धनवान मूर्ख का दृष्टान्त

धनवान मूर्ख का दृष्टान्त

सन्दर्भ :- लूका 12ः13-21- ‘‘फिर भीड़ में से एक ने उस से कहा, हे गुरू, मेरे भाई से कह, कि पिता की संपत्ति मुझे बांट दे। उसने उससे कहा; हे मनुष्य, किसने मुझे तुम्हारा न्यायी या बांटने वाला नियुक्त किया है ? और उसने उनसे कहा, चौकस रहो, और हर प्रकार के लोभ से अपने आपको बचाए रखो : क्योंकि किसी का जीवन उस की संपत्ति की बहुतायत से नहीं होता। उसने उनसे एक दृष्टान्त कहा, कि किसी धनवान की भूमि में बड़ी उपज हुई। तब वह अपने मन में विचार करने लगा, कि मैं क्या करूं, क्योंकि मेरे यहां जगह नहीं, जहां अपनी उपज इत्यादि रखूं। और उसने कहा; मैं यह करूंगा : मैं अपनी बखारियां तोड़कर उन से बड़ी बनाऊंगा; और वहां अपना सब अन्न और संपत्ति रखूंगा : और अपने प्राण से कहूंगा, कि प्राण, तेरे पास बहुत वर्षो के लिए बहुत संपत्ति रखी है; चैन कर, खा पी, सुख से रह परन्तु परमेश्वर ने उससे कहा; हे मूर्ख, इसी रात तेरा प्राण तुझसे ले लिया जाएगा : तब जो कुछ तू ने इकट्ठा किया है, वह किस का होगा ? ऐसा ही वह मनुष्य भी है जो अपने लिये धन बटोरता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में धनी नहीं।’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- यह दृष्टान्त प्रभु यीशु मसीह ने उस समय सुनाया जब हजारों की भीड़ उसके पास एकत्रित थी और उस भीड़ में से एक मनुष्य ने आकर उससे कहा कि, ‘‘हे गुरू, मेरे भाई से कह कि पिता की संपत्ति मुझे बांट दे।’’

इस प्रश्न से उस व्यक्ति ने प्रभु यीशु मसीह को सांसारिक रूप से गुरू तो माना किन्तु केवल अपने सांसारिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए। उसने अपनी इच्छा को प्रभु यीशु मसीह पर थोपना चाहा कि वह उसके निर्देशानुसार उसके हित में निर्णय करे।

प्रभु यीशु मसीह ने कभी भी इस प्रकार के सांसारिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए लोगों द्वारा स्वयं को मोहरा बनने नहीं दिया। वह लोगों को बताना चाहता था कि वह लोगों के इस प्रकार के सांसारिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये नहीं आया। वह उससे कहीं अधिक बढ़कर उनकी आत्माओं को बचाने के लिए आया है। वह बताना चाहता था कि लोग अपनी इच्छानुसार परमेश्वर को निर्देश देने के बदले अपने जीवन की समस्याओं का अनन्त जीवन के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करें। स्वार्थ और लालच से ऊपर उठें और परमेश्वर की आज्ञानुसार जीवन बिताएं, जिससे मृत्यु के बाद और भी बेहतर जीवन में प्रवेश कर सकें।

विषय वस्तु :- यहूदी अगुओं या गुरूओं को लोगों की विभिन्न समस्याएं सुलझाने का अधिकार था जिसमें एक बड़ी समस्या जमीन-जायदाद की हुआ करती थी। पिता की मृत्यु के पश्चात भाइयों में पिता की सम्पूर्ण संपत्ति के बराबर बंटवारे के लिए कलह आम बात थी।

