पाप का इनकार

 पाप का इनकार 

यद्यपि अनेक धर्मग्रन्थों में पाप की उपस्थिति की बुलाहट स्वीकार की गई है, तथपि यह अचम्भे की बात है कि हिन्दु तथा ख्रीष्ट दोनों सम्प्रदायों में कुछ ऐसे व्यक्ति भी उपस्थित है, जो पाप की वास्तविकता को गले नहीं उतारते। 

पश्चिमी देशो में कतिपय ऐसे प्राध्यापक है जो ख्रीष्ट कलीसियाओं से वेतन एंव जीविका पाते हुए भी यह पढ़ाते है कि दुराचारिता या पाप - स्वभाव का सर्वव्यापी अस्तित्व है ही नहीं। पाप उनके विचार में मात्र घटनात्मक या परिस्थितिजन्य परिणाम है। हिन्दुमत में भी एक ऐसा बुद्धिवादी दल है जो छोटा लेकिन प्रभावशाली है और वह बहुत दृढ़ता से मनुष्य स्वभाव में विद्यमान पापों के इदुष्टाचरण की वास्तविकता को इनकार करता है तथा उसे कई शोभाजनक सम्बोधन देकर, जैसेः असत्, अविद्या, माया अथवा मिथ्या आदि नामों से पुकारता है। 

इस प्रकार के आधुनिक धर्मशास्त्री एंव तत्वज्ञाता चाहे कितनी ही सहजता से पाप शब्द को अपनी स्मृति में से भुलाने का यत्न करें लेकिन पाप की वास्तविकता को हटाया नहीं जा सकता। चाहे इसका नाम न लिया जाए फिर भी यह वर्तमान जगत एक गुलाम व्याधि से ग्रस्त रहेगा। यदि कोई आग को नहीं कहे तो इससे आग का स्वाभाव नहीं बदल सकता, वह उंगली को जलाएगी ही। एक बार विद्वान दार्शनिक डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, ‘‘हमारे इतिहास के आदिकाल से पाप हमारे साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन युग की मान्यता है कि, ‘‘हमारे इतिहास के आदिकाल से पाप हमारे साथ जुड़ा हुआ है लेकिन अब हमने इसको पूजना आरभं कर दिया है। (दॅ हिन्दू व्यू आफ लाइफ, पृष्ठ 63) कार्ल युग की मान्यता है कि, ‘‘जगत की प्रारम्भिक अवस्था में उत्पन्न सारे पाप मरेे नहीं है लेकिन हमारे आधुनिकतावादी मनों के अंधियारे कोनो में रेंग रहे हैं... वहाॅ सजीव हैं और आज भी उतने ही भयंकर हैं जितने पहिले कभी थे। ‘‘इन्हें चाहे हम भूल अथवा गलती सम्बोधन करें, लेकिन परमेश्वर इन्हें पाप कहता है। हमारी दृष्टि में यह निर्बलता कहलाए परन्तु परमेश्वर के आगे यह लिप्सा हैं। हम सोचे कि यह परिस्थितजन्य है लेकिन परमेश्वर तो जानता है कि यह हमारा मन पसंद है। 

‘‘पेड़ अपने फल ही से पहचाना जाता है, ‘‘मत्ती 12ः23 में प्रभु यीशु ने इसे कितनी स्पष्टता से कमझा दिया। जब प्रतिदिन हम अपरे समाचार पत्रों पर नजर डालते है जिनसे चोरी, डकैती, कालाबाजारी, तस्करी, हत्या, व्याभिचार की विश्वव्यापी घटनांए हमें यह सजगता से स्वीकार करने को मजबूर कर देती है कि इन सब के पीछे मनुष्य जाति का पाप स्वभाव ही सक्रिय है। हितोपदेश नाम रीति निदेशक पुस्तक ने कितना ठीक कहा हैः 

रोग शोक परिताप बंधन व्यसनानि च।

आत्मापराध वृक्षाणां फलानि एतानि देहिनाम्।।

रोग, शोक, संताप, बंधन तथा क्लेश - ये सब मनुष्य के पाप रूपी वृक्ष के फल हैं। 

पाप की दशा पर शोकित, सिक्खमत के आदि ग्रन्थ साहिब में लिखा हैः 

हूॅ पापी पतितु परम पाखंडी, 

तू निर्मल निरंकारी। (पन्ना 596, सोरठा मोहला1)

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