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Showing posts from November, 2025

वचन मन में रखना — आत्मिक जीवन की शक्ति

1. वचन मन में रखना  उपशीर्षक: हृदय में वचन, जीवन में शक्ति बाइबल उद्धरण: "तेरे वचन को मैं ने अपने हृदय में छिपा लिया है, कि तुझ से पाप न करूँ।" (भजन संहिता 119:11)​ परमेश्वर का वचन हमारे हृदय और मन में धारण करने से आत्मिक शक्ति प्राप्त होती है, जो जीवन की हर चुनौती में मार्गदर्शन देता है। लूका 2:19 के अनुसार, "परन्तु मरियम ने ये सारी बातें अपने हृदय में रखीं, और उनके विषय में चिन्तन करती रहीं।" यह कवर हमें सिखाता है कि वचन को मन में रखना न केवल स्मृति का कार्य है, बल्कि परमेश्वर की योजना को समझने और जीने की कुंजी है।​ 2. मुख्य पद — लूका 2:19 उपशीर्षक: मरियम का हृदय: वचन का भंडार बाइबल उद्धरण: "परन्तु मरियम ने ये सारी बातें अपने हृदय में रखीं, और उनके विषय में चिन्तन करती रहीं।" (लूका 2:19)​ मरियम ने यीशु के जन्म और स्वर्गदूतों की घोषणा की सभी बातों को अपने मन में संभालकर रखा। यह पद दर्शाता है कि परमेश्वर के कार्यों पर चिंतन करना आत्मिक परिपक्वता की निशानी है। इससे हम सीखते हैं कि वचन को मात्र सुनना पर्याप्त नहीं, बल्कि उसे मन में धारण कर जीवन में उतारना आ...

पहले मनुष्य को बनाने में परमेश्वर की इच्छा क्या थी?

परमेश्वर ने जब मनुष्य की रचना की, तब उसकी मूल इच्छा प्रेम, संगति और प्रभुत्व का जीवन था । मनुष्य को परमेश्वर के स्वरूप और सदृश्य में बनाया गया ताकि वह परमेश्वर के साथ संगति में रहे और उसकी इच्छा को पृथ्वी पर पूरा करे । बाइबल कहती है: उत्पत्ति 1:26–27 “तब परमेश्वर ने कहा, हम मनुष्य को अपनी छवि पर, अपनी समानता में बनाएं, और वे समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों, पशुओं, सारी पृथ्वी, और हर रेंगनेवाली वस्तु पर अधिकार रखें और परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी ही छवि पर उत्पन्न किया ।” यहाँ दो मुख्य सत्य दिखाई देते हैं: ✓ 1. परमेश्वर संगति चाहता था: मनुष्य को परमेश्वर के साथ चलने-फिरने, बोलने, सुनने और उसके प्रेम में सहभागी होने के लिए बनाया गया था । मनुष्य का उद्देश्य उपासना और आज्ञाकारिता था । ✓ 2. परमेश्वर ने मनुष्य को अधिकार दिया: पृथ्वी पर काम करने, बढ़ने, फलने-फूलने, शासन करने और परमेश्वर की महिमा प्रकट करने के लिए । ✦ उस मनुष्य का क्या हुआ ?: परमेश्वर की आज्ञा न मानने और पाप में गिरने के कारण मनुष्य का हृदय भ्रष्ट हो गया । पाप धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि पूरी पृथ्वी हिंसा और दुष्टता से भर गई ।...

