प्रार्थना करने के कुछ सुझाव / Some Suggestions On How To Pray

प्रार्थना करने के कुछ सुझाव Some Suggestions On How To Pray



अब सब से पहिले मेरा अनुरोध यह है कि विनती और प्रार्थनाएं, निवेदन तथा धन्यवाद सब मनुष्यों के लिए अर्पित किए जाएं। (1 तीमुथियुस 2ः 1)

1. आराधना: सच्ची आराधना गृहण योग्य भेट चढ़ाने के साथ की जाती है। हमें आदेश दिया गया है कि ‘‘यहोवा के नाम के योग्य उसकी महिमा करो, भेंट लेकर उसके सम्मुख आओ। पवित्रता से शोभायमान होकर यहोवा की आराधना करो (1 इतिहास 16ः 29)।’’ 

जब यहूदी आराधना करने के लिये मंदिर आते थे तो पहिले बलिदान चढ़ाते थे तत्पश्चात वे मंदिर परिसर में प्रवेश करके प्रार्थना याचना करते थे। मंदिर मे बिना बलिदान चढ़ाये प्रवेश वर्जित था (व्यवस्थाविवरण 16ः 16)। अब हम याजक हैं इसलिये हम भी अन्य जातियों को भेट के रूप में पहिले प्रभु के पास लायें उसके बाद ही हमारी प्रार्थना याचना सफल हो सकती है (रोमियों 15ः 16)।

परमेश्वर की आराधना न इस आराधनालय में और न उस भवन में परन्तु जब भी और जहाँ भी दो या तीन अराधक आत्मा और सच्चाई से उसके नाम पर एकत्रित होते है तो प्रभु वहाँ उपस्थित हो जाते हैं और उसे बान्धने और खोलने का अधिकार मिल जाता है और वह एक सामर्थी कलीसिया बन जाती है। (यूहन्ना 4ः 23; मत्ती 18ः 20) आराधना में परमेश्वर के लोग ग्रहण गोग्य दान देकर श्रद्धा करते हैं जैसे यहूदी लोग भेंट लेकर मंदिर आते थे। सामरी स्त्री ने पूरे गाँव के लोगों को लाया था। (भजन संहिता 96ः 8)

प्रार्थना में अपनी या दूसरों की आवश्यक्ताओं को परमेश्वर के सामने लाते हैं।
धन्यवाद देना परमेश्वर की आशीषों के प्रति कृतज्ञता प्रगट करना है।
प्रशंसा करना परमेश्वर की महानता को प्रगट करना है।

बिना आत्माओं को बचाये कलीसिया में आकर जोरदार आराधना करना मात्र एक ठनठनाती घन्टी और झनझनाती झांझ है। यथार्थ में धर्मशास्त्र हमें प्रभु यीशु के समान छावनी के बाहर अर्थात अन्य जातियों के बीच आनंद के साथ प्रार्थना और धन्यवाद तथा प्रशंसा करने के लिए प्रोत्साहित करता है (इब्रानियों 13ः 13-16)। परमेश्वर आत्मा है और वह उन लोगों को खोज रहा है जो न केवल गिर्जे के भीतर रविवार को आराधना करें परन्तु सब जगह, हर समय उसकी आराधना सच्चाई और आत्मा से करें। जब आप खोई हुई आत्माएं जीतकर उन्हें स्थानीय खलिहान में एकत्र करेंगे तो तत्काल आप स्वर्गदूतों के साथ खुशी से भरकर नाचने लगेंगे। (भजन 100; यूहन्ना 4ः 23-34)

2. पश्चात्ताप: दानिय्येल, नहेम्याह तथा दूसरे भविष्यवक्ताओं ने स्वयं के और अपने लोगों तथा बाप-दादाओं के पापों हेतु उपवास, प्रार्थना, आँसुओं के साथ पश्चात्ताप किया। उन्होंने अंगीकार किया कि वे जान बूझकर पथभ्रष्ट हो गये हैं, कि हमें जो करना चाहिये था हमने नहीं किया और जो हमें नहीं करना था वहीं किया है। (दानिय्येल 9ः 2-6; नहेम्याह 1ः 4-7)

