स्वामी एवं दास का दृष्टान्त

स्वामी एवं दास का दृष्टान्त

सन्दर्भ :- लूका 17ः7-10 - ‘‘ पर तुम में से ऐसा कौन है, जिस का दास हल जोतता, या भेड़ें चराता हो, और जब वह खेत से आए, तो उस से कहे तुरन्त आकर भोजन करने बैठ ? और यह न कहे, कि मेरा खाना तैयार कर : और जब तक मैं खाऊं-पीऊं तब तक कमर बान्धकर मेरी सेवा कर; इस के बाद तू भी खा पी लेना। क्या वह उस दास का निहोरा मानेगा, कि उस ने वे ही काम किए जिस की आज्ञा दी गई थी ? इसी रीति से तूम भी, जब उन सब कामों को कर चुको जिस की आज्ञा तुम्हें दी गई थी, तो कहो, हम निकम्मे दास हैं; कि जो हमें करना चाहिए था वही किया है।’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- जब चेलों में प्रश्न उठा कि हम में से बड़ा कौन है ? तब प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि यदि कोई प्रथम स्थान चाहे तो वह सबसे अन्तिम हो और सबका सेवक बने। (मरकुस 9ः34-35, मत्ती 20ः27-28) यीशु मसीह जो स्वयं ईश्वर था सबका दास बन गया और दास की नम्रता और दीनता प्रगट करने के लिए उसने स्वयं अपने शिष्यों के पैर धोए। (यूहन्ना 13ः4-5, 12-17) वचन के अनुसार ‘‘जिसने परमेश्वर के स्वरूप में होकर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। वरन् अपने आपको ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया, और मनुष्य के रूप में प्रगट होकर अपने आपको दीन किया और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां क्रूस की मृत्यु भी सह ली।’’ (फिलिप्पियों 2ः6-8)

प्रभु यीशु मसीह चाहता था कि प्रत्येक विश्वासी भी सिर्फ अधिकार जताने वाला न हो किन्तु नम्र, दीन एवं कर्मठ हो। वह जो भी कार्य एवं जिम्मेदारियां पूरी करे वह परमेश्वर पर अहसान जताने के लिए नहीं बल्कि अपने कर्तव्य पूरे करने के उद्देश्य से करे। इसी उद्देश्य को प्रभु यीशु मसीह ने स्वामी एवं दास के दृष्टान्त द्वारा चित्रित किया।

विषय वस्तु :- प्रभु यीशु मसीह ने यह दृष्टान्त एक प्रश्न से आरंभ किया कि तुम में से कौन ऐसा है जिसका दास हल चलाता और भेड़ों को चराता हो और जब दास खेत से लौटकर आए तो वह दास से कहे शीघ्र आ भोजन करने बैठ ? क्या वह उससे नहीं कहेगा कि मेरे खाने के लिए कुछ बना और साफ वस्त्र पहन तथा जब तक मैं खा पी न लूं मेरी सेवा कर तत्पश्चात् तू भी खा पी लेना ? आज्ञाओं का पालन करने के लिए क्या वह अपने दास को धन्यवाद देगा ?

‘‘इसी प्रकार तुम भी जब उन सब आज्ञाओं का पालन कर लो जो तुम्हें दी गई हैं तो कहो हम अयोग्य दास हैं, हमने तो केवल वही किया जो हमें करना चाहिए था।’’

व्याख्या :- उस समय गुलामी की प्रथा थी। स्वामी गुलामों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे और बदले में उनसे कठोर श्रम करवाते थे। गुलामों को स्वामी के हर एक आदेशों का खामोशी से पालन करना पड़ता था। वे स्वामियों की आज्ञा पालन एवं सेवा को ही अपना धर्म एवं कर्तव्य समझते थे। अच्छे गुलाम अपने स्वामी के प्रति वफादार एवं समर्पित होते थे।

दिन भर कठोर परिश्रम के बावजूद वे घर आकर नहाकर, स्वच्छ कपड़े पहनकर पुनः अपने मालिक की सेवा में हाजिर होते थे। उनके लिए वे भोजन की व्यवस्था करते, उनके सम्पूर्ण आराम का ध्यान रखते और तब फिर स्वयं भोजन करते थे। यह सब उन स्वामियों एवं दासों के बीच सामान्य एवं आम बात थी। इन सब कार्यों को दास बड़ी नम्रता एवं दीनता पूर्वक अपना कर्तव्य एवं जिम्मेदारी समझकर पूर्ण करते थे। इनके बदले में न तो स्वामी उन्हें धन्यवाद कहते थे और न ही दास स्वामी से यह अपेक्षा ही करते थे कि स्वामी उनका अहसान मानकर उन्हें धन्यवाद दें।

