बुद्धिमान और मूर्ख मनुष्य का दृष्टान्त

बुद्धिमान और मूर्ख मनुष्य का दृष्टान्त


सन्दर्भ: मत्ती 7ः24-27 ‘‘इसलिए जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है वह उस बुद्धिमान मनुष्य की नाई ठहरेगा जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया। और मेंह बरसा और बाढ़े आई, और आन्धियां चलीं, और उस पर टक्करे लगीं, परन्तु वह नहीं गिरा, क्योंकि उसकी नेव चट्टान पर डाली गई थी। परन्तु जो कोई मेरी ये बातें सुनता है और उन पर नहीं चलता वह उस निर्बुद्धि मनुष्य की नाई ठहरेगा जिस ने अपना घर बालू पर बनाया। और मेंह बरसा, और बाढ़े आई, और आन्धियां चलीं, और उस पर टक्करें लगीं और वह गिरकर सत्यानाश हो गया।’’

लूका 6ः47-49 ‘‘जो कोई मेरे पास आता है, और मेरी बातें सुनकर उन्हें मानता है, मैं तुम्हें बताता हूं कि वह किस के समान है? वह उस मनुष्य के समान है, जिस ने घर बनाते समय भूमि गहरी खोदकर चट्टान पर नेव डाली, और जब बाढ़ आई तो धारा उस घर पर लगी, परन्तु उसे हिला न सकीः क्योंकि वह पक्का बना था। परन्तु जो सुनकर नहीं मानता, वह उस मनुष्य के समान है, जिस ने मिट्टी पर बिना नेव का घर बनाया। जब उस पर धारा लगी, तो वह तुरन्त गिर पड़ा, और वह गिरकर सत्यानाश हो गया।’’ 

पृष्ठभूमि एवं प्रस्तावना: पर्वतीय उपदेश देते समय प्रभु यीशु मसीह के चारों ओर बड़ी भीड़ एकत्रित थी। लोग उसके वचन से प्रभावित थे। प्रभु यीशु मसीह ने इस दृष्टान्त को बताने के ठीक पहले भी लोगों से कहा था कि, ‘‘प्रत्येक जो मुझसे हे प्रभु - हे प्रभु कहता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है, वही प्रवेश करेगा। यह कहने के बाद उसने बुद्धिमान और मूर्ख मनुष्य का दृष्टान्त बताया। इस दृष्टान्त से वह लोगों को बताना चाहता था कि वचन सुन लेना मात्र पर्याप्त नहीं। सतही धार्मिकता से कोई भी लाभ नहीं। केवल होठों से स्तुति परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं। परमेश्वर हम से आज्ञाकारिता की अपेक्षा करता है। वो चाहता है कि हम उसे अपने हृदय में स्थान दें और उसके वचन के अनुसार जीवन पांए। 

विषय वस्तु एंव सारांश: प्रभु यीशु मसीह ने अपने वचन के सुनने वालों से कहा कि जो कोई मेरे वचन को सुनकर उन पर चलता है वह उस बुद्धिमान मनुष्य के समान है जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया और पानी बरसा, बाढ़े आई, आंधियां चलीं, और उस घर से टकराई फिर भी वह नहीं गिरा क्योंकि उसकी नींव चट्टान पर डाली गई थी। परन्तु जो वचन को सुनकर उस पर नहीं चलता वह उस मुर्ख मनुष्य के समान है जिसने अपना घर बालू पर बनाया और जब आंधियां चलीं तब वह घर गिर पड़ा और पूर्ण रूप से नष्ट हो गया। 

व्याख्या: इस दृष्टान्त में - 

घर                             - मनुष्य का जीवन
चट्टान                         - प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास और उसकी शिक्षाएं 
बालू                           - सांसारिक शिक्षांए
बुद्धिमान मनुष्य         - जो प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करते और उसकी शिक्षाओं के अनुसार जीवन जीते है। 
मूर्ख मनुष्य                - जो प्रभु यीशु मसीह की शिक्षाओं को नहीं मानते।

हम सब यह जानते हैं कि घर बनाते समय नींव का मज़बूत होना आवश्यक होता है। साथ ही पथरीली ज़मीन भी घर की मज़बूती के लिए आवश्यक होती है। रेतीली और भसभसी ज़मीन पर बने घर में जल्द ही दरारें पड़ने लगती हैं और ऐसे घर मज़बूत नहीं होते। हमें यह भी मालूम है कि चट्टान को काटने के लिए और उस पर नींव खोदने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ता है परन्तु, बालू पर नींव खोदना बहुत आसान होता है। 

ठीक उसी प्रकार जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, जिनके जीवन का आधार प्रभु यीशु मसीह की शिक्षांए हैं, इन गुणों को आदत बनाना तथा जीवन की शैली बनाना चट्टान को खोदने के समान कितने भी प्रलोभन आएं, शैतान कितनी ही बड़ी परीक्षाएं हमारे सामने उपस्थित करे और चाहे हम विषम परिस्थितियों से होकर गुज़रे तब भी हमारा जीवन चट्टान पर बने हुए घर के समान स्थिर रहेगा, हर बुराइयों से दूर रहेगा और हमारे जीवन में सच्ची खुशी, पूरी सन्तुष्टि और शान्ति बनी रहेगी और हम बुद्धिमान मनुष्य ठहरेंगे। 

यदि हम परमेश्वर की शिक्षाओं की अवहेलना करते हैं तो हमारे जीवनों में ख़राब आदतों का विकास उतनी ही आसानी से होता है जैसे बालू पर घर बनाना आसान होता है। यह घर बाहर से भले ही आकर्षक और खूबसूरत प्रतीत हो किन्तु इसमें कोई मजबूती रहती नहीं। ऐसे जीवनों में जब परीक्षांए आती हैं, प्रलोभन आते हैं तो शैतान के जाल में बहुत ही आसानी से फंस जाते हैं,  ऐसे जीवन ख़राब आदतें और ग़लत संगति से घिरते जाते हैं और अतंतः दुःख तकलीफ, निराशा, ख़लीपन और असंतुष्टि से भर जाते हैं और अपने जीवन को बर्बाद करने वाले ऐसे मनुष्य मूर्ख ठहरते हैं।

व्यवहारिक पक्ष एंव आत्मिक शिक्षा: 
1. हमें अपने जीवन का आधार प्रभु यीशु मसीह एंव उसकी शिक्षाओं को बनाना है।

2. हमें आत्मानुशासित होकर परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करना है। इन्हें अपने जीवन का अंग बनाना है। परमेश्वर ने आज्ञाएं मनुष्य की आत्मिक सुरक्षा और शांति के लिए ही बनायी हैं। इन आज्ञाओं के दायरे में रहने में ही मनुष्य की भलाई है। इनके द्वारा मनुष्य न केवल स्वंय को विभिन्न बुराईयों से बचाकर सच्चे आनन्द और शांति का अनुभव करता है, बल्कि अनन्त जीवन की निच्यता भी प्राप्त करता है। 

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