती नहीं कर सकता। हालत इतनी ख़राब थी कि लोगों को नरक से बचने के लिए पोप के द्वारा प्रमाण-पत्र पैसों से बेचे जा रहे थे जिसके विरूद्ध मार्टिन लूथर ने अभियान छेड़ा। 1526 में लूथर ने घरेलू कलीसिया के सदस्यों को सच्चा भक्त कहा और उन्हें घरों में इकट्ठे होकर प्रार्थना, बाईबल पठन, बपतिस्मा, प्रभुभोज और अन्य मसीही कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया (W.A. 19,44)।

परन्तु वही मार्टिन लूथर राजनैतिक दबाव आने पर पलट गया और 1530 में घोषणा की कि कोई भी विश्वासी यदि वह पास्टर न हो और प्रचार करे तो चाहे वह ठीक भी प्रचार करे तौभी वह मार डाला जाए (W.A. 10,11)। लूथर की यह दोहरी नीति, हज़ारों विश्वासियों की मृत्यु का कारण बनी। 

सन् 1524 के आस पास जि़्वंगली नामक एक व्यक्ति ने स्विटज़रलैंड के ज़्यूरिक शहर में धर्म संशोधन का अभियान शुरू किया। उसने सरकार से बिना अनुमति के अपने दोस्तों और अनुयाईयों के साथ एक मसीही सहभागिता (Fellowship) खोला जो कानून के खि़लाफ था। इसने अपने साथियों को बाईबल के वचनों के अनुसार चलने के लिये प्रेरित किया। 1524 से जब उसके मित्र ग्रेबेल का पुत्र हुआ तो उसने अपने बच्चे का बपतिस्मा कराने से इन्कार कर दिया क्योंकि उसने कहा कि बाईबल में बच्चों के बपतिस्मा का कोई सन्दर्भ नहीं है और वैसे भी बाईबल सिखाती है कि पश्चाताप और विश्वास पहले और बपतिस्मा बाद में (मरकुस 16ः 16)। यह वहां के चर्च के नियम के विरूद्ध था। जि़्वंगली को छोड़कर उसके सब साथियों ने ‘‘दुबारा डूब का वयस्क बपतिस्मा’’ लिया जिससे जि़्वंगली घबरा गया और अपनी जान बचाने के लिए मुकर गया और अपने साथियों को मरवा डालने में उसका सहयोग था। उसका दोस्त ग्रेबेेल जेल में मर गया। ब्लोराॅक जिसने 15 बपतिस्मा दिए थे उसे जला दिया गया। मॅन्ट्ज को डूब के बपतिस्में का मजाक करते हुए पानी में डुबा-डुबा कर मार डाला गया।

