इक्लीसिया और मूल्यांकन

 यीशु के दर्शन, उद्धेश्य और कार्यो के विषय में वक्तव्य (घोषणा) और उनका मूल्यांकनः उन सब वस्तुओं में से जिन्हें शैतान ने परमेश्वर के लोगों से चुरा लिया है, दर्शन सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है। बिना दर्शन के लोग नाश हो जाते हैं (नीतिवचन 29ः18)। अपने दर्शन में या अभिप्राय की घोषना किये बिना चर्च के पास कोई योजना बद्ध कार्य का मार्ग नहीं हो सकता। यीशु ने अपने दर्शन के विषय में प्रारम्भ में ही विवरण देकर घोषणा कर दिये थे। उनका बपतिस्मा हुआ, वे चालीस दिन तब निराहार रहे, शैतान का सामना किये, नासरत में आए, और अपनी सेवकाई प्रारम्भ किये। उन्होंने कहा, ‘‘प्रभु का आत्मा मुझ पर है, इसलिये कि उसने कंगालों को सुसमाचार सुनाने के लिये मेरा अभिषेक किया है और मुझे इसलिये भेजा है कि बंधुओं को छुटकारे का और अन्धों को दृष्टि पाने का सुसमाचार प्रचार करूं और कुचलो हुओं को छुड़ाऊं (लूका 4ः18-19)। क्या इस घोषणा का कोई मूल्यांकन किया गया था? जब यूहन्ना जेल में था उसने अपने दो चेलों को यह मूल्याकंन करने के लिये भेजा कि यीशु ने उत्तर दिया, ‘‘जो कुछ तुम सुनते हो और देखते हो वह जाकर यूहन्ना से कह दो, कि अन्धे देखते हैं और लंगड़े चलते फिरते है, कोढ़ी शुद्ध किये जाते है, और बहिरे सुनते हैं और मुर्दे जिलाए जाते हैं, और कंगालों को सुसमाचार सुनाया जाता है (मत्ती 11ः1-6)। चर्च को यह आवश्यक है कि वह कार्यक्रमों द्वारा चलाई जाने वाली इक्लीसिया बन जाए।

कोई मुकदमें बाजी नहींः नये नियम की इक्लीसियाओं का समय समय पर मूल्यांकन किया जाता था। जब कोई इक्लीसिया पथ से भटक जाती थी वहां पौलूस, बरनबास, तीमुथियुस, तीतुस या कोई न कोई विश्वासी जाता था। प्रश्नोत्तर व संवाद द्वारा या यदि आवश्यक हुआ तो डांट व चेतावनी द्वारा वे इक्लीसिया को पुनः राह पर ले आते थे। कभी कभी पौलूस उन्हेें पत्रियां भी लिखा करते थे। जब कुरिन्थ की इक्लीसिया अपने झगड़ों के निवारण के लिये मुकदमेबाजी करने लगी, तब पौलूस ने उन्हें बड़ी कड़ाई के साथ चेतावनी दिये थे, ‘‘क्या तुम नहीं जानते कि हम स्वर्गदूतों का न्याय करेंगे’’? पौलुस हमें हानि सह लेने के लिये कहते हैं, बजाए इसके कि अपने गैर - आत्मिक मसलों के समाधान के लिये कोर्ट कचहरी में जाएं। (1कुरिन्थियों 6ः1-11)। यीशु ने पांच वरदानों से युक्त प्राचीनों की बहुत सस्ती और प्रभावी न्यायालय की स्थापना किये जहां अपील की जा सकती है। जहां ‘‘दो या तीन गवाहों के मुंह से हर एक बात ठहराई जाएगी’’ (1तीमुथियुस 5ः19,20; 2कुरिन्थियों 13ः1; इब्रानियों 13ः17)। 

