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Showing posts from 2020

परमेश्वर ही यज्ञ है।

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 परमेश्वर ही यज्ञ है।  श्रृ: - ‘‘प्रजापतिर्थेवेभ्याम आत्मानम् यज्ञम् कृत्वा प्रायच्चत्’’  (सामवेद - ताण्डीया महाब्रम्हाणम् बंगालपत्र 410 अध्याय 7 खंड - 2)  प्रजापति अपने आपको यज्ञ में अपर्ण कर प्रायश्चित को पूरा किया है। ‘‘प्रजापति यज्ञाः’’ (शतपथ ब्राम्हण) प्रजापति ही यज्ञ है।  सब यज्ञ एक महायज्ञ का प्रतिबिंब है:- वेद हमें बताती हैं।  श्लोक: ‘‘प्लवहेयते अध्दृडा यज्ञ रूपा: (मुण्डकोपनिषतु, 2 रा खंड, मंत्र 7) यज्ञ रूपी पतवार मजबूत नहीं है।  श्लोक: प्लवाहेयते सुरा यज्ञः अध्दृडाश्चा न संसयप्त्’’ (स्कांद पुराणम् यज्ञवैभवाखंडम, 7 वा अध्याय) हे देवताओं, यज्ञ एक पतवार जैसी है, वह मजबूत नहीं है इसमें कोई संशय नहीं है।  श्लोक: ‘‘यज्ञोवा अवति तस्पा छाया क्रियते’’ यज्ञ उद्धार करता है। यह एक महायज्ञ की छाया (प्रतिबिंब) है। श्लोक: - ‘‘आत्मदा बलदाः यस्य छाया मृतम् यस्या मृत्युः’’ (ऋग्वेद 10 मंः 121 सूः 2 ऋक्) जिसका यह यज्ञ प्रतिबिंब है मृत्यु अमृत हो जाती है। उसकी प्रतिबिंब बनी मृत्यु आत्मा को बल प्रदान करने वाली होती है।  ध्यान दे:- जो यज्ञ किया जाता है...

बिना रक्त बहाए मोक्ष संभव नहीं है।

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बिना रक्त बहाए मोक्ष संभव नहीं है । पापों की क्षमा के लिए रक्त बहाना आवश्यक है, यह बात वेदों में सूचित है कितना घोर क्रूर हिंसा और हत्या है, नहीं, इसमें दैविक प्रेम है वह किस प्रकार है? कृपया नीचे लिखे अंशो को मन से परीक्षा कीजिए:-  यज्ञ (बलि) ही प्रमुख है, कह कर वेद बताते है। ‘‘यज्ञे वै भुवन नाभि’’ संसार के लिए यज्ञ मुख्य आधार है। (ऋग्वेद 1ः164ः25)       (नाभि के समान) ‘‘यज्ञे सर्वम प्रतिष्ठितम्’’ यज्ञ ही सब कुछ देता है।  ‘‘यज्ञो वै सुकर्मानौः’’  यज्ञ ही ठीक राह पर चलने वाली नाॅव है। (ऋग्वेद 1ः3ः13) ‘‘ऋतस्यनाः पथनयति दुरिता’’ यज्ञ के मार्ग द्वारा सब पापों से मुक्ति और सुरक्षा में लेकर जाओ। (़ऋग्वेद 103ः1ः6) श्रृ-‘‘यजमानः पशुः यजमानमेवा - यज्ञ करने वाला ही यज्ञ का पशु है।  सवर्गम् लोकम् गमयति’’ - इसलिये यज्ञ करने वाला अकेला ही स्वर्ग को प्राप्त करता है। (तैत्तरीय ब्राहणम बंगला पत्रम - 202) महायज्ञ की विशेषताएं श्लेक: ‘‘नकर्मणा मनुष्य नैरना स्नान, यात्रा, दान धर्म के कार्य के द्वारा पापविमुक्ति और पुण्य नहीं मिलता है।  लभतेमत्र्यः’’ (श...

