मीनार बनाने वाले मनुष्य का दृष्टान्त
मीनार बनाने वाले मनुष्य का दृष्टान्त
प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- प्रभु यीशु मसीह गलील से यरूशलेम की ओर जा रहा था। उसके पीछे बड़ी भीड़ थी। लोग यह सोचते थे कि अब यीशु का यरूशलेम में राज्याभिषेक होगा। उसे राजमुकुट पहनाकर राजसिंहासन पर आसीन कराया जाएगा। वे उसके सांसारिक राज्य की ही आशा में लगे हुए थे। उन्हें इस बात का कतई अहसास नहीं था कि यरूशलेम में प्रभु यीशु मसीह को सम्पूर्ण मानव जाति के पाप का दण्ड सहना है। उस निष्कलंक मेम्ने को भयंकर यातना एवं पीड़ा से गुजरना है। उसे राजकीय सम्मान का नहीं किन्तु घोर अपमान का पात्र बनना है। उसे परमेश्वर की योजना पूरी करने के लिए क्रूस उठाना है। उसे क्रूस की मृत्यु स्वीकार करना है। ईश्वर बनकर पापियों का संहार नहीं करना है किन्तु परमेश्वर की योजना पूरी करने के लिए अपने आपका इन्कार कर एक पापी की तरह, पापों का दण्ड और क्रूस की मृत्यु स्वीकार करना है।
प्रभु यीशु मसीह लोगों को इसका पूर्वाभास कराना चाहता था। वह नहीं चाहता था कि उसके शिष्य एवं अन्य पीछे चलने वाले लोग इस भ्रम में रहें कि उसके पीछे चलने से उन्हें सभी दुःख, तकलीफ और कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। उसके पीछे चलने से उनका जीवन बड़ा सरल और आसान हो जाएगा।
शिष्यता का मूल्य चुकाने के लिए लोगों के हृदय को तैयार करने के लिए प्रभु यीशु मसीह ने उन्हें मीनार बनाने वाले मनुष्य का दृष्टान्त सुनाया।
विषय वस्तु :- यदि कोई ऊंची मीनार या गढ़ बनाना चाहता है तो पहले बैठकर हिसाब करता है कि पूरी मीनार बनाने के लिए उसके पास पर्याप्त धन है अथवा नहीं। जिससे वह मीनार पूरी बना सके क्योंकि यदि वह अधूरी मीनार बनाएगा तो न केवल उसे भारी आर्थिक नुकसान होगा। किन्तु, साथ ही वह लोगों के उपहास का भी पात्र बनेगा।
व्याख्या :- इस सम्पूर्ण दृष्टान्त से प्रभु यीशु मसीह चाहता था कि लोग बिना सोचे समझे उसका अंधानुकरण न करें। वह चाहता था कि लोग पूरी रीति से सोच समझकर, सम्पूर्ण हृदय एवं समर्पण के साथ उसका अनुकरण करें। उसने स्पष्ट कहा कि ‘‘यदि कोई मेरे पास आए और अपने माता, पिता, पत्नी, बच्चों तथा भाई - बहनों को यहां तक की अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने वह मेरा चेला नहीं हो सकता। (लूका 14ः26 के अनुसार) इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपनों से प्यार ही न करें किन्तु इसका अर्थ यह है कि हमें अपने जीवन में प्रभु यीशु मसीह को ही सर्वापरि एवं प्रथम मानना है। उससे हमें सम्पूर्ण बुद्धि, सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण हृदय एवं सम्पूर्ण प्राण के साथ प्रेम रखना है। (मरकुस 12ः33) उससे बढ़कर यदि हम किसी और से प्रेम करें या औरों को खुश करने के लिए परमेश्वर के वचन से समझौता करने लगें तो ऐसे में हम प्रभु यीशु मसीह के शिष्य बनने के योग्य नहीं। अधूरा समर्पण परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं। ‘‘प्रभु के कटोरे और दुष्टात्माओं के कटोरे दोनों में से पीना असंभव है। प्रभु की मेज और दुष्टात्माओं की मेज दोनों के साझी होना अन्होना है।’’ (1कुरिन्थियों 10ः21)