जीवन की आत्मा का नियम

क्योंकि जीवन की आत्मा का नियम मसीह यीशु में मुझे पाप और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया (रोमियों 8:2)। प्रेरित यूहन्ना स्पष्ट रूप से बताते हैं कि पाप व्यवस्था का उल्लंघन है और धर्मी व्यवस्था के अधीन होता है। परन्तु मसीही जीवन वह जीवन है जो पाप और मृत्यु की व्यवस्था से मुक्त होकर जीवन की आत्मा की व्यवस्था के अधीन रहता है। यह व्यवस्था मूसा की व्यवस्था या पाप की व्यवस्था नहीं, बल्कि एक नई आज़ादी और जीवन का नियम है जो यीशु मसीह में मिलता है। याकूब 1:25 में इसे "स्वतंत्रता के सिद्ध नियम" के रूप में वर्णित किया गया है, जहां नियम केवल बंदिश नहीं, बल्कि हमें मुक्त करने वाला सिद्ध होता है।​ यह नियम शैतान के बन्धनों को तोड़ता है और हमें जीवन और अमरता की ओर ले जाता है। बाइबल कहती है कि प्रभु यीशु मसीह ने मृत्यु का नाश किया और जीवन का प्रकाश दिया (2 तीमुथियुस 1:10)। नया जन्म पाकर हम अनन्त जीवन के अधिकारी बनते हैं, जहां उपचार की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि जीवन की आत्मा खुद हमारे भीतर कार्य करती है। “यदि उसी का आत्मा जिसने मसीह को मरे हुओं में से जिलाया, तुम में बसा है, तो वह तुम्...

उसकी आवाज़ पर तुरंत प्रतिक्रिया दें

अपने हृदयों को कठोर न करें, जैसे जंगल में परीक्षा के दिन, क्रोध के समय किया था  (इब्रानियों 3:8)। पवित्र आत्मा के साथ एक गहरा और केंद्रित संबंध आपके आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है। पवित्र आत्मा आपके भीतर निवास करता है और आपको सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है। उसकी आवाज़ को सुनकर तुरंत प्रतिक्रिया देने से आपके जीवन में अद्भुत परिवर्तन आएंगे। वह आपको सही मार्ग पर ले जाता है और आपके जीवन की दिशा को परमेश्वर के उद्देश्य के अनुरूप बनाता है।​ कई बार आपको लगे कि आपने ज्यादा बातें कर दी हैं या कोई कदम सही नहीं था—ऐसे समय में पवित्र आत्मा की प्रेरणा को अनदेखा न करें। यह आपकी आत्मा की आवाज़ है जो आपको सचेत करती है, जिससे आप सुधार कर सकें और उसकी सेवकाई को प्रोत्साहित करें। जो लोग उसकी आवाज़ को नकारते हैं, वे अक्सर असफलता और ठहराव में फँस जाते हैं, पर जो उसकी आवाज़ पर तुरंत और विनम्रता से प्रतिक्रिया देते हैं, वे आध्यात्मिक परिपक्वता की ओर बढ़ते हैं।​​ यशायाह 30:21 (एनआईवी) कहता है, "चाहे तुम दाहिनी ओर मुड़ो या बाईं ओर, तुम्हारे कानों में तुम्हारे पीछे से एक आवाज़ सुनाई देगी, जो कहेगी, ...

वचन पर ध्यान केंद्रित करें

आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की रचना की। पृथ्वी बेडौल और सुनसान थी; और गहरे जल के ऊपर अन्धकार था। और परमेश्वर का आत्मा जल के ऊपर मंडराता था। और परमेश्वर ने कहा, उजियाला हो, और उजियाला हो गया (उत्पत्ति 1:1-3)। यह पद परमेश्वर के वचन की अद्भुत शक्ति और महत्व को स्पष्ट करता है। परमेश्वर के वचन ने पूरे ब्रह्मांड और संसार की रचना की। वचन ही वह माध्यम है जिसके द्वारा परमेश्वर स्वयं प्रकट होते हैं। जहाँ वचन होता है, वहाँ परमेश्वर का सामंजस्य और शक्ति होती है। परमेश्वर का वचन केवल मनुष्य के वचन जैसा सामान्य भाषण नहीं, बल्कि जीवन, शक्ति, प्रकाश और सत्य है। इसका अध्ययन और जीवन में केंद्रित होना परमेश्वर पर मन केंद्रित करना है।​ यशायाह 26:3 कहता है, "जिसका मन तुझ पर स्थिर रहता है, उसे तू पूर्ण शांति में रखता है, क्योंकि वह तुझ पर भरोसा रखता है।" किसी भी परिस्थिति में मन को स्थिर रखना और विश्वास बनाए रखना वचन के प्रति स्थिरता और मनन से ही संभव है। जब हम परमेश्वर के वचन को अपने अंदर ग्रहण करते हैं, तो हम अलौकिक घटनाओं के लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि वचन में परमेश्वर की शक्ति समाई...