कर्म - चक्र का उद्भव

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कर्म - चक्र का उद्भव  हिन्दू विचारिकों के पास इसका कोई सन्तोषजनक और ठोस स्पष्टीकरण नहीं है कि कब और कैसे उस पहिले कर्म का प्रकटीकरण हुआ, जिसने इस भंयकर चक्र की स्वचलित किया। किसने पहिले पहल कर्मफल को अपनी योग्यता या अयोग्यता के आधार पर भोग अथवा कैसे स्वभाव या कर्म करने की इच्छा का भाव उप्तन्न हुआ - ऐसे कई प्रश्न है जिनके उत्तर अप्राप्य है, आदि शंकराचार्य ने इस विषय को एक तर्क संगत दुविधा स्वीकार कर लिया, क्योंकि कर्म के बिना संसार (दृश्य जगत या ‘पीपल वृक्ष’) में प्रथम प्रवेश हो ही नही सकता था तथा दूसरी ओर जन्म की विद्यमानता के अभाव में प्रथम कर्म के सम्पन्न करने की क्रिया भी नहीं हो सकती थी ( शंकर भाष्य  2ः1ः36 )। कर्म स्वचलित है। परमेश्वर कर्म का रचनाकार नहीं है ( गीता 5ः14-15 ), हालांकि भौतिक ब्रम्हांड की सृष्टि रचना वेदान्त विचार में बहुत कुछ परमेश्वर एंव प्रकृति की सहकार्यता पर निर्भर करती है। तो भी, उपनिषदों में से एक में, परमेश्वर को कर्माध्यक्ष या कर्म का संचालित करने वाले अधिकारी के रूप में जाना गया है (श्वेताश्वर उपनिषद् 6ः11) कर्म जो श्री भ गवद्गीता (3ः27) के अनुसार...

कर्म और अनुग्रह

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 कर्म का अर्थ  संस्कृत भाषा में कर्म शब्द का अर्थ कोई कार्य या काम है। वेदों में तो इसका प्रयोग यदाकदा ही पाया जाता है लेकिन ब्राम्हण - ग्रन्थों एंव उपनिषदों के कालक्रम में इस कर्म शब्द का अर्थ विशाल एंव दार्शनिक हो गया। कर्म से संबधित प्रारम्भिक कालीन विद्धान्तों का व्यस्थित दर्शन शत्पथ ब्राम्हण तथा बृहदारण्यक उपनिषद् ग्रन्थ स्वीकृति में कहता हैः  कर्मणा बाध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यंते। ( शांतिपर्व 241ः7 ) अर्थात कर्म से मनुष्य बंधन में पड़ता और ज्ञान द्वारा मुक्त हो जाता है।  कर्मवाद की अपरिहार्य आवश्यक्ता; इस समझबूझ से प्रकट हुई लगती है कि उजग में व्यापकता बुराई और पीड़ा का और कोई कारण नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि उनका सम्बन्ध जीवात्मा या प्राणी द्वारा किए पूर्वकर्मो से है। परिणामतः इस विचार ने पुनर्जन्म या आवागमन के सिद्धान्त के लिए द्वार खोल दिया जिसमें पहिले किए कार्य तथा उसके प्रतिफल सम्भव हो सके। जैनियों, बौद्धों तथा सिक्खों ने समय की गति के साथ अपने आपको वैदिक प्रभुत्व से तो अलग कर लिया लेकिन इनमें से कोई भी कर्म एवं जनमान्तर के सिद्धान्तों के बिना नही ...

उद्धारक परमेश्वर का हस्तक्षेप

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 उद्धारक परमेश्वर का हस्तक्षेप ऐसे पाप दासत्व का फिर क्या उपचार है, और हम कहां जायें? क्या परमेश्वर अपनी संतानो का रक्षक है या वह उनकी परवाह नही करता? धर्म ग्रन्थ बाइबल तो जानती है कि परमेश्वर सारी मानवता का पिता एंव तारणहार है। ऋग्वेद भी परमेश्वर को त्राता तथा पितृतमः पितृणां - सारे पिताओं से भी श्रेष्ठ परमपिता - ग्रहण करता है, 4ः17ः17 । पिता -माता अपनी संतानो के लिए क्या करते है? हमारे देश के गावों में बहुत सारे बिना ढके हुए कुए हैं। यदि दुर्घटनावश कोई बालक उसमें गिर जाए तो मातृ - प्रेम से विवश उसकी माता भी पुत्र के प्राण रक्षार्थ कुंए में छलांग लगा लेती है - विचार भी नहीं करती कि कैसी वेदना या प्राणों का संकट होगा। अथवा दूसरा उदाहरण लीजिए: मुम्बई जैसे महानगर में, जहां अनेकों बहुमंजली इमारतें हैं, अक्सर अग्निकाॅड होते रहते है। एक भवन पूरा आग से घिर गया है और पांचवी मंजिल पर एक बालक असहाय स्थिति में आग में फंसा है। उसका पिता अपने कार्यकाल से दौड़ा और वहां आ कर क्या करता है? अपने पुत्र के रक्षार्थ वह बेतहाशा सीड़ियों की ओर भागता है - यद्यति ऐसा करके वह स्वंय आग और धुंए का शिकार तो हो...