जैसे ईट और गारे से मीनार बनाने के पहले ही व्यक्ति को पर्याप्त धन की व्यवस्था देखनी पड़ती है। जिससे अधूरी मीनार बनवाकर उसे बड़ी आर्थिक हानि न उठानी पड़े और वह उपहास का पात्र न बने। उसी प्रकार मसीही जीवन की शुरूआत के पहले ही प्रत्येक विश्वासी को मसीह के प्रति सम्पूर्ण समर्पण एवं शिष्टता का मूल्य चुकाने का कृत संकल्प करना चाहिये। प्रत्येक विश्वासी से प्राण देने तक विश्वास योग्य रहने की अपेक्षा है तभी जीवन का मुकुट मिलने की प्रतिज्ञा है। (प्रकाशित वाक्य 2ः10 के अनुसार) अधूरे समर्पण से मसीही जीवन की मीनार भी अधूरी रहेगी। समझौते का जीवन रहेगा। सांसारिकता की ओर झुकाव अधिक और आत्मिकता की ओर कम रहेगा। ऐसा लड़खड़ाता हुआ मसीही जीवन किसी के सहारे के योग्य नहीं हो सकता। ऐसे जीवन उपहास एवं अन्य लोगों के लिए ठोकर ही के कारण बनते है। ऐसे लोगों को आर्थिक हानि से कहीं अधिक बढ़कर आत्मा की अनन्त हानि होती है।
शिष्यता के मूल्य में वे सभी कारण सम्मिलित हैं जो हमें मसीह से दूर करते हैं। ये कारण चाहे हमें कितने भी प्रिय क्यों न हों परन्तु हमें इनका मसीह के लिए त्याग करना है। हो सकता है, ये कारण हमारी खराब मित्र मंडली हो, गन्दी आदतें हों, सदोम जैसे हरा भरा स्थान हो। परन्तु, जहां विश्वासियों की संगति न हो और न ही विश्वास में और प्रभु की शिक्षाओं में बढ़ने का वातावरण हो। (उत्पत्ति 13ः10-13 के अनुसार) उन ऐसे कारणों से हमें उबरना है। बहुत बार परिवार के लोग माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी और संबंधी आदि भी हमें मसीह और उसकी शिक्षाओं से दूर करते है। हमें उसके मार्ग में आगे बढ़ने में बाधक होते हैं। यह विश्वासी के लिए उसके शिष्य बनने में सबसे बड़ी बाधा होती है। अन्य जाति विश्वासी के लिए यह और भी कठिन बात होती है, किन्तु यह बात यहां स्पष्ट स्वयं प्रभु यीशु मसीह ने कही है कि, ‘‘जो कोई मेरे पास आए और अपने पिता और माता और पत्नी और लड़के बालों और भाईयों और बहिनों बरन अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने तो वह मेरा चेला नही हो सकता।’’ हमें मसीह या संसार में से एक को चुनना है। यह चुनाव हमें बहुत सोच विचार कर करना है क्योंकि मसीह को ग्रहण करना तो मसीही जीवन की शुरूआत है। यह सिर्फ पहला कदम है। यहां से प्रारंभ कर हमें आत्मिकता में निरन्तर आगे बढ़ना है और अपनी जीवन शैली एवं अपने जीवन की प्राथमिकताओं को अनन्त जीवन के परिप्रेक्ष्य में निर्धारित करना है। ‘‘जो कोई हल पर हाथ धरकर पीछे देखता है वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं।’’ (लूका 9ः62 के अनुसार) ऐसे लोग जो बिना सोचे-समझे भावावेश में या अन्य किसी प्रलोभनवश मसीह को तुरन्त ग्रहण कर लेते है वे अपने में जड़ नहीं रखते। वे संसार की चिन्ताओं और धन के धोखों में ही उलझे रहते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं होते। (मत्ती 13ः20-22)
मसीह की शिष्यता के लिए सम्पूर्ण समर्पण एवं आत्म त्याग आवश्यक है। उसकी राह पर चलने के लिए जीवन की विषम परिस्थितियों का सामना कर विश्वास में दृढ़ और मजबूत बने रहना है। उसकी गवाही अपने जीवन में अन्तिम धड़कन तक निरन्तर बनाए रखना है। तभी हमारे जीवन परमेश्वर को ग्रहण योग्य होंगे।
व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :-
