फरीसी और कर वसूल करने वाले का दृष्टांत

फरीसी और कर वसूल करने वाले का दृष्टांत

सन्दर्भ :- लूका 18ः9-14 -
‘‘और उस ने कितनों को जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि हम धर्मी हैं, और औरों को तुच्छ जानते थे, यह दृष्टांत कहा कि दो मनुष्य मन्दिर में प्रार्थना करने के लिए गये, एक फरीसी था और दूसरा चुंगी लेने वाला। फरीसी खड़ा होकर अपने मन में यों प्रार्थना करने लगा, कि हे परमेश्वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूं, कि मैं और मनुष्य की नाई अन्धेर करने वाला, अन्यायी और व्यभिचारी नहीं, और न इस चुंगी लेने वाले के समान हूं। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूं; मैं अपनी सब कमाई का दसवां अंश भी देता हूं। परन्तु चुंगी लेने वाले ने दूर खड़े होकर स्वर्ग की ओर आंखें उठाना भी न चाहा, वरन अपनी छाती पीट-पीट कर कहा; हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर। मैं तुझ से कहता हूं, कि वह दूसरा नहीं; परन्तु यही मनुष्य धर्मी ठहराया जाकर अपने घर गया; क्योंकि जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो अपने आप को छोटा बनाएगा वह बड़ा किया जाएगा।’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- प्रभु यीशु मसीह एक दिन प्रार्थना के संबंध में लोगों को शिक्षा दे रहा था। उसी दिन उसने कितनों को जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे कि हम धर्मी हैं और दूसरों को तुच्छ जानते थे, फरीसी और कर वसूल करने वाले का दृष्टान्त सुनाया।

वह इस दृष्टान्त के माध्यम से लोगों को बताना चाहता था कि परमेश्वर हृदय की भक्ति से प्रसन्न होता है, ऊपरी तौर पर सिर्फ धार्मिक कर्मकाण्डों को पूरा करने से नहीं।

विषय वस्तु :- इस दृष्टान्त में प्रभु यीशु मसीह ने फरीसी और कर वसूल करने वाले की प्रार्थनाएं बतायीं। उस समय लोग मन्दिर में, विशेषकर यरूशलेम के मन्दिर में प्रार्थना और आराधना करने जाते थे। फरीसी वहां विधिवत मात्र प्रार्थना करने गया था, किन्तु कर वसूल करने वाला अपने पापों का अहसास कर परमेश्वर की दया और क्षमा की याचना करने गया था।

फरीसी ने मन्दिर में जाकर इस प्रकार प्रार्थना की कि, ‘‘हे परमेश्वर मैं तेरा धन्यवाद करता हूं कि मैं और मनुष्य की नाई अन्धेर करने वाला, अन्यायी और व्यभिचारी नहीं और न ही इस कर वसूल करने वाले के समान हूं। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूं, मैं अपनी सब कमाई का दसवां अंश भी देता हूं।

कर वसूल करने वाले ने दूर खड़े होकर, स्वर्ग की ओर आंखे उठाए बगैर छाती पीट-पीटकर कहा - ‘‘हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर।’’

प्रभु यीशु मसीह ने बताया कि यह पापी धर्मी ठहराया गया। फरीसी परमेश्वर की दृष्टि में पापी ही ठहरा क्योंकि उसने पश्चाताप के स्थान पर व्यवस्था के कर्मां को और परमेश्वर के अनुग्रह के स्थान पर स्वयं की धार्मिकता को अधिक महत्वपूर्ण जाना।

व्याख्या :- इस दृष्टान्त के माध्यम से प्रभु यीशु मसीह ने प्रगट किया कि परमेश्वर प्रार्थनाएं सुनता है और वह लोगों के हृदयों को जांचता है। (रोमियों 8ः27 के अनुसार) फरीसी व्यवस्था के नियमों का कट्टरता से पालन करता था। उसने अपने जीवन में परमेश्वर का स्थान व्यवस्था को दे रखा था। वह परमेश्वर के बदले व्यवस्था पर ही भरोसा रखता एवं उसी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित था। व्यवस्था के नियमों का पालन कर, उपवास कर तथा जो कुछ उसे मिलता था सबका दशवां अंश (व्यवस्था विवरण 14ः22) देकर वह अपने आप को बहुत धर्मी समझता था। जब वह अन्य मनुष्यों से अपनी तुलना करता था और पाता था कि वह उनके समान ठग, अन्यायी और व्यभिचारी नहीं है, वह स्वयं को धर्मी समझता था।

इसमें कोई शंका नहीं कि फरीसी एक नेक पुरूष था, परन्तु नेक पुरूष होते हुए भी वह परमेश्वर की क्षमा एवं अनुग्र्रह से वंचित था। वह भूल गया था कि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से उद्धार होता है और यह किसी की ओर से या कर्मां से नहीं किन्तु परमेश्वर का दान है। (इफिसियों 2ः8-9 के अनुसार) व्यवस्था या कर्मां के द्वारा परमेश्वर के यहां कोई धर्मीं नहीं ठहरता। (गलतियों 3ः11; 2ः16 के अनुसार) मनुष्य की धार्मिकता परमेश्वर के सामने फटे हुए चीथड़ों के समान है। (यशायाह 64ः6 के अनुसार) परमेश्वर दीन एवं नम्र हृदय की भक्ति ग्रहण करता है। पश्चाताप करना आवश्यक है। ‘‘यदि हम कहें कि हम में कुछ भी पाप नहीं तो अपने आप को धोखा देते हैं : और हम में सत्य नहीं। यदि हम अपने पापों को मान लें तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। यदि हम कहें कि पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं और उसका वचन हम में नहीं है।’’ (1 यूहन्ना 1ः8-10 के अनुसार)

