हठी विधवा एवं अधर्मी न्यायाधीश का दृष्टान्त

हठी विधवा एवं अधर्मी न्यायाधीश का दृष्टान्त

सन्दर्भ :- लूका 18ः1-8 - ‘‘फिर उस ने इसके विषय में कि नित्य प्रार्थना करना और हियाव न छोड़ना चाहिए उन से यह दृष्टान्त कहा। कि किसी नगर में एक न्यायी रहता था; जो न परमेश्वर से डरता था और न किसी मनुष्य की परवाह करता था। और उसी नगर में एक विधवा रहती थी : जो उसके पास आ आकर कहा करती थी, कि मेरा न्याय चुकाकर मुझे मुद्दई से बचा। उस ने कितने समय तक तो न माना परन्तु अन्त में मन मे विचार कर कहा, यद्यपि मैं न परमेश्वर से डरता, और न मनुष्यों की कुछ परवाह करता हूं। तौभी यह विधवा मुझे सताती रहती है, इसलिए मैं उसका न्याय चुकाऊंगा कहीं ऐसा न हो कि घड़ी घड़ी आकर अन्त को मेरा नाक में दम करे। प्रभु ने कहा, सुना, कि यह अधर्मी न्यायी क्या कहता है ? सो क्या परमेश्वर अपने चुने हुओं का न्याय न चुकाएगा, जो रात-दिन उसकी दोहाई देते रहते; और क्या वह उन के विषय में देर करेगा ? मै तुमसे कहता हूं; वह तुरन्त उन का न्याय चुकाएगा; तौभी मनुष्य का पुत्र जब आएगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास पाएगा ?’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- एक दिन प्रभु यीशु मसीह ने लोगों को प्रार्थना के संबंध में शिक्षा दी और कहा कि हिम्मत हारे बगैर निरन्तर प्रार्थना करना चाहिए।

प्रार्थना विश्वासियों के लिए विशेष महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके द्वारा बहुत बार परमेश्वर के निर्णय बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए मूसा की प्रार्थनाएं (गिनती की किताब में) इब्राहीम की प्रार्थना। (उत्पत्ति 18ः20-33 के अनुसार) यूनानी और सुरूफिनी की जाति की महिला की प्रार्थना। (मरकुस 7ः24-29 के अनुसार) प्रार्थना के माध्यम से ही हम अपने विनती और निवेदन परमेश्वर के अनुग्रह के सिंहासन के सामने रखते हैं और इस जीवन के संघर्षों से गुजरने की सामर्थ परमेश्वर से प्राप्त करते हैं।

इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु यीशु मसीह ने लोगों को यह बताया कि जब अधर्मी न्यायी भी विधवा के निरन्तर प्रयास एवं अनुनय को न टाल सका तो परमेश्वर तो धर्मी और न्यायी है, वह विश्वासियों की दुहाई को क्यों नहीं सुनेगा।

विषयवस्तु :- किसी नगर मे एक न्यायाधीश था जो न परमेश्वर से डरता था और न किसी मनुष्य की परवाह करता था। उस नगर में एक विधवा भी रहती थी जो उसके पास बार-बार आकर कहती थी कि मेरा न्याय करके मुझे मुद्दई से बचा। बहुत बार उसकी याचना टालने के बाद अंततः त्रस्त होकर न्यायाधीश ने उसे न्याय चुकाने का वचन दिया।

प्रभु यीशु मसीह ने प्रश्न किया कि जब अधर्मी नयायाधीश विधवा के निरन्तर प्रतिवेदन को न टाल सका तो फिर परमेश्वर विश्वासियों की दुहाई को कैसे टालेगा ? वह तुरन्त उसका न्याय चुकाएगा। तौभी मनुष्य का पुत्र जब आएगा तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास पाएगा ?

व्याख्या :- पुराने समय में प्रायः विधवाओं की दयनीय स्थिति होती थी। उनके सहारे की केवल यह व्यवस्था थी कि पति के भाई ही उनसे शादी कर लें और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में अपना लें। (व्यवस्था विवरण 25ः5 के अनुसार) यदि पति के भाई न हो अथवा वे पहले ही शादी शुदा हों तो विधवाओं का और किसी प्रकार का सहारा नहीं बचता था। बहुत सी विधवाएं यदि सिलाई-कढ़ाई में निपुर्ण होती थीं तो इसके द्वारा वे अपना गुजारा कर लेती थीं। (उदाहरण के लिए दोरकास, जिसका विवरण प्रेरितों के काम 9ः36 में पाया जाता है।) पुराने नियम में विधवाओं एवं अनाथों के सम्बन्ध में परमेश्वर की बहुत सख्त हिदायत थी कि जो अनाथ अथवा विधवा का न्याय बिगाडे़ वह स्त्रापित हो। ( व्यवस्था विवरण 27ः19 के अनुसार) परमेश्वर ने स्वयं को अनाथों का पिता और विधवाओं का न्यायी कहा है। (भजन संहिता 68ः5 के अनुसार) उसकी प्रतिक्षा है कि वह स्वयं विधवाओं एवं अनाथों पर अन्धेर करने वालों के विरूद्ध साक्षी देगा। (मलाकी 3ः5 के अनुसार) अर्थात् परमेश्वर विधवाओं की सुधि लेता है और जो उन पर अत्याचार करते हैं उन्हें निश्चित रूप से एक दिन परमेश्वर का सामना करना पड़ेगा।