प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई के आरम्भ में कहा ‘‘मन फिराओं क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट है’’ इसलिए हमारा काम प्रभु के नाम पर पापों की क्षमा का प्रचार सब जातियों में करना है। उद्धार के लिये पहिला कदम पश्चात्ताप है। (मत्ती 4ः 17; लूका 24ः 47; प्रेरितों के काम 2ः 37-41)

4. दूसरों को क्षमा करना: अपने स्वयं की क्षमा हेतु आवश्यक है कि हम दूसरों को क्षमा करें। इसमें आपका परिवार, विशेष कर आपकी पत्नी भी सम्मिलित है। यदि आप अपनी पत्नी का प्रेम पूर्वक आदर नहीं करते हैं तो आपकी प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी। याद रखें कि पत्नि अपने पति की महिमा है। अपनी ही महिमा का निरन्तर निरादर करने से बड़ी बुद्धिहीनता क्या हो सकती है (1 पतरस 3ः 7; 1 कुरिन्थियों 11ः 7)। प्रभु ने हमें दूसरों को क्षमा करना सिखाया है इस कारण यदि किसी के प्रति आपके हृदय में कडुवाहट है तो उसे तुरंत क्षमा करें ताकि आपकी प्रार्थनाएं उत्तरहीन न रह जाएं। (मत्ती 6ः 14-15; 12ः 36-37; इब्रानियों 12ः 15)

4. पवित्रात्मा के अभिषेक मांगे: हम सच में नहीं जानते कि क्या प्रार्थना करें, केवल पवित्रात्मा ही हमे सिखा सकता है। इस कारण परमेश्वर को पूर्ण समर्पण करना आवश्यक है (रोमियों 8ः 26; याकूब 4ः 7)। हमें परमेश्वर के हथियार पहिन लेना चाहिये जैसे सत्य से कमर बांधकर, धार्मिकता की झिलम, पांवों मे मेल के सुसमाचार के जूते, विश्वास की ढ़ाल, उद्धार का टोप, और आत्मा की तलवार ले लेना चाहिये तब हमें आत्मिक मल्लयुद्ध में जाना चाहिये। (इफिसियों 6ः 12-18)

5. उसकी इच्छा के अनुसार मांगे: धर्मशास्त्र के अनुसार यदि हम उसकी इच्छा को जाने और अनुसार मांगे तब वह हमारी सुनेगा (1 यूहन्ना 5ः 14)। हम मांगते हैं और नहीं पाते क्योंकि हम अपने भोगविलास में खर्च करना चाहते हैं (याकूब 4ः 3)। परमेश्वर हमेशा अपनी प्रतिज्ञाओं का आदर करता है इस कारण हमें यह निश्चित करना चाहिये कि हमारे निवेदन उसकी इच्छा के अनुसार हैं या नहीं। इसके लिये हमें धर्मशास्त्र जानने की आवश्यकता है। वह अपनी महिमा के लिए सब कुछ देगा।  यीशु ने कहा है कि हम उन से भी बड़े बड़े काम करेगें, इस कारण अधिक सामर्थ को मांगे ताकि परमेश्वर के लिये बड़े काम कर सकें। (यूहन्ना 14ः 12-14)

6. रिकार्ड रखें: दूसरों के लिये यदि हमने कुछ अच्छा काम किया है तो हमेशा उसका स्मरण करते हैं। तौ भी हम परमेश्वर के द्वारा हमारे लिये किये गये आश्चर्यजनक कार्यो का रिकार्ड कभी नहीं रखते। यहूदी लोग जो ‘‘पुस्तक के लोग’’ जाने जाते थे, वे सही लिखित रिकार्ड रखने हेतु प्रसिद्ध थे। इसी कारण बाइबल आज हमारे पास है। दूसरों के लिये हमारी मध्यस्थता का लिखित रिकार्ड रखना हमारे लिये आवश्यक है, जिससे हम जांच सकते हैं कि कब और कैसे हमारी प्रार्थना का उत्तर दिया गया। यह हमें उसको धन्यवाद देने और हमारे विश्वास की वृद्धि करने में सहायता देता है। जो विश्वासी परमेश्वर का भय मानते और आपस में वार्तालाप करते हैं उनकी यादगारी के लिए परमेश्वर के सामने एक किताब लगातार लिखी जा रही है इसलिए आप भी अपनी किताब लिखना शुरू कर दीजिये। (मलाकी 3ः 16)

7. अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएं अन्त में मांगें: हमें पहिले उसके राज्य और धर्म की खोज करना चाहिये क्योंकि हमारी सभी दूसरी आवश्यकताएं मसीह में पूरी की जा चुकी हैं। (मत्ती 6ः 33; इफिसियों 1ः 3)

प्रार्थना और सफल प्रचार का सही प्रमाण स्थाई, गुणित (Multiplying) कलीसियाओं की स्थापना।


Some Suggestions On How To Pray

1. Worship: Sadly most people think it is singing some familiar choruses and songs on Sunday inside the safety and comfort of the Church building.
Actually, the scriptures tell us to go outside the camp, bring in a harvest of Gentiles and then enter the gates of heaven, singing His praises, with joy, thanks giving, prayer and praise (Hebrews 13: 13-16). God is Spirit and He is looking for such people who will worship Him everywhere in truth and not only in the church buildings on Sundays. As you win lost souls and gather them in local barns (house churches), you will spontaneously worship God right there with thanksgiving in your heart. (Psalm 100; John 4: 23, 24)

2. Repentance: Daniel and Nehemiah and many other prophets, repented for their own sins and the sins of their people and forefathers with fasting, prayer and tears. They confessed that knowingly they had gone astray saying, “We have not done what we should have done and have done what we should not have”.(Daniel 9: 2-6)

The opening words of Jesus when He started His ministry were, ‘Repent for the Kingdom of God is near’ (Matthew 4: 17). Jesus Christ has also taught us that neither baptism nor salvation is possible without repentance. (Luke 24: 27; Acts 2: 37-41)

3. Forgive others: In order for us to be forgiven, it is necessary for you to forgive others. This includes your family especially your spouse. If you do not honor your wife, your prayer will not be heard (1 Peter 3: 7). The Lord taught us to forgive others. Therefore if you have bitterness against anyone in your heart, then forgive them at once, lest all your prayers remain unanswered.  (Matthew 6: 14, 15; 12: 36, 37; Hebrews 12: 15)

4. Anointing with the Holy Spirit: We do not know really how to pray. Only the Holy Spirit can teach us. Therefore, it is necessary to submit to God (Romans 8: 26; James 4: 7). We must put on the Armor of God, belt of truth, the breastplate of righteousness, the gospel of peace on our feet, the shield of faith, the helmet of salvation and the sword of the Spirit and then get into spiritual warfare. (Ephesians 6: 12-18)

5. Ask according to His Will: The Scripture says that if you know His will and ask accordingly, He hears us (1 John 5: 14). You ask and do not receive because you want to spend it on your pleasures (James 4: 3). God always honors His promises therefore make sure that your petition is already in His sovereign will. For this you need to know the scriptures. Whatever you need, He will do for you, provided it glorifies Him. Then Jesus said that we would do greater works than these. So ask for more power to do greater exploits for God. (John 14: 12-14)

6. Keep a record: We always remember if we have done anything good for others and sometimes remind them of it. But rarely do we keep a record all the wonderful things that God does for us all the time. Jewish people were known for keeping accurate written record. This is why we have the Bible today. They were known as the “People of the Book’. We need to keep a record in writing all the intercessions we have made for others. This is the only way we can check when and how the prayer was answered. It also helps us to thank Him and increases our faith, recounting God’s faithfulness to us. The scripture says, ‘those who feared the Lord spoke to one another and a book of remembrance was written ...for those who fear Him and meditate on His name’ (Malachi 3: 16)

7.Last of all ask for personal needs but even in this we must first seek His kingdom and righteousness knowing that all our other needs will be met in Christ. (Revelation 8: 3, 4; Matthew 6: 33)

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