गृह कलीसिया / THE HOUSE CHURCH

गृह कलीसिया पारिवारिक कलीसिया: गृह कलीसिया नये नियम की कलीसिया का वासतविक नमूना है। प्रभु के स्वर्गरोहण के तीन सौ वर्षो तक कलीसिया विश्वासियों के घरों में मिला करती थी। 322 ईस्वी में राजा कान्सटेन्टाइन ने रोम में एक विशाल आराधनालय बनवाया और वेतनधारी प्रचारक नियुक्त किया और रविवारीय आराधना शुरू किया जिससे विश्वासियों का प्रतिदिन घरों में एकत्र होना समाप्त हो गया। स्वयं सेवक प्राचीनों का वर्चस्व भी खतम हो गया। (प्रेरितों के काम 2ः 41-47)

गृह कलीसिया प्रतीदिन की कलीसिया: गृह कलीसिया में विश्वासी केवल रविवार को ही नहीं परन्तु निरंतर मिला करते थे। वे आराधना, वचन का अध्ययन, प्रार्थना और साथ में भोजन करते थे। वे एक दूसरे को जल संस्कार देते थे तथा चिन्ह और चमत्कार प्रगट होते थे जिससे लगातार नये विश्वासी जोड़े जाते थे।

गृह कलीसिया प्रत्येक जन की कलीसिया: जब वे एकत्रित होते थे तो सब लोग सक्रियता से भाग लेते थे। कोई भजन लाता था तो कोई प्रकाशन या भविष्यवाणी या स्वप्न या दर्शण की बातें इत्यादि। वचन का अध्ययन भाषण के रूप में पास्टर के द्वारा नहीं परन्तु वार्तालाप के द्वारा होता था। सभी उपस्थित लोग अर्थात स्त्री, पुरूष और बच्चे भाग लेते थे। उस समय स्त्रियों की अलग मीटिंग या बच्चों का संडे स्कूल नहीं होता था क्योंकि यह एक पारिवारिक कलीसिया थी जिसमें सब को बोलने का अधिकार था। (1 कुरिन्थियों 14ः 26-31; प्रेरितों के काम 17ः 11-12)

गृह कलीसिया अगुवे तैयार करने वाली कलीसिया: गृह कलीसिया में स्थानीय अगुए विकास हेतु उपयुक्त वातावरण था जिसके परिणाम स्वरूप कलीसिया में तेजी से वृद्धि होती थी। उसके संचालन में कोई खर्च नहीं होता था, इस कारण पूरी आय कलीसिया रोपको (प्रेरितों) के पोषण तथा गरीबों की सहायता हेतु उपयोग की जा सकती थी। सारे स्थानी अगुवे स्वयं सेवक होते थे अर्थात वे अपनी रोजी रोटी स्वयं कमाते थे। कलीसिया का संचालन प्राचीन करते थे जो वरदानी सेवक होते थे जैसे प्रेरित, नबी, प्रचारक, रखवाले और शिक्षक। कलीसियाएं संयुक्त रूप से नगर के नाम से जानी जाती थी जिससे पूरे नगर में एकता होती थी। उनका आपसी प्रेम, सदभावना और सेवकाई की भावना अन्य जाति के लोगों के लिए आदर्श होता था।

गृह कलीसिया नये नियम की कलीसिया: नये नियम में गृह कलीसिया के बहुत से संदर्भ दिये गये हैं (रोमियों 16ः 5; फिलेमोन; 2; कुलुस्सियों 4ः 15; 1 कुरिन्थियों 16ः 19)। प्रमुख घटनाएं जैसे प्रभु भोज और पिन्तेकुस्त के दिन पवित्रात्मा का उतरना इत्यादि घरों में हुआ था। काना का विवाह भी घरेलू वातावरण में हुआ था। यह एक सम्पूर्ण कलीसिया थी, जो लोगों की समस्त आत्मिक, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती करती थी।
स्त्रियां और जवान भी सक्रिय: स्त्रियां जोश के साथ प्रार्थना, भविष्यवाणी और कलीसिया रोपण में भाग लेती थीं। अक्विला की पत्नी प्रिसकिल्ला एक प्रभावशाली शिक्षिका थी (प्रेरितों के काम 18ः 26)। जवान लोग जैसे तीतुस और तीमुथियुस कलीसिया में प्राचीन नियुक्त करते थे। (1 कुरिन्थियों 11ः 5; तीतुस 1ः 5)

गृह कलीसियाएं मिशनरी भी भेजती थी: अंताकिया की कलीसिया ने न केवल पौलुस और बरनबास को, पन्रतु भारत में भी मिशनरी भेजे थे। केरला के सीरियन चर्च का आज भी अंताकिया से सम्बंध बना हुआ हैं। दुःख की बात कि ऊँच नीच जाति की भावना के कारण यह चर्च भारत में सुसमाचार प्रचार हेतु पुर्णतः असफल रहा। दो हजार वर्षो बाद पिन्तेकुस्त की आग अब शेष भारत में पहुंच रही है। दुःख की बात है कि पिन्तेकुस्तल अगुवे भी तेजी से दर्शन को खोते जा रहे हैं और अपने स्वयं का राज्य स्थापित करने हेतू दान दाताओं के पीछे भाग रहे हैं।

गृह कलीसिया सब जातियों के लिए प्रार्थना का घर: अन्य जाति के लोग प्रार्थना सभा में उपस्थित होते थे और प्रभावित होकर जुड़ जाते थे (1 कुरिन्थियों 14ः 24-25; प्रेरितों के काम 13ः 42)। कुर्नेलियुस ने पतरस को अपने घर बुलाया।

प्रभु अब एक दूसरे प्रकार की कलीसिया बना रहा है, जो कि पहिली सदी की कलीसियाओं के समान विश्वास, आशा और प्रेम पर आधारित है। इसमें लोग कलीसिया को नहीं जाते परन्तु कलीसिया लोगों के पास जाती है।

THE HOUSE CHURCH

The House-Church is the original New Testament Church. For 300 years after the ascension of the Lord, the church met in homes. In A.D. 322 King Constantine built a big cathedral in Rome, appointed professional priests and the daily gatherings of believers came to an end.

In the house church, believers met regularly and not only on Sundays. They worshipped, studied the word, prayed, and shared simple meals together. They also baptized each other and many signs and wonders took place and new believers were added regularly. The house church also provided perfect setting for local leadership development, which resulted in rapid growth and multiplication of the church. No expenditure was involved in running the church so all the income could be used for supporting the church planters (apostles).
There are many references in the New Testament about the house churches. (Romans 16: 5, Philemon: 2, Colossians 4: 15, 1 Corinthians 16: 19).

Major events like the Last Supper and the descent of the Holy Spirit on the day of the Pentecost took place in homes. Even the wedding at Cana took place in a home situation. This was a complete Church, which met the entire spiritual, emotional, social and even economic needs of the people. 

Women actively participated in prayer, prophecy and in church planting. Young people like Titus and Timothy appointed elders in Churches.  (Titus 1: 5)

House churches also sent missionaries. The Church of Antioch not only sent Paul and Barnabas but also missionaries to India. The Syrian church in Kerala still owes its allegiance to the Patriarch of Antioch. Sadly, this church and its off shoots failed to evangelize India. Two thousand years later it took the Pentecostals to take the flame to the rest of India and beyond. Unfortunately, the Pentecostals are also rapidly loosing the vision of the ‘Founding fathers’ and going after ‘Funding fathers.’ Perhaps the Lord is rebuilding the original network of house churches in the city, which like the first century churches will be named after their cities. 

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