चतुर प्रबन्धक
चतुर प्रबन्धक
सन्दर्भ :- लूका 16ः1-13 - ‘‘फिर उसने चेलों से भी कहा; किसी धनवान का एक भण्डारी था, और लोगों ने उसके साम्हने उस पर यह दोष लगाया कि यह तेरी सब संपत्ति उड़ाए देता है। सो उस ने उसे बुलाकर कहा, यह क्या है जो मैं तेरे विषय में सुन रहा हूं ? अपने भण्डारीपन का लेखा दे; क्योंकि तू आगे को भण्डारी नहीं रह सकता। तब भण्डारी सोचने लगा, कि अब मैं क्या करूं ? क्योंकि मेरा स्वामी अब भण्डारी का काम मुझ से छीन ले रहा है; मिट्टी तो मुझ से खोदी नहीं जाती : और भीख मांगने से मुझे लज्जा आती है। मैं समझ गया, कि क्या करूंगा : ताकि जब मैं भण्डारी के काम से छुड़ाया जाऊं तो लोग मुझे अपने घरों में ले लें। और उस ने अपने स्वामी के देनदारों में से एक एक को बुलाकर पहिले से पूछा, कि तुझ पर मेरे स्वामी का क्या आता है ? उसने कहा, सौ मन तेल; तब उस ने उस से कहा, कि अपनी खाती-बही ले और बैठकर तुरन्त पचास लिख दे। फिर दूसरे से पूछा, तुझ पर क्या आता है ? उस ने कहा, सौ मन गेहूं; तब उस ने उस से कहा; अपनी खाता बही लेकर अस्सी लिख दे। स्वामी ने उस अधर्मी भण्डारी को सराहा, कि उस ने चतुराई से काम किया है; क्योंकि इस संसार के लोग अपने समय के लोगों के साथ रीति व्यवहारों में ज्योति के लोगों से अधिक चतुर हैं। और मैं तुम से कहता हूं, कि अधर्म के धन से अपने लिए मित्र बना लो; ताकि जब वह जाता रहे, तो वे तुम्हें अनन्त निवासों में ले लें। जो थोड़े से थोड़े में सच्चा है, वह बहुत में भी सच्चा है, और जो थोड़े से थोड़े में अधर्मी है वह बहुत में भी अधर्मी है। इसलिए जब तुम अधर्म के धन में सच्चे न ठहरे, तो सच्चा तुम्हें कौन सौंपेगा। और यदि तुम पराए धन में सच्चे न ठहरे, तो जो तुम्हारा है, उसे तुम्हें कौन देगा ? कोई दास दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता : क्योंकि वह तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा; या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा : तुम परमेश्वर और धन दोंनो की सेवा नहीं कर सकते।’’प्रस्तावना :- प्रभु यीशु मसीह के सभी दृष्टान्तों में व्याख्या के दृष्टिकोण से यह दृष्टांत सबसे अधिक कठिन है।
प्रभु यीशु मसीह ने यह दृष्टांत प्रमुख रूप से अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए सुनाया। उस समय उसके आस-पास बड़ी भीड़ एकत्रित थी एवं कई शास्त्री एवं फरीसी भी एकत्रित थे, जिन्होंने यह दृष्टांत सुनकर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। (लूका 16ः14 के अनुसार)
इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों को एवं हम सभी मसीहियों को चिताया है कि हम सबको अपने सांसारिक धन का उपयोग चतुरतापूर्वक आत्मिक लाभ के लिए करना है, जिसका लाभ अनन्त का है।
