प्रार्थना क्या है और हम प्रार्थना क्यों करते हैं?

प्रार्थना क्या है और हम प्रार्थना क्यों करते हैं?

प्रार्थना करना प्रत्येक मसीही का कर्तव्य है।
परमपिता परमेश्वर ने हमें आदेश दिया है कि हम प्रार्थना करें (2 इतिहास 7ः 14) इसलिए हमें परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी होना चाहिए। प्रार्थना का अभिप्राय परमेश्वर की इच्छा को जानना और तब प्रार्थना के द्वारा उसको प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त करना। यह एक विशेष अधिकार एवं कर्तव्य है जिसमें परमेश्वर के सहकर्मी होकर हम दूसरों के जीवन को सुधार सकते हैं। सौ साल से भी पहले पूर्व आल्फ्रेड टेनिसन ने लिखा कि ‘‘इस विश्व के सपनों से भी अधिक वस्तुएं प्रार्थना द्वारा प्राप्त हो सकती हैं’’ और यह आज भी सत्य है।

अब मैं सब से पहले यह उपदेशदेता हूँ कि विनती, प्रार्थना, निवेदन और धन्यवाद, सब मनुष्यों के लिये किए जाएं। राजाओं और सब ऊँचे पदवालों के निमित्त इसलिये कि हम विश्राम और चैन के साथ सारी भक्ति और गम्भीरता से जीवन बिताएं। (1 तीमुथियुस 2ः 1-2)

फिर यह मुझ से दूर हो कि मैं तुम्हारे लिये प्रार्थना करना छोड़कर परमेश्वर के विरूद्ध पापी ठहरूं। मैं तो तुम्हें अच्छा और सीधा मार्ग दिखाता रहूँगा। (1 शमूएल 12ः 23)

हर समय, हर प्रकार से आत्मा में प्रार्थना और विनती करते रहो और इसी लिये जागते रहो कि सब पवित्र लोगों के लिये लगातार प्रार्थना व विनती कर सको। (इफिसियों 6ः 18)

जागते रहो और प्रार्थना करते रहो कि तुम परीक्षा में न पड़ो। आत्मा तो तैयार है परन्तु शरीर दुर्बल है। (मत्ती 26ः 41) निरंतर प्रार्थना में लगे रहो। (1 थिस्सलुनीकियों 5ः 17)

प्रार्थना हमारी प्राथमिकता है।

प्रभु यीशु के जीवन में प्रार्थना का स्थान उनके सामाजिक जीवन, विश्राम एवं भोजन से भी पहले था। प्रार्थना प्रभु यीशु एवं उसके पिता से संबंध की कड़ी थी और यही हमारे लिये भी सत्य है। वह लोगों को बिदा करके प्रार्थना करने के लिए पर्वत पर अकेला चढ़ गया और शाम तक वहां अकेला था। (मत्ती 14ः 23)

और उन दिनों में वह पहाड़ पर प्रार्थना करने के लिए निकला और परमेश्वर से प्रार्थना करने में सारी रात बिताई।(लूका 6ः 12)

प्रार्थना परमेश्वर की सेवा है।
आप पुरोहित के रूप में उसके पास बुलाए गये हैं इसलिए मनुष्यों की सेवा से पूर्व परमेष्वर की सेवा आवश्यक है। परमेश्वर की संतान होने के नाते उस की प्रषंसा एवं आराधना की सेवकाई, प्रार्थना, मनन एवं बातचीत करने में देर न करें।
प्रभु यीशु के लहू के कारण यह पुरोहिती कार्य आपको सौंपा गया है। उसके लहू ने आपको पवित्र किया है ताकि आप परम पवित्र स्थान में प्रवेश करें। इस कारण निडरता एवं आत्मविश्वाश से उसकी उपस्थिति में आएं।

पर तुम एक चुना हुआ वंश और राज-पदधारी, पुरोहितों का समाज, पवित्र लोग और परमेश्वर की निज प्रजा हो, इसलिये कि जिस ने तुम्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करो। (1 पतरस 2ः 9)