युगानुयुग की यातना

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 युगानुयुग की यातना  एक विद्वान, सिनेका (Seneca) का मता है, कि ‘‘प्रत्येक दोषी व्यक्ति अपना ही ज़ल्लाद है।‘‘ इसलिए मानव की यहाॅ - दौड़ तथा युगानयुग की पीड़ादायी त्रासदी को निश्चय ही समझा जा सकता है। पीड़ित जीवात्मा त्राण के लिए वृक्षों समाधियों, पहाड़ो, नदियों, चट्टानों, गले में लटके क्रूसों और पक्षियों से लेकर सर्पो तथा प्रेतात्माओं तक की ओर झांकता रहा है। पृथ्वी पर की किसी भी जाति या समुदाय ने पाप के दासत्व की पीड़ा को इतनी गम्भीरता से अनुभव नहीं किया, जैसे युगों से हमारे अपने प्रिय पूर्वज करते आये है, और मेरा विश्वास है, परमेश्वर भारत वर्ष को उसकी इस प्रबल मुमुक्षता के कारण अत्यधिक प्रेम करता है। भारतीय सन्तों ने प्राचीनकाल से ही मुक्ति की खोज यात्रा में पर्वतराज हिमालय की कन्दराओं और जंगलो को दूर - दराज तक आर-पार छाना है। तपस् हेतु उन्होंने कड़े शीतकाल में भी खुले आकाश तले नंगे बदन रहना चुन लिया, आग पर चले, काॅटों पर सोये, अल्पभोजी रहे तथापि वे विलाप करते रहे - ‘‘स्पप्न में भी दैवगति से पाप उत्पन्न हो जाते है‘‘ ऋग्वेद 7ः86ः2-7 ।  ऐसी आत्मिक तनाव की पीड़ा के कारण वैदिक ऋषि पु...

कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्ति नहीं

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 कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्ति नहीं इसलिए अब आगे यह आवश्यक है कि हम कर्म या पाप बन्धन से स्वतन्त्रता पाने के लिए क्या अधिक युक्तिसंगत है? बाइबल ग्रन्थ तथा उपनिषद - दोनों ही इस वास्तविकता को विशिष्ट तौर पर स्वीकारते हैं कि मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति की प्राप्ति, उत्तम अथवा निकृष्ट किसी प्रकार के कर्म से नहीं हो सकतीं इसके उपरान्त भी इन दोनों ही धर्मों में मतावलम्बियों की बड़ी संख्या प्रकटरूप में अपने भले कामों, दयालुता, तप, संस्कार, रीति नीति, योगाभ्यास तथा अनेकानेक ऐसी क्रियाओं को भूलवश अपने उद्धार का साधन सक्षम बैठती है। एक हिन्दु अपने दान, ध्यान तथा स्नान से संतोष कर लेता है, तो एक ईसाई बहुत कुछ अपने चर्च की सदस्यता, वहां भेंट लें जाने या चर्च की धार्मिक कमेटी में सक्रिय बनकर सम्भवतः तृप्त हो जाता है।  बाइबल स्पष्टता से प्रकट करती है कि उद्धार कर्मो के द्वारा नहीं, लेकिन केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है ( इफिसियों 2ः8 )। ‘‘हमारे धार्मिकता के सारे का मैले चिथडों के समान है’’ ( यशायाह 64ः6 )। शुभकार्य, धर्मकार्य के लिए चाहे कैसे ही आवश्यक क्यों ना हों, वे पाप से चंगाई नहीं द...