धर्मी की बुद्धि

और वह एलिय्याह की आत्मा और सामर्थ्य में होकर उसके आगे-आगे चलेगा, कि पितरों के मन को बालकों की ओर और आज्ञा न माननेवालों को धर्मियों की बुद्धि की ओर फेरे; और प्रभु के लिए एक योग्य प्रजा तैयार करे (लूका 1:17)। इस पद में "आज्ञा न माननेवाला" शब्द का ध्यानपूर्वक अर्थ समझना आवश्यक है। यह उस व्यक्ति को दर्शाता है जो जानबूझकर गलत रास्ता चुनता है, जो हठी और मनाने योग्य नहीं होता। ऐसे लोग सत्य जानते हुए भी अपने दृढ़ मन से हटते नहीं। वे परमेश्वर के वचन के अधीन नहीं होते क्योंकि परमेश्वर का वचन ही परमेश्वर की बुद्धि है। इसलिए परमेश्वर चाहता है कि उनके हृदय धर्मियों की बुद्धि की ओर मुड़ें, क्योंकि धर्मियों की बुद्धि वचन के अधीन होती है और पारदर्शी होती है।​ धर्मी की बुद्धि वह है जो सहजता से वचन को स्वीकार कर परिवर्तन करती है। जैसा कि पुराने नियम में बाइबल इस्राएलियों को बताती है, उनकी अविवेकता के कारण वे परमेश्वर के विश्राम में प्रवेश नहीं कर सके। परन्तु धर्मी की बुद्धि ऐसे लोगों की विशेषता है जो स्वेच्छा से वचन को ग्रहण करते हैं और उसे अपने जीवन का आधार बनाते हैं। यह विनम्रता और आज्ञाकार...

जीतने का तरीका

क्योंकि यदि तुम शरीर के अनुसार जीवन बिताओगे, तो मर जाओगे: परन्तु यदि तुम आत्मा के द्वारा शरीर के कामों को मार डालोगे, तो जीवित रहोगे (रोमियों 8:13)। मसीही जीवन में जीतने का अर्थ केवल कठिनाइयों या परीक्षाओं का सामना करना ही नहीं, बल्कि एक नई दृष्टि से जीवन को देखना, समझना और जीना है। जीवन को केवल इंद्रियों पर आधारित सोच या मानव तर्क द्वारा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि सचमुच का जीवन आध्यात्मिक है। जीत का असली मार्ग आत्मा और परमेश्वर के वचन के अनुसार जीवन जीना है। आप जब जीवन को वचन की आँख से देखते हैं, तब ही आप वास्तविकता को समझते हैं और हर स्थिति में विजय प्राप्त कर सकते हैं।​ जब हम मसीही जीवन को समझते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी जानकारियाँ और मान्यताएँ मसीह के सुसमाचार के अनुरूप होनी चाहिए। यह सुसमाचार हमें यह सिखाता है कि यीशु मसीह कौन हैं, उनका मिशन क्या है, और वह किस प्रकार आज हमारे जीवन में राज्य का जीवन—एक उच्चतम स्तर का आध्यात्मिक और नैतिक जीवन— लेकर आते हैं। उन्होंने जीवन के पारंपरिक सिद्धांतों को चुनौती दी और हमारा नजरिया पूरी तरह से बदल दिया। उन्होंने हमें प्रेम में...

