युगानुयुग की यातना

 युगानुयुग की यातना 

एक विद्वान, सिनेका (Seneca) का मता है, कि ‘‘प्रत्येक दोषी व्यक्ति अपना ही ज़ल्लाद है।‘‘ इसलिए मानव की यहाॅ - दौड़ तथा युगानयुग की पीड़ादायी त्रासदी को निश्चय ही समझा जा सकता है। पीड़ित जीवात्मा त्राण के लिए वृक्षों समाधियों, पहाड़ो, नदियों, चट्टानों, गले में लटके क्रूसों और पक्षियों से लेकर सर्पो तथा प्रेतात्माओं तक की ओर झांकता रहा है। पृथ्वी पर की किसी भी जाति या समुदाय ने पाप के दासत्व की पीड़ा को इतनी गम्भीरता से अनुभव नहीं किया, जैसे युगों से हमारे अपने प्रिय पूर्वज करते आये है, और मेरा विश्वास है, परमेश्वर भारत वर्ष को उसकी इस प्रबल मुमुक्षता के कारण अत्यधिक प्रेम करता है। भारतीय सन्तों ने प्राचीनकाल से ही मुक्ति की खोज यात्रा में पर्वतराज हिमालय की कन्दराओं और जंगलो को दूर - दराज तक आर-पार छाना है। तपस् हेतु उन्होंने कड़े शीतकाल में भी खुले आकाश तले नंगे बदन रहना चुन लिया, आग पर चले, काॅटों पर सोये, अल्पभोजी रहे तथापि वे विलाप करते रहे - ‘‘स्पप्न में भी दैवगति से पाप उत्पन्न हो जाते है‘‘ ऋग्वेद 7ः86ः2-7। 

ऐसी आत्मिक तनाव की पीड़ा के कारण वैदिक ऋषि पुकार उठेः

अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णाविदज्जयरितारम्। मृला सुक्षत्र मृलय।। (ऋग्वेद 7ः89ः4)

जलाशय मध्य स्थित होने पर भी मैं अत्यन्त प्यासा हूँ। दया करो, (हे वरूण) मुझे सुखी करो।

कर्मो के बन्धन में प्राण इतना अधिक पिस गया (क र्म बन्धन को पाप बन्धन भी कहा जा सकता है) कि एक वैदिक सन्त ने पाप को, जो उसे प्रेत की भांति घेरे था, भाग जाने का आदेश दिया, 

परोपेहि मनस्पाप किसशस्मानि शंससि परेहि न त्वा कामये। (अथर्ववेद 6ः45ः1 (अ))

हे मेरे मन के पाप, क्यों मुझे बुरी सम्मतियाँ देता है? दूर भाग, मैं तुझे नहीं चाहता। यही वह दासत्व है जिसके बन्धन में पड़ा महान वैदिक महर्षि ऐसी पीड़ा - युक्त प्रार्थनाएँ उच्चारता हैः 

असतो मा सद् गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मा अमृतं गमय।। (बृहदाण्यक उपनिषद् 1ः3ः28) तथा (शत्पथ ब्राम्हण 4ः3ः1ः30)

असत् से निकालकर मुझे मत् तक पहुॅचाइये, अन्धकार से निकाल कर जयोति में लाईये, और मृत्यु से पार करके अमरत्व में प्रवेश दिलवाइये।

विद्वत् प्रभूति शंकराचार्य की आत्मा को इस असत् एंव मृत्यु के महापाश ने ऐसी दुरदान्ता से छेद दिया कि वह गुहार करने लगीः 

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं।

इह संसारे बहु दुस्तारे, कृपयापारे पाहि मुरारे।। (भज गोविन्द्म)

बार-बार जन्म लेना बार-बार मर जाना और बार-बार मातृगर्भ में सोना-इस कर्म संसार को पार करना बड़ा ही दुस्तर है। हे मुरारी, अपनी कृपा से मुझे पार लगा दे। 

भारतीय भक्तिकाल की सारी, आत्मिक खोज-यात्रा का आधार और उस पर स्थिर निष्काम भाव समर्पण इस जन्म - मरण में बंधे पाप बन्धन से मुक्ति पाने के लिए ही था। सूरदास, तुलसी, मीरा, रहीम, कबीर, रैदास, दादू और चन्द्रसखी की उपासनाएं विभिन्न प्रतीकों के बावजूद उस एकमेव शाश्वत सृजनहार परमेश्वर पर केन्द्रित हे, जो अपनी कृपा तथा अनुग्रह से जीवात्मा को इस भयावह मृत्यु-पाश से स्वतन्त्र कर सकता है। संत तुलसीदास की एक स्तुति पर ध्यान करेंः 

जाऊँ कहाॅ तजि चरण तुम्हारे? काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे।

देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया बिबस विचारे।। 

भारतीय भक्ति परम्परा के सूर्च; सूरदास, ने जब अपनी सारी धार्मिकता के बावजूद अपने पाप-स्वभाव को देखा तो विहाल हो कर बोल उठेः

मो सम कौन कुटिल खल कामी?

पापी कौन बड़ी है मोते, सब पतितन में नामी।

परमेश्वर के प्रेम में मदमस्त मीरा दीवानगी में भी इस भवसागर बन्ध के प्रति चिंतित होकर जन्म-मरण से छुटना चाहती थीः

नहीं ऐसौ जनम् बारम्बार।

भवसागर अति जोर कहिए, विषम ओखी धार।

सुरत का नर बांधे बेड़ा, बेगि उतरे पार।। 

मराठी भक्तिभाव के महान् संत तुकाराम तथा नारायण तथा नारायण बामन तिलक के आत्मचिंतन की पीड़ा भी कुछ इसी प्रकार हैः 

तुका म्हणे झाली अन्धलयाची परी।

आतां मज हरी बाट दावी।। (संत तुकाराम)

अर्थात हे तारणहार हरि, मैं तो अन्धे मनुष्य की भांति हूँ, तू ही मेरा मार्ग-दर्शन कर।

दुर्बल भी नीच भंड, दुर्विचार करि उदंड, 

प्रभु बिन मम पाप दंड, कवण भरिल, भरिल, भरिल, भरिल? (नारायण बामन तिलक)

अर्थात, मैं तो कैसा दुर्बल, नीच और दुष्ट हूँ मेरा जीवन कुविचारों से भरा हुआ है। मेरे ऐसे पापों के दण्ड को प्रभु के अलावा कौन भर सकता है?

दक्षिण भारत के एक संत कवि का चिन्तन भाव भी इस प्रकार हैः

‘‘कितनी योनियों से निकल कर मैं यहां आया हूँ यह जानता नहीं, और कितनी से गुज़रना है, यह भी कोई नहीं कह सकता। लेकिन यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि इस सारी यात्रा में पीड़ा, शोक की तीव्रता मुझे नोंचती रहेगी।’’ 

हाॅ यह सत्य है कि भारतवर्ष की आत्मा से बढ़कर और कौन इस कर्म - बन्धन अथवा जन्म-बन्धन की व्यथा को जान सकता है! तौ भी, पाप की यह व्याधि विश्वव्यापी है। महाराजा और भविष्द्वक्ता दाऊद की करूणा पुकार को सुनिएः 

हे परमेश्वर, अपनी करूणा के अनुसार मुझ पर अनुग्रह कर, अपनी बड़ी दया के अनुसार मेरे अपराधों को मिटा दे।’’ (भजन संहिता 51ः1)

और मुक्ति से पूर्व मनुष्य की आत्मपीड़ा का एक चित्र प्रेरित पौलुस के अनुसार ‘‘क्योंकि पाप ने आज्ञा के द्वारा अवसर पाकर मुझे बहकाया और उसी के द्वारा मुझे मार भी डाला। क्योंकि हम जानते है कि व्यवस्था तो आत्मिक है परन्तु मैं शारीरिक हूं तथा पाप के हाथों बिक चुका हूॅ। इसलिए जो मै करता हूं, उसको समझ नहीं पाता, क्योंकि जो मैं चाहता हूॅ, वह नहीं किया करता, परन्तु जिससे मुझे घृणा है, वही करता हूॅ। तो ऐसी देशा में उसका करने वाला मैं नहीं रहा, परन्तु पाप है, जो मुझ में बसा हुआ है। मैं कैसा अभागा मनुष्य हूॅ। मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ायेगा?’’ (रोमियों 7ः11-25)

आधुनिक भारतीय कवियों में से एक ने इस प्रकार अपनी भावनाओं को प्रकट किया हैः

न मुझे चैन मिला है न मिलेगा, 

सफ़र अधूरा है, अधूरा ही रहेगा। 

और एक अन्य ने भी इस कारूणिक पीड़ा का यूॅ बयान किया हैः

क्या वज़ह आसी गुनाहों से शिफा पाता नहीं?

जबकि हैं लाखों मुवालिज पर मर्ज़ जाता नहीं।

अच्छे अच्छे पारसा देखे गुनाह में मुबतिला, जीते जी आदम गुनाह से, मखलसी पाता नहीं?।।


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