विश्वास वचन से आता है

“विश्वास सुनने से आता है और सुनना परमेश्वर के वचन से होता है।” (रोमियों 10:17) 

यह सिद्धांत हमें दिखाता है कि विश्वास कोई भावनात्मक उत्साह या मन की कल्पना नहीं, बल्कि परमेश्वर के जीवित वचन को सुनने, उस पर मनन करने और उसे मानने से उत्पन्न होने वाली आत्मिक शक्ति है। जब मनुष्य परमेश्वर की ओर से बोले गए वचनों को ग्रहण करता है, तो पवित्र आत्मा उन वचनों के द्वारा उसके हृदय में विश्वास का बीज बोता और उसे बढ़ाता है।​

जेल में कैद बपतिस्मा देनेवाले यूहन्ना की कहानी इस सत्य का एक अत्यन्त व्यावहारिक उदाहरण है। वही यूहन्ना जिसने कभी खुले में घोषणा की थी, “देखो, परमेश्वर का मेम्ना जो जगत का पाप उठा ले जाता है,” वही अब अकेलेपन, दबाव और मृत्यु की छाया में आकर संदेह में पड़ गया। उसने अपने चेलों के द्वारा यीशु से पूछना पड़ा, “क्या तू ही वह है जो आनेवाला था, या हम किसी और की बाट जोहें?” यह दिखाता है कि सबसे महान भविष्यद्वक्ता भी परिस्थितियों के दबाव में आकर डगमगा सकते हैं; भावनात्मक आँधी के समय पुराने अनुभव भी धुँधले पड़ सकते हैं, पर परमेश्वर का वचन तब भी अटल रहता है।​

यीशु ने यूहन्ना को संदेह से निकालने के लिए कोई सीधा “हाँ” नहीं बोला, न ही केवल भावनात्मक सांत्वना दी। उसने यूहन्ना के चेलों से कहा कि वे जाकर यूहन्ना को बता दें कि उन्होंने क्या “देखा और सुना” – अंधों की आँखें खुलती हैं, लंगड़े चलते हैं, कोढ़ी शुद्ध होते हैं, बहरे सुनते हैं, मरे हुए जिलाए जाते हैं और कंगालों को सुसमाचार सुनाया जाता है। ये सब घटनाएँ यशायाह की उन भविष्यवाणियों की पूर्ति थीं जो मसीहा के विषय में कही गई थीं; अर्थात यीशु यूहन्ना को वचन की ओर वापस लौटा रहे थे। उसके संदेह को तोड़ने के लिए जिस विश्वास की आवश्यकता थी, वह केवल इसी से आ सकता था कि वह फिर से शास्त्रों को देखे और यह पहचाने कि जो कुछ भविष्यवाणी में लिखा है, वही उसके सामने पूरा हो रहा है।​

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जब चेलों के जाने के बाद यीशु ने भीड़ के सामने यूहन्ना की प्रशंसा की और उसे पुराने नियम के भविष्यद्वक्ताओं में से सबसे बड़ा कहा। मानवीय दृष्टि से लगता है कि यदि यह प्रशंसा यूहन्ना के कानों तक पहुँचती, तो वह बहुत उत्साहित होता; परन्तु प्रभु ने जानबूझकर यूहन्ना के सामने नहीं, बल्कि लोगों के सामने उसकी गवाही दी। इसका कारण यह है कि परमेश्वर चाहता था कि यूहन्ना का विश्वास लोगों की राय या प्रशंसा पर नहीं, बल्कि वचन की सच्चाई पर टिका रहे। भावनात्मक सहारा कुछ क्षणों को सान्त्वना तो दे सकता है, पर स्थायी विश्वास केवल परमेश्वर के वचन पर ही खड़ा रह सकता है।​

रोमियों 10:17 स्पष्ट कहता है, “विश्वास सुनने से आता है”—अर्थात जब आप वचन को सुनते हैं, पढ़ते हैं, सीखते हैं और उस पर मनन करते हैं, तो विश्वास बढ़ता है। यदि आप लगातार नकारात्मक समाचार, भय, आलोचना, और अविश्वासी विचारों को सुनते रहेंगे, तो आपके अंदर भी डर, संदेह और निराशा ही जन्म लेगी। परन्तु जब आप अपने कानों और मन को परमेश्वर के वचन से भरते हैं—उपदेश, पठन, स्मरण, घोषणा और व्यक्तिगत अध्ययन के द्वारा—तो धीरे‑धीरे आपके नजरिये बदलने लगते हैं और विश्वास प्राकृतिक रूप से बढ़ने लगता है।​

