सतर्क सेवक का दृष्टान्त

सतर्क सेवक का दृष्टान्त

सन्दर्भ :- मरकुस 13ः32-37 - ‘‘उस दिन या उस घड़ी के विषय में कोई नहीं जानता, न स्वर्ग के दूत और न पुत्र; परन्तु केवल पिता। देखो, जागते और प्रार्थना करते रहो; क्योंकि तुम नहीं जानते कि वह समय कब आएगा। यह उस मनुष्य की सी दशा है, जो परदेश जाते समय अपना घर छोड़ जाए, और अपने दासों को अधिकार दे : और हर एक को उसका काम जता दे, और द्वारपाल को जागते रहने की आज्ञा दे। इसलिए जागते रहो; क्योंकि तुम नही जानते कि घर का स्वामी कब आएगा, सांझ को या आधी रात को, या मुर्ग  के बांग देने के समय या भोर को। ऐसा न हो कि वह अचानक आकर तुम्हें सोते पाए। और जो मैं तुम से कहता हूं, वही सब से कहता हूं, जागते रहो।’’

लूका 12ः35-40 - ‘‘ तुम्हारी कमरें बन्धी रहें, और तुम्हारे दीये जलते रहें। और तुम उन मनुष्यों के समान बनो, जो अपने स्वामी की बाट देख रहे हां, कि वह ब्याह से कब लौटेगा; कि जब वह आकर द्वार खटखटाए, तो तुरन्त उसके लिये खोल दें। धन्य हैं वे दास, जिन्हें स्वामी आकर जागते पाए; मैं तुमसे सच कहता हूं, कि वह कमर बान्ध कर उन्हें भोजन करने को बैठाएगा, और पास आकर उन की सेवा करेगा। यदि वह रात के दूसरे पहर या तीसरे पहर में आकर उन्हें जागते पाए, तो वे दास धन्य हैं। प्ररन्तु तुम यह जान रखों, कि यदि घर का स्वामी जानता, कि चोर किस घड़ी आएगा, तो जागता रहता, और अपने घर में सेंध लगने न देता। तुम भी तैयार रहो; क्योंकि जिस घड़ी तुम सोचते भी नहीं, उस घड़ी मनुष्य का पुत्र आ जावेगा।’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- प्र्रभु यीशु मसीह लोगों को दुनिया के अन्त एवं स्वयं के द्वितीय आगमन की बातें अक्सर बताया करते थे। इन बातों से लोगों को यह जानने की तीव्र जिज्ञासा रहती थी कि दुनिया का अन्त कब होगा ? और प्रभु यीशु मसीह का इस संसार में दोबारा आगमन कब होगा ?

प्रभु यीशु मसीह ने उनके इन प्रश्नों के उत्तर में बहुत से दृष्टान्त देकर यह स्पष्ट किया कि बात यह प्रमुख नहीं कि उसका आगमन ‘कब’ होगा? महत्वपूर्ण बात सतर्कता एवं तैयारी की है।

उसने हर बात यह भी स्पष्ट किया कि उस अन्तिम दिन के विषय में ‘पिता’ के अलावा कोई नही जानता, स्वयं पुत्र भी नही। प्रभु यीशु मसीह, परमेश्वर के पुत्र थे। स्वयं परमेश्वर थे। यह बात नहीं थी कि वे उस दिन के विषय में अन्जान थे किन्तु उन्होंने अपने संसारिक जीवन में दीनता पूर्वक अपने मानवीय व्यक्तित्व को ही अधिक स्वीकार किया। परमेश्वर पिता - परमेश्वर पुत्र - परमेश्वर पवित्रात्मा - त्रिएक परमेश्वर है, जो एक दूसरे से अलग नहीं हैं।

मरकुस रचित सुसमाचार में प्रभु यीशु मसीह ने यह दृष्टान्त जैतून पर्वत पर याकूब, यूहन्ना, पतरस एवं अन्द्रियास को बताया और लूका में उसने यही दृष्टान्त एक फरीसी के घर में भोज के पश्चात् उस सम्पूर्ण भीड़ को सुनाया जो उसके दर्शन करने एवं उसके उपदेश सुनने को वहां एकत्रित हुई थी।

