कर्म और अनुग्रह

 कर्म का अर्थ 

संस्कृत भाषा में कर्म शब्द का अर्थ कोई कार्य या काम है। वेदों में तो इसका प्रयोग यदाकदा ही पाया जाता है लेकिन ब्राम्हण - ग्रन्थों एंव उपनिषदों के कालक्रम में इस कर्म शब्द का अर्थ विशाल एंव दार्शनिक हो गया। कर्म से संबधित प्रारम्भिक कालीन विद्धान्तों का व्यस्थित दर्शन शत्पथ ब्राम्हण तथा बृहदारण्यक उपनिषद् ग्रन्थ स्वीकृति में कहता हैः 


कर्मणा बाध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यंते। (शांतिपर्व 241ः7)

अर्थात कर्म से मनुष्य बंधन में पड़ता और ज्ञान द्वारा मुक्त हो जाता है। 

कर्मवाद की अपरिहार्य आवश्यक्ता; इस समझबूझ से प्रकट हुई लगती है कि उजग में व्यापकता बुराई और पीड़ा का और कोई कारण नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि उनका सम्बन्ध जीवात्मा या प्राणी द्वारा किए पूर्वकर्मो से है। परिणामतः इस विचार ने पुनर्जन्म या आवागमन के सिद्धान्त के लिए द्वार खोल दिया जिसमें पहिले किए कार्य तथा उसके प्रतिफल सम्भव हो सके। जैनियों, बौद्धों तथा सिक्खों ने समय की गति के साथ अपने आपको वैदिक प्रभुत्व से तो अलग कर लिया लेकिन इनमें से कोई भी कर्म एवं जनमान्तर के सिद्धान्तों के बिना नही चल सका।

श्री भगवद्गीता (8ः3) के अनुसार कर्म एक सृजनात्मक शक्ति है जो प्राणी को पुनर्जन्म या जीवन के अस्तित्व तक लाती है। लोकमान्य पं. बालगंगाघर तिलक के अनुसार सृष्टि व्यापार कर्म है। 

भारतीय विचार धारा में कर्म - बन्धन अपने कई भावार्थो में समानार्थक जाने जाते है जिसका तुलनात्मक अध्ययन ऋग्वेद 2ः28ः5; बृहदारण्यक उपनिषद 1ः6ः1 तथा बा.ग. तिलक द्वारा लिेखित ‘गीता रहस्य’ के पृष्ठ 264 पर मिलता है; परन्तु तद्यति कर्मवाद निश्चय ही एक अत्यधिक पेचीदा सिद्धान्त है। 

कर्म से प्राप्त जन्मान्तर का चक्र कर्म संसार कहलाता है। यक विश्व एक कर्मभूमि है। प्रत्येक जीवात्मा या प्राणी अपने जन्मकाल से ही कर्मबद्ध या कर्मफलों से बंधा हुआ है। 

जब कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है तो इसके कई भाव मूलक अर्थ हो सकते है, जैसे: 

1. किसी मनुष्य के सभी कर्मो या किसी कार्य चेष्ठा से इसका सम्बन्ध हो सकता और ये कार्य सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक गुणों से युक्त हो सकते है जो मिलकर त्रिगुण या तिहरे स्वभाव कहलाते है। 

2. दूसरे, इसका अर्थ कर्म का फेरा, कर्म संसार या कर्म चक्र हो सकता है। प्रायः अतंहीन भवचक्र आवागमन की इस मौजूदगी की एक मात्र उद्देश्य यह है कि जवन में भूत, वर्तमान या भविष्य में भले अथवा बुरे कर्म किए है, उनके अनुसार वह शुभ, अशुभ फल प्राप्ति का पूरा-पूरा अवसर पा सके। इस भांति फल पाने को कर्म भोग कहा गया है। यह संसार अति बलपूर्वक कर्म के बन्धनों में जकड़ा हुआ है। (गीता 3ः9)

3. फिर तीसरे, कर्म शब्द का अर्थ कर्म योग या निष्काम कर्म हो सकता है, जिनका मतलब उन कामों या कार्य चेष्टाओं से है जिन्हें फल प्राप्ति की अभिलाषा से नहीं किया गया।

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