निर्दयी सेवक का दृष्टान्त

निर्दयी सेवक का दृष्टान्त


सन्दर्भ: मत्ती 18ः21-35 - ‘‘तब पतरस ने पास आकर उस से कहा, हे प्रभु यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा कंरू, क्या सात बार तक? यीशु ने उस से कहा, मैं तुझसे यह नहीं कहता, कि सात बार बरन सात के सत्तर गुने तक"। 

इसलिए स्वर्ग का राज्य उस राजा के समान है, जिस ने अपने दासों से लेखा लेना चाहा। जब वह लेखा लेने लगा, तो एक जन उस के साम्हने लाया गया जो दस हजार तोड़े धरता था। जब कि चुकाने को उसके पास कुछ न था, तो उसके स्वामी ने कहा, कि यह और उसकी पत्नि और लड़के वाले और जो कुछ इसका है सब बेचा जाए, और वह कर्ज़ चुका दिया जाए। इस पर उस दास ने गिर कर उसे प्रणाम किया, और कहा; हे स्वामी, धीरज धर, मैं सब कुछ भर दूंगा। तब उस दास के स्वामी ने तरस खाकर उसे छोड़ दिया, और उसका उधार क्षमा किया। परन्तु जब वह दास बाहर निकला, तो उसके संगी दासों में से एक उस को मिला, जो उसके सौ दीनार उधारी लिया था। 

उस ने उसे पकड़कर उसका गला घोंटा, और कहा; जो कुछ तूने उधार लिया है उसे भर दे। इस पर उसका संगी दास गिर कर, उससे बिनती करने लगा, कि धीरज रख, मैं सब भर दूंगा। उस ने न माना, परन्तु जाकर उसे बन्दीगृह में डाल दिया; कि जब तक कर्ज़ को भर न दे, तब तक वहीं रहे। उसके संगी दास यह जो हुआ था देखकर बहुत उदास हुए, और जाकर अपने स्वामी को पूरा हाल बता दिया। तब उसके स्वामी ने उस को बुलाकर उस सह कहा, हे दुष्ट दास, तू ने जो मुझ से बिनती की तो मैंने तो तोरा वह पूरा कर्ज़ क्षमा किया। सो जैसा मैंने तुझ पर दया की, वैसे ही क्या तुझे भी अपने संगी दास पर दया करना नहीं चाहिए था? और उसके स्वामी ने क्रोध में आकर उसे दण्ड देने वालों के हाथ में सौंप दिया, कि जब तक वह सब कर्ज़ा भर न दे, तब तक उन के हाथ में रहे। इसी प्रकार यदि तुम में से हर एक अपने भाई को मन से क्षमा न करेगा, तो मेरा पिता जो स्वर्ग में है, तुम से भी वैसा ही करेगा।’’ 

प्रस्तावना एंव पृष्ठभूमि: 
यहूदी व्यवस्था के अनुसार ‘‘रब्बी’’ यह शिक्षा देते थे कि यदि कोई अपराध करे तो उसे तीन बार क्षमा करो। प्रभु यीशु मसीह का यह मत था कि क्षमा की कोई सीमा नहीं, कोई मापदण्ड नहीं, हर बार क्षमा करना है।

प्रभु यीशु मसीह ने क्षमा पर न सिर्फ़ उदेश दिये अपितु उसने बहुतेरों को क्षमा प्रदान की। पत्थरवाह करने के लिए लाई गई पापिनी स्त्री को प्रभु यीशु मसीह ने क्षमा किया। उसने उस स्त्री को उसके बतुतेरे पापों की जानकारी देकर निन्दित नहीं किया किन्तु उसने कहा तेरे पाप क्षमा हुए, अब पाप नही करना। पतरस जिसने प्रभु यीशु मसीह के कठिनतम क्षणों में उसका साथ छोड़ दिया, उसे जनने से भी इन्कार कर दिया। उसे भी प्रभु यीशु समीह न उस क्षण की याद दिलाकर लज्जित किये बग़ैर पूर्ण रूप से क्षमा प्रदान की। उसने क्रूस पर लटके डाकू को क्षमा प्रदान की। इस प्रकार के तिरस्कार, धोखे, छल, कपट, अपमान आदि को सहकर भी उसने मश्चातापी मनुष्य को हमेशा क्षमा प्रदान की। 

अब बहुतेरे अपराधों को एक बार क्षमा कर देने की बात एक है और यदि कोई बार-बार निरन्तर अपराध करे और क्षमा की अपेक्षा करे तो यह बात दूसरी है। यह बात ध्यान में रखकर रब्बियों द्वारा तीन बार क्षमा करने की बात जानते हुए पतरस ने प्रभु यीशु मसीह से प्रश्न किया कि यदि मेरा भाई मेरे विरूद्ध अपराध करे तो मैं उसे कितनी बार क्षमा करूं? क्या सात बार?

पतरस ने क्षमा की बात रब्बियों से बढ़कर की। वैसे भी सात अंक पूर्णता का अंक माना जाता था। वह क्षमा करने की सीमा रेखा जानता था। उसे यह तो मालूम था कि आपस में दया और क्षमा अपरिहार्य है किन्तु आख़िर कितनी बार? यह उसे प्रभु समीह से मालूम करना था। पतरस के इस प्रश्न का प्रभु यीशु मसीह ने जो उत्तर दिया वह उसकी कल्पना से परे था। प्रभु यीशु मसीह ने उसे उत्तर दिया कि न सिर्फ़ सात बार ही किन्तु सात के सत्तर गुने तक क्षमा करो अर्थात कोई सीमा नहीं, कोई दायरा नहीं, कोई मापदण्ड नहीं; हमेशा क्षमा करो। 

प्रभु यीशु मसीह ने अपने उत्तर को आगे और स्पष्ट करने के लिए निर्दयी सेवक का दृष्टान्त बताया। 

विषय वस्तु: इस दृष्टान्त को प्रमुख छः दृश्यों में बांटा जा सकता है - 
दृष्टान्त के प्रथम दृश्य में राजा अपने संवकों से लेखा लेता है। उसे पता चलता है कि एक सेवक ने उससे दस हजार तोड़े उधार लिए हैं और अभी उसके पास चुकाने को कुछ भी नहीं। 

दूसरे दृश्य में राजा का न्याय प्रकट किया जाता है। राजा अपने अन्य सेवकों से कहता है कि जाकर इसकी पत्नि, बच्चे और जो कुछ भी इसका है, सब बेच दो और कर्ज़ चुका दो।

तीसरे दृश्य में वर्णन है, सेवक के राजा से तरस और धीरज के लिए गिड़गिड़ाने का और राजा की अवर्णनीय क्षमा का। राजा ने पूरा का पूरा उधार क्षमा कर दिया और सेवक को दण्ड मुक्त भी कर दिया। 

चैथे दृश्य में इस क्षमा पाए हुए सेवक की कठोरता और निर्दयता की विवरण है। जब वह राजा के दरबार से बाहर निकलता है तो उसे अपना एक सहकर्मी सेवक मिलता है जिसने उससे सौ दीनार उधार लिए थे। उसे देखकर यह सेवक उससे निर्दयतापूर्वक व्यवहार करता है और उसके गिड़गिड़ाने पर भी उसे जेल ख़ाने में डाल देता है। 

पांचवे दृश्य में गवाहों का वर्णन है, जिन्होंने पहले सेवक पर राजा की अपार दया देखी थी। जब उन्होंने इसी सेवक की अपने सहकर्मी सेवक के साथ क्रूरता पूर्ण प्रतिक्रिया देखी तो वे उदास हुए और उन्होंने जो कुछ देखा वह सब उसे जाकर राजा को बताया।

छठवें दृश्य में राजा के न्याय और दण्ड का विवरण है, इसमें राजा ने प्रथम सेवक को पुनः बुलाया। उस पर क्रोधित हुआ और कहा, जब मैंने तुझ पर दया की तो तू ने अपने सहकर्मी दास पर क्यों दया नहीं की? तब फिर राज़ा ने इस दास को दण्ड देने वालों के हाथ सौंप दिया।

अन्त में, प्रभु यीशु मसीह ने इस दृष्टान्त का उद्देश्य निष्कर्ष के रूप में प्रगट किया है कि ‘‘तुम में से हर एक अपने भाई को मन से क्षमा न करेगा तो मेरा पिता जो स्वर्ग में है तुम से भी वैसा ही करेगा।’’

व्याख्या: उस समय में एक तोड़े का मूल्य लगभग 30 किलो चांदी के बराबर होता था, जिसका मूल्य आज लगभग 32,0000 लाख रूपयों के बराबर होगा। जिसके अनुसार दस हज़ार तोड़ो का मूल्य क़रीब 32,00000000 रूपये अर्थात आज के रूपयों में क़रीब बत्तीस अरब रूपये अर्थात असीमित राशि। एक दीनार का मूल्य चांदी के एक सिक्के के बराबर या एक दिन की मज़दूरी के बराबर होता था। जो आज के रूपयों में करीब छः सौ चालीस रूपयों के बराबर होगा जिसके अनुसार सौ दिनार अर्थात 64, 000 हज़ार रूपये होंगे। यह जानना आवश्यक है कि कर्ज़ न चुकाने की स्थिति में उस समय में कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। कर्ज़ देने वाले का यह अधिकार होता था कि कर्ज़ लेने वाले व्यक्ति और उसके सम्पूर्ण परिवार से वह श्रम लेकर अपने कर्ज़ का भुगतान करा ले या फिर उसकी चल-अचल सम्पत्ति की नीलामी कर अपना हर्जाना पूरा करे या फिर उसे कै़द में डलवा दे और उसके संबंधियों से ज़मानत लेकर अपने पैसे वसूल ले। 

यह दृष्टान्त परमेश्वर की दया, क्षमा और प्रेम को और मनुष्य के कठोर स्वभाव को प्रगट करता है। परमेश्वर ने हमारे पाप जो बहुतेरे थे उन्हें प्रभु यीशु मसीह में पूर्ण रूप से क्षमा किया। उसने हमारे पापों के अनुसार हमें बदला नहीं दिया। 

पापों का जो दण्ड हमें मिलना था वह प्रभु यीशु मसीह ने स्वंय सहकर हमें दण्ड मुक्त किया। परमेश्वर ने हम पर दया की क्योंकि वह जानता था कि हमारे पापों की क्षमा के लिए अब कोई बलिदान बाकी नहीं रहा, हम पापों की क्षमा अर्जित करने में असमर्थ थे तब परमेश्वर ने स्वंय अपने एकलौते बेटे को हमारे पापों की क्षमा के लिए बलिदान कर दिया। उसने अपनी दया और क्षमा का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। ठीक उसी तरह जिस प्रकार इस दृष्टान्त में प्रथम सेवक ने राजा से अरबों रूपये उधार ले रखे थे। इतने अधिक रूपये जो अनगिनत के बराबर थे आर जब राजा ने इतने रूपये कहां ख़र्च किये का हिसाब मांगा तो उसके क्रोध और दण्ड से बचने के लिए उस सेवक के पास दया की भीख मांगने के अलावा और कोई दूसरा उपाय नहीं था। वह राजा के रूपये वापस करने में पूर्ण रूप से असमर्थ था। वह अपनी प्रिय पत्नी और प्यारे बच्चों को खोना नही चाहता था। वह राजा के पैरों पर गिर जाता है। राजा उसकी असमर्थता को समझता है। उस पर तरस खाता है और उसे दण्डित किये बगै़र पूर्ण रूप से उसका कर्ग़ क्षमा करता है। 

कल्पना किजिए उस क्षमा प्राप्त किए हुए दास की खुशी का, अब तब वह इतने लम्बे-चैड़े कर्ज़ का कितना भारी बोझ लेकर जी रहा होगा। उसे इस बात का अहसास हर समय रहता होगा कि यदि राजा ने उससे लेखा लिया तो उसकी जान भी जा सकती है। वह एक उलझन में जीता होगा कि राजा कर्ज़ चुकाए तो कैसे? पैसे तो वह सब ख़र्च कर चुका था। उसने पैसे कहां ख़र्च किये इसका इस दृष्टान्त में कोई उल्लेख नहीं। शायद उस बात की उतनी प्रमुखता नहीं। प्रमुखता बात यह थी कि चुकाने को उसके पास कुछ भी बचा नहीं था। राजा का सामना वह कैसे करेगा? राजा कर्ज़  वह कैसे चुकाएगा? उसे अपनी सामर्थता का पूरा-पूरा अहसास था किन्तु राजा की क्षमा से उसकी ये सभी चिन्ताएं दूर हो गई। उसे कर्ज़ के बोझ से मुक्ति के आनन्द में ओतप्रोत यह सेवक राजा के दरबार से निकलता है। बाहर उसे उसका एक सहयोगी दास दिखता है। उसे स्मरण आता है कि इस दास ने उसके सौ दीनार उधार लेकर अब तक वापस नहीं लौटाये हैं। 