व्याख्या :- इस दृष्टान्त की व्याख्या के पूर्व ही यह बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस दृष्टान्त के द्वारा प्रभु यीशु मसीह ने दुनिया के अन्त के समय पर अटकलें लगाने को पूर्ण रूप से व्यर्थ ठहराया है। उसने स्पष्ट कहा कि ‘‘उस दिन या उस घड़ी के विषय में कोई नहीं जानता न स्वर्ग के दूत, न ही पुत्र, परन्तु पिता।’’ (मरकुस 13ः32) जब प्रभु यीशु मसीह ने इस सम्बन्ध में स्वयं ही इतनी स्पष्ट एवं ठोस टिप्पणी की है तो यह बात प्रगट है कि विज्ञान एवं तकनीकी या मनुष्य की बुद्धि या अन्य किसी भी प्रकार से दुनिया के अन्त  पर भविष्यवाणी करना या उसके बारे में सुनना मूर्खतापूर्ण बात है।

दूसरी बार जो उन्होंने कहा है, जहां अन्त के दिनों में अकाल, लड़ाइयों, पीड़ाओं, भूकम्पों, झूठे मसीहों के उठ खड़े होने, मसीहियों पर सताव आदि का जिक्र है। (मरकुस 13ः6-9 के अनुसार) ये सभी बातें मसीह के आने के पूर्व भी इस दुनिया में थीं और मसीह के मृत्यु, पुनरूत्थान एवं स्वर्गारोहण से लेकर आज तक निरन्तर होती रही हैं। मसीहियों के सताव की बात भी बहुत पुरानी है। प्रभु यीशु मसीह के सभी चेले (केवल यूहन्ना को छोड़कर) अपने विश्वास की गवाही के कारण घात किये गये। प्रारंभिक कलीशिया का इतिहास मसीहियों के खून से लिखा गया। नीरो बादशाह ने इन मसीहियों को क्रूरतम यातनाएं दीं। यह सभी बातें, यह अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार; नूह तथा सदोम-अमोरा आदि के समय से लेकर अब तक होती आई हैं। ये सब कुछ नई बात नहीं है। इन बातों के आधार पर अन्तिम दिन का अनुमान लगाने में कोई बड़ी समझदारी नहीं।

जो प्रमुख बात सामने आती है, वो यह है कि जब सुसमाचार का प्रचार सारे जगत में किया जाएगा कि सब जातियों पर गवाही हो; तभी दुनिया का अन्त होगा उससे पहले नहीं। (मत्ती 24ः14, मरकुस 13ः10 के अनुसार) सभी मसीहियों को प्रचार का कार्य मुस्तैदी से करना है और तैयार रहना है, निससे मसीह का आगमन शीघ्र हो। प्राण देने तक विश्वास योग्य रहना है (प्रकाशित वाक्य 2ः10)। अन्त तक धीरज धरना है। (मरकुस 13ः1-32 के अनुसार)

मरकुस रचित सुसमाचार में  दिये गये दृष्टान्त के अनुसार स्वामी ने सभी सवकों को अलग-अलग काम बांटे और द्वारपाल को भी जागते रहने की आज्ञा दी। द्वारपाल की यह जिम्मेदारी होती थी कि वह रात भर जागकर घर की चौकीदारी करे। रात में सोते हुए पाए जाने पर उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। इस दृष्टान्त में द्वारपाल के साथ-साथ सभी सेवकों को स्वामी ने जागते रहने की आज्ञा दी ताकि वह जिस भी समय घर वापस लौटे, उन्हें जागृत आवस्था में पाये और जब भी दरवाजा खटखटाये, सभी सेवक उसका स्वागत कर सकें।

यहां स्वामी की सेवकों से यह अपेक्षा नहीं है कि वे अपनी नींद और आराम को पूर्ण रूप से त्यागकर, रात-दिन जागकर कार्य करतें रहें। यहां बात आत्मिक सतर्कता की है। प्रभु यीशु मसीह इस दृष्टान्त के द्वारा न सिर्फ चेलों एवं उस समय के लोगों को सावधान कर रहा था परन्तु, उनके बाद के भी हम सभी विश्वासियों को चिताना चाहता था कि इस संसार में शैतान का साम्राज्य है। (यूहन्न 14ः30 के अनुसार) वह परमेश्वर का सबसे प्रमुख विराधी है। (जर्कयाह 3ः1)

