पाप पर दण्डोदश

 पाप पर दण्डोदश

बाइबल धर्मग्रन्थ पाप के प्रति अति कठोर है और घोषणा करता है कि, पाप की मज़दूरी मृत्यु है (रोमियों 6ः23), एक ऐसी मृत्यु जो जीव को प्रभु से तथा ज्योति और जीवन से रहित कर देती है। दूसरे शब्दों में इसी का नाम नरक है। भजन संहिता 11ः6 कहता है कि दुष्टों पर अग्नि वर्षा होगी तथा यशायाह 48ः 22 का वचन है कि दुष्टकर्मियों को कोई शांति नहीं।


मुण्डक (मंडल) ब्रहमोपनिषद् 2ः4 कहती है। पाप फल परकादिमास्तु अर्थात पाप का प्रतिफल अनन्त नरक है। गीता भी प्रकट करती है कि नरक के लिए काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन द्वार खुले है, 16ः21। जो अपनी अज्ञानता से भ्रमित है, वे घृणित नरक में गिरते है, 16ः16, दुष्ट - कर्मी आसुरी लोग पापयोनियों में ढकेल दिये जाते है, 16ः19। 

जन्म जन्मान्तर या पुनर्जन्म का सिद्धान्त (जिसके लिये व्यक्तिगत रूप से मेरी कोई सहमति नहीं) हिन्दू मित्रों के लिए बहुत ही कठोर और पीड़ा जनक है जिसका सीधा अर्थ है 84 लाख योनियों में जन्मान्तर की सभावना! यदि प्राणी का एक योनिकाल औसतन दस वर्षो का हो तो सम्भवतः वह प्राणी आठ करोड़ चालीस लाख वर्षो तक पीड़ा एंव शोक के दुर्भाग्य में फंसा रहेगा। इतना ही नहीं, ऐसा पुनर्जन्म उसे घृणित संरचना की परिधि तक ले जाता है जिसमें अनेक अपवित्र एंव भयावह प्राणी, कीट, पतंगे, पेड़ - पौधे तथा और भी बहुत कुछ शामिल है। इसलिए, श्रीमद् भागवद गीता पुनर्जन्मको दुःखालयमशाश्वतम् (अर्थात शोक- दुखो का निवास स्थान, जो अमरत्व का प्रतिकूल है) कहा है, 8ः15। मनीषी याज्ञवल्क्य ने मानवी जीवन को असत् तमस् तथा मृत्यु स्वरूप बताया जाता है, बृहद अरण्यकोपनिषद्1ः3ः28; आदि ने पुनर्जन्म को पुनर्मृत्यु कहा है क्योंकि बिना पुनः मृत्यु के पुनर्जन्म कहाॅ? बहुतेरे जन्मान्तरों का अर्थ बहुतेरी मृत्यु भी है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि हिन्दूमत का विचार पाप के परिणाम के सन्दर्भ में कोई कम गहरे या कम भयावह पर स्थित हैं कि पाप - स्वभाव की इस स्थिति से छूटना मानवीय प्रयासों से दुश्वार और असमेव हैं। इसे किसी भी सुकृत या भले कर्म से सुधारा नहीं जा सकता। पवित्र बाइबल में यिर्मयाह 2ः22 के लिखित वचन पर ध्यान करें, 

चाहे तू अपने को सज्जी ये धोए, 

और बहुत सा साबुन भी प्रयोग करे, 

तौ भी तेरे अधर्म का धब्बा मेरे सामने बना रहेगा, 

प्रभु परमेश्वर की यह वाणी है। 

मुण्डकोपनिषद् 3ः1ः8 भी स्पष्ट करती है कि पापों के कारण जीवात्मा का प्रभु को पाना असम्भव है। 

न चक्षुषा गृहयते नापि वाचा।

नान्यैः दैवैः तपसा कर्मणा वा।।

न नेत्र, न वचन, न तपस् न कर्म और न अन्य किसी युक्ति से वह प्राप्त होता है। 

अगले अध्याय में हम सत्वगुण (भले और उत्तम काम) की प्रभावहीनता पर भी विचार करेगें। अभी इतना समझ लेना पर्याप्त है कि पाप का रोग सम्पूर्णतया असाध्य है। 

Comments

Popular posts from this blog

पाप का दासत्व

श्राप को तोड़ना / Breaking Curses

भाग 6 सुसमाचार प्रचार कैसे करें?