अटल कर्मबन्ध

 अटल कर्मबन्ध महाभारत, जो विश्व का सबसे लम्बा वीरगाथा महाकाव्य है, स्पष्ट ही उल्लेख करता है कि कर्म के स्वचलित; निराशायुक्त तथा दयारहित भवचक्र को कोई भी प्राणी धोखा नहीं दे सकता। जैसे किसी गाय का बछड़ा हजारों अन्य गायों के झुण्ड के माध्य में भी अपनी माता को ढूंढ़ लेता है, वैसे ही कर्म ही उस भक्ति को, जिसका सम्बन्ध उससे है, खोज लेने में कभी नही चूकता। दूसरे शब्दों में, हर एक मनुष्य के माथे पर उसके कर्म की छाप लगी है और उसी के द्वारा जीवात्मा का भाग्य निर्बाध गति से निश्चित किया जाता है।  दुर्भाग्यवश, इस सिद्धान्त में, वास्तविकता को समझ पाने का ऐसा कोई साधन शेष नहीं बचता कि मै या आप हमारे किसी विशेष जन्म या पुनर्जन्म में बंधे क्यों पीड़ा उठाते है, ना ही हमारे लिए कोई ऐसा अवसर होता है ताकि पूर्व कर्मो का अथवा भविष्य में होने वाली भूलों को सुधारा जा सके।

कर्मवाद की प्रभावशीलता

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  कर्मवाद की प्रभावशीलता कर्मवाद में भरोसा रखने के चक्रव्यूह ने पिछले तीन हजार वर्षो में हमारे देश के जीवन क्रम को निर्णायात्मक रूप में भली और बुरी, दोनों ही दृष्टियों से प्रभावित किया है। लेकिन इसने आवश्यक रूप में प्रत्येक के अनदेखे भविष्य के प्रति भी उदासीनता तो उत्पन्न की ही है। गरीब, अन्धे तथा पिछड़े एंव निस्सहाय लोग, यह जानते है हुये कि कर्म की रेखा को कौन बदल सकता है, काफी हद तक अपने भाग्य के भरोसे निष्क्रिय पड़े रहते है। फिर, इस सिंद्धान्त ने दूसरों के प्रति अलगाव को जन्म दिया तथा लोगों में समाज ही के प्रति शुभचिन्तन एंव सेवा को प्रेरित होने की भावना को छीन लियां। इसलिए, यदि कर्म हर एक जीव के छोटे से छोटे भाग में जब इतनी गहराई से जुड़ा है, तो फिर इस विश्व में एक मनुष्य के अधिकारों और उसके सही भागों में रोक लगाकर या गड़बड़ी डालकर उन्हें बदलने के साधन खोजने का कष्ट क्यों करें? जितना शीघ्र हो सके, जीवात्मा कर्म की इस अग्नि परीक्षा से पार उतर जाए, उतना ही उसके लिए भला है। कसी भी व्यक्ति के माग्य - क्रम में उत्पन्न किया गया व्यवधान अन्ततः उसे उसके एक कर्मचक्र को पूर्ण करने में विलम्बि...

पाप की असाध्यता

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 पाप की असाध्यता दुर्भग्यवश, मानवीय प्रयासों से मनुष्य की इस प्रकृति का उपचार एकदम असम्भव है। जब हम मनुष्य सम्बोधन का प्रयोग करते है तो इसका अर्थ है, वे सब लोग जो पुरूष, नारी, युवा या बालक है! मनुष्य - स्वभाव नीम वृक्ष के स्वभाव के समान है। मान लीजिए एक साधन सम्पन्न व्यक्ति नीम वृक्ष के स्वभाव को बदलने हेतु इस उद्देश्य से तत्पर हो जाए कि भविष्य में इस पेड़ के कड़वे फल मीठे फलों में बदल जाए ताकि उसके बेटे - पोते इस पर चढ़ कर मीठे फल खाने का मज़ा ले सकें। मजदूरो से नीम वृक्ष के चारों ओर गहरी खाई खुदवाकर वह उसके बड़ी मात्रा में गुड या शक्कर का शीरा भरवा देता है और प्रतिदिन उसे शुद्ध जल से सींचता है। क्या आप सोचते है कि नीम वृक्ष इस उपचार को ग्रहण कर अगले वर्ष मीठी निम्बोलियो की फसल देगा? अपने स्वभाव से ही नीम कडुवाहट से भरा है; कोई प्रयास उसके स्वभाव - गुण को नही बदल सकता, सिवाय इसके कि जड़ से काटा जा कर उसे दूसरे मीठे स्वाद के वृक्ष के तने में पैबन्द या कलम करवा दिया जाए। बाइबल ग्रन्थ का कथन हैः  क्या हबशी अपना चमड़ा, व चीता अपने धब्बे बदल सकता है? यदि वे ऐसा कर सकें,  तो तू भी, ज...

