दाख की बारी के मज़दूरों का दृष्टान्त

दाख की बारी के मज़दूरों का दृष्टान्त


सन्दर्भ: मत्ती 20ः1-6 - ‘‘स्वर्ग का राज्य किसी गुहस्थ के समान है, जो सवेरे निकला कि अपने दाख की बारी में मज़दूरों को लगाए। और उसने मज़दूरों से एक दीनार रोज़ पर ठहराकर, उन्हें अपने दाख की बारी में भेजा। फिर पहर एक दिन चढ़े, निकलकर और औरों को बाज़ार में बेकार खड़े देखकर, उन से कहा, तुम भी दाख की बारी में जाओ, और जो कुछ ठीक है, तुम्हें दूंगा, सो वे भी गए। फिर उस ने दूसरे और तीसरे पहर के निकट निकलकर वैसा ही पाया, और उन से कहा; तुम क्यों यहां दिर भर बेकार खड़े़ रहे? उन्होंने उस से कहा, इसलिये कि किसी ने हमें मज़दूरी पर नहीं लगाया। उस ने उन से कहा, तुम भी दाख की बारी में जाओ। सांझ को दाख की बारी के स्वामी ने अपनी भण्डारी से कहा, मज़दूरों को बुलाकर पिछलें से लेकर पहिलों तक उन्हें मज़दूरी दे दे। सो जब वे आए, जो घंटा भर दिन रहे लगाए गए थे, तो उन्हें एक एक दीनार मिला। जो पहिले आए, उन्होंने यह समझा कि हमें अधिक मिलेगा; परन्तु उन्हें भी एक ही एक दीनार मिला। जब मिला, तो वे गृहस्थ पर कुड़कुड़ा के कहले लगे। कि इन पिछलों ने एक ही घंटा काम किया, और तू ने उन्हें हमारे बराबर कर दिया, जिन्होंने दिन भर का भार उठाया और घाम सहा? 

उसने उन में से एक को उत्तर दिया, कि हे मित्र, मैं तुझसे कुछ अन्याय नहीं करता; क्या तू ने मुझ से एक दीनार न ठहराया? जो तेरा है, उठा ले, और चला जा; मेरी इच्छा यह है , कि जितना तुझे, उतना ही इस पिछले को भी दंूगा। क्या उचित नहीं कि मैं अपने माल से जो चाहूँ सो करूं? क्या तू मेरे भले होने के कारण बुरी दृष्टि से देखता है? इसी रीति से जो पिछले हैं, वे पहिले होंगे, और जो पहिले हैं, वे पिछले होंगे।’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि: प्रभु यीशु मसीह के समय में मूसा के समय से चली आ रही मान्यताओं, रीतियों एंव धार्मिक परम्पराओं का इतनी कठोरता से पालन किया जाता था कि बहुतेरे इस विश्वास के भ्रम में रहने लगे थे कि वे अपनी इसी धार्मिक कट्टरता के कारण स्वर्ग के भागीदार होंगे। वे परमेश्वर की दया, प्रेम और क्षमा को भुला बैठे थे। वे उसके अनुग्रह को अपनी दिखावटी धार्मिकता के कारण तुच्छ समझने लगे थे। यहूदी लोग सोचते थे कि वे ग़ैर यहूदी लोगों से श्रेष्ठ हैं और स्वर्ग में प्रवेश करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। 