1. परमेश्वर यह झूठा प्रलोभन नहीं देता कि मसीही बन जाओ तो तुम हर प्रकार से सम्पन्न हो जाओगे, तुम्हारा जीवन हर प्रकार के दुःख-तकलीफ, बीमारी आदि से मुक्त हो जाएगा बल्कि वह प्रतिज्ञा करता है ‘‘धर्मी पर बहुत सी विपिŸायां पड़ती तो है परन्तु यहोवा उसको उन सब से मुक्त करता है।’’ (भजन संहिता 34ः19) ‘‘यहोवा के डरवैयों को किसी बात की धटी नहीं होती।’’ (भजन संहिता 34ः9) ‘‘मैं तुझे दृढ़ करूंगा और तेरी सहायता करूंगा, अपने धर्ममय दाहिने हाथ से तुझे सम्हाले रहूंगा।’’ (यशायाह 41ः10) ‘‘संकट के समय अति सहजता से मिलने वाला सहायक है।’’ (भजन संहिता 46ः1) ‘‘यहोवा हमारा शरण स्थान और दृढ़ गढ़ है।’’ (भजन संहिता 61ः3) वह हमारी ढाल और चट्टान है।’’ (भजन संहिता 62ः2) ‘‘वह हमें कभी छोड़ता नहीं, भूलता नहीं, त्यागता नहीं है।’’ (इब्रानियों 13ः5) अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में वह धर्मी है। ‘‘हम जो उसकी सृष्टि हैं अपने महान सृष्टिकर्ता को परखकर देख सकते हैं कि वह कैसा भला है।’’ (भजन संहिता 34ः8)
2. परमेश्वर का प्रभुत्व हमें स्वीकार करना है और अपना सम्पूर्ण समर्पण करना है।
3. यदि हम मसीह को ग्रहण करते हैं तो शिष्यता का मूल्य चुकाने के लिए हमें तैयार रहना है। प्रत्येक मसीही को अपने विश्वास के प्रति समझौतावादी नहीं किन्तु विश्वास में दृढ़ होना आवश्यक है केवल एक ही मसीह है, जिसके द्वारा उद्धार संभव है। एक ही मार्ग है जिसकी मंजिल स्वर्ग और अनन्त जीवन है। एक ही सच्चा और जीवित परमेश्वर है उसे छोड़कर दूसरे को ईश्वर करके मानना पूर्ण रूप से वर्जित है। ‘‘अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो, क्योंकि धार्मिकता और अधर्म का क्या मेल जोल ? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति ? और मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव ? या विश्वासी के साथ अविश्वासी का क्या नाता ? और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध ? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर के मन्दिर हैं; जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उस में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर हूंगा, और वे मेरे लोग होंगे। इसलिये प्रभु कहता है, कि उन के बीच में से निकलो और अलग रहो; और अशुद्ध वस्तु को मत छूओ, तो मैं तुम्हें ग्रहण करूंगा। और तुम्हारा पिता हूंगा, और तुम मेरे बेटे और बेटियां होगे : यह सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर का वचन है।’’ (2 कुरिन्थियों 6ः14-18) मूल्य के रूप में बहुतों की यह भ्रांति होती है कि मसीही होने से हंसी-मजाक त्यागकर गंभीरता का चोगा पहनना पड़ेगा। धार्मिकता का अधिक से अधिक दिखावा अनिवार्य होगा। बड़ी नीरस और उदासीन जिन्दगी जीना पड़ेगी। (उदाहरण बतौर - गहनों एवं अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों का पूर्ण रूप से त्याग, स्वस्थ मनोरंजन के साधनों का भी पूर्ण रूप से त्याग कर केवल धार्मिक सभाओं, प्रार्थना एवं बाइबिल पठन पर ही जोर देना आदि है।) मगर ये सभी बातें पूर्ण रूप से गलत हैं। हमें केवल उसी कारण को त्याग देने की अपेक्षा है जो हमें मसीह से दूर करता है। प्रायः ये कारण जीवन की बुराइयां ही होती हैं। बदले में बहुत सी अच्छाइयां हैं जिन्हें हमें ग्रहण करना है।मसीही जीवन सच्चे आनन्द और सच्ची शांति का जीवन है। यह झूठे दिखावे का नहीं किन्तु हृदय की भक्ति, प्रेम एवं पवित्रता का जीवन है।
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