पाप की उत्पत्ति

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पाप की उत्पत्ति  मनुष्य की प्रकृति या स्वभाव में पाप की यह उग्र विनाशकता कैसे आई? वृहदारण्यक उपनिषद् 4ः3ः8 कहती है कि जीव अपने जन्म के साथ ही आपाचार का अधिकारी हो जाता है। इस्लाम के अनुसार जन्मने के समय ही शैतान प्रत्येक मनुष्य को छू लेता है। बाईबल तो बताती ही आई है कि मनुष्य जन्म से ही पापी है - देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा। ( भजन संहिता 51ः5 ) यह नहीं कि बालक के जन्मने का सिद्धान्त ही पापमय है परन्तु यदि माता पिता दोषग्रस्त है, तो उनकी सन्तान भी वैसी ही उत्पन्न होगी। उत्पत्ति की पुस्तक का वृतान्त प्रकट करता है कि आदम एंव हव्वा के द्वारा परमेश्वर की इच्छा की सर्वप्रथम अनज्ञाकारिता के कारण पाप का अविभार्व हुआ। तब से उनकी सारी वंश परम्परा, परमेश्वर की रचना नहीं है तथापि यह अपने सृजनहार के विरूद्ध मनुष्य का विद्रोह है।  यहां पे हम देखते है कि विश्व के सभी प्रमुख धर्मो में पाप का यह सिंद्धान्त सर्वमान्य है। पाप की दासता मनुष्य जीवन की एक मात्र समस्या है। आत्मिक दृष्टि से कहें तो समस्त मानवता एक गहरे महासागर में डूबते हुये किसी जहाज मे...

पाप पर दण्डोदश

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 पाप पर दण्डोदश बाइबल धर्मग्रन्थ पाप के प्रति अति कठोर है और घोषणा करता है कि, पाप की मज़दूरी मृत्यु है ( रोमियों 6ः23 ), एक ऐसी मृत्यु जो जीव को प्रभु से तथा ज्योति और जीवन से रहित कर देती है। दूसरे शब्दों में इसी का नाम नरक है। भजन संहिता 11ः6 कहता है कि दुष्टों पर अग्नि वर्षा होगी तथा यशायाह 48ः 22 का वचन है कि दुष्टकर्मियों को कोई शांति नहीं। मुण्डक (मंडल) ब्रहमोपनिषद् 2ः4 कहती है। पाप फल परकादिमास्तु अर्थात पाप का प्रतिफल अनन्त नरक है। गीता भी प्रकट करती है कि नरक के लिए काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन द्वार खुले है, 16ः21 । जो अपनी अज्ञानता से भ्रमित है, वे घृणित नरक में गिरते है, 16ः16 , दुष्ट - कर्मी आसुरी लोग पापयोनियों में ढकेल दिये जाते है, 16ः19 ।  जन्म जन्मान्तर या पुनर्जन्म का सिद्धान्त (जिसके लिये व्यक्तिगत रूप से मेरी कोई सहमति नहीं) हिन्दू मित्रों के लिए बहुत ही कठोर और पीड़ा जनक है जिसका सीधा अर्थ है 84 लाख योनियों में जन्मान्तर की सभावना! यदि प्राणी का एक योनिकाल औसतन दस वर्षो का हो तो सम्भवतः वह प्राणी आठ करोड़ चालीस लाख वर्षो तक पीड़ा एंव शोक के दुर्भाग्य में फंस...