गलतिया और थिस्सलूनिकिया में भ्रम का बढ़नाः गलतिया में जब यहूदी मत में आए मसीहियों ने यहूदी रीति रिवाजों को प्रारम्भ करना चाहा तो पौलूस बहुत नाराज़ हुआ और उन्हें ‘‘मूर्ख’’ कहा (गलतिया 3ः1)। थिस्सलुनिकियों ने सोचा कि मसीह उनके जीवन काल में ही दूसरी बार वापस आ रहे हैं और इसलिये उन्होंने अपने धंन्धे छोड़ दिये और उनके द्वितीय आगमन की बाट जोहने लगे। पौलूस ने तुरन्त ही उन्हें समाचार भेजा कि इससे पहिले कि मसीह का द्वितीय आगमन हो बहुत सारी बातों का पूरा होना बाकी है (2थिस्सलुनिकियों 2ः1-11) पतरस ने भी असैम्बलियों को पत्रियां लिखा और उन्हें झुठे शिक्षकों और भविष्यद्वक्ताओं से सावधान रहने के लिये चेतावनी दिया (2पतरस 2ः1-4)।

कुरिन्थियों की इक्लीसिया परेशानः कुरिन्थ की इक्लीसिया की बहुत से समस्याएं थी। प्रभु की बियारी उनके लिये शराब पीने और भोज करने का अवसर बन गया था। उनमें फूट और विधर्म और दूसरे गम्भीर नैतिक दुराचार भी थे (1कुरिन्थियों 11 अध्याय), उदाहरण के लिये, एक व्यक्ति का अपनी सौतेली में के साथ अनैतिक सम्बन्ध था। पौलूस ने आज्ञा दी कि ऐसा मनुष्य मण्डली से हटाया जाए (1कुरिन्थियों 5ः1-5)।

दिन प्रतिदिन के मसीही जीवन के लिये निर्देश दिये गएः बहुत से विषयों के प्रश्न जैसे दान का पैसा, और पैसे की भूमिका (1कुरिन्थियों 9ः1-14) मूरत के आगे चढ़ाए गए भोजन को खाना (1कुरिन्थियों 10ः19-21, 28-32) विदेश जाकर पैसे कमाना, (याकूब 4ः13-17) विवाह करना चाहिये या नहीं विवाह किससे करें? तलाकं (1कुरिन्थियों 7ः1-40) गरीबों की चिन्ता। (याकूब 1ः27) इत्यादि। नई उभरती हुई इक्लीसियाओं के लिये इन सारे प्रश्नों के उत्तर मिलने चाहिये।

व्यावसायिक घराने अपने संस्थानों की प्रतिदिन जांच करते हैंः व्यवसाय चाहे वह सामाजिक हो या सरकारी, उनके स्पष्ट लिखित लक्ष्य होते हैं, जिनका समय समय पर मूल्यांकन होता है। नियमित मूल्याकंन एक साफ तस्वीर प्रस्तुत करता है कि वह संस्था ठहराए गए लक्ष्यों के अनुसार काम कर रही है या नहीं। व्यापारिक संस्थान उनके विभागो की प्रतिदिन जांच पड़ताल करते हैं कि वे लाभ कमा रहे हैं या हानि में चल रहे हैं ताकि जल्दी से जल्दी उसमें सुधार की कार्यवाही  की जा सके। युद्ध क्षेत्र में फौज का एक सेनापति उसी समय रणनीति बनाता है कि उसे किस प्रकार दुश्मनों की चालों का सामना करना चाहिये। विश्व विजेताओं की तरह ‘‘प्रतिदिन की रणनीति’’ पर विचार, हमारे मस्तिष्क को दुरूस्त रखने का एक भाग होना चाहिये, तभी एक इक्लीसिया प्रतिदिन उन्नति कर सकेगी। 

आत्मिकता मापी जा सकती हैः अभाग्यवश आज चर्च ही एक ऐसा उद्यम मालूम पड़ता है जिसके पास कोई योजनाबद्ध लक्ष्य नहीं है। इसलिये स्वाभाविक है कि वहां मूल्यांकन के लिये कुछ नहीं है। चर्च अपनी सफलता को सदस्य संख्या से मापते हैं। बहुत से लोगों की यह गलत धारणा है कि आत्मिक लक्ष्यों को निर्धारित नहीं किया जा सकता और इसलिये उनके मूल्यांकन का सवाल ही पैदा नही होता। तौभी हम देखते है कि प्रारम्भिक इक्लीसिया में पहिले ही दिन मूल्याकंन किया गया था। पिन्तेकुस्त के दिन पतरस ने कुछ युवकों को भेजा कि जाकर बपतिस्मा लेने वालों की संख्या मालूम करें। प्रारम्भिक इक्लीसिया का अंक फलक (स्कोर बोर्ड) था, जो विश्वास के विजेताओं के लिये जरूरी है क्योंकि वह दर्शाता है कि दौड़ना है ताकि दौड़ को पूरी समाप्त करें और ऐसा खेलें की जीतें (1कुरिन्थियों 9ः24-26)। प्रत्येक चीज मापी जा सकती है यहां तक की आत्मिकता भी बाइबिल के मानदण्डों द्वारा नापी जा सकती है। 