तुम भी जीवित पत्थरों की नाई आत्मिक घर बनते जाते हो, जिससे पुरोहितों का पवित्र समाज बनकर ऐसे आत्मिक बलिदान चढ़ाओ, जो प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर को ग्रहण योग्य हैं। (1 पतरस 2ः 5)

जैसा उस ने हमें जगत की उत्पत्ति से पहले उसमें चुन लिया कि हम उसके निकट प्रेम में पवित्र और निर्दोश हों। उसने हमें अपनी इच्छा के भले अभिप्राय के अनुसार पहले से ही अपने लिए प्रभु यीशु मसीह के द्वारा दत्तक पुत्र होने के लिए ठहराया। (इफिसियों 1ः 4-5)

दुष्ट लोगों के बलिदान से परमेश्वर घृणा करता है परन्तु वह सीघे लोगों की प्रार्थना से प्रसन्न होता है। (नीतिवचन 15ः 8)
(कृपया 2 कुरिन्थियों 5ः 21; इब्रानियों 4ः 16 भी देखें।)

प्रार्थना परमेश्वर और आप के मध्य बातचीत का अद्भुत माध्यम है।
यह उसके साथ समय बिताने का साधन है क्योंकि आप उसे प्यार करते हैं। उस के साथ दिल से दिल मिलाकर बातचीत करने से आपके वार्तालाप में गहराई आएगी। जैसे उसने अपनी योजनाएं मूसा को बतलाया तथा इस्राएल की संतानो पर अपने कार्य प्रगट किये, वैसा ही आपके साथ भी कर सकता है। परमेश्वर आज कल पवित्र आत्मा के माध्यम से बातें करता है।

11. और परमेश्वर मूसा से इस प्रकार आमने-सामने बातें करता था जिस प्रकार कोई अपने मित्र से बातें करे और मूसा तो छावनी में वापस आता था पर यहोशू नामक एक जवान, जो नून का पुत्र और मूसा का सेवक था, तम्बू में से नहीं निकलता था। 12. और मूसा ने परमेश्वर से कहा, सुन तू मुझ से कहता है कि इन लोगों को ले चल परन्तु यह नहीं बताया कि तू मेरे संग किसको भेजेगा। तो भी तूने कहा है कि मैं तुझे नाम से जानता हूँ और तुझ पर मेरी अनुग्रह की दृष्टि है। 13. और अब यदि मुझ पर तेरे अनुग्रह की दृष्टि हो तो मुझे अपनी गति समझा दे, जिस से जब मैं तुझे जानू तब तेरे अनुग्रह की दृष्टि मुझ पर बनी रहेगी। फिर इसकी भी सुधि कर कि यह जाति तेरी प्रजा है। 14. परमेश्वर ने कहा, मैं स्वयं चलूँगा और तुझे विश्राम दूंगा। (निर्गमन 33ः 11-14; 15-23)

जब आप प्रार्थना स्तुति, उपवास और परमेश्वर के वचन के द्वारा अपने को अनुशासित करते हैं तब आपके जीवन में आत्मिक जागृती का नयापन दिखाई देता है।

जैसे एलीशा ने परमेश्वर से अपने दास की आँखे खोलने की प्रार्थना की, वैसे ही आप भी प्रार्थना कीजिए कि आप आत्मिक सच्चाइयों को जान सकें।

उस ने कहा डर मत क्योंकि जो हमारे साथ हैं, वे उन से बहुत अधिक हैं, तब एलीशा ने यह प्रार्थना की, हे परमेश्वर इसकी आँखें खोल दे ताकि यह देख सके। तब परमेश्वर ने सेवक की आँखे खोल दी और आंखे खुलते ही उसने देखा कि एलीशा चारों तरफ से अग्निमय घोड़ों और रथों से घिरा हुआ है। (2 राजाओं का वृतांत 6ः 16-17)

इस पर यीशु ने कहा, मुझे किस ने छुआ ? जब सब मुकरने लगे तो पतरस और उसके साथियों ने कहा, हे स्वामी, तुझे तो भीड़ दबा रही है जो तुझ पर गिरी पड़ती है। परन्तु प्रभु यीशु ने कहा, किसी ने मुझे छुआ है क्योंकि मैंने जान लिया है कि मुझ में से सामर्थ निकली है। (लूका 8ः 45-46)