जन्म जात पाप - स्वभाव

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  जन्म जात पाप - स्वभाव धर्मग्रन्थ इतना ही नही बताते हैं। कि इस जगत में पाप सतत् उपस्थित है, पर यह स्पष्ट है कि सफल स्वभाव ही पापमय है। अधिकांश लोग समझ ही नहीं पाते कि पाप की प्रकृति कितनी कितनी भंयकर हैं। यदि पाप दुर्घटनावश अथवा परिस्थितिजन्य होता तो हम अपनी प्रभावित दशा को अपने संकल्प तथा अनुशासन से सुधार या बदल सकते थे। परन्तु जब पाप हमारे मानव स्वभाव का मूलभूत तत्व हो चुका है, तो हम असहाय है, क्योंकि हम अपने अस्तित्व के विरूद्ध क्यों कर चल सकते है? मैं पापी इसलिए नहीं हूँ कि मैं एक समय किसी दण्डनीय अपराध में पकड़ा गया था - परन्तु इसलिये कि मैं जन्मजात पाप स्वभाव से ग्रस्त हूँ, चाहे मेरा पाप कभी मेरे कार्यो के द्वारा प्रकट हुआ या नहीं हुआ हो! इसका बीज तो मेरे स्वभाव में पहिले ही से मौजूद है। उदाहरण के लिए, कुत्ता इसलिए कुत्ता नही कहलाया, क्योंकि वह भौंकता है (कई अन्य पशु भी भौंक सकते हे, जैसे भौंकने वाले हिरण जो हमारे सातताल आश्रम के आसपास पाए जाते है) बल्कि बात इसके विपरित है - कुत्ता इसलिए भौंकता है, क्योंकि यह उसका जन्मजात स्वभाव है। इसी भांति मनुष्य भी पापी है - इसलिए नहीं कि...

पाप का इनकार

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  पाप का इनकार  यद्यपि अनेक धर्मग्रन्थों में पाप की उपस्थिति की बुलाहट स्वीकार की गई है, तथपि यह अचम्भे की बात है कि हिन्दु तथा ख्रीष्ट दोनों सम्प्रदायों में कुछ ऐसे व्यक्ति भी उपस्थित है, जो पाप की वास्तविकता को गले नहीं उतारते।  पश्चिमी देशो में कतिपय ऐसे प्राध्यापक है जो ख्रीष्ट कलीसियाओं से वेतन एंव जीविका पाते हुए भी यह पढ़ाते है कि दुराचारिता या पाप - स्वभाव का सर्वव्यापी अस्तित्व है ही नहीं। पाप उनके विचार में मात्र घटनात्मक या परिस्थितिजन्य परिणाम है। हिन्दुमत में भी एक ऐसा बुद्धिवादी दल है जो छोटा लेकिन प्रभावशाली है और वह बहुत दृढ़ता से मनुष्य स्वभाव में विद्यमान पापों के इदुष्टाचरण की वास्तविकता को इनकार करता है तथा उसे कई शोभाजनक सम्बोधन देकर, जैसेः असत्, अविद्या, माया अथवा मिथ्या आदि नामों से पुकारता है।  इस प्रकार के आधुनिक धर्मशास्त्री एंव तत्वज्ञाता चाहे कितनी ही सहजता से पाप शब्द को अपनी स्मृति में से भुलाने का यत्न करें लेकिन पाप की वास्तविकता को हटाया नहीं जा सकता। चाहे इसका नाम न लिया जाए फिर भी यह वर्तमान जगत एक गुलाम व्याधि से ग्रस्त रहेगा। यदि को...

पाप का दासत्व

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पाप का दासत्व  सर्व व्यापक - स्वभाव मानव की सबसे भंयकर समस्या उसका पाप बन्धन है। मनुष्य देह में जन्में किसी भी प्राणी को इस दुष्ट पातक स्वभाव ने डंसने से नही छोड़ा। सन्त, साधु, सन्यासी, पंडित, नबी, पादरी या मौलवी, रहस्यवादी या फकीर! महाराजा या दास; धनपति या कंग्प्रल - सबके सब पापी की आक्रामक शक्ति के शिकार हुये है। प्रभु यीशु के शिष्य अपनी दैनिक प्रार्थना में परमपिता से यह विनय किया करते है, जैसे हमने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही आप भी हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए। इसी प्रकार वैष्णव ब्राम्हमण अपने गायत्री मन्त्रोच्चार के बाद प्रायः यह निम्न प्रार्थना अर्पित करते हैः  पापोहं पापकर्माहें पापात्मा पापसंभवः। त्राहिमाम् पुण्डरिकाक्षम् सर्व पाप हर हरे।। मैं तो एक पापी, पापकर्मी, परिपिष्ट तथा पाप में उत्पन्न हूँ। हे कमलनयन परमेश्वर, मुझे बचालो और सारे पापों से दूर करो।  पवित्र ग्रन्थ बाइबल ने कभी भी अथवा कहीं भी किसी कुलपति का चाहे वह आदम, इब्राहिम, मूसा, दाऊद, सुलेमान या प्रेरित पतरस व पौलुस हो पाप नहीं छिपाया है। हिन्दू धर्मग्रन्थों ने भी अपने देवताओं, ऋषियों अथवा म...

