कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्ति नहीं

 कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्ति नहीं

इसलिए अब आगे यह आवश्यक है कि हम कर्म या पाप बन्धन से स्वतन्त्रता पाने के लिए क्या अधिक युक्तिसंगत है? बाइबल ग्रन्थ तथा उपनिषद - दोनों ही इस वास्तविकता को विशिष्ट तौर पर स्वीकारते हैं कि मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति की प्राप्ति, उत्तम अथवा निकृष्ट किसी प्रकार के कर्म से नहीं हो सकतीं इसके उपरान्त भी इन दोनों ही धर्मों में मतावलम्बियों की बड़ी संख्या प्रकटरूप में अपने भले कामों, दयालुता, तप, संस्कार, रीति नीति, योगाभ्यास तथा अनेकानेक ऐसी क्रियाओं को भूलवश अपने उद्धार का साधन सक्षम बैठती है। एक हिन्दु अपने दान, ध्यान तथा स्नान से संतोष कर लेता है, तो एक ईसाई बहुत कुछ अपने चर्च की सदस्यता, वहां भेंट लें जाने या चर्च की धार्मिक कमेटी में सक्रिय बनकर सम्भवतः तृप्त हो जाता है। 

बाइबल स्पष्टता से प्रकट करती है कि उद्धार कर्मो के द्वारा नहीं, लेकिन केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है (इफिसियों 2ः8)। ‘‘हमारे धार्मिकता के सारे का मैले चिथडों के समान है’’ (यशायाह 64ः6)। शुभकार्य, धर्मकार्य के लिए चाहे कैसे ही आवश्यक क्यों ना हों, वे पाप से चंगाई नहीं दे सकते (देखिए मीका 6ः6-7; यहेजकेल 33ः13 आदि। वास्तव में यदि मनुष्य अपने पुण्य कार्यो से ही उद्धार पा सकता तो परमेश्वर को मसीह में अवतरीत होने और उसे कलवरी के क्रूस पर दुःख उठाने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती।

श्रीमद् भगवदृगीता ने उपनिषदों के इस सिद्धांत को प्रभावशील ढंग से विकसित किया है कि कर्म चाहे सुकृत हों या दुकृत - परमेश्वर उन्हें ग्रहण नहीं करता (2ः50; 5ः15)। जहां तक मुक्ति पाने का प्रश्न है, दोनों ही उसके लिए व्यर्थ है। इसे भली प्रकार से समझ लेना चाहिए कि हिन्दू मत में, सुकृत तथा दुष्कृत; प्राप्त करना, सदैव के दुखों का घर है (गीता 8ः15)। इसके विकल्प के रूप में गीता कर्मयोग अथव निष्काम कर्म की चेष्टा का मार्ग अपनाना।
सिक्ख धर्म के पुस्तकें भी मोक्षपाने के लिए कर्म की सामथ्र्य - योग्य विरूद्ध अपनी राय प्रकट करती हैः 

अनिक जतन नहीं होत छुटकारा (पन्ना 178, आदि ग्रन्थ साहिब)
अर्थात अनेक प्रकार के प्रयन्त करके भी मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। 

यह जान लेने के बाद कि प्रत्येक मनुष्य में अपने अच्छे-अच्छे कार्यो द्वारा उद्धार पाने के लिए एक स्वाभाविक प्रवृत्ति बनी रहती है; हमें हमारी मातृभूति के प्राचिन ऋषि मार्षियों की प्रशंसा करनी पडे़गी जिन्होंने स्पष्टता से घोषित किया कि किसी भांति की कार्य योग्यता से मोक्ष की प्राप्ति सर्वप्रथम असम्भव है। यदि हम यहांथोडे समय उन ऋषियों एवं व्याखाकारों के निष्कर्षों पर ध्यान दें तो इसके हमारे विचार सुस्पष्ट होगेः
श्रवण तथा शिक्षण से मोक्ष नहीं मिल सकता, यथा 

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, नमेघया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य, स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वामृ।। (मुण्डकोनिषद् 3ः2ः3; कठोपनिषद् 1ः2ः23)

यह परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिनको स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि यह पाप आत्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है। और ना ही दर्शन, वाणी, तप या कर्म के द्वारा: 

न चक्षुवा गृहयते नापि वाचा
नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्व
स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः। (मुण्डकोपनिषद 3ः1ः8)

यह (परमात्मा) न तो नेत्रों से, वाणी से और न दूसरी इन्द्रियों से ही ग्रहण करने में आता है। तप से वा कर्मो से भी वह ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस (परमात्मा) को श्रेष्ठ अन्तः करण वाले ज्ञानी ही ज्ञान के प्रसाद से ध्यान के द्वारा देख सकते है। 

नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वहिनना, छेत्तु न शक्यों न च कर्मकोटिभिः।
विवेकविज्ञानमहासिनां बिन, धातुः प्रसादेवन शितेन मज्जुना।। (विवेक चूडामणी 147)