फरीसी ने परमेश्वर को धन्यवाद तो दिया किन्तु उसकी दया एवं आशीषों के लिए नहीं बल्कि सिर्फ अन्य लोगों की निम्नता की तुलना में स्वयं की उत्कृष्टता के लिए। उसने दीनता से पापों की क्षमा के लिए परमेश्वर पर निर्भरता प्रगट करने के बदले गर्व से सिर्फ अपनी धार्मिकता का बखान किया। वह अपनी ‘सब’ कमाई का दशवां अंश तो देता था किन्तु उसने स्वयं को परमेश्वर को समर्पित नहीं किया था। परमेश्वर की सिद्धता एवं महानता की तुलना में अपनी निम्नता एवं शूद्रता का अहसास करने के बदले उसने साथ के निम्न एवं दुराचारी लोगों से अपनी तुलना कर स्वयं को महान एवं धर्मी समझ लिया था। वह जो कुछ कर रहा था वह पूरी कट्टरता एवं एमर्पण से तो कर कहा था परन्तु उसका आधार ही गलत था। रास्ता ही गलत होने पर सही मंजिल का ठिकाना बता पाना कठिन है, ठीक वैसे ही स्थिति उस फरीसी की थी।

कर वसूल करने वाले ने अपने पापों का अहसास किया था। उसके बोझ से वह दबा जा रहा था। उसका हृदय अशांत एवं उद्वेलित था। उसकी आंखें अपनी पापमय दशा के अहसास से झुकी हुई थीं। उसने मन्दिर में वेदी के निकट आने का हियाव तक नहीं किया बल्कि वह दूर ही खड़ा रहा। उसने परमेश्वर की महानता के सामने अपनी निम्नता का अहसास किया। उसने पापों की क्षमा के लिए परमेश्वर पर निर्भरता प्रगट की। उसने छाती पीटकर पश्चाताप किया। अतः परमेश्वर ने उसके टूटे और पिसे हुए हृदय को योग्य बलिदान के रूप में ग्रहण किया। (भजन संहिता 51ः1़7, यशायाह 57ः15 के अनुसार) उसके सच्चे पश्चाताप पर दृष्टि की और उसे उसके पापों से क्षमा प्रदान की। उसे उसके पापों के बोझ से मुक्ति दी। वह परमेश्वर की दया और अनुग्रह के योग्य ठहरा।

अन्त में प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि जो कोई अपने आपको बड़ा बनाएगा वह छोटा किया जाएगा और जो कोई अपने आपको छोटा बनाएगा वह बड़ा किया जाएगा। अर्थात् मनुष्य धन, पद, योग्यताओं एवं अन्य सांसारिक सम्पन्नता से अन्य मनुष्यों की दृष्टि में चाहे कितना ही महान क्यों न हो जाए परन्तु उसे परमेश्वर के सम्मुख नम्र और दीन होना है क्योंकि हर कोई पापों की क्षमा के लिए परमेश्वर की दया पर आश्रित है। संसार की दृष्टि में चाहे कोई कितना ही गरीब एवं निम्न हो किन्तु यदि वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो, उसे अपने पापों का अहसास हो तो ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की दृष्टि में आत्मिक रूप से धनी होता है।

व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :- 

1. प्रार्थना सच्चाई और हृदय की सम्पूर्ण भक्ति के साथ होना चाहिये।

2. प्रार्थना परमेश्वर को सुनाने के लिए होना चाहिये, लोगों को सुनाने के लिए नहीं। (मत्ती 6ः5-8 के अनुसार)

3. प्रार्थना करते समय यह बात स्मरण रखना चाहिये कि हम सब प्रतिदिन की रोटी के लिए अर्थात् जीवन और जीवन के संघषों, परीक्षाओं आदि का सामना करने के लिए परमेश्वर की दया एवं सामर्थ्य पर निर्भर हैं। हम कभी भी स्वयं को परिपूर्ण समझकर ‘स्वयं’ पर गर्व न करें।

4. प्रार्थना नम्र एवं दीन हृदय से की जानी चाहिये, स्वयं की धार्मिकता के घमंड में चूर होकर की जाने वाली प्रार्थनाएं व्यर्थ होती हैं। स्वयं के लेखे में धर्मी होना, दूसरों को अपने से नीचा समझना न सिर्फ स्वयं की प्रगति में बाधक होते हैं किन्तु इससे मनुष्य परमेश्वर से दूर होता है और उसकी दया एवं क्षमा से रहित हो जाता है।


Comments

Popular posts from this blog

पाप का दासत्व

श्राप को तोड़ना / Breaking Curses

भाग 6 सुसमाचार प्रचार कैसे करें?