स्वस्थ कलीसिया के प्रमुख कार्य
(प्रेरितों के काम 2:41-47)
1. प्रेरितीय शिक्षा: एक नहीं
परन्तु पांच प्रकार के वरदानी सेवकों द्वारा प्रेरितीय शिक्षा देना, जिनका
लक्ष्य ऐसे संतों को तैयार करना है, जो कि महान आदेश को पूरा कर सकें । (इफिसियों 4:12-13)
2. संगति करना: नगर की अन्य कलीसियाओं
के विश्वासियों के साथ एकता स्थापित कीजिए । एक-दूसरे के आधीन होकर उनके लिए
प्रार्थना कीजिए । बाइबिल में ‘‘एक-दूसरे’’ का उल्लेख 44 बार आया है
। (इफिसियों 4:3-6;
5:21; याकूब
5:16)
3. एक साथ भोजन करना: प्रभु ने
अपने शिष्यों को अंतिम भोज में मेमने का मांस, कडुवा साग
एवं रोटी खिलाया तथा दाखरस पिलाया । उनके अनुयायी जब भी मिलते थे तो एक साथ भोजन
अवश्य करते थे । (प्रेरितों के काम 2:46; 1 कुरिन्थियों 11:20)
4. मध्यस्थता: रणनीति बनाकर, एक जुट होकर
लक्षित प्रार्थना करना। प्रार्थना यात्रा करना, ‘‘बलवन्त’’ को
बांधना,
बांधे
हुओं को छुटकारा दिलाकर उन्हें आशीषित करना तथा ‘‘शांति के घर’’ में कलीसिया
स्थापित करना । (मत्ती 12:29; लूका 10:5-6)
5. चिन्ह और चमत्कार: यीशु ने
तुम्हें सामर्थ देकर भेजा है ताकि तुम उसके नाम से बीमारों को चंगा करो, मृतकों को
जिलाओ,
दुष्टात्माओं
को निकालो तथा सुसमाचार प्रचार करो । (मत्ती 10:8-9)
6. अपनी भौतिक आशीषों को बांटना: अपने
धन-सम्पत्ति में से जरूरत-मंद विश्वासियों को मात्र दसवांअंश नहीं परन्तु उदारता
से बांटिए,
ताकि
अन्य जातियों के मध्य कार्यरत सेवकों को किसी वस्तु की घटी न हो । गरीबों, विघवांओं, अनाथों तथा
शरणार्थियों की सहायता करना - दसवांअंश देने का सबसे उत्तम उपाय है । (प्रेरितों
के काम 4:32-34)
7. लोगों को शिष्य बनाने की रणनीति: एक जुट
होकर अर्थात अच्छी योजनाबद्ध रणनीति के साथ ‘‘मनुष्यों के मछुवारे’’ बनकर बाहर
जाईए । आरम्भ में शिष्य मंदिर से अपनी ही जाति के यहूदी उपासको को शिष्य बनाने के
लिए अपने घर लाते थे और परमेश्वर प्रतिदिन उनकी संख्या में बढो़त्तरी करता था ।
(प्रेरितों के काम 2:46-47; 1:8)
8. बपतिस्मा: नए नियम में सारे
बपतिस्में बिना किसी विलम्ब के हुए । पिन्तेकुस्त के दिन मंदिर के पास के कुण्डों
में 3,000 लोगों ने बपतिस्मा
लिया किसी पास्टर की जरूरत नहीं क्योंकि दो गवाहों की उपस्थिती में एक दूसरे को बपतिस्मा
दे सकते हैं । मसीहत एक जन आन्दोलन है और बपतिस्मों की
संख्या,
उसकी
सफलता का माप दंड है। ये वे फल हैं जो बने रहते हैं । (यूहन्ना 15:16; मरकुस 16:16)
9. प्रशिक्षित करना: शिष्य
तैयार करना एक कला है तथा कलीसिया रोपण एक प्रक्रिया है । प्रभु जी प्रतिदिन अपने
शिष्यों को पके हुए खेतों के बीच प्रशिक्षित करने ले जाते थे । बाइबिल स्कूल और
रविवारीय आराधना में कलीसिया रोपण की कला के अनुभवी शिक्षकों के अभाव में यह
प्रक्रिया सीखना असम्भव है । आत्मिक फसल काटने के लिये प्रतिदिन संतों को खेत में
ही प्रत्यक्ष प्रशिक्षण देना, सबसे अच्छी विधि है और घरेलू कलीसिया, शिक्षा का
सबसे उत्तम स्थान है । (प्रेरितों के काम 20:20,28)
10.
गुणात्मक
वृद्धि:
संसार की सब जातियों के लोगों को शिष्य बनाना, जीवित
कलीसियाओं का प्रमुख लक्ष्य एवं कर्तव्य कर्म है । प्रभु ने
कहा ‘‘जैसे पिता ने मुझे भेजा है, वैसे ही मैं भी तुम्हें भेजता हूँ ।’’
सेवकों को कलीसिया रोपने के लिये भेजना कलीसिया की परिपक्वता की असली पहचान है ।
(यूहन्ना 17:18; मत्ती 28:19; प्रेरितों
के काम 13:1-3)
(लूका 6:38; 2
कुरिन्थियों 9:6;
प्रेरितों
के काम 4:34)
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