प्रभु यीशु मसीह ने लोगों को एक विधवा का दृष्टान्त सुनाया। इस विधवा के लिए न्याय का एक मात्र सहारा अधर्मी न्यायाधीश था। इस न्यायाधीश को अधर्मी इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें परमेश्वर का भय नहीं था। सामाजिक आलोचनाओं की भी वह परवाह नहीं करता था, शायद केवल धन अर्जित करने एवं ऐश की जिन्दगी गुजारने में ही वह व्यस्थ रहता था। वह पूर्ण रूप से स्वर्थ से भरा जीवन जीता था। वह इस बात को बड़ी शान के साथ सब पर प्रकट भी करता था कि उसे किसी की कोई चिन्ता नहीं हैं। 

विधवा ने कोई वकील नहीं रखा ? वह न्याय की गुजारिश करने कचहरी न जाकर सीधे अधर्मी एवं कठोर न्यायधीश के पास क्यों गई ? इसका विस्तृत विवरण दृष्टान्त में नहीं मिलता परन्तु हो सकता है कि उसके पास वकील लगाने के लिए पर्याप्त धन न हो और शायद उसे ये भी मालूम हो कि उसका मुकद्मा बड़ा सीधा सादा एवं उसी के पक्ष का है। वह शायद जानती थी कि यदि न्यायाधीश सीधे उसके पक्ष में फेसला कर देगा तो वह व्यर्थ की झंझटों से बच जाएगी।

यह जानते हुए भी कि न्यायाधीश कठोर एवं लोभी व्यक्ति है, विधवा के पास उसी से ही न्याय के लिए याचना करने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं था। वह न्यायाधीश के पास याचना के लिए गई। न्यायाधीश ने सोचा होगा कि इस विधवा से बदले में उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। शायद यही सोचकर उसने उसकी याचना ठुकरा दी। विधवा ने हिम्मत नहीं हारी। न ही वह न्यायाधीश से बार-बार सब के सामने अपमानित होकर निराश हुई। उसने इन सब विपरीत परिस्थितियों से जूझने का दृढ़ संकल्प किया। लज्जा त्यागकर वह बार-बार न्यायाधीश के सामने अपनी एक ही याचना निरन्तर दोहराने से नहीं चूकी। उसकी निरन्तर अनुनय-विनय से न्यायाधीश त्रस्त हो गया। उसने सोचा कि कहीं यह विधवा पूरे समय मेरे पास आकर मुझे अत्याधिक हैरान न कर दे और अंततः विधवा के निरन्तर प्रयास एवं याचना को ध्यान में रखकर अधर्मी न्यायाधीश ने उसे न्याय चुकाने का वचन दिया।

इस दृष्टान्त में न्यायाधीश तो अधर्मी था किन्तु हमारा परमेश्वर धर्मी है। (भजन संहिता 145ः17 के अनुसार) वह स्वार्थी था परन्तु हमारा परमेश्वर दयालु है। (2 राजा 13ः23 के अनुसार) उसने विधवा की याचना पर इसलिए ध्यान नहीं दिया कि उसे किसी की कोई भी चिन्ता नहीं थी। हमारा परमेश्वर हमारी विनती और निवेदन सुनता है। (भजन संहिता 65ः2 के अनुसार) क्योंकि उसे हमारा ध्यान रहता है। (लूका 12ः6 के अनुसार) वह हमारी चिन्ता करता है। (1 पतरस 5ः7 के अनुसार) न्यायाधीश विधवा से छुटकारा पाना चाहता था, इसलिए अंत में उसने निवेदन को स्वीकार कर लिया। परन्तु हमारा परमेश्वर चाहता है कि हम प्रार्थना द्वारा निरन्तर उससे बातें करें और हमारा संबंध निरन्तर उससे बना रहे। न्यायाधीश विधवा की दुहाई सुनना ही नहीं चाहता था परन्तु परमेश्वर हमेशा हर वक्त अपने भक्तों की दुहाई सुनता है।

दृष्टान्त में आगे लिखा है - ‘‘सो क्या परमेश्वर अपने चुने हुओं का न्याय नहीं चुकाएगा जो रात दिन उसकी दुहाई देते रहते हैं और क्या वह उनके विषय में देर करेगा ?’’