इसी भ्रांति के कारण वे परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह से बहुत से लोगों को उसके समीप लाने के बजाय उससे और दूर कर देते थे। वे ग़ैर यहूदी लोगों, को पतित जानकर उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे। वे उनको आशाहीन समझते थे। इस दृष्टान्त के पूर्व ही मत्ती ने एक धनी युवक की घटना का ज़िक्र किया है जो प्रभु यीशु मसीह के पास आया, जिसने उससे सर्वथा उचित प्रश्न किया किन्तु उसने प्रभु यीशु के आव्हान को ठुकरा दिया। बचपन से उसने परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन किया था। परन्तु परमेश्वर को अपने हृदय में उसने स्थान नहीं दिया था। धन उसके लिए सर्व प्रमुख था, अतः वह अपनी स्वंय की धार्मिकता के कारण अनन्त जीवन का अधिकारी नहीं बन पाया। इस घटनाक्रम में पतरस ने प्रभु यीशु मसीह से प्रशन किया कि ‘‘हम तो सब कुछ छोड़ के तेरे पीछे हो लिये है हमें क्या मिलेगा?’’ (मत्ती 19ः27)

इस प्रश्न में पतरस ने यह प्रकट किया कि हम उस धनी युवक से श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वह तो तेरे लिए अपना धन नहीं छोड़ना चाहता किन्तु हमने तो अपना सब कुछ तेरे लिए छोड़ दिया, इससे हमको क्या लाभ मिलेगा? 

अपनी इस बात पुष्टि करने के लिए और पमरेश्वर के अनुग्रह को प्रगट करने के लिए प्रभु ने दाख की बारी के मज़दूरों का दृष्टान्त बताया। वह यह बात स्पष्ट करना चाहता था कि परमेश्वर का अनुग्रह सबके लिए है। उसका यह अनुग्रह जाति, वर्ग, पद, कर्म, धर्म, शिक्षा, धार्मिक, अनुष्ठान आदि से ऊपर है। इन सबसे परमेश्वर के अनुग्रह को नापा और तौला नहीं जा सकता, और न ही इसे मनुष्यों द्वारा बनाई सीमाओं में बांधा जा सकता है। 

विषय वस्तु एंव सारांश: दाख की बारी के स्वामी ने सुबह से कुछ मज़दूरों को एक दीनार की मज़दूरी ठहराकर बारी में भेजा। फिर करीब 9 बजे, 12 बजे, 3 बजे इन अलग-अलग समयों में कुछ और मज़दूर दाख की बारी में भेजे और उनसे कहा ‘‘जो कुछ ठीक है वही मैं तुम्हें दूंगा।’’ मज़दूरी का कार्यकाल समाप्त होने पर उसने सभी मज़दूरों को एक-एक दीनार की मज़दूरी दी। इस पर सुबह वाले मज़दूर स्वामी से शिकायत करने लगे कि उन्हें और अधिक मज़दूरी दी जानी चाहिए। तब स्वामी ने उन्हें उत्तर दिया कि मज़दूरों को मैं अपनी मर्ज़ी से यदि तुम्हारे बराबर मज़दूरी दे रहा हूं, तो इसमें तुम्हें आपत्ति करने की कोई बात नहीं। 

फिर अन्त में प्रभु यीशु मसीह पुनः अपने पूर्व कथन की पुनरावृत्ति करते है कि ‘‘अनेक जो प्रथम हैं अन्तिम होंगे और जो अन्तिम हैं, वे प्रथम होंगे।’’

व्याख्या: एक दीनार का मूल्य उस समय में चांदी के सिक्के के बराबर होता था, यह एक दिन की सौसत मज़दूरी होती थी। क़रीब आठ आने के बराबर (पवित्र  बाइबल के अनुसार) यह मज़दूरी परिवार की मात्र एक दिन के साधारण भोजन व्यवस्था के लिए पर्याप्त थी। इससे हम में परिवार का गुज़ारा करना कठिन रहता था। 

बहुत से मज़दूर हर दिन की मज़दूरी पर ही निर्भर रहते थे। जैसी स्थिति आज भी बहुतेरे मज़दूरों की हमारे देश में रहती है। वे यहां के समान ही बाज़ार में झुण्ड के झुण्ड इस आशा में खड़े रहते थे कि कोई उन्हें मज़दूरी पर लगा लेगा। 

