जन्म जात पाप - स्वभाव
जन्म जात पाप - स्वभाव
धर्मग्रन्थ इतना ही नही बताते हैं। कि इस जगत में पाप सतत् उपस्थित है, पर यह स्पष्ट है कि सफल स्वभाव ही पापमय है। अधिकांश लोग समझ ही नहीं पाते कि पाप की प्रकृति कितनी कितनी भंयकर हैं। यदि पाप दुर्घटनावश अथवा परिस्थितिजन्य होता तो हम अपनी प्रभावित दशा को अपने संकल्प तथा अनुशासन से सुधार या बदल सकते थे। परन्तु जब पाप हमारे मानव स्वभाव का मूलभूत तत्व हो चुका है, तो हम असहाय है, क्योंकि हम अपने अस्तित्व के विरूद्ध क्यों कर चल सकते है? मैं पापी इसलिए नहीं हूँ कि मैं एक समय किसी दण्डनीय अपराध में पकड़ा गया था - परन्तु इसलिये कि मैं जन्मजात पाप स्वभाव से ग्रस्त हूँ, चाहे मेरा पाप कभी मेरे कार्यो के द्वारा प्रकट हुआ या नहीं हुआ हो! इसका बीज तो मेरे स्वभाव में पहिले ही से मौजूद है। उदाहरण के लिए, कुत्ता इसलिए कुत्ता नही कहलाया, क्योंकि वह भौंकता है (कई अन्य पशु भी भौंक सकते हे, जैसे भौंकने वाले हिरण जो हमारे सातताल आश्रम के आसपास पाए जाते है) बल्कि बात इसके विपरित है - कुत्ता इसलिए भौंकता है, क्योंकि यह उसका जन्मजात स्वभाव है। इसी भांति मनुष्य भी पापी है - इसलिए नहीं कि वह अपराध करता है पर इसलिए कि पतन के आदिकाल से ही पापी है - इसलिए नही कि वह अपराध करता है पर इसलिए कि पतन के आदिकाल से ही पाप करना उसका निजी स्वभाव है।हमारे समाज में छोटे अथवा बड़े अपराधों की निरन्तरता से मैं विशेष चिन्तित नहीं। इन्हें सुधारने या दण्डित करने को पुलिस व्यवस्था एंव न्याय प्रणाली मौजूद है। हमारी वास्तविक चिंता का विषय मनुष्य का पतित स्वभाव है जिसे प्रशासन व्यवस्था अथवा धार्मिक प्रणालियों कदापि सुधार नहीं सकती। मनुष्य अपनी पाॅच ज्ञानेन्द्रियाॅ उसकी स्वप्रकृति की दासता में काम करती है। हितोपदेश पर हम फिर ध्यान करे।
न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं,
न चापि वेंदाध्ययनं दुरात्मनः
स्वभावेवात्र तथातिरिच्यते
यथा प्रकृत्या मधुरं गवा पयः।। (मित्रलाभ 17)
मनुष्य इसीलिए भ्रष्ट नही कहलाता, कि उसने धर्मशास्त्र नहीं पढ़े अथवा वेदाध्ययन नहीं किया, परन्तु अपने स्वभाविक गुणों के कारण ही वह ऐसा है।
जिस प्रकार दूध अपने स्वभाव से ही मधुर हाता है।
भगवदगीता भी बताती हैः
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेशनिवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। (गीता 3ः33)
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते है। ज्ञानवान भी अपने स्वभावानुसार चेष्टा करते है, इसमें किसी हठ से क्या बनेगा?
लेकिन अर्जुन की ज्ञानभिलाषा इस उत्तर से शांत नहीं हुई, वह फिर प्रश्न करता है।
अब केन प्रयुक्तोयं पापं चरित पुरूषः।
अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः।। (गीता 3ः36)
हे महापुरूष बलात्कार सदृश किससे विवय होकर न चाहता हुआ भी पापाचार करता है?
गीता में, इसके बाद के पद में इस प्रश्न का उत्तर है, कि मनुष्य भी भीतरी स्वभावगत रजोगुण की लालसाओं से उत्पन्न काम एंव क्रोध की उसका शत्रु है रजोगुणजन्य यह अभिलाषा मनुष्य की प्रकृति ही से जन्मी है। पाप - स्वभाव ऐसी व्यापकता के कारण इस पाप को प्रचार अथवा प्रशिक्षण हेतु किसी पाठशाला या विश्वविद्यालय की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। धर्म को तो मंदिर या चर्च की जरूरत हो परन्तु पाप को कदापि नहीं।
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