हम सब जानते है कि इक्लीसिया का लक्ष्य, जातियों को चेला बनाना है। चेला बनाए जाने वाले जातीय समुदायों के नाम और संख्या को बड़ी सरलता से मापा जा सकता है (भजन संहिता 2ः8)। हम जानते हैं कि एक पेड़ उसके फलों से पहिचाना जाता है। इसी प्रकार आत्मिकता को भी फलों से मापी जा सकती है (गलातियों 5ः22)। प्रभु ने इक्लीसिया को एक लक्ष्य दिये हैं कि ‘‘हम सबके सब विश्वास और परमेश्वर के पुत्र की पहिचान में एक हो जाएं और सिद्ध मनुष्य बन जांए और मसीह के पूरे डील डोल तक बढ़ जाएं’’ (इफिसियों 4ः13)। एकता और परिपक्वता भी सरलता से मापे जा सकते है। इक्लीसिया का यह भी ध्येय है कि उसे पृथ्वी की छोर तक जाना है। ये सभी मापे जा सकते हैं। (रोमियों 14ः11,12; प्रेरितों के काम 1ः8) परिपक्वता इक्लीसिया की सबसे विश्वसनीय कसौटी यह है कि वह ‘‘प्रतिदिन विश्वास और संख्या में बढ़ती जाती है (प्रेरितों के काम 16ः5)। 

पीछे का दरवाजाः बपतिस्मा इत्यादि की संख्या की सूचना देते समय हमें एक बात की सावधानी बरतना चाहिये। कि हमें यह याद रहे कि इक्लीसिया ने पीछे के दरवाजे खोल रखे हैं। झुण्ड में प्रवेश करने वाली भेड़ों की संख्या ठीक हो सकती है, परन्तु हो सकता है, ‘‘भेड़ जो वहां बनी रहें’’ की सत्यता कुछ अलग हो। 

हबक्कूक ने शिक्षा दिया था कि अपने दर्शन की विवरण लिखेंः यीशु जो राजाओं का राजा और प्रभुओं के प्रभु हैं, ने नासरत में अपने मिशन व उद्देश्य को परिभाषित किया और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले द्वारा उसका मूल्यांकन भी किया गया। बहुत से चर्चा/कलीसियाएं अपने विश्वास का सैद्धान्तिक विवरण लिखते हैं परन्तु वे अपने लक्ष्यों उद्देश्यों और निशाने को नहीं लिखते हैं। उनके कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होते हैं, और इसलिये उनके पास मूल्यांकन करने के लिये कुछ नहीं रहता। परमेश्वर अपने लोगों को पूरी तरह नाश करने पर था, क्योंकि उन्होंने वे काम नहीं किये थे जिन्हें परमेश्वर उनसे कराना चाहते थे। परमेश्वर ने हबक्कूक भविष्यद्वक्ता को आदेश दिया कि दर्शन की बात को पटियाओं पर साफ साफ लिख दे कि सब जन उसे पढ़ सके (हबक्कूक 1ः5; 2ः1-3) हबक्कूक की तरह हमें भी अपने दर्शन के विवरण को साफ साफ लिख देना चाहिये, ताकि सब जन जान लें कि इक्लीसिया को दिये गए कार्यों में से हम कौनसी भूमिका पूरी कर रहे हैं। 