1525 में जिनेवा नगर पालिका ने आदेश निकाला कि सारे बच्चों का बपतिस्मा आठ दिन के अंदर करा दिया जाए अन्यथा माता-पिता को सजा दी जाएगी और बच्चे जब्त कर लिये जाएंगे। उस समय बच्चों को बपतिस्मा देते समय दुष्ट आत्मा निकालने के लिए मंत्र बोले जाते थे और उनके ऊपर क्रूस का निशान, थूक और तेल लगाया जाता था।
मार्टिन लूथर के संगी मेलेश्थन नामक धर्म व्याख्याता ने जर्मनी के राजकुमार फ्रेडेरिक को पत्र लिखकर बच्चों का छिड़काव वाले बपतिस्मा जैसे ज्वलंत मुद्दे पर खुले आम बहस करने की इजाज़त मांगी। इसे राजकुमार ने तुरन्त ठुकरा दिया कि इससे जनता में तनाव और दंगे फसाद की स्थिति आ जायेगी और पूरे देश में सन् 1526 में आदेश भेजा कि चर्च के विधि-विधान में कोई परिर्वतन न किया जाये।
इस तरह बच्चों के बपतिस्मा की प्रथा बाईबल और कलीसिया द्वारा नहीं परन्तु जर्मनी के राजकुमार फ्रेडरिक द्वारा निर्धारित की गई। आज लूथरन, मेथोडिस्ट, एंगलिकन, प्रेसबिटेरियन, मारथोमा,  आर्थोडोक्स और केथोलिक इत्यादि कलीसिया इस राजनैतिक निर्णय के कारण दूध पीते हुए बच्चों को बपतिस्मा दे रहे हैं जो पश्चाताप करने में सर्वथा अयोग्य हैं।
इन सब का विरोध हुआ और बचपन में छिड़काव का बपतिस्मा पाए हुए हज़ारों लोगों ने डूब का वयस्क बपतिस्मा लिया। विरोधी ऐनाबॅपटिस्ट अर्थात ‘‘दुबारा बपतिस्मा’’ वाले कहलाए। ऐनाबॅपटिस्ट लोगों ने बाईबल का अध्ययन करके जाना कि, एक व्यक्ति को सुसमाचार सुनकर, मन फिराने और शिक्षा देने के बाद ही बपतिस्मा दिया जा सकता है। अतः वे लोगों को गहराई से शिक्षा देने लगे। (प्रेरितों के काम 2ः 37-38)
उन्होंने घरेलू कलीसियाओं का गठन किया और उन्हें आदि या मौलिक कलीसिया (Primitive Church) कहा। इस प्रकार एनाबॅपटिस्ट आंदोलन, ‘‘पुनः बाईबल की ओर आंदोलन’’ (Back To The Bible Movement), ‘‘महान आज्ञा आंदोलन’’ (Great Commision Movement) तथा ‘‘घरेलू कलीसिया आंदोलन’’ (House Church Movement) बन गया। केथोलिक चर्च ने तुरन्त साठ हज़ार दुबारा बपतिस्मा लेने वालों की हत्या करवा दी। आज भी हमारी कलीसियाओं में दुबारा बपतिस्मा लेने वालों को प्रताड़ित किया जाता है।
सन् 1660 में लबाडी नामक एक पास्टर ने फ्रांस में छोटे-छोटे घरेलू समाज (Fellowships) का संगठन किया जिसे देशद्रोह माना गया और उसे स्पेन भागना पड़ा। उसने ‘कन्वेन्टिकल्स’ अर्थात विश्वासियों के छोटे समूहों, घरेलू कलीसियाओं में गुप्त रीति से आत्मा और सच्चाई से आराधना करने और नए विश्वासियों की सुधि लेने के विषय में लेख लिखा। अभी तक आराधना एक ही प्रकार की यहूदी-रोमन-प्रोटेस्टेन्ट विधि से होती थी अर्थात पहिले भजन भक्ति (Praise And Worship), उपदेश, चंदा और अंत में आशिष के द्वारा विसर्जन जिसका बाइबल में कहीं भी आदेश नहीं है। लबाडी ने अपने शोध में बताया कि पहिली सदी की कलीसिया में इस प्रकार से आराधना संचालित नहीं की जाती थी वरन 1 कुरिन्थियों 14ः 26-30 के अनुसार सामुहिक रूप से। लबाड़ी को घरेलू कलीसियाएं स्थापित करने के आरोप में चर्च से निष्कासित कर दिया गया। 
इसके बाद ह्यूगेनोस (Huguenots) अगुवे ब्राॅन्सन को घरेलू कलीसिया स्थापित करने के कारण बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया और 1698 में फ्रांस में एक शहर के बीच में फांसी पर चढ़ा दिया गया। मरते समय उसने ऊंची आवाज़ में भजन 34 को गाया जिस से वहां के लोगों का दिल पिघल गया और बहुत से लोगों ने सारे पाश्चात्य् देशों में गुप्त घरेलू कलीसियाएं आरम्भ किया और उसे “Church in Wilderness” अर्थात ‘‘वीरान की कलीसिया’’ कहा। एनाबॅपटिस्ट आंदोलन की प्रेरणा से हज़ारों महान आदेशीय मसीही मिशनरी बनकर संसार के कोने-कोने में गये।