यह दृष्टान्त दाख की बारी के स्वामी पर केन्द्रित है। जिसने एक दिन निश्चित किया कि आज ही दाख की बारी का काम पूरा करवाना है। उसने लगभग हर तीन घण्टों के अन्तराल में मज़दूरों की संख्या बढ़ायी कि काम उसी दिन पूरा हो सके।

यहां लगभग दिन समाप्ति के समय 5 बजे तक भी कुछ मज़दूर बाज़ार में आस लगाए खड़े हुए थे कि शायद उन्हें मज़दूरी मिल जाए और परिवार के लिए वे कुछ न कुछ भोजन वस्तु उपलब्ध करा सकें। से निराश होकर बिना कुछ कमाए ख़ली हाथ घर नहीं लौटे और अन्त में उन्हें इस धीरज का आशा से कहीं अधिक बढ़कर फल मिला। 

मूसा की व्यवस्था के अनुसार दिन समाप्ति पर मज़दूरी देने का नियम था। लैव्यव्यवस्था 19ः13 के अनुसार ‘‘मज़दूर की मज़दूरी तेरे पास सारी रात बिहान तक न रहने पाए।’’ व्यवस्था विवरण 24ः15 के अनुसार ‘‘मज़दूरी करने ही के दिन सूर्यास्त से पहिले तू उसकी मज़दूरी देना; न हो कि वह तेरे कारण दोहाई दे, और तू पापी ठहरे। 

दाख की बारी के स्वामी ने सूर्यास्त होने पर अपने भण्डारी को निर्देश लिए कि वह सभी मज़दूरों को एक-एक दीनार मज़दूरी दे किन्तु जो सबसे अन्त में आए, उनसे मज़दूरी देना प्रारंभ करे। जब भंण्डारी ने अन्त में आए मज़दूरों को मज़दूरी देना प्रारंभ किया तो पहले मज़दूरों ने यह समझा कि उन्हंे अधिक मज़दूरी मिलेगी किन्तु जब उन्हें भी एक दीनार मिला तो वे स्वामी पर क्रोधित होने लगे और न्याय की दलील देने लगे, कि हमने धूप और तपन सहकर दिन भर काम किया और बाकी मज़दूरों ने एक-दो घंटे ही काम किया फिर उन्हें हमारे बराबर मज़दूरी क्यों दी? हमें उनसे अधिक मज़दूरी क्यों नहीं दी?

उनकी इस शिकायत पर स्वामी ने बड़ी सहजता से उन्हें मित्र कहकर सम्बोधित करते हुए उत्तर दिया कि जो मज़दूरी मैंने तुम्हारे साथ ठहरायी थी, वह तुम्हें दी। इसमें तुम्हें दी। इसमें तुम सन्तुष्ट रहो। ये मेरी दया है और मेरी इच्छा है कि बाद के मज़दूरों को भी मैं एक दीनार ही दूं। इस मज़दूरी के वे वास्तव में अधिकारी तो नहीं परन्तु मुझे यही उचित लगा; यह मेरा अनुग्रह है। मैंने तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं किया। ईष्यां, जलन और लालच को त्यागो और मेरी दया और भलाई समझो। क्या यह उचित नहीं कि मैं अपने धन से चाहूं सो करूं, मैंने तुम्हें धोखा नहीं दिया, जो मज़दूरी तय की थी वह तुम्हें दे दी अब तुम्हें किस बात का शिक़वा है?

इस दृष्टान्त से प्रभु यीशु मसीह पतरस और अन्य उपस्थित लोगों को यह बात चाहता था कि परमेश्वर का अनुग्रह सबके लिए बहुतायत से उपलब्ध है। इस पर किसी मनुष्य का किसी विशेष स्थान में जन्म लेेने से या कर्मों से तथा अन्य किसी भी विशेष योग्यता से कोई अधिकार नहीं। यह परमेश्वर का वरदान है। जो कोई उसके आव्हान को स्वीकार करता है और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करता है, उन सब पर परमेश्वर का अनुग्रह समान रूप से होता है। 