इक्लीसिया की वृद्धि तीन तरह से होती हैः 

1. जैविक वृद्धिः बच्चे पैदा करके चर्च की सदस्य संख्या बढ़ाई जा सकती है, परन्तु अभाग्यवश कोई भी जन्म लेने के कारण मसीही नही हो जाता (मरकुस 16ः16; यूहन्ना 8ः37-44)। प्रत्येक व्यक्ति को पश्चाताप करना चाहिये, यीशु को प्रभु करके ग्रहण करके उनकी प्रभुता स्वीकार करना चाहिये, बपतिस्मा लेना चाहिये और फलवंत बनना चाहिये। अत्याधिक शैक्षिक योग्यता वाले पेशेवर पास्टर लोग निष्फल परिश्रम कर रहे हैं और ऐसे नामधारी मसीहियों के बीच में कार्य करते हैं और ऐसे नामधारी मसीहियों के बीच में कार्य करते हैं जिन्हें अकर्मष्यता का रोग लगा हुआ है। 

2. तबादला (Transfer) के द्वारा वृद्धिः वे मसीही जो नौकरी के कारण उस शहर में आ गए हैं। वे या तो किसी अपने योग्य चर्च में मिल जाते हैं या फिर वे अपना एक अलग झुण्ड बनाकर पास्टर नियुक्त कर लेते हैं। कभी कभी कोई  बड़ा चर्च लोगों को अपने कार्यक्रमों के कारण आकर्षित कर लेता है जिसके कारण चारों तरफ के चर्च बन्द हो जाते हैं। यह वृद्धि नहीं है क्योंकि वे तो पहिले से ही मसीही हैं। यहां के अधिकांश सदस्य आर्थिक रीति से बहुत अच्छे हैं। यहां के फलों में बहुत निर्धन हैं। हमें जाकर कटनी काटना चाहिये वरना ये कटनी के फल नाश हो जाएंगे।

3. परिवर्तन के द्वारा वृद्धिः यह यथार्थ वृद्धि है। यह एक प्रेरितीय इक्लीसिया है जो अपनी क्रिया शीलता से जाती है, खोई हुई भेड़ों को ढूढ़कर पाती है और उन्हें स्थानीय छोटे झुण्ड में जमा करती है और तब उन्हें परिपक्वता के लिये पोषित करती है, जहां वे बहुतायत के फल लाती हैं। वहां परिश्रम अधिक है और सताव भी है जो बने रहते हैं। इक्लीसिया की परिपक्वता की अन्तिम स्थिति वह है जब वह वृद्धि करने लगती है। चर्च के सामने सबसे बड़ी चुनौती नाम धारी मसीहियों को असली गुणवान मसीही बनाने की है। 

4. यीशु कार्य निष्पादन करने वाले हैं (काम को अमली जामा पहिनाने वाले हैं): एक व्यक्ति को दस तोड़े दिये गए थे, दूसरे को पांच, जबकि तीसरे को केवल एक तोड़ा दिया गया था। उनमें से दो ने कठिन परिश्रम किया और अपने तोड़ों को दुगना कर लिये और उनके स्वामी द्वारा उनकी प्रशंसा की गई, और तीसरे को बहुत डांट खाना पड़ा क्योंकि उसने कोई लाभ नही कमाया। उस व्यक्ति को जिसने दस तोड़े और कमाए थे, दस नगरों पर अधिकार दिया गया। तीसरा जन जिसने अपने तोडे़ को जमीन में गाड़ दिया था, उससे वह तोड़ा भी छीन लिया गया और वह उस व्यक्ति को दे दिया गया। जिसके पास पहिले ही दस तोडे़ थे। उत्पाद रहित व्यक्ति को अनन्त दण्ड दिया गया। स्पष्ट हैं कि यीशु आपसे, आपको दिये गए तोड़ों को दुगना करने की अपेक्षा करते हैं। तीस, साठ और सौ गुणा लाभ उस धन के जिसको उन्होंने आप में लगाया है (लूका 19ः12-27; मरकुस 4ः8)।