प्रभु यीशु मसीह हमारा महान मध्यस्थ और हमारे लिए उसका प्रार्थना का जीवन एक सटीक उदाहरण है।

अपने मसीही जीवन में आप खृीष्ट के समान प्रार्थना के जीवन को अपना सकते हैं। यह स्वार्थ रहित कार्य है। कई लोग इसे ना ही देख सकते और ना ही इसकी प्रशंसा करते हैं। वे केवल इसके फलों का अनुभव करते हैं। आप दूसरों को दिखाने के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर की उपस्थिति और आनन्द में खड़े रहने के लिए प्रार्थना करते हैं।

मसीह वह है जो मर गया परन्तु मुर्दों में से भी जी उठा, जो परमेश्वर की दाहिनी ओर विराजमान है और हमारे लिये निरंतर निवेदन भी करता है। (रोमियों 8ः 34 बी)

और दिन निकलने से बहुत पहले वह उठकर एकांत में गया और वहां प्रार्थना करने लगा। (मरकुस 1ः 35)

इसीलिये जो प्रभु यीशु के द्वारा परमेश्वर के पास आते हैं, वह उन का पूरा-पूरा उद्धार करने में सक्षम है। वह उन के लिये विनती करने के लिए सदैव अमर है। (इब्रानियों 7ः 25)

परन्तु वह जंगलों में अलग जाकर प्रार्थना किया करता था। (लूका 5ः 16)

प्रार्थना दूसरों के बोझ के लिए प्रेम का प्रतिउत्तर है। 
दूसरों के लिये मध्यस्थता करना आपका सौभाग्य है। आप पिता के हृदय को स्पर्श कर सकते हैं। आप उसकी संतानों हेतु उसके हृदय की तड़पन का अनुभव पवित्र आत्मा द्वारा कर सकते हैं। पौलूस की प्रार्थनाओं में हम दूसरों के लिए बोझ और उसके प्रेम के फल को उल्लेख में अनेक बार पढ़ते हैं।

मैं जब-जब तुम्हें स्मरण करता हूँ तब-तब अपने परमेश्वर का धन्यवाद देता हूँ। जब कभी तुम सब के लिये प्रार्थना करता हूँ तो सदा आनन्द के साथ विनती करता हूँ। उचित है कि मैं तुम सब के लिये ऐसा ही विचार कंरू क्योंकि तुम मेरे मन में आ बसे हो। (फिलिप्पियों 1ः 3,4,7)

प्रभु यीशु के प्रति तुम्हारे विश्वास के बारे में सुनकर तुम्हारे लिये घन्यवाद करना नहीं छोड़ता क्योंकि प्रभु यीशु सभी पवित्र लोगों पर प्रगट है। मैं अपनी प्रार्थनाओं में तुम्हें हमेशा याद किया करता हूँ। (इफिसियों 1ः 15-16)

विरोघ या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो। दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। केवल अपने हित की नहीं वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करो। (फिलिप्पियों 2ः 3-4)

प्रार्थना आपके मुख में परमेश्वर का जीवित वचन है।

परमेश्वर के वचन की प्रार्थना के द्वारा उत्तर और फल प्राप्त होता है। परमेश्वर के वचन को व्यर्थ में मंत्र के समान न दोहराना परन्तु पूर्ण विश्वास से बोलना चाहिये। परमेष्वर का वचन पवित्र आत्मा से प्रेरित होना चाहिये ताकि आप अभिषेक में होकर बोलें।

परमेश्वर चाहता है कि आप उसके पास पूर्ण विष्वास के साथ आएं। वह आपसे वादा करता है कि आपके साथ सहभागिता से कार्य करेगा।

और विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना असंभव है, अतः परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिए। अपने मन में यह विश्वास रखना चाहिए के वह सभी जगह है और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है। (इब्रानियों 11ः 6)