प्र्रभु यीशु मसीह ने प्रगट किया कि परमेश्वर भी विश्वासियों से ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा करता है। जैसा वचन में लिखा है - ‘‘जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो।’’ (फिलिप्पियों 2ः5) और यह भी जैसा वचन में लिखा है कि - ‘‘क्योंकि मनुष्य का पुत्र इसलिए नहीं आया, कि उसकी सेवा टहल की जाए, पर इसलिए आया, कि आप सेवा टहल करे, और बहुतों की छुड़ौती के लिए अपना प्राण दे’’ (मरकुस 10ः45) सिर्फ ऊंचे पद पर आसीन होकर अधिकार जताना पर्याप्त नहीं किन्तु अधिक से अधिक कार्य परिश्रम पूर्वक करना है। ‘‘जितनी अपेक्षा है, यदि मात्र उतना ही कार्य किया तो परमेश्वर की दृष्टि में निकम्मे ठहरेंगे।’’ (लूका 17ः10 के अनुसार) मसीही जीवन अपेक्षा से बढ़कर करने का जीवन है। जिसके अनुसार यदि कोई कुरता लेना चाहे तो दोहर भी दे देना है कोई कोस भर बेगार में ले जाए तो उसके साथ दो कोस चले जाना है। (मत्ती 5ः40-41 के अनुसार)

जिस प्रकार दास अपने स्वामी के लिए कार्य कर उस पर कोई अहसान नहीं करता उसी प्रकार हम परमेश्वर के राज्य के लिए चाहे कितने भी कार्य तथा परिश्रम करें और सच्चाई से उसके आज्ञाओं का पालन करें किन्तु फिर भी हम परमेश्वर का अहसान नहीं करते; सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करते हैं। इसलिए अपने कार्यों एवं उपलब्धियों पर हमें घमण्ड नहीं करना चाहिए किन्तु नम्रता एवं दीनता से प्रभु की सेवा के लिए निरन्तर आगे बढ़ते जाना चाहिये।

जिस प्रकार दास स्वामी से अपनी दिनचर्या के बाद धन्यवाद या पुरस्कार की अपेक्षा नहीं करता उसी प्रकार हमें भी परमेश्वर से पृथ्वी पर किसी भी प्रकार के पुरस्कार की अपेक्षा नहीं करना चाहिये। हमारा पुरस्कार संसार में नहीं किन्तु स्वर्ग में है, देखा हुआ नहीं किन्तु अनदेखा है, नष्ट होने वाला नहीं किन्तु चिरस्थायी है; अनन्त का है। ये पुरस्कार हमारी उपलब्धियों के फलस्वरूप हमे नहीं मिलेगा और न ही किसी भी आधार पर हम यह दावा ही कर सकते हैं कि इस हमारा अधिकार है। (इफिसियों 2ः9, तीतुस 3ः5 के अनुसार) परन्तु यह पुरस्कार हमें पूर्ण रूप से परमेश्वर की दया एवं अनुग्रह से मिलेगा जो उसने प्रभु यीशु मसीह द्वारा हम पर किया है।

जब एक सांसारिक स्वामी गुलाम से पूर्ण आज्ञाकारिता एवं समर्पण की अपेक्षा करता है तो परमेश्वर के दासों से तो यह अपेक्षा है ही कि ‘‘तू अपने परमेश्वर यहोवा का भय माने, और उसके सारे मार्गों पर चले, उससे प्रेम रखे और अपने पूरे मन और अपने सारे प्राण से उसकी सेवा करे।’’ (व्यवस्था विवरण 10ः12 के अनुसार)

परमेश्वर ने हमारी ‘सेवा’’ के लिए अपने एकलौते बेटे को हमारे लिए बलिदान कर दिया। उसने स्वर्ग का सिंहासन छोड़ दिया, पृथ्वी पर आकर सभी प्रकार के अभाव, तिरस्कार एवं निन्दा सही। मानव रूप में होकर सभी विषम परिस्थियों के बावजूद पवित्र एवं परमेश्वर को ग्रहण योग्य जीवन जीकर दिखाया। आदर्श जीवन शैली का उदाहरण हमारे सामने रखा। हमारे उद्धार के लिए एवं पापों की क्षमा के लिए उसने क्रूस की मृत्यु भी सह ली। एक दास के रूप में उसने हमारे लाभ के खातिर सब कुछ सह लिया, सब कुछ कर दिया। जितना कुछ उसने हमारे लिए किया उसका बदला तो हम कभी उसे दे नहीं सकते किन्तु उसकी अपेक्षा है कि हम उसकी सेवा सच्चाई से, पूरी शक्ति एवं पूरी लगन से करें।

व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :- परमेश्वर द्वारा सौंपी गई हर एक जिम्मेदारी को एक अच्छे सेवक के रूप में नम्रता एवं दीनता पूर्वक खामोशी से सम्पूर्ण समर्पण एवं लगन से पूरी करना है। हो सकता है इस संसार में हमारी अच्छाई का अहसान न मानकर कोई धन्यवाद भी न दे या बदले में हमें बुराई ही मिले। फिर भी परमेश्वर की आज्ञा पूरी करना प्रत्येक विश्वासी का कर्तव्य है क्योंकि इसका प्रतिफल देने वाला हमारा स्वर्गीय पिता है।


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