वह अंधकार का हाकिम है। (2 कुरिन्थियों 4ः4, यूहन्ना 14ः30, इफिसियों 6ः12)। वह पाप को बहुत आकर्षक और मनभावन बनाता है। (उत्पत्ति 3ः6 के अनुसार) किन्तु उनके त्रासदीपूर्ण परिणामों से वह मनुष्यों को पूर्ण रूप से अंजान रखता है। वह इन प्रलोभनों के द्वारा निरन्तर मनुष्यों को परमेश्वर से दूर करने का और नरग के मार्ग में आगे बढ़ाने का प्रयास करता है। वह गरजने वाले सिंह की भांति इस ताक में रहता है कि किसको फाड़ खाये। (1 पतरस 5ः9) इन कारणों से प्रभु यीशु मसीह ने विश्वासियों को आत्मिक रूप से सतर्क रहने को कहा। आत्मिक रूप से सतर्क रहने में प्रमुख 4 बातें निहित है :-

1. परमेश्वर को भय मानना :- (रामियों 11ः20, मŸा 10ः28, सभोपदेशक 12ः13, लूका 23ः40, नीतिवचन 1ः7) परमेश्वर का भय जब जीवन से समाप्त हो जाता है, वहां नैतिक एवं आत्मिक पतन होना अपरिहार्य है। ऐसा हो नही सकता कि परमेश्वर का भय मानते हुए भी हम गलत कार्य करें। जहां मनुष्य के हृदय से परमेश्वर के न्याय और दण्ड का भय समाप्त हो जाता है वहां लोग उद्ण्डतापूर्वक अपने जीवन, कार्य, व्यहवार तथा आचरण के द्वारा उसे ठट्ठों में उड़ाते हैं। वहां वे इस वचन की पूर्ण रूप से अवहेलना करते हैं जहां लिखा है ‘‘क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिए फिर कोई बलिदान बाकी नहीं। हां, दण्ड की एक भयानक बाट जोहना और आग की ज्वलन बाकी है जो विरोधियों को भस्म कर देगी। जब की मूसा की व्यवस्था का न मानने वाला दो या तीन जनों की गवाही पर, बिना दया के मार डाला जाता है। तो सोचना है कि वह कितने और भी दण्ड के योग्य ठहरेगा जिस ने परमेश्वर के पुत्र को पांवो से रौंदा, और वाचा के लोहू को जिसके द्वारा वह पवित्र ठहराया गया था अपवित्र जाना है, और अनुग्रह की आत्मा का अपमान किया है। क्योंकि हम उसे जानते हैं, जिसने कहा पलटा लेना मेरा काम है, मैं ही बदला दूंगा : और फिर यह, कि प्रभु अपने लोगों का न्याय करेगा। जीवते परमेश्वर के हाथों में पड़ना भयानक बात है।’’ (इब्रानियों 10ः26-31)

2. वचन का अध्ययन :- (भजन संहिता 1ः2, व्यवस्थाविवरण 8ः1, यहोशू 1ः7-8, इफिसियों 6ः17) बाइबिल परमेश्वर का जीवित वचन है जिसके द्वारा वह हमसे बातें करता है। उसके वचन का अध्ययन करना; उसकी बातों को सुनना है तथा उसकी इच्छाओं को पहचानना है। उसके वचन का न सिर्फ अध्ययन करना है परन्तु उसके अनुसार चलना है। (यूहन्ना 14ः15 के अनुसार) उसका वचन हमारे पावों के लिए दीपक और पथ के लिए उजियाला है। (भजन संहिता 119ः105) ‘‘सारे आत्मिक ज्ञान और समझ सहित परमेश्वर की इच्छा में परिपूर्ण हो जाओ ताकि तुम्हारा चाल-चलन प्रभु के योग्य हो और वह सब प्रकार से प्रसन्न हो और तुमसे हर प्रकार के भले कामों का फल लगे और परमेश्वर की पहचान में बढ़ते जाओ।’’ (कुलुस्सियों 1ः9-10 के अनुसार)

3. प्रार्थना :- प्रार्थना विश्वासियों की आत्मिक सतर्कता के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी जीवन के लिए सांस। प्रार्थना के द्वारा विश्वासियों का संबंध उस परमेश्वर से जुड़ता है, जो उनकी ऊर्जा का स्त्रोत है, जिनके द्वारा वे परमेश्वर से शैतान की युक्तियों का सामना करने की और उसकी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने की सामर्थ पाप्त करते है। (भजन संहिता 91ः15)। हमें निरन्तर प्रार्थना करते रहना है। (1 थिस्सलुनीकियों 5ः17)