उसी प्रकार से मेरे मुख से निकला वचन व्यर्थ ठहरकर मेरे पास वापस नहीं लौटेगा परन्तु जो मेरी इच्छा है उसे वह पूर्ण करेगा और जिस काम के लिये मैंने उसे भेजा है, उसे वह सफल करेगा। (यशायाह 55ः 11)

प्रार्थना परमेश्वर के राज्य हेतु फल लाता है एवं उसे प्रसन्न करता है।

परमेश्वर से जब आप प्रार्थना एवं बातचीत करते हैं तब वह आपसे बोलता तथा आपको अगुवाई, बुद्धि, ज्ञान, सामर्थ एवं सुरक्षा देता है।

इसीलिये जिस दिन से यह सुना है, हम भी तुम्हारे लिये यह प्रार्थना और विनती करने से नहीं चूकते कि तुम सारे आत्मिक ज्ञान और समझ सहित परमेश्वर की इच्छा की पहिचान में परिपूर्ण हो जाओ। तुम्हारा चाल-चलन प्रभु के योग्य हो, वह सब प्रकार से प्रसन्न हो, तुम में हर प्रकार के भले कामों का फल लगे, तुम परमेश्वर की पहिचान में बढ़ते जाओ और उसकी महिमा की शक्ति के अनुसार सब प्रकार की सामर्थ से बलवन्त होते जाओ। यहां तक कि आनन्द के साथ हर प्रकार से धीरज और सहनशीलता दिखा सको। (कुलुस्सियों 1ः 9-11)

मैं घीरज से परमेश्वर की बाट जोहता रहा और उसने मेरी ओर झुककर मेरी दुहाई सुनी। उसने मुझे सत्यानाश के गड्ढे और दलदल की कीचड़ में से निकाला और चट्टान पर खड़ा करके मेरे पैरों को दृढ़ किया। (भजन संहिता 40ः 1-2)

यदि तुम मुझ में बने रहे और मेरी बातें तुम में बनी रहीं तो जो तुम जो मांगोगे वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। मेरे पिता की महिमा इसी से होती है कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे। (यूहन्ना 15ः 7-8)

प्रार्थना परमेश्वर को पृथ्वी पर पूर्ण प्रभुत्व से कार्य कराती है।
प्रभु यीशुने प्रार्थना में कहा ‘‘जैसे तेरी इच्छा स्वर्ग में पूरी होती है वैसे पृथ्वी पर भी पूरी होवे’’ (मत्ती 6ः 10)। वह यह भी कहता है ‘‘मैं तुम से सच कहता हूँ, जो कुछ तुम पृथ्वी पर बांधोगे वह स्वर्ग में बंधेगा और जो कुछ तुम पृथ्वी पर खोलोगे वह स्वर्ग में भी खुलेगा (मत्ती 18ः 18)। परमेश्वर ने पृथ्वी पर अपने कुछ कार्य को सीमित कर दिया है जिससे अपनी संतानो की प्रार्थना का प्रतिउत्तर दे सके।

स्वर्ग ठहरा हुआ है कि हम कब प्रार्थना करें जिससे पृथ्वी पर काम हो सके। ई.स्टेनली जोन्स ने कभी कहा था ‘‘हम अपने को परमेश्वर की योजनाओं और सामर्थ से जोड़े। वह हमारे साथ कार्य करेगा क्योंकि हमारे बिना वह कोई कार्य करने को तैयार नहीं है। परमेश्वर एक ऐसे मध्यस्थ की खोज में है जो उसकी सम्पूर्ण इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है वैसी ही पृथ्वी पर करने को तैयार है।’’

मुझे स्मरण करो, हम आपस में वाद-विवाद करें, तू अपनी बात का वर्णन कर जिस से तू निर्दोश ठहरे। (यशायाह 43ः 26)

तब परमेश्वर ने मुझसे कहा, तुझे ठीक दिखाई पड़ता है क्योंकि मैं अपने वचन को पूरा करने के लिये जागृत हूँ (यिर्मयाह 1ः 12)

