कर्म - चक्र का उद्भव

कर्म - चक्र का उद्भव 

हिन्दू विचारिकों के पास इसका कोई सन्तोषजनक और ठोस स्पष्टीकरण नहीं है कि कब और कैसे उस पहिले कर्म का प्रकटीकरण हुआ, जिसने इस भंयकर चक्र की स्वचलित किया। किसने पहिले पहल कर्मफल को अपनी योग्यता या अयोग्यता के आधार पर भोग अथवा कैसे स्वभाव या कर्म करने की इच्छा का भाव उप्तन्न हुआ - ऐसे कई प्रश्न है जिनके उत्तर अप्राप्य है, आदि शंकराचार्य ने इस विषय को एक तर्क संगत दुविधा स्वीकार कर लिया, क्योंकि कर्म के बिना संसार (दृश्य जगत या ‘पीपल वृक्ष’) में प्रथम प्रवेश हो ही नही सकता था तथा दूसरी ओर जन्म की विद्यमानता के अभाव में प्रथम कर्म के सम्पन्न करने की क्रिया भी नहीं हो सकती थी (शंकर भाष्य  2ः1ः36)।


कर्म स्वचलित है। परमेश्वर कर्म का रचनाकार नहीं है (गीता 5ः14-15), हालांकि भौतिक ब्रम्हांड की सृष्टि रचना वेदान्त विचार में बहुत कुछ परमेश्वर एंव प्रकृति की सहकार्यता पर निर्भर करती है। तो भी, उपनिषदों में से एक में, परमेश्वर को कर्माध्यक्ष या कर्म का संचालित करने वाले अधिकारी के रूप में जाना गया है (श्वेताश्वर उपनिषद् 6ः11)

कर्म जो श्री भगवद्गीता (3ः27) के अनुसार प्रकृति - स्वभाव है, वेदान्त सूत्र (2ः1ः35-37) ने अनादि तथा गीता ने अनादि एंव अनन्त माना है (गीता 13ः19ः15ः3)। परमेश्वर के साथ सदैव विद्यमान ऐसे विचित्र माया को विवेक चूड़ामणी पुस्तक में प्रवेश शक्ति ही बताया गया है (पद 108-109)।

इस कारण, यह बहुत सरलता से समझा जा सकता है, कि अद्वैत - वेदान्त ने परमेश्वर तथा प्रकृति के अनादि द्वैतवाद की ऐसी उलझन में प्रकृति को मजबूरन केवल माया ही गिनो तो भी, इस सिद्धान्त के प्रमुख व्याख्याता श्री शंकराचार्य का कटु विरोध श्री रामानुजाचार्य के द्वारा हुआ जिन्होंने विशिष्टता द्वैतवाद के नाम से अपने मत का प्रतिपादन किया। श्री भगवद्गीता (जिसे हम संक्षिप्त रूप में गीता कहते है) इस माया को ‘दैवी’ अर्थात अर्थात दैविक सम्बोधित करती हैै (7ः14)

कर्म-चक्र के उद्भव का हेतु चाहे कुछ भी हो, हमारे हिन्दू मित्रों के विश्वास के अनुसार तो यह बहुत भयावह है। जीवात्मा के ऊपर लदी यह कैसी अपरिहार्य और अपशय में खींचने वाली शक्ति है। जिसका निरन्तर किया जाना है और उस पर जयवन्त होना मानवीय साधनों से तब तक असम्भव है - जब तक कि कर्म की योग्यता - अयोग्यता या गुणागुण को जीव पूरी रीति से जन्मान्तर चक्र में नहीं भोग लेता।

संचित, प्रारब्ध तथा क्रियमाण

कर्म, किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्यो के अर्थ में, निम्न प्रकार से आगे और विवेचित किया गया है।

(अ) संचित कर्मः पुरूष या नारी के रूप में पिछले जन्मों में किए क्रिया-कलापों तथा कार्यचेष्टा के प्रतिफल स्वरूप एकत्रित कर्मफल।

(ब) प्रारब्ध कर्म: संचित कर्मो से प्राप्त हुआ वह छोटा भाग जो जीवात्मा में प्रवेश करने के साथ स्वतः ही जुड़ जाता और जन्म के साथ, पूर्वकर्म भोगने के लिए प्रगट होता है, और 

(स) क्रियामाण कर्मः जिन्हें जीवात्मा अपने मानव जीवन काल में स्वंय द्वारा सम्पन्न किए गए कर्मो के गुण अवगुण के आधार पर एकत्रित करता हैं और जो संचित कर्म में बदल जाते हैं।

इन पर विवेचनात्मक व्याख्या वेदान्तसूत्र 3ः2ः39-40; 4ः1ः15 तथा गीता 18ः15 इत्यादि में प्राप्त हो सकती है। 


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