ईश्वरीय दृष्टिकोण से देखें

"इसलिए परमेश्वर के अधीन हो जाओ। शैतान का सामना करो, तो वह तुम्हारे पास से भाग जाएगा। " (याकूब 4:7) यह वचन हमें एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सत्य की याद दिलाता है—जब हम अपने जीवन को परमेश्वर के अधीन रखते हैं, उसकी प्रभुता स्वीकार करते हैं, तभी हम शैतान और उसकी दुष्ट योजनाओं से विजय प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, और उनका कोई भी अधीनस्थ उनकी योजना के बिना कुछ भी नहीं कर सकता। जीवन में जो भी कठिनाइयाँ, हमले या विपत्तियाँ आती हैं, वे परमेश्वर की इच्छा का परिणाम नहीं हैं, बल्कि शैतान की चोरी, घात और नाश करने की शक्तियों का प्रहार होती हैं।​ शैतान एक दुष्ट हत्यारा है जो न केवल भौतिक क्षति पहुंचाता है, बल्कि हमारी मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य पर भी हमला करता है। यूहन्ना 10:10 में कहा गया है कि वह केवल “चोरी करने, मारने और नष्ट करने” आया है। उसके हमले अलग-अलग रूपों में होते हैं—परीक्षाएँ, प्रलोभन, भय, आक्रमण और भ्रम। परन्तु परमेश्वर ने हमें उसके खिलाफ लड़ने के लिए अधिकार दिया है। जब हम सचमुच परमेश्वर के अधीन हो जाते हैं, तो शैतान का सामना करने की शक्ति हमें म...

महान दाता

“क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।” (यूहन्ना 3:16) यह वाक्य मसीही विश्वास का केंद्र है, जिसमें परमेश्वर के असीम प्रेम और उसके महान उपहार का सबसे बड़ा प्रमाण छिपा है। परमेश्वर ने हमें अपना सबसे मूल्यवान और अनमोल उपहार, अपने ही पुत्र यीशु मसीह को अविश्वसनीय प्रेम के साथ दिया। यह वह प्रेम है जो बिना किसी स्वार्थ के, निरपेक्ष दान देने वाला है।​ दान दयालुता, प्रेम और समर्पण का सबसे बड़ा प्रकार है। परमेश्वर, जो ब्रह्मांड का सर्वशक्तिमान स्वामी है, खुद सबसे बड़ा दाता है। उसने हमें न केवल जीवन दिया, बल्कि अनन्त जीवन का उपहार भी दिया, बिना कोई अपेक्षा किए। यह वचन हमें सिखाता है कि दान का अर्थ केवल पैसे या वस्तुएँ देना ही नहीं है, बल्कि समर्पित हृदय से, निरंतर प्रेम से कुछ देना है। बाइबल में अनेक उदाहरण हैं जहां सरल लोगों ने बहुत कुछ कम होते हुए भी अपने सर्वश्रेष्ठ को दान किया, जैसे कि वह विधवा जिसने अपना आखिरी टुकड़ा आटा और तेल दिया, या वह स्त्री जिसने अपना संगमरमर का कीमती इत्र यीशु के ...

विश्वास वचन से आता है

“विश्वास सुनने से आता है और सुनना परमेश्वर के वचन से होता है। ” (रोमियों 10:17)  यह सिद्धांत हमें दिखाता है कि विश्वास कोई भावनात्मक उत्साह या मन की कल्पना नहीं, बल्कि परमेश्वर के जीवित वचन को सुनने, उस पर मनन करने और उसे मानने से उत्पन्न होने वाली आत्मिक शक्ति है। जब मनुष्य परमेश्वर की ओर से बोले गए वचनों को ग्रहण करता है, तो पवित्र आत्मा उन वचनों के द्वारा उसके हृदय में विश्वास का बीज बोता और उसे बढ़ाता है।​ जेल में कैद बपतिस्मा देनेवाले यूहन्ना की कहानी इस सत्य का एक अत्यन्त व्यावहारिक उदाहरण है। वही यूहन्ना जिसने कभी खुले में घोषणा की थी, “देखो, परमेश्वर का मेम्ना जो जगत का पाप उठा ले जाता है,” वही अब अकेलेपन, दबाव और मृत्यु की छाया में आकर संदेह में पड़ गया। उसने अपने चेलों के द्वारा यीशु से पूछना पड़ा, “क्या तू ही वह है जो आनेवाला था, या हम किसी और की बाट जोहें?” यह दिखाता है कि सबसे महान भविष्यद्वक्ता भी परिस्थितियों के दबाव में आकर डगमगा सकते हैं; भावनात्मक आँधी के समय पुराने अनुभव भी धुँधले पड़ सकते हैं, पर परमेश्वर का वचन तब भी अटल रहता है।​ यीशु ने यूहन्ना को संदेह से नि...

परमेश्वर को प्रथम स्थान दें

“परन्तु पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करो, तो ