कर्मवाद की प्रभावशीलता

 कर्मवाद की प्रभावशीलता

कर्मवाद में भरोसा रखने के चक्रव्यूह ने पिछले तीन हजार वर्षो में हमारे देश के जीवन क्रम को निर्णायात्मक रूप में भली और बुरी, दोनों ही दृष्टियों से प्रभावित किया है। लेकिन इसने आवश्यक रूप में प्रत्येक के अनदेखे भविष्य के प्रति भी उदासीनता तो उत्पन्न की ही है। गरीब, अन्धे तथा पिछड़े एंव निस्सहाय लोग, यह जानते है हुये कि कर्म की रेखा को कौन बदल सकता है, काफी हद तक अपने भाग्य के भरोसे निष्क्रिय पड़े रहते है। फिर, इस सिंद्धान्त ने दूसरों के प्रति अलगाव को जन्म दिया तथा लोगों में समाज ही के प्रति शुभचिन्तन एंव सेवा को प्रेरित होने की भावना को छीन लियां। इसलिए, यदि कर्म हर एक जीव के छोटे से छोटे भाग में जब इतनी गहराई से जुड़ा है, तो फिर इस विश्व में एक मनुष्य के अधिकारों और उसके सही भागों में रोक लगाकर या गड़बड़ी डालकर उन्हें बदलने के साधन खोजने का कष्ट क्यों करें?

जितना शीघ्र हो सके, जीवात्मा कर्म की इस अग्नि परीक्षा से पार उतर जाए, उतना ही उसके लिए भला है। कसी भी व्यक्ति के माग्य - क्रम में उत्पन्न किया गया व्यवधान अन्ततः उसे उसके एक कर्मचक्र को पूर्ण करने में विलम्बित ही करेगा। परिणामस्वरूप, पिछली कई शताब्दियों तक ऐसे परिस्थियों के बीच भारत वर्ष में कुछ एक ही समाज - सुधारक दिखाए दिए जब तक कि मसीही सेवा समूहों के प्रभाव प्रेरणा  से राजा राममोहन राॅय तथा ऐसे ही दूसरे समाज विधाता प्रगट हुये। हमात्मा गाॅधी, स्वामी दयानन्द सरस्वती या स्वामी विवेकान्द जैसे हमारे विद्वान समाज दुष्टाओं ने यदि कर्मवाद के सिद्धान्त का गहनता से अनुसरण किया होता तो, समाज, धर्म राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए जो कुछ वे कर सकें, उसे कर पाना उनके लिये सम्भव नहीं होता। 

तीसरे, इसी वर्तमान जीवन में आत्मा को घेरे बन्धनों से मुक्त होकर जीवात्मा के मोक्ष प्राप्ति के सभी गम्भीर प्रयासों को कर्मवाद का सिद्धान्त निर्दयता से टाल देता या अलग कर देता है; यह सोचते हुए कि जन्मन्तरों से घिरे विशाल जीवन मार्ग में चाहे लाखों वर्षों के तदन्तर ही हो, एक दिन उसे स्वतः ही किसी प्रकार प्रकार मुक्ति मिल जायेगी। हमारे देश के पूना निवासी विद्वान - अध्येता, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने बहुत समक्षता से व्याख्या की है कि कर्म तथा कर्म से  स्वतन्त्र होने की अभिलाषार - परस्पर एक दूसरे से विरोधी है (गीता रहस्य पृष्ठ 280), क्योंकि जो मनुष्य अविद्या या माया से वशीभूत हो चुका है वह उद्धार की सत्य कामना कदापि कर नहीं सकता।

जहाॅ तक एक मसीही का प्रश्न है, यह कामना असत्य होगा कि वह कर्मफल में विश्वास नहीं करता। बाइबल का कथन  है कि मनुष्य जो कुछ बोता है, उसी की कटनी काटेगा। (गलतियों 6ः7,8; 2कुरिन्थियों 5ः10) यह की उसकी स्वीकारोक्ति है कि वर्तमान दुख - क्लेश सदैव तो नहीं, लेकिन कभी - हमारे पुरखाओं के कार्यो के प्रतिफल होते है (निर्गमन 34ः7) तो भी, कर्म के चक्र या उसके सहायक जन्मान्तर के विचार मसीहीजन को सर्वथा अमान्य है।


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