एक ऐसी ही समस्या लेकर एक अन्जान व्यक्ति भीड़ में से निकलकर प्रभु यीशु मसीह के पास आया। उसने प्रभु यीशु मसीह को निर्देश दिया कि वह गुरू और रब्बी होने के नाते उसके भाई को आज्ञा दे कि पिता की संपत्ति वह स्वयं न हथिया कर उसे भी बांटे। उस समय मूसा की व्यवस्था के अनुसार पैतृक संपत्ति पर प्रायः पहिलौठे का ही अधिकार होता था किन्तु यह परम्परा इस व्यक्ति को नागवार थी। उसने सोचा कि वह प्रभु यीशु से इस संबंध में अपने हित में निर्णय करवाने में सफल हो जाएगा। परन्तु प्रभु यीशु मसीह ने इस प्रकार के सांसारिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किए जाने वाले झगड़ों को सुलझाने वाला न्यायी बनने से साफ इन्कार कर दिया। साथ ही उसने सब प्रकार के लोभ से बचने के लिए लोगों को सावधान किया। उसने बताया कि हर मनुष्य के दिन गिने हुए हैं। संपत्ति की बहुतायत से कोई भी मनुष्य अपने जीवन के दिन नहीं बढ़ा सकता। उसने एक ऐसे धनवान का दृष्टान्त सुनाया जिसकी बहुत अच्छी उपज हुई। खेती में उसे आशा से अधिक सफलता मिली थी किन्तु उसे न ही परमेश्वर को धन्यवाद स्वरूप उपज का दसवां अंश देने का ध्यान रहा और न ही उसने अन्य जरूरतमंदों की सहायता करने की कोई परवाह की। उसने पूरा ध्यान स्वयं पर ही केन्द्रित किया और अपनी सम्पूर्ण उपज और संपत्ति पुराने गोदामों को तुड़वाकर नये बड़े गोदामों में रखने की योजना बनायी। साथ ही उसने यह भी निर्णय लिया कि अब बाकी के जीवन में वह कोई कार्य नहीं करेगा। उसके पास पर्याप्त धन है, वह आराम से खाएगा, पिएगा और सुख से रहेगा। जब वह अपने ही स्वर्थ और अपने ही भविष्य की सीमाओं में केन्द्रित हो गया और धन को ही सब कुछ समझने लगा, तब परमेश्वर ने उसे कहा, ‘‘हे मूर्ख आज ही रात तेरा प्राण तुझसे ले लिया जाएगा तब जो कुछ तू ने इकट्ठा किया वह किस का होगा ?’’

दृष्टान्त के अंत में प्रभु यीशु मसीह ने लोगों से कहा कि ‘‘ऐसा मनुष्य जो अपने लिए धन बटोरता है वह परमेश्वर की दृष्टि में धनी नहीं।’’

व्याख्या :- प्रभु यीशु मसीह का इस दृष्टान्त के द्वारा यह कहने का उद्देश्य कतई नहीं था कि लोग अपनी वृद्धावस्था की सुरक्षा के लिए पर्याप्त धन एकत्रित न करें। वह धन की भर्त्सना भी नहीं कर रहा था। परन्तु, आत्म केन्द्रित होकर धन का केवल स्वयं के स्वार्थों की पूर्ति के लिए उपयोग करने, उसे परमेश्वर से अधिक प्रिय जानने एवं उसकी सांसारिक संतुष्टि में खोकर मृत्यु के पार के जीवन के प्रति लापरवाही बरतने के रवैये के त्रासदीपूर्ण परिणामों से वह लोगों को सावधान करना चाहता था।

इस दृष्टान्त के अनुसार एक धनवान व्यक्ति के यहां बहुत अच्छी फसल हई। उस धनवान व्यक्ति ने धन की बहुतायत के नशे में खोकर अपनी उपलब्धियां के लिए परमेश्वर को धन्यवाद नहीं दिया। परमेश्वर की उपस्थिति उसके जीवन में कहीं दिखाई नहीं दी। भौतिक उपलब्धियों से वह पूर्ण संतुष्ट था, उसे अपनी आत्मा की परवाह नहीं थी। वह परमेश्वर पर विश्वास करने के बदले धन पर विश्वास करने की भूल कर रहा था। वह जीवन के लिए परमेश्वर पर निर्भर होने के बदले पूर्ण रूप से धन पर निर्भर था। सृष्टिकर्ता की उपासना करने के बदले उस महान सृष्टिकर्ता की एक छोटी सृजना को ही वह अपना सब कुछ मान बैठा था। उसने महानतम आज्ञा ‘‘तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से और अपने सारे प्राण से और अपनी सारी बुद्धि से और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना’’ (मरकुस 12ः30 के अनुसार) की अपने जीवन में पूर्णतः अवहेलना की थी। वह धन के लोभ में पड़कर मूर्ति पूजा करने जैसा पाप कर रहा था। (कुलुस्सियों 3ः5 के अनुसार) वह इस गफलत में खोया हुआ था कि उसका जीवन, सुख और चैन सब कुछ धन की बहुतायत के कारण है और सम्पूर्ण स्थिति उसके स्वयं के नियंत्रण में है। वह जीवन के इस कटु सत्य को नहीं समझ पाया था कि मनुष्य का जीवन इस पृथ्वी पर एक यात्री, परदेशी और मुसाफिर के समान होता है। (अय्यूब 14ः6 के अनुसार) जो बहुत अल्प समय का होता है। अनन्त जीवन की तुलना में इस जीवन की उपमा भाप (याकूब 4ः14 के अनुसार), पानी (2 शमूएल 14ः14), घास और घास के फूल (1पतरस 1ः24) से की गई है। निर्बुद्धि की नाईं उसने इस बात पर विचार ही नहीं किया था कि, ‘‘न हम जगत में कुछ लाए हैं और न कुछ ले जा सकते हैं, रूपये का लोभ सब प्रकार की बुराइयों का जड़ है, जिसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हुए कितनों ने विश्वास से भटक कर अपने आप को नाना प्रकार के दुःखों से छलनी बना लिया है।’’ (1 तीमुथियुस 6ः7,10) मनुष्य खाली हाथ इस संसार में आता है और खाली हाथ ही इस संसार से उसे जाना होता है। प्रमुख बात यह नहीं रह जाती कि हमने पृथ्वी पर कितना धन एकत्र कर रखा है। क्योंकि ऐसे मनुष्य परमेश्वर की दृष्टि में धनी नहीं होते। किन्तु बात प्रमुख यह होती है कि हमने स्वर्ग में कितना धन एकत्र किया है ? हमारा परमेश्वर से कैसा संबंध रहा है ? स्वर्ग में धन एकत्रित करने का एक उपाय है और वह है सर्वोच्च आज्ञा के समकक्ष आज्ञा को पूरी करना कि, ‘‘तू अपने पड़ोसी से  अपने समान प्रेम रख।’’ (मरकुस 12ः31) अर्थात् कोई भी ऐसे जरूरतमंद व्यक्ति की सहायता करना, जिसे हमारी आवश्यकता हो।