पृष्ठभूमि :- उस समय में धनवान लोगों के घर में प्रबन्धक नियुक्त किये जाते थे, जिनकी नियुक्ति बहुत सावधानीपूर्वक देख-परखकर की जाती थी। ये प्रबंधक स्वामी के सबसे अधिक अंतंरग एवं विश्वासपात्र होते थे। इन्हें स्वामी के नाम पर स्वामी की सम्पिŸा खर्च करने का अधिकार रहता था। उसका पूरा-पूरा हिसाब उन्हें स्वामी को देना पड़ता था। सूदखोरी गैर कानूनी जुर्म माना जाता था। (लैव्यव्यवस्था 25ः36, व्यवस्थाविवरण 15ः8, 23ः19 के अनुसार) समय के साथ लोगों ने अपनी सुविधा हेतु इस व्यवस्था में स्वयं ही परिवर्तन कर लिए थे और सूदखोरी के जुर्म एवं उसके परिणाम स्वरूप कचहरी एवं जेल से जाने से बचने का दूसरा रास्ता बना लिया था। इस तरह धनवान स्वामी प्रत्यक्ष रूप से लोगों से न उलझकर अप्रत्यक्ष रूप से अपने प्रबंधक के द्वारा लेन-देन आदि के समझौते करते थे। ऐसा करके स्वामी तो लोगों के बीच में अपनी स्वच्छ छवि बनाये रखते थे और सम्पूर्ण जिम्मेदारी प्रबंधक को पूरी करना पड़ती थी। उनको इस कार्य के लिए अच्छी तनख्वाह के अलावा बहुत सी सुविधाएं एवं अधिकार प्रदान किये जाते थे। किन्तु सूदखोरी का धंधा करते हुए पकड़े जाने पर स्वामी तो बच जाया करते थे, प्रबंधकों को ही कचहरी के चक्कर लगाना पड़ते थे। जेल की सजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ती थी।
प्रबंधकों ने भी इस समस्या का समाधान ढूंढ लिया था। वे मूलधन एवं ब्याज अलग-अलग न लिखकर दोनों को जोड़कर एक अनुबन्ध पत्र बनाते थे और कर्जदारों से ही अपनी इच्छानुसार लिखवा लेते थे कि उन्होंने कुल कितना पैसा उधार लिया और कब तक वे ये पैसा पूरा वापस करेंगे। जिन लोगों को पैसों की अत्याधिक आवश्यकता होती थी वे मजबूरीवश अनुबन्ध पत्र में हस्ताक्षर करते थे। इसके बाद वे सूदखोरी की कोई रिपोर्ट नहीं कर सकते थे और न ही वे कचहरी में उनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही ही कर सकते थे। ऐसी स्थिति में प्रबंधक को पूरी छूट मिल जाती थी और बहुत से प्रबंधक अधिक सूद लेकर स्वामी को जानकारी दिये बगैर चोरी छुपे इन अतिरिक्त पैसों का दुरूपयोग करने लगते थे।
प्रबन्धकों के विश्वासघात का अंदेशा होने पर स्वामी को उससे लेखा लेने का पूरा अधिकार था एवं ऐसा पाये जाने पर वह उसे कभी भी किसी भी समय अपदस्थ कर सकता था। एक बार अपदस्थ किये जाने के बाद ऐेसे प्रबंधकों को कहीं भी पुनः प्रबंधक के पद पर नहीं लगाता था। इनकी कठोरता से लोग भी पहले ही इतने त्रस्त हो चुकते थे कि कोई भी इन पर दया नहीं करता था।
इस पृष्ठभूमि को समझने के बाद और अन्त में प्रभु यीशु मसीह के प्रमुख उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही इस दृष्टांत की समीक्षा की गई है।
विषय वस्तु :- किसी धनवान मनुष्य का एक प्रबंधक था। उसके संबंध में स्वामी को यह सूचित किया गया कि वह उसकी सारी संपत्ति उड़ा रहा है। स्वामी ने प्रबंधक को बुलाकर उससे अपनी संपत्ति का लेखा मांगा और उसे आगाह किया कि अब वह प्रबंधक नहीं रह सकेगा क्योंकि उसने विश्वासघात कर अपना भण्डारीपन खो दिया है। प्रबंधक ने सोचा कि शारीरिक श्रम तो मुझसे होगा नहीं। भीख मांगना भी मेरे लिए बड़ी शर्मनाक बात होगी। तुरन्त उसे एक उपाय सूझा और उसके अनुसार उसने प्रत्येक कर्जदारों को अलग-अलग बुलाया। नये अनुबंध पत्र तैयार किये। कर्जदारों से ही हस्ताक्षर करवाये। दो उदाहरणों के रूप में 100 मन तेल के बदले उसने उनसे 50 मन तेल, 100 मन गेहूं के बदले 80 मन गेहूं लिखवाया। इस प्रकार से जो अतिरिक्त सूद उसने स्वयं के लाभ के लिए उनसे लिखवाया था वह उसने तुरन्त उनसे कम-कम करवा लिया, जिससे कर्जदार अपने अतिरिक्त सूद के बोझ से मुक्त होकर प्रबंधक की शिकायत के बजाय उसकी सराहना कर सकें, उसके खिलाफ स्वामी के पास कोई लिखित प्रमाण न बचे और उसके विश्वासघात की सभी शिकायतें झूठी साबित हो सकें।