बीसवीं सदी के आरम्भ में पवित्र आत्मा की अगुवाई से पेन्टीकाॅस्टल तूफान सारे संसार में उठा जो धीरे-धीरे बदल कर वरदानी (Charismatic) बन गया अर्थात चिन्ह चमत्कार वाला और अब वही तूफान पुनः महान आदेशीय अर्थात शिष्य बनाने वाला कलीसिया रोपक आंदोलन होकर पूरे संसार में तेज़ी से फैल रहा है। आज विश्व का सबसे बड़ा समुदाय केथोलिक है और दूसरा प्रोटेस्टेंट है, परन्तु जिस तरह से महान आदेशीय कलीसियाएं बढ़ रही हैं उससे वे शीघ्र ही सब से आगे हो जाएंगी।
वर्तमान में ऐसे आसार हैं कि बहुत सी साम्प्रदायिक (डिनामिनेशनल) कलीसियाएं या तो लुप्त हो जाएंगी अथवा उनमें परमेश्वर की आत्मा काम करेगी तो वह स्वयम् वरदानी और फ़सल बटोरने वाली कलीसियाएं बन जाएंगी। चीन, कोरिया, फिलीपीन, इन्डोनेशिया, वियतनाम, सिंगापुर, नेपाल, बर्मा, अफ़्रीकी देश, दक्षिण अमेरिकी देश तथा ब्रिटेन में यह परिवर्तन आ गया है और वहां हज़ारों घरेलू कलीसियाएं स्थापित हो रही हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि संसार में वर्तमान में प्रति दिन हजारों घरेलू कलीसियाएं स्थापित हो रही हैं।
भारत में भी हर सप्ताह करीब एक हजार घरेलू कलीसियाएं स्थापित हो रहीं हैं, जो ख़ास कर पंजाब, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आंद्रप्रदेश, अरूणाचल, उत्तरप्रदेश, सिक्किम, बिहार, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक इत्यादि प्रांतों में व्यापक रूप से फैल रहें हैं। बड़े शहर जैसे मुम्बई, मद्रास, दिल्ली, कलकत्ता, लखनऊ, लुधियाना, भोपाल, नागपुर और हैदराबाद इत्यादि में घरेलू कलीसियाएं तेज़ी से स्थापित की जा रहीं हैं। एक ख्रीष्ट विरोधी पार्टी के प्रवक्ता ने कहा है कि दक्षिण गुजरात और उत्तर महाराष्ट्र शीघ्र मीज़्ाोरम की तरह मसीही बाहुल क्षेत्र हो जाएंगे। कुछ भविष्यवक्ताओं का अनुमान है कि कलीसिया रोपण की इस गति से 40 वर्ष के अन्दर भारत एक मसीही देश बन जाएगा।
बाईबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर पिता ने हमेशा से चाहा कि संसार के समस्त कुल, गोत्र, जाति और भाषा के लोग उद्धार पाएं। (उत्पत्ति 12ः 3; प्रकाशितवाक्य 5ः 9-10
इतिहास हमें बताता है कि कलीसिया ने हमेशा महान आदेश का विरोध किया और परमेश्वर के इस विश्यव्यापी दर्शन को आराधनालय की चार दीवारों के अन्दर सीमित करने की भरसक कोशिश की।
आज कलीसिया शिष्य नहीं बनाती केवल आराधना करती है इसलिए उसे आराधनालय और उससे जुड़े हुए प्रसाधनों की ज़रूरत पड़ती है। जब तक यह विद्रोही कलीसिया परमेश्वर के दर्शन को नहीं समझेगी तब तक महान आदेशीय विश्वासियों को प्रताड़ित करती जाएगी और फलस्वरूप स्वयम् श्रापित रहेगी।
भारत में 1706 में सबसे पहिले प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी जि़्ांगलबाल्ग और उसका साथी प्लूट्स डेनमार्क देश से आए और उन्होंने प्रथम कलीसिया, ट्रेंक्वीबार (तमिलनाडु) में अंग्रेज़ों से बड़े विरोध का सामना करते हुए स्थापित किया। परमेश्वर का धन्यवाद हो कि इन तीन सौ सालों में क़रीब एक लाख छोटी बड़ी कलीसियाएं स्थापित हो चुकी हैं। परन्तु अभी क़रीब दस लाख कलीसियाओं की और ज़रूरत है तब भारत के हर गाँव और शहरी बस्ती में प्रभु की बेदारी होगी।
 
कलीसिया का दो हज़ार साल का इतिहास सच्चे मसीहियों के लिए अत्यन्त कष्ट का समय रहा है। आज आप स्वतंत्रता से बैठकर अपने घर में अन्य जातियों के साथ प्रार्थना भक्ति कर सकते हैं, क्योंकि करोड़ों विश्वासियों ने बलिदान होकर आपके लिए यह सुविधा प्रदान की है।

यदि हम इस अवसर का उपयोग न करें तो इससे बढ़कर बुद्धिहीनता क्या हो सकती है (नीतिवचन 11ः 30; दानिय्येल 12ः 3)। इसके पहिले की आकाश और पृथ्वी प्रचन्ड ताप में पिघल कर नष्ट हो जायें हर एक विश्वासी के समान आपको भी आव्हान मिला है कि परमेश्वर के दिन को लाने के लिये आप प्रयत्नशील हो जायें। (2 पतरस 3ः 11-12)
यदि आप इस भ्रम में हैं कि आपकी कलीसिया के रविवारीय आराधना में ही आपका और अन्यजातियों का उद्धार है तो आप पूरी तरह से भ्रमित हैं। परमेश्वर से प्रार्थना कीजिए और प्रभु के नाम से इस भ्रम को तोड़िये और स्वतंत्र होकर प्रभु की सही सेवा कीजिए। याद रखिए कि प्रभु ने आप को ‘‘फल जो बना रहे’’ लाने के लिए चुना है। प्रभु की सही महिमा इसमे होती है कि आप बहुत सा आत्मिक फल लाएं तब ही आप उनके शिष्य ठहरेंगे। (यूहन्ना 15ः 8, 16)

हर एक स्थान और स्थिति, शिष्य बनाने के लिए उपयुक्त है। क्रूस पर चढ़े प्रभु ने क्रूस पर चढ़े डाकू को शिष्य बनाया और वह स्वर्गलोक चला गया। जी उठते ही उन्होंने यरूशलेम से इम्माउस के रास्ते में दो व्यक्तियों को शिष्य बनाया और उनकी आखे खुल गयी। (लूका 23ः 38-43; 24ः 16,31)

पिन्तेकुस्त के दिन घरेलू कलीसिया का आंदोलन शुरू हुआ था जो बहुत समय के लिए भवनों, वेतनधारी याजक, रविवारीय आराधना और संस्थावाद के दल-दल में फंस गया था। परन्तु अब फिर से घरेलू कलीसिया आंदोलन पूरे विश्व में व्यापक रूप से फैल रहा है।

join to the prayer groups
Prarthna Yoddha
prarthnayoddha@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

पाप का दासत्व

श्राप को तोड़ना / Breaking Curses

भाग 6 सुसमाचार प्रचार कैसे करें?