प्रार्थना परमेश्वर को उसकी महिमा हेतु कोमल कर देती है। 
किसी राष्ट्र का भविष्य उसके राजा या राज्यपाल के हाथ में नहीं परन्तु मध्यस्थों के हाथ में होता है। पुराने नियम में अब्राहम एवं दानिय्यल के समान आप भी समाज को प्रभावित कर सकते हैं। यह जानना महत्वपूर्ण एवं आनन्ददायक है कि आपकी प्रार्थनाएं आपके देश और संसार के इतिहास को भी बदलने की क्षमता रखती हैं।

तब मूसा अपने परमेश्वर को यह कह कर मनाने लगा कि हे परमेश्वर, तेरा कोप अपनी प्रजा पर क्यों भड़का। जिसे तू बड़े सामर्थ और शक्तिशाली हाथों द्वारा मिस्र देश से निकाल लाया है। मिस्र के निवासी यह क्यों कह पाएं कि वह उनको बुरे अभिप्राय से अर्थात् पहाड़ों में घात करके घरती पर से मिटा डालने की मंशा से निकाल ले गया ? तू अपने भड़के हुए कोप को शांत कर और अपनी प्रजा को ऐसी हानि पहुंचाने से फिर जा। अपने दास इब्राहीम, इसहाक, और याकूब को स्मरण कर, जिन से तूने अपनी ही कसम खाकर यह कहा था कि मैं तुम्हारे वंश को आकाश के तारों के तुल्य असंख्य करूंगा और यह सारा देश जिसकी मैंने चर्चा की है तुम्हारे वंश को दूंगा ताकि वह उसके अधिकारी सदैव बने रहें। तब परमेश्वर अपनी प्रजा की हानि करने से जो उस ने कहा था पछताया। (निर्गमन 32ः 11-14(कृपया देखे:- उत्पत्ति 18ः 17-30; निर्गमन 14ः 11-23;   1 शमूएल 7ः 8-13; 2 राजा 20ः 1-11; दानिय्येल 9ः 2-3)

प्रार्थना के द्वारा आप प्रकाशन एवं परमेश्वर का विवेक प्राप्त करते हैं।
परमेश्वर, पवित्र आत्मा के द्वारा प्रगट करेगा कि वह किसके लिये प्रार्थना चाहता है। वह किसी के जीवन की समस्या क्षेत्र या परिस्थिति को केन्द्रित करेगा। वह जैसा देखता है आपको भी दिखाएगा परन्तु मध्यस्थ को प्रार्थना में परमेश्वर द्वारा प्रगट की गई गुप्त बात को सुरक्षित रखना चाहिए। जब परमेश्वर चाहे तभी बांटने हेतु आज्ञाकारी होना चाहिए। परमेश्वर के प्रगटीकरण के पीछे चलने हेतु स्पष्ट मार्गदर्शन मांगे।

उसी समय यीशु ने कहा, हे पिता स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु मैं तेरा घन्यवाद करता हूँ कि तूने इन बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा और बालकों पर प्रगट किया है। हां, हे पिता क्योंकि तुझे यही अच्छा लगा। (मत्ती 11- 25ः26)

मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंप दिया है और कोई नहीं जानता कि पुत्र कौन है केवल पिता और पिता कौन है यह भी कोई नहीं जानता, केवल पुत्र और जिस पर पुत्र उसे प्रगट करना चाहे। (लूका 10ः 22)

सो हममें से जितने सिद्ध हैं यही विचार रखें और यदि किसी बात में तुम्हारा और ही विचार हो तो परमेश्वर उसे भी तुम पर प्रगट कर देगा। (फिलिप्पियों 3ः 15)

प्रार्थना के द्वारा आपके जीवन में किए गए आश्चर्य कर्मों से परमेश्वर का राज्य वास्तविक रूप से स्थापित होते जाता है।
परमेश्वर द्वारा प्रगट की गई सामर्थ आपके आत्मिक जीवन की चाल को पक्का ठहराती है।

परन्तु उसकी चर्चा और भी फैलती गई और लगातार भीड़ उसकी बातें सुनने और अपनी बीमारियों से चंगे होने के लिये इकट्ठी हुई परन्तु यीशु एकांत में जाकर प्रार्थना किया करता था। (लूका 5ः 15-16)

जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार होगा परन्तु जो विष्वास न करेगा वह दोशी ठहराया जाएगा। विष्वास करने वालों में ये चिन्ह होंगे कि वे मेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालेंगे। नई-नई भाषा बोलेंगे, सांपों को उठा लेंगे और यदि वे नाशक वस्तु भी पी जाएं तब भी उन की कुछ हानि न होगी, वे बीमारों पर हाथ रखेंगे और वे चंगे हो जाएंगे। उन्होंने निकलकर हर जगह प्रचार किया और प्रभु उन के साथ काम करता रहा, उन चिन्हों के द्वारा जो साथ-साथ होते थे, वचन को दृढ़ करता रहा। आमीन ! (मरकुस 16ः 16-18,20)

आत्मिक मल्लयुद्ध द्वारा शैतान के गढ़ों पर जय पाने के लिए आपको बुलाया गया है।
प्रभु यीशु को स्वयं भी अपनी सेवकाई तथा अन्य परिस्थितियों हेतु प्रार्थना में शैतान से युद्ध करना पड़ा था। उसके बियाबान में प्रलोभन का स्पष्ट वर्णन हम पढ़ते हैं। यीशु ने शैतान से आत्मिक मल्लयुद्ध जीतने के बाद ही जनता की सेवकाई शुरू की। परमेश्वर ने जिस कार्य हेतु आपको बुलाया है उसे करने के पूर्व आपको भी विजय प्राप्त करना है। प्रभु यीशु एवं आपके जीवन में सफलता का आघार विजय है, प्रार्थना के द्वारा विजय। (देखें यहोशू 1ः 3,11,15)

तब शैतान उसके पास से चला गया और देखो, स्वर्गदूत आकर उस की सेवा करने लगे। (मत्ती 4ः 11)

किन्तु कोई मनुष्य किसी शक्तिशाली मनुष्य के घर में घुसकर उसका माल लूट नहीं सकता, जब तक वह उस शक्तिशाली मनुष्य को बांध न ले। उस शक्तिशाली मनुष्य को बांधने के बाद ही वह उसके घर को लूट सकेगा (मरकुस 3ः 27)

दानिय्येल को भी प्रार्थना में शैतान से युद्ध करना पड़ा था। फिर उस ने मुझ से कहा, हे दानिय्येल, मत डर क्योंकि पहले ही दिन से जब तूने समझने-बूझने के लिये मन लगाया और अपने परमेश्वर के सामने अपने को दीन किया उसी दिन तेरे वचन सुने गए और मैं तेरे वचनों के कारण आ गया हूँ। फारस के राज्य का प्रधान इक्कीस दिन तक मेरा सामना करते रहा परन्तु मीकाएल जो मुख्य प्रधानो में से हैं, वह मेरी सहायता के लिये आया इसलिये मैं फारस के राजाओं के पास रहा। (दानिय्येल 10ः12-13)

शांति के लिए प्रार्थना करने हेतु आप आमंत्रित हैं।

परमेश्वर आपको आमंत्रित करता है कि आप अपनी समस्या, चिन्ता और परेशानी उसे दे दें।
और अपनी सारी चिन्ता उसी पर डाल दो, क्योंकि उस को तुम्हारा ध्यान है। (1 पतरस 5ः 7)

इसलिये मैं तुम से कहता हूँ, कि अपने प्राण के लिये यह चिन्ता नहीं करना चाहिये कि हम क्या खाएंगे, क्या पीएंगे और अपने शरीर के लिये कि क्या पहनेंगे ? क्या प्राण भोजन से और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं है ? आकाश के पक्षियों को देखो। वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न ही खत्तों में बटोरते हैं। तो भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उन को खिलाता है। क्या तुम उन से अधिक मूल्य नहीं रखते ? (मत्ती 6ः 25-26)

अपना बोझ परमेश्वर पर डाल दे, वह तुझे संभालेगा। वह धर्मी को कभी टलने न देगा। (भजन सहिता 55ः 22)

किसी भी बात की चिन्ता मत कर परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएं तब परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी। (फिलिप्पियों 4ः 6-7)


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