उसके इस कार्य से कर्जदार भी खुश हुए होंगे और सम्पूर्ण समस्या का संमाधान उसने जिस चतुराई से किया, उसके कारण स्वामी को भी उसकी सराहना करनी पड़ी क्योंकि दूसरे लोगों में स्वामी की प्रशंसा हुई होगी कि उसकी अज्ञानता में ही प्रबंधक लोगों से कठोकतापूर्वक व्यवहार कर कहा था। मालूम पड़ने पर उसने तुरन्त आवश्यक सुधार किये। इस इस घटना से स्वामी को, स्वयं को सूदखोरी के खिलाफ दिखा कर अपनी धार्मिकता एवं उदारता प्रगट करने का भी मौका मिला था।
व्याख्या :- इस दृष्टांत में किसी धनवान स्वामी ने एक प्रबंधक नियुक्त किया और अपनी सम्पूर्ण संपत्ति का भण्डारीपन उसे सौंपा। जब लोगों ने उसके सामने ही प्रबंधक पर विश्वासघात का आरोप लगाया तब स्वामी ने प्रबंधक से भण्डारीपन का लेखा मांगा। वह दोषी होने के कारण निरूउत्तर रहा परन्तु भविष्य की सुरक्षा का उपाय कर उसने तुरन्त उस पर अमल किया, जिसकी स्वामी ने सराहना की।
परमेश्वर धन आशीष स्वरूप देता है। (नीतिवचन 10ः22 के अनुसार) परमेश्वर अपेक्षा करता है कि हम इस धन का विश्वासयोग्य भण्डारी के रूप में इस्तेमाल करें। इसका दुरूपयोग खराब आदतों एवं गलत संगति में न करें। एक दिन हमें भी अपने भण्डारीपन का लेखा परमेश्वर को देना है। बहुत बार हमारे जीवन में ऐसे अवसर आते हैं जिनके द्वारा परमेश्वर हमको आगाह करता है कि हम धन का सर्तकतापूर्वक उचित कार्यों के लिए ही करें। किन्तु, यदि अपना दोष कबूलने के बाद भी हम स्वयं को न सुधारें, गलत रास्ते पर बढ़ना बंद कर सही रास्ते पर अपने कदम न बढ़ाएं; तो यह हमारे लिए त्रासदीपूर्ण होगा।
‘‘जो जैसा बोता है, वैसा ही काटेगा।’’ (2 कुरि. 9ः6 के अनुसार) इस प्रबंधक ने न केवल कठोरतापूर्वक लोगों की मजबूरी का फायदा उठाना प्रारंभ कर दिया था किन्तु चोरी छिपे वह स्वामी की संपत्ति भी बेईमानी से मनमानी पूर्वक अनुचित रीति से खर्च कर कहा था। झूठ, चोरी, धोखेबाजी आदि एक न एक दिन पकड़ ही जाते है; उसी प्रकार एक दिन यह प्रबंधक भी विश्वासघात के आरोप में स्वामी के सामने सब लोगों के द्वारा जलील किया गया। प्रबंधक ने आने वाले कल के त्रासदीपूर्ण परिणाम की कल्पना की, उससे बचने की योजना बनायी और तुरन्त उस पर अमल किया।
प्रबंधक को अपनी नौकरी एवं लोगों के तिरस्कार का भय था, उससे बचने के लिए उसने पराए धन का मोह त्यागा। पराया धन इसलिए कि न ही वह उसके स्वामी का था न ही उस पर उनका कोई हक बनता था। वह तो नाजायज तरीके से यह अतिरिक्त धन लोगों से एकत्रित कर रहा था। उसने तुरन्त अपनी उदारता एवं ईमानदारी के प्रमाण पत्र एकत्रित किये एवं बेईमानी के पुराने प्रमाण-पत्र अलग कर दिये।
मसीहियों को बेईमानी से धन एकत्रित करने की अंधी होड़ में शामिल होने के बदले परिश्रम एवं ईमानदारी से धन एकत्रित करना है और उदारतापूर्वक उसका उपयोग करना है, क्योंकि इस धन को कीड़ा और काई बिगाड़ते और चोर सेंध लगाते और चुराते हैं। (मत्ती 6ः19 के अनुसार) मृत्यु के उपरान्त हम अपने साथ नहीं ले जा सकते हैं। इस धन का उपयोग परमेश्वर के राज्य की बढ़ती एवं लोगों की भलाई करने के लिए करना है। सांसारिक धन का सदुपयोग करने के द्वारा हमें स्वर्ग में धन एकत्रित करना है। (मत्ती 6ः20 के अनुसार)