इस प्रश्न से प्रभु यीशु मसीह का तात्पर्य था कि जब अधर्मी न्यायाधीश विधवा के निरन्तर किये जाने वाले प्रतिवेदन को नहीं ठुकरा सका तो परमेश्वर जो धर्मी, न्यायी, अनुग्रहकारी और दयालु है, अपने भक्तों की प्रार्थना को तो अवश्य ही सुनेगा। वह विलम्ब से क्रोध करने वाला (नहूम 1ः3) परमेश्वर है परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि सभी प्रार्थनाओं का उत्तर हमें तत्काल (प्देजंदजसल) मिले क्योंकि बहुत बार परमेश्वर हमारे विश्वास एवं धीरज को परखने के लिए भी देर करता है परन्तु यह उसकी प्रतिज्ञा है कि वह भक्तों की दुहाई सुनेगा और उसके न्याय के संबंध में देर नहीं करेगा (लूका 18ः7-8) और वह पुरन्त उनका न्याय चुकाएगा।

परमेश्वर चाहता है कि उसके भक्त निरन्तर उससे प्रार्थना करें। (कुलुस्सियों 4ः2 के अनुसार) उसकी प्रतिज्ञा है कि ‘‘मांगो तो तुम्हें दिया जावेगा; ढूंढो तो तुम पाओगे; खटखटाओ तो द्वार खोला जाएगा।’’ (लूका 11ः9-10 के अनुसार

‘‘तौभी मनुष्य का पुत्र जब आएगा तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास पाएगा ?’’ इन पंक्तियों से प्रभु यीशु मसीह ने अन्तिम न्याय एवं अपने द्वितीय आगमन को प्रगट किया है। उसने बताया है कि निश्चित है कि एक दिन वह जीवतों एवं मरे हुओं का न्याय करने पुनः पृथ्वी पर आएगा। (प्रेरितों के काम 10ः42 के अनुसार) उस दिन और उस समय को परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार निर्धारित करेगा, परन्तु इस बात का प्रार्थना से यह संबंध है कि परमेश्वर के भक्त निरन्तर प्रार्थना के द्वारा विश्वास में स्थिर रहें। (1 कुरिन्थियों 16ः13 के अनुसार)

विधवा की विषम परिस्थितियां, उसकी निरन्तर याचना और अन्तिम विजय, निरन्तर प्रार्थना करने वाली कलीसियाओं के स्वरूप का भी प्रतिनिधित्व करती है। पूर्वकाल से ही विश्वास की गवाही के कारण कलीसिया पर सताव आते रहे हैं और भविष्य में भी आते रहेंगे। (2 तीमुथियुस 3ः12 के अनुसार) संसार के अधर्मी हाकिम एवं अधिकारी विश्वासियों पर अन्धेर एवं अत्याचार करेंगे और कलीसिया के पास प्रार्थना के द्वारा परमेश्वर को न्याय के लिए पुकारने के अलावा और कोई दूसरा उपाय नहीं रहेगा। फिर भले ही प्रभु यीशु मसीह के दूसरे आगमन में कितना ही विलम्ब क्यों न हो किन्तु निरन्तर प्रार्थना करने वाली कलीसियाएं ही विश्वास में स्थिर रह सकेंगी। एक दिन निश्चित रूप से ऐसी कलीसियाएं ही विजयी होंगी।

व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :- 

1. विधवा के पास न्याय के लिए याचना करने के प्रयास के अलावा और कोई दूसरा उपाय नहीं था, उसने इस प्रयास में कोई कसर नहीं रखी। निराश होकर या हिम्मत हारकर यदि वह प्रयास करना छोड़कर घर बैठकर रोती रहती तो उसे शायद कभी भी न्याय नहीं मिलता। वह रोज-रोज न्यायाधीश के समक्ष जाती रही। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रार्थना के साथ प्रयास आवश्यक है। (रोमियों 12ः12 के अनुसार) बिना प्र्रयास किये सिर्फ प्रार्थना करने से कोई लाभ नहीं।

2. हमें निरन्तर प्रार्थना करना है एवं प्रार्थना का प्रत्युउत्तर  बनने का निरन्तर प्रयास करना है, तभी हमारे प्रयासों को परमेश्वर आशीषित करता है।

3. अन्तिम विजय विश्वासियों की निश्चित है। चाहे संसार के अधर्मी हाकिम उन पर कितना ही अत्याचार करें किन्तु इन अत्याचारों का सामना करने की सामर्थ निरन्तर प्रार्थना से ही सम्भव है। (रोमियों 8ः26 के अनुसार)


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