वह राजा की असीमित दया को तथा अनगिनत रूपयों की क्षमा को तुरन्त भूल जाता है और उन रूपयों की तुलना में नगण्य रूपयों की क्षमा को तुरन्त भूल जाता है और उन रूपयों की तुलना में नगण्य इस चन्द दीनारों के पीछे जो मात्र सौ दिन की मज़दूरी करके भी दूसरा सेवक उसे भूगतान कर देता। वह अपने सहयोगी दास को क्रूरता पूर्वक जेल खाने में बंद कर देता है। शायद इस सोच में कि उसका कोई हितैषी जमानत देकर उसे छुड़ाने आएगा और उसे कर्ज़ के पैसे वापस मिल जाएंगे। उसके उस क्रूर व्यवहार से अन्य सहयोगी दास अत्यन्त दुःखी होते हैं क्योंकि उन्होंने देखा था कि राजा ने इसी सेवक पर कैसी बड़ी दया की और उसके अरबों रूपयों का कर्ज़ माफ कर दिया। इन दासों ने राजा के सामने जाकर इस निर्दयी दास के विरूद्ध गवाही दी। उनकी गवाही सुनकर राजा अत्यन्त क्रोधित हुआ और उस निर्दयी सेवक को बुलाकर उसे दण्ड देने वालो के हाथ सौंप दिया। 

व्यवहारिक पक्ष एंव आत्मिक शिक्षा: हम भी अगर पश्चातापी हृदय लेकर प्रभु यीशु मसीह के पास आते है और यह स्वीकार करते हैं कि पापों की क्षमा ‘‘अर्जित’’ करने में हम पूर्ण रूप से असमर्थ हैं। हमें उद्धार केवल प्रभु यीशु मसीह से मिल सकता है। तब वह हमें पापों के बोझ के पूर्ण रूप से मुक्त करता है। वह इस क्षमा के बदले में धन, दौलत अथवा अन्य कोई भी प्रिय वस्तु हमसे नहीं लेता। पापों के दण्ड से भी हमें मुक्त कर देता है। बदले में वह हमसे मात्र यह अपेक्षा करता है कि जिस प्रकार उसने प्रभु यीशु में हमारे अपराध क्षमा किए हम भी आपस में एक दूसरे के अपराध क्षमा करें। हम भी परमेश्वर पिता की दया और क्षमा के योग्य नहीं थे फिर भी उसने हम पर दिया की। यदि हम यह सोचकर आपस में एक दूसरे को क्षमा करने से मुकरने लगें कि अमुक मनुष्य क्षमा के योग्य ही नहीं तो हमेशा यह प्रश्न करें कि क्या हम उस परमेश्वर की क्षमा के योग्य थे?

प्रभु की प्रार्थना में प्रभु यीशु मसीह ने हमें सिखाया है कि ‘‘जिस प्रकार हमने अपने अपराधियों को क्षमा किया है वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर।’’ पहले हमें आपस में एक-दूसरे को क्षमा करना है तब परमेश्वर से क्षमा की अपेक्षा करना है। मत्ती 6ः14-15 में प्रभु यीशु मसीह का वचन बहुुत स्पष्ट है कि, ‘‘क्योंकि यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करो, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा।

यदि हम परमेश्वर से दया और क्षमा की अपेक्षा करते हैं और आपस में एक-दूसरे से कठोरता पूर्वक व्यवहार करते हैं और अपने जीवन में दया और क्षमा को स्थान नहीं देते तो न्याय के दिन परमेश्वर भी हमारा दया के साथ नहीं किन्तु कठोरता पूर्वक न्याय करेगा और निश्चित रूप से हम उसके क्रोध और दण्ड के योग्य ठहरेंगे। याकूब 2ः13 में लिखा है। 

क्योंकि जिसने दया नहीं की, उसका न्याय बिना दया के होगा, दया न्याय पर जयवंत होती है। जैसा व्यवहार हम इस संसार में अन्य मनुष्यों के साथ करते हैं उसका भी लेखा एक दिन हमें परमेश्वर के न्याय आसन के सामने कौन खड़ा रह सकेगा?’’ (भजन संहिता 130ः3 के अनुसार) परमेश्वर के सामने हमारे पाप पूरी तरह से उजागर हैं। उसकी दया के पात्र हम तभी बनते हैं जब हम आपस में एक-दूसरे से दया का बर्ताव करें। यदि दया और क्षमा को अलग करके हम अपने अपराधियों का न्यायः कानून और दण्ड संहिता के अनुसार कर उनसे बदला लेते हैं तो हम भी परमेश्वर की दया और क्षमा के योग्य नहीं रह जाते। 

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