ग़ैर यहूदी, डाकू, समाज की नज़रों में गिरे हुए आदि सबके लिए प्रभु यीशु में आशा है। डाकू ने मरते वक्त प्रभु मसीह को स्वीकार किया और उसके अनुग्रह से वह स्वर्ग का भागीदार हुआ। अन्तिम समय तक मनुष्य के लिए आशा है, जैसे इस दृष्टान्त में धीरज से मज़दूरों ने दिन भर स्वामी की प्रतीक्षा की। स्वामी की आज्ञा मानी और उस पर विश्वास किया, अवसर को व्यर्थ नहीं जाने दिया और मन लगाकर स्वामी के कार्य को समाप्त किया। अन्त में उन्हें इसका प्रतिफल मिला। 

‘‘जो प्रथम हैं वे अन्तिम होंगे जो अन्तिम हैं वे प्रथम होंगे ‘‘कथन का यह अर्थ कदापि नहीं कि जो प्रभु यीशु पर जीवन पर्यन्त विश्वास करते हैं उन्हें स्वर्ग के राज्य में अन्तिम स्थान मिलेगा और जो जीवन भर प्रभु यीशु को ठुकराते और कुकर्म करते रहे परन्तु बाद में प्रभु यीशु मसीह के पास आते और पश्चाताप कर लेते हैं, वे ही स्वर्ग के राज्य में प्रथम होंगे। इसका सरल सा अर्थ यह है कि परमेश्वर के राज्य में मनुष्य की विशेष योग्यता के आधार पर कोई स्थान नियत नहीं है। स्वर्ग के राज्य मेें प्रवेश पूर्णतः परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा ही संभव है। 

व्यवहाकि पक्ष एंव आत्मिक शिक्षा: 
1. प्रभु यीशु मसीह का अव्हान दुनिया के प्रत्येक मनुष्य के लिए है। वह किसी का पक्षपात नहीं करता। उसका अनुग्रह सबके लिए बहुतायत से उपलब्ध है। जो कोई उसके निमंत्रण को स्वीकार करता है और उस पर विश्वास करता है और उसकी आज्ञाओं पर चलता है, वह अपना प्रतिफल निश्चित रूप से नहीं खोएगा। 

2. मसीही परिवारों मेें जन्म लेना या धार्मिक परम्पराएं औपचारिक रूप से पूरी कर देना उद्धार की कसौटी नहीं होते। प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने तथा उसे अपने हृदय में स्थान देने से और उसकी आज्ञाओं पर चलने के द्वारा ही हम उद्धार की निश्चितता प्राप्त करते हैं।

3. प्रभु यीशु मसीह में होकर दुनिया के प्रत्येक मनुष्य के लिए चाहे वह कितने भी पतित एंव तिरस्कृत अवस्था में क्यों न हो, एक जीवित आशा है। वह कभी पास आए हुए पश्चात्तपियों को ठुकराता नहीं है और न ही उन्हें निराश होने देता है। किन्तु उनकी कल्पना से परे अपने अनुग्रह, प्रेम, क्षमा और दया से उनके जीवन को आनन्द और परिपूर्णता से भर देता है। अतः हम सबको उस पर विश्वास रखना है। 

4. यदि कोई समाज की दृष्टि में पतित मनुष्य प्रभु यीशु मसीह को स्वीकार करता है और उसकी अज्ञानुसार अपनी जीवन शैली को परिवर्तित करके आगे बढ़ता है, तो ईष्र्यावश उसके पुराने पाप और कमज़ोरियों के ताने से नहीं देना चाहिये। उसकी आत्मिक प्रगति पर जलन नहीं करना चाहिए, परन्तु हमेशा उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें स्वंय भी आत्मिकता में निरन्तर बढ़ना है, परिवर्तित होना है और सम्पर्क में आने वालों को भी परमेश्वर के प्रेम, दया और क्षमा से परिचित कराना है। 

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