जिस प्रकार यह अधर्मी प्रबंधक अपनी चतुराई के द्वारा प्रशंसा का पात्र बना, उसी प्रकार हम जो ज्योति की सन्तान हैं। जिनके लिए जीवन के सभी पहलुओं के लिए बाइबिल में स्पष्ट निर्देश हैं तथा उनसे संबंधित परिणाम भी स्पष्ट रूप से बताये गये हैं, उन्हें भी चतुराई से अपने धन का उपयोग करना है।
जो थोड़े में सच्चा है, और विश्वासयोग्य है, वह अधिक में भी विश्वासयोग्य रहेगा किन्तु यदि जो थोड़े में ही बेईमानी शुरू कर दे वह अधिक में भी बड़ी हेरा-फेरी करेगा। (लूका 16ः10 के अनुसार) ऐसे लोगों में सच्चाई, ईमानदारी एवं समर्पण का पूर्ण अभाव होता है।
अधर्म के धन एवं पराए धन का यहां सीधा अर्थ रूपये-पैसे एवं सांसारिक धन संपत्ति से है। इनसे मित्र बनाने का अर्थ है, आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति। यदि कोई प्यासे को एक कटोरा ठण्डा पानी पिलाए तो वह भी अपना प्रतिफल नहीं खोएगा। (मत्ती 10ः42 के अनुसार) जो भलाई करना जानता है और नही करता वह उसके लिए पाप गिना जाता है। (याकूब 4ः17 के अनुसार) जब हम आपस में भलाई करेंगे तो निश्चित रूप से लोगों से मित्रता बढ़ेगी। दान देनेवाला उदारता से दे, जो अगुवाई करे, वह उत्साह से करे, जो दया करे वह हर्ष से करे। (रोमियों 12ः8) हमको सब कुछ परमेश्वर से मिलता है। (1 इतिहास 29ः14 के अनुसार) जिस प्रकार कोई दास दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता उसी प्रकार धन को प्राथमिकता देकर परमेश्वर को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। शास्त्रियों एवं फरीसियों के समान धन को आत्मिकता की ऊंचाई नापने का बैरामीटर मानकर तथा धार्मिकता की मुहर समझकर सिर्फ धन पर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर परमेश्वर को खुश करना असंभव है। क्योंकि गलत तरीके से धन की प्राप्ति करते समय या उसका दुरूपयोग करते समय धन को प्रमुखता देकर मनुष्य परमेश्वर को एवं उसकी आज्ञाओं को तुच्छ जानतें हैं। धन एक अच्छा सेवक है, विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम है किन्तु, इसका गुलाम बन जाना तथा इसे अपने जीवन का स्वामी बना लेना हानिकारक होता है। यह मूर्ति पूजा के समान ही पाप है। (कुलुस्सियों 3ः5 के अनुसार) धन का तथा रूपये का, ‘लोभ’ सब प्रकार की बुराइयों की जड़ है। (1 तीमु. 6ः10 के अनुसार)
व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :-
1. धन का विश्वासयोग्य भण्डारी के रूप में उपयोग करना है।
2. धन स्वयं में बुरा नहीं किन्तु इसके लालच में पड़ना और केवल इसे ही सब कुछ मानना सब प्रकार की बुराईयों की जड़ है। इसके लोभ से हमें बचना है। इब्राहीम, दाऊद, सुलेमान राजा आदि बहुतों को परमेश्वर ने बहुतायत से धन दिया परन्तु उन्होंने कभी भी धन को परमेश्वर से अधिक महत्व नहीं दिया।
3. धन का केवल अपने ही स्वर्थों की पुर्ति हेतु उपयोग कर किसी दूसरे जरूरतमंद की अपेक्षा करना पाप है। (यह तथ्य धनवान और लाजर के दृष्टान्त में स्पष्ट है।)
4. सांसारिक धन का उपयोग हमें केवल स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही नहीं किन्तु परमेश्वर के राज्य की बढ़ती एवं लोगों की भलाई के लिए भी करना है।
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