इस धनवान ने परमेश्वर की आज्ञा की अवहेलना तो की ही थी। ‘‘अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की सारी पहली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना’’ (नीति वचन 3ः9) भी उसे नागवार लगा था। साथ ही उसके सारे विचार, योजनाएं और कार्य आत्मकेन्द्रित थे। उसकी योजना में ‘मैं’ के अलावा और कोई दूसरा नहीं था। इस प्रकार न ही उसने अपनी संपत्ति से परमेश्वर के राज्य के विस्तार के लिए कुछ कार्य किया और न ही उसने अपनी संपत्ति से अन्य किसी की मदद करने का विचार किया। इस प्रकार स्वर्ग में उसके खाते में कुछ भी नहीं था। आत्मिक रूप से वह पूरी तरह कंगाल था। धन की बहुतायत से वह अपने जीवन का एक पल भी न बढ़ा पाया। जब उसे परमेश्वर से मृत्यु का वारंट मिला कि आज ही वह परमेश्वर, जिसे जीवन देने का और फिर वापस लेने का अधिकार है, जिसने उसे जीवन दिया था आज पुनः उससे वापस ले लेगा। तब जो कुछ उसने इकट्ठा किया है वह किसका होगा ? अर्थात् उससे धनवान व्यक्ति को क्या लाभ होगा ? कोई ईश्वर ही नहीं यह सोचकर वह मूर्ख तो ठहरा ही (भजन संहिता 14ः1, 53ः1 के अनुसार) साथ ही अपनी आत्मा की अनन्त हानि के दण्ड के योग्य भी ठहरा। सम्पूर्ण स्थिति परमेश्वर के ही पूर्ण नियंत्रण में रहती है। धन भी उसकी ही आशीष से मिलता है (नीति वचन 10ः22 के अनुसार) और निर्धारित समय पर वह उसे वापस लेने का भी अधिकार रखता है।

यहां यह स्पष्ट होना अनिवार्य है कि धन हमारी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है और धन को कभी भी वचन में बुरा नहीं कहा गया। यह भी परमेश्वर की आशीष है। किन्तु, धन का लालच करना, उसे अपने जीवन में परमेश्वर का स्थान देना, उसका केवल अपने ही स्वार्थों की पूर्ति के लिए उपयोग करना एवं उसके कारण परमेश्वर की आज्ञाओं की अवहेलना करना हमारी आत्मा की अनन्त त्रासदी का कारण बन सकता है। धनवान व्यक्ति के किसी भी अन्य पापों का उल्लेख नहीं है। खेती में सफलता का रहस्य उसकी कड़ी मेहनत और लगन ही रही होगी किन्तु वह अपने स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ सका और परमेश्वर को धन के कारण तुच्छ जाना। जिसके कारण वह परमेश्वर के क्रोध और अनन्त दण्ड का पात्र ठहरा।

व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :- 

1. परमेश्वर को हमें अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि से और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना है (मरकुस 12ः30) धन को नहीं।

2. अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखना है (मरकुस 12ः31) स्वार्थ से ऊपर उठकर दूसरों की जरूरतों के प्रति भी संवेदनशील रहना है क्योंकि जो भलाई करना जानता है और नहीं करता उसके लिए वह पाप गिना जाता है। (याकूब 4ः17 के अनुसार)

3. सांसारिक रूप से धनी होने से सन्तुष्ट नहीं होना है किन्तु आत्मिक रूप से धनवान होने के लिए निरन्तर सतर्क रहना है और प्रयास करना है। यह एक ऐसा धन है जो मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होता; परन्तु हमारे लिए अनन्त लाभ का कारण बनता है।

4. धन का उपयोग करना बुरा नहीं है परन्तु उस धन का केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उपयोग कर, दूसरे जरूरतमंदों की कोई मदद न करना अनुचित है।


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