जब हम संदेह और निराशा के समय से गुजरते हैं, तो अक्सर यह प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर कुछ विशेष, असाधारण और चमत्कारिक काम करे, ताकि हमारा मन उठा रहे। कभी‑कभी वह ऐसा भी करता है, पर सामान्य सिद्धांत यही है कि वह हमें अपने वचन की ओर लौटाता है। जैसे यूहन्ना के लिए, वैसे ही आज हमारे लिए भी सबसे बड़ा उपचार यही है कि हम फिर से बाइबल खोलें, परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को पकड़ें और अपनी परिस्थितियों से ज्यादा उसके कहे हुए पर ध्यान दें। जो लोग केवल “देखकर” विश्वास करना चाहते हैं, वे अक्सर ठोकर खाते हैं; पर जो “वचन के कारण” विश्वास करना सीखते हैं, वे तूफानों में भी स्थिर रह पाते हैं।​

परमेश्वर का वचन स्वयं परमेश्वर के स्वभाव जितना ही विश्वसनीय है—वचन झूठा नहीं हो सकता क्योंकि परमेश्वर झूठा नहीं हो सकता। शास्त्र यह सिखाते हैं कि उसका वचन जीवित, शक्तिशाली और हर दोधारी तलवार से भी तीक्ष्ण है, जो हमारे मन के विचारों और मनसूबों को परखता है। जब हम इस वचन को अपने जीवन में प्राथमिक स्थान देते हैं—इसे सुनते, मानते, घोषित करते और इसके अनुसार निर्णय लेते हैं—तो हमारा विश्वास केवल सिद्धांत नहीं, बल्कि दैनिक अनुभव बन जाता है।​

व्यावहारिक रूप से विश्वास को वचन से उत्पन्न होने देने के लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:

प्रतिदिन वचन का “आत्मिक दूध” लेने का निश्चय करें—भले ही थोड़ी मात्रा क्यों न हो, पर निरन्तरता से पढ़ें।​

जो वचन आप पढ़ते हैं, उन्हें जोर से पढ़कर अपने कानों को सुनाएँ, क्योंकि सुनना विश्वास उत्पन्न करता है।

जिन परिस्थितियों में आप संघर्ष कर रहे हैं—जैसे बीमारी, घोर आवश्यकता, भय, अकेलापन—उनसे संबंधित प्रतिज्ञाओं को खोजकर उन्हें याद करें और प्रार्थना में दोहराएँ।

धीरे‑धीरे आप पाएँगे कि वही वचन जो कभी केवल “उद्धरण” थे, अब आपके भीतर जीवित गवाही बनकर बोलने लगे हैं।

जब हम “दृष्टि से नहीं, विश्वास से चलते” हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम वास्तविकता से आँखें बंद कर लेते हैं, बल्कि यह कि हम वास्तविकता को परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखना सीखते हैं। यूहन्ना जेल से बाहर नहीं निकला, परिस्थितियाँ तुरंत नहीं बदलीं, पर उसे यह भरोसा लौट आया कि मसीहा वही है, और उसका कार्य व्यर्थ नहीं है। उसी प्रकार, बहुत बार वचन हमें पहले हमारे भीतर बदलता है, फिर बाहर। जब हमारी दृष्टि वचन के अनुसार हो जाती है, तब हम परिस्थितियों के बदलने से पहले ही दिल में शांति और दृढ़ विश्वास का अनुभव करने लगते हैं।​

इसलिए, जब अगली बार आप संदेह, भ्रम, भय या निराशा में हों, तो यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले और यीशु के इस संवाद को याद कीजिए। भावनात्मक सहारा ढूँढने से पहले अपने आप से पूछिए: “मैं किस वचन पर खड़ा हूँ? परमेश्वर ने इस स्थिति के बारे में क्या कहा है?” फिर विनम्रता से पवित्र आत्मा से कहिए कि वह आपके हृदय को खोलकर वचन के द्वारा आप में नया विश्वास जागृत करे। यही वह महान आशीर्वाद है कि हम देख कर नहीं, बल्कि वचन पर विश्वास करके चलना सीखते हैं।​

आमीन…

प्रभु आप सबको बहुतायत से आशीष दे, कि आप हर परिस्थिति में उसके वचन की ओर लौटें, उसी से विश्वास ग्रहण करें, और संदेह तथा निराशा पर स्थायी विजय का अनुभव करें।

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