अंजीर के वृक्ष का दृष्टान्त

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अंजीर के वृक्ष का दृष्टान्त मन्दर्भ: मत्ती 24ः32-35 - ‘‘अंजीर के पेड़ से यह दृष्टान्त सीखोः जब उस की डाली कोमल हो जाती और पत्ते निकलने लगते हैं, तो तुम जान लेते हो, कि गीष्म काल निकट है। इसी रीति से जब तुम इन सब बातों को दखो, तो जान लो, कि वह निकट है, वरण द्वार ही पर हैं। मैं तुम से सच कहता हूं, कि जब तक ये बातें पूरी न हो लें, तब तक यह पीढ़ी जाती न रहेगी। आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे, परन्तु मेरी बातें कभी नही टलेंगी।’’ मरकुस 13ः28-31 - ‘‘अंजीर के पेड़ से यह दृष्टान्त सीखो: जब उस की डाली कोमल हो जाती; और पत्ते निकलने लगते हैं; तो तुम जान लेते हो, कि ग्रीष्मकाल निकट है, बरन द्वार ही पर है। मैं तुम से सच कहत हूं, कि जब तक ये सब बातें न हो लेंगी, तब तक यह लोग जाते न रहेंगे। आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।’’ लूका 21ः29-33 - ‘‘उस ने उन से एक दृष्टान्त भी कहा, कि अंजीर के पेड़ और सब पेड़ों को देखो। ज्योंही उन की कोंपलें निकलती हैं, तो तुम देखकर आप ही जान लेते हो, कि ग्रीष्मकाल निकट है। इसी रीति से जब तुम ये बातें होते देखो, तब जान लो कि परमेश्वर का राज्य निकट है। मैं तुम स...

विवाह के भोज का दृष्टान्त

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विवाह के भोज का दृष्टान्त  सन्दर्भ: मत्ती 22ः1-14 - ‘‘इस पर यीशु फिर उन से दृष्टान्तों में कहने लगा। स्वर्ग का राज्य राजा के समान है, जिस ने अपने पुत्र का ब्याह किया। और उसने अपने दासों को भेजा, कि नेवताहारियों को ब्याह के भोज में बुालएं; परन्तु उन्हों ने आना न चाहा। फिर उस ने अपने और दासों को यह कहकर भेजा, कि नेवताहारियों से कहो, देखो; मैं भोज तैयार कर चुका हूँ, और मेरे बैल और पाले हुए पशु मारे गये हैं: और सब कुछ तैयार है; ब्याह के भोज में आओं। परन्तु वे बेपरवाई कर के चल दिएः कोई अपने खेत को, कोई अपने व्यापार को। औरों ने जो बच रहे थे उसके दासों को पकड़कर उन का अनादर किया और मार डाला। राजा ने क्रोध किया, और अपनी सेना भेजकर उन हत्यारों को नाश किया, और उनके नगर को फूंक दिया। तब उस ने अपने दासों से कहा, ब्याह का भोज तो तैयार है, परन्तु नेवताहारी योग्य नहीं ठहरे। इसलिये चैराहों में जाओ, और जितने लोग तुम्हें मिलें, सब को ब्याह के भोज में बुला लाओ। से उन दासों ने सड़कों पर जाकर क्या बुरे, क्या भले, जितने मिले, सब को इकट्ठे किया; और ब्याह का घर जेवनहारों से भर गया। जब राजा जेवनहारों को देख...