4. विश्वासियों की संगति :- आत्मिक सतर्कता के लिए विश्वासियों की संगति भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस बात को झुठलाना हानिकारक है कि ‘‘बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है।’’ (1 कुरिन्थियों 15ः33)। वैसे ही यह कि ‘‘अविश्वासियों के साथ असमान जुए में न जुतो क्योंकि धार्मिकता का अधर्म से क्या मेल-जोल ? या ज्योति और अंधकार की क्या संगति ? और मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव ? या विश्वासी के साथ अविश्वासी का क्या नाता ? और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या संबंध ? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर के मन्दिर हैं।’’ (2 कुरिन्थियों 6ः14-16) आत्मिक सतर्कता के लिए आवश्यक है कि हम अपनी संगति एवं मित्र मंडली के प्रति भी सजग रहें। भजन संहिता 1ः1 में भी यह लिखा है कि ‘‘क्या ही धन्य है वह मनुष्य जो दुष्टों की युक्ति पर नही चलता और न पापियों के मार्ग में खड़ा होता है और न ठट्ठा करने वालों की मंडली में बैठता है।’’ हमें ऐसों से संगति रखना चाहिये जिनके साथ रहकर हम बुराइयों से बचें और विश्वास में आगे बढ़ सकें।

लूका रचित सुसमाचार में प्रभु यीशु मसीह के इस दृष्टान्त का उद्देश्य तो आत्मिक सतर्कता ही है। किन्तु, इसमें स्वामी यात्रा के बदले विवाह में सम्मिलित होने गया है और स्वामी ने सवकों एवं द्वारपाल को अलग-अलग कार्य सौंपने के बदले सभी सेवकों को निर्देश दिया कि वे जागते रहें, तैयार रहें, उनके दिये जलते रहें। जिससे ब्याह के बाद रात्रि में किसी भी समय जब स्वामी लौटे और दरवाजा खटखटाए तो तुरन्त सबके सब सेवक उसके लिए दरवाजा खोलें और फिर स्वामी स्वयं अपनी कमर बांधकर सेवकों को भोजन करने बैठाए और सेवकों की सेवा टहल करे।

प्रभु यीशु मसीह ने इसमें स्वयं को एक सेवक के रूप में प्रगट किया। उसने उपरौती कोठरी में अन्तिम भोजन के समय अपनी कमर बांधकर शिष्यों के पांव धोए। वह सेवा टहल करवाने नहीं परन्तु सेवा करने आया। (मत्ती 20ः28 के अनुसार) उसने यह भी कहा कि - ‘‘देख मैं द्वार पर खड़ा खटखटाता हूं यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा तो मैं उसके अनुसार साथ भोजन करूंगा और वह मेरे साथ।’’ (प्रकाशित वाक्य 3ः20) प्रभु यीशु ने इसी प्रकार का निर्देश अपने शिष्यों एवं सभी विश्वासियों को भी दिया कि सभी सेवा करने के लिए हमेशा तैयार रहें। (1 थिस्सलुनिकियों 5ः15) सुस्ती त्यागकर लगन और परिश्रम से कार्य करें। यिर्मयाह 48ः10 में लिखा है ‘‘शापित है वह जो यहोवा का काम आलस्य से करता है।’’

व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :- 

1. शादी, जन्म, अन्तिम क्रिया या अन्य किसी विशेष प्रवेश परीक्षाओं के लिए हम व्यक्तिगत रूप से एवं पारिवारिक रूप से  मिलकर कितनी तैयारियां करते है। कितना समय , शक्ति, पैसा लगाकर जी-जान से मेहनत करते हैं। प्रभु यीशु मसीह के दूसरे आगमन को जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सर्वप्रमुख घटना होगी और जिसका परिणाम अनन्त का होगा, हम कितना महत्व देते हैं ? उस दिन के लिए हमारी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक रूप से कितनी तैयारी है ?

2. प्रभु यीशु मसीह के दूसरे आगमन की तैयारी हमें बड़ी सतर्कता पूर्वक करना है। परमेश्वर के भय, वचन का अध्ययन, प्रार्थना एवं विश्वासियों की संगति द्वारा अपने आपको परमेश्वर के ग्रहण योग्य जीवित बलिदान बनाना है।

3. यह बात प्रमुख नहीं कि हम अटकलें लगाएं कि प्रभु का दूसरा आगमन कब होगा बनिस्बत इसके कि हम हमेशा उसके दूसरे आगमन के लिये अपने जीवन में तैयारी रखें।


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