5. चर्च के पास बहुत से प्रदर्शन पुरूष और सामान्य जन हैंः वे लोग अगुवे नहीं हैं जो गीत गाने या रविवारीय सेवा में अगुवाई करते है, और वे भी अगुवे नहीं हैं जो क्रूसेड अभियान और विशेष सुसमाचार सभाओं के आयोजन करते हैं। ऐसे अगुवे केवल स्टेज व रंगमंच के अदाकार होते है। उनमें से बहुत से अच्छे काम करने वाले होते है, परन्तु वे समाज में स्थाई परिवर्तन लाने में असफल होते है। सच्चे अगुवे वे होते है जो समाजों को बदल देते हैं। इसके लिये उनके पास स्पष्ट दर्शन, और निश्चित लक्ष्य होना चाहिये। मार्टिन लूथर किंग ने अपने दर्शन की सार्वजनिक रीति से घोषणा किये और कहा, ‘‘मेरे पास एक स्वप्न हैं, कि मैं कालों और गोरों की बीच समानता ले आऊं’’। गांधी जी ने स्पष्टता के साथ घोषणा किये कि, ‘‘भारत की स्वतंत्रता उनका लक्ष्य था’’। जौन नौक्स ने परमेश्वर से प्रार्थना किये, ‘‘मुझे स्कॉटलैंड दीजिये या मैं मर जाऊंगा‘‘। इन अगुवों ने पूरे देश को बदल दिया। यीशु का दर्शन यह है कि, ‘‘परमेश्वर का राज्य जैसा स्वर्ग में है वैसा ही पृथ्वी पर भी स्थापित हो जाए’’। तेरा राज्य आए और तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है वैसी इस पृथ्वी पर पूरी हो‘‘। कम से कम हमें पृथ्वी को सुधारकर वैसी ही बना देना है जैसी वह अदन के बगीचे में थी। यीशु के लोहू ने हमें याजक और राजा बना दिया है और उसमें हमें भेजा है, ताकि हम विश्व को जिसमें हम रहते हैं बदल डालें। उसने हमें तोड़े और मणि दिये हैं और वे हमसे अपेक्षा रखते हैं कि हम परिश्रम करके उन्हें दुगना कर दें ताकि वे हमारे निष्पादित कार्यो के अनुसार नगरो के ऊपर हाकिम नियुक्त करें, यीशु सफलता के वृतान्तों को महत्व देते हैं, परन्तु बहानों को नहीं। अगुवाई में प्रमुख होने का अर्थ पदोउन्नती की सीढ़ी चढ़ना नहीं है, परन्तु नीचे उठाकर दूसरों को ऊपर चढ़ने में मदद करना है। (प्रकाशित वाक्य 5ः10; यहोशु 1ः8)

यीशु हमारे कार्यो का मूल्यांकन करने के लिये शीघ्र आ रहे हैः परमेश्वर के वचन में सख़्त चेतावनी दी गई है कि प्रत्येक व्यक्ति के कार्य आग से जांचे व परखे जाएंगे इसमें प्रत्येक जन शामिल है। पौलूस हमेशा इस भय में रहा है कि उसे मसीह के न्याय सिंहासन के आगे खड़ा होना है जहां प्रत्येक विश्वासी को उसके शरीर में रहकर किए गये कामों के अनुसार बदला दिया जाएगा, चाहे वे अच्छे हो या बुरे (2कुरिन्थियों 5ः9-11)। मसीहियत अकेले खेल के विषय में नहीं है परन्तु एक जीतने वाली टीम या दल बनाना है। प्रत्येक मसीही विश्वासी द्वारा आत्माओं को बचाने का रिकार्ड स्वर्ग में बड़ी सावधानी पूर्वक अंक फलक या स्कोर बोर्ड पर लगातार लिखा जा रहा है। खेल का निर्णाायक रेफरी जल्द आने वाला है और सीटी बजाएगा, उन लोगों के लिये जो गलत खेल रहे है और जो जीतने के लिये खेल रहे हैं उन्हें मुकुट देगा (प्रकाशित वाक्य 20ः12; 22ः12)। 

निश्चित कीजिये कि आपका स्कोर बोर्ड अंक फलक अग्नि रोधक है?:‘‘तो हर एक का काम प्रगट हो जाएगा, क्योंकि वह दिन उसे बताएगा, इसलिये कि आग के साथ प्रगट होगा, और वह आग हर एक का काम परखेगी कि कैसा है? जिसका काम उस पर बना हुआ स्थिर रहेगा वह मजदूरी पाएगा।’’ (1कुरिन्थियों 3ः13-15)

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