यह कर्मबन्धन न तो किसी हथियार से, न वायु न अग्नि, न सहस्त्रों कर्मो के द्वादा छेदा या तोड़ा जा सकता है। केवल विवेक-ज्ञान की तलवार से जो प्रभु के प्रसाद से तेज़ की गई हो, उसे काटा जा सकता है। 
मस्तिष्क की बौद्धिक शक्ति के द्वारा भी नहीः

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति, नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्या। 
दन्यदेव तद्धिदितादथो अविदितादधि, इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तत् व्याचचक्षिरे।। (केन उपनिषद् 1ः3)

उस ब्रहम तक न तो आँख पहुँच सकती है, न वाणी और न मन ही। जिस प्रकार भी उसके रूप को बतलाए जाए, उसे न तो हम स्वंय जानते है, न दूसरों से सुन कर ही जान सके है, क्योंकि वह विदित पदार्थो से भिन्न है और न जाने हुए पदार्थो से भी परे है। ये बाते, हम अपने पूर्वजों से सुनते आए हैं, जिन्होंने यह तत्व हमें भली प्रकार समझाया था।  (मैत्रेयी उपनिषद 1ः13 देखें)

और ना ही धर्मशास्त्रों से ज्ञान प्राप्ति के द्वाराः
पिंगल उपनिषद 4ः22-25 का सुझाव है कि यदि कोई एक जार वर्षो तक भी धर्मो पुस्तकों का अध्ययन करे तौ भी उनका अन्त नहीं। इसीलिए उसे शास्त्रजालानि अर्थात शास्त्र मनन के जाल से छूट कर सत्य एंव ब्रम्ह प्राप्ति में जुट जाना चाहिए। 

वदन्तु शास्त्राणि यजुन्तु देवान्, कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः। 
आत्मैक्यबोधन विनापि मक्ति, र्न सिध्यति ब्रम्हशतान्तरेस्पि।। (विवेक चूड़ामणी 6)

लोग शास्त्र बाचें, देवों को यज्ञ अर्पित करें, कर्म इत्यादि करते रहे और देवताओं का भजन करे, लेकिन वह कितनी दूरी पार कर सकेगा? भगवद्गीता 5ः15 कहती है, अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानं अर्थात ज्ञान तो अज्ञान से ढंका हुआ है (इसी को माया कहा जाता है)।

मोक्ष - स्नान, प्राणायाम या दान से भी सम्भव नहींः 
अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितोक्तिः।
नस्नानेन न दानेन प्राणायाम शतेन वा।। (विवेक चूड़ामणी 13)

सत्य की दृढ़ धारणा, न तो स्नान वा दान वा सैकड़ों प्राणायाम से, परन्तु विद्धानों के हितकर परामर्श पर विचार करने से प्राप्त होती है। और इसकी भी तुलना करें किः 

न शरीर मल त्यागात् नरो भवति निर्मलः।
मानसु तु मले त्यक्ते भवत्यन्तः सुनिर्मलः।। (स्कन्ध पुराण, काशी खंड 6)

शरीर के मल को त्यागने से मनुष्य निर्मल नहीं बन जाता। परन्तु जब मन का मल दूर हो जाए तब उसका अन्तः करण शुद्ध ठहरता है। 

बलिदान, होम आदि की रीतियों से भी नहीः 
निश्चय ही ये यज्ञरूपी अठारह नौकाएं (जिसमें उपासना रहित सकाम कर्म पाए जाते हैं) मोक्ष के हेतु अदृढ़ या अस्थिर हैं। मूर्खजन इनको ही कल्याण मार्ग मानकर इनकी प्रशंसा करते है, परन्तु निःसंदेह वे बूढ़ापे और मृत्यु को प्राप्त होते रहतें है। (मुण्डकोपनिषद् 1ः2;7)

तन्त्र और तीर्थ लाभ से भी नहीः 

उत्तमा तत्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तम्।
अधमा तन्त्रचिन्ता च तीर्थ भ्रान्त्यधमाधमा।। (मैत्रायणी उपनिषद 2ः21)

तत्व चिन्तन सर्वोत्तम है, शास्त्रचिन्तन मध्यम, तन्त्र चिन्ता, अधर्म अर्थात निकृष्ट और तीर्थो में भ्रमण करना अधमाधम अर्थात अत्यन्त निकृष्ट है। ना ही ध्यान साधना के द्वाराः

दुःसाध्यं च दुराध्यं दुष्प्रेक्षयं च दुराश्रयम्। 
दूर्लक्षं दुस्तरं ध्यानं मुनिनां च मनीषिणाम्।। (विवेक चूडामणी 56)

मोक्ष ना जो योग से या साॅख्य अर्थात ब्रम्ह के तत्व चिन्तन से, और ना ही कर्म विद्या लाभ से, परन्तु केवल परमात्मा और जीवात्मा के एकत्व-बोध से सिद्ध होता है किसी भी अन्य प्रकार से नहीं। और यह वेदाध्ययन, तप, दान एंव यज्ञो से भी नही मिलता।

नाहं वेर्दर्न तपसा न दानेन न चेत्यया।
शक्यं एंवविधो द्रष्टुं दुष्टवानसि मां यथा। (गीता 11ः53)
जैसा तूने मुझे देखा है, वैसा मुझे वेदों से, तप से, दान से अथवा यज्ञ में भी कोई देख नहीं सकता। 

ब्रम्हशतान्तरः उस काल का नाम है जिसके अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रम्हाजी का केवल एक दिन मानव आयु गणना के 34,20,00000 वर्षो के बराबर होता है। 
साधन से भी नहीं प्राप्ति होताः 
उपाय जालं न शिवं प्रकावेद (अभिनवगुप्त तंत्रसार)

नाही नक्षत्र ज्ञान इसे पाने मेे सहायक होता हैः 
नक्षत्रं इति पृच्छन्तं बालमर्थोस्पिवर्तते।
अर्थ हि अर्थस्य नक्षत्रं किं करिष्यति तारकाः।। (कौटिल्य अर्थशास्त्रम्)

नक्षत्र ज्ञान पर भरोसा रखने वाले, बाल-स्वरूप मूर्ख जनों के लिए, लक्ष्य प्राप्ति दुर्लभ होती है। अपेक्षित वस्तु ही उस अपेक्षा का नक्षत्र है, तारे-सितारे क्या करेंगे?

धर्म पालन के द्वारा भी सम्भव नहीः
धार्मिक क्रिया - कलापों को पूरा करते रहने के तदन्तर भी धर्म के द्वारा मोक्ष के प्राप्त कर लेना सम्भव नहीं है। यद्यपि धर्म उत्तम है तथा समाज का ढाॅचा जिस पर जीवित रहता है, उसका आधार है, यथाः 
पथिवीं धर्मणा धृतां (अथर्ववेद 12ः1ः17)

धर्म ही पृथ्वी का आश्रय है। धर्मो धारयते प्रजाः
धर्म ही समाज का आधार है। (महाभारत, कर्ण पर्व)

सामान्यतः थोड़ा बहुत सभी धर्म अच्छे है। जैसे मसीही धर्म मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था से विकसित हुआ और हिन्दू धर्म स्मृतियों (मनु, याज्ञवल्य तथा पाराशर इत्यादि) से नियंत्रित और उपनिषदों पर आधारित हैं। सभी धर्म ईमानदारी, प्रेम, पवित्रता, त्याग इत्यादि सिखाते हैं, लेकिन समस्या यह है कि कोई धर्म किसी भी जीवात्मा को उद्धार - सामथ्र्य है। धर्म अधिकांशः दैहिक अथवा सांसारिकता का भरण-पोषण करता है, जब कि मोक्ष आत्मा एंव अनन्तता से संयुक्त है। धर्म सुन्दर - सुन्दर सिद्धान्तों का प्रतिपादन एंव संकल्प करता है लेकिन ऐसे विवि- विधानों की बहुतायत उस मनुष्य की रक्षा नहीं कर सकती, जो महासमुद्र में डूब रहा हो। उसे तो एक तारणहार की आवश्यक्ता है, जो स्वंय तैरना जानता हो तथा दूसरों को भी बचा सके।

वर्तमान पीढ़ियों में संसार की प्रायः सभी धार्मिक संस्थाएं या समुदाय अपनी व्यवस्थाओं में दरार तथा विघटन के चिन्ह प्रकट कर रहे है। धर्मक्षेत्र के अगुवे क्या कर रहे हैं, जबकि विश्व में ईश्वर रहितता, दुष्चरित्रता, युद्ध तथा मारकाट सुरसा की भांति बढ़ते जाते है? क्या धर्म के पास मनुष्य स्वभाव केा बदल देने की समझ योग्यता है? धर्म के द्वारा तो नहीं - केवल परमेश्वर के अनुग्रह से यह सम्भव है! (धर्म के नाम पर सारे लड़ाई-झगड़े इसीलिए, मूर्खतापूर्ण है, और प्रभु यीशु मसीह का शुभ समाचार किसी भी रूप में मसीही धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने का एक प्रयास नहीं है।)

जो कुछ भी ऊपर कहा गया है उकसा समर्थन दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मिलता हैः 

जानाभि धर्म न च मे प्रवृति, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।। (पाण्डवगीता)

धर्म को मैं जानता हूॅ परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं, और अधर्म भी मैं जानता हूं। परन्तु उस में मुझे निवृत्त् िनहीं। ना जाने किस प्रकार मेरे हृदय में ऐसी स्थिति है जिसमें विवश होकर मैं वही कार्य करता हूं जो मेरे लिये नियुक्त हो चुका है। 

विद्वान नारद मुनि ने श्रषि सनतकुमार के समक्ष उपनी समस्या को इन शब्दो में प्रकट किया किः 

हे भगवान। मैं श्रग्वेद, यजुर्वेद, अर्थवेद तथा सामवेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण इत्यादि सब जानता हूं। मैं मंत्रविद् हूं परन्तु आत्मा (ब्रम्ह) को नहीं जानता। (छान्दोग्य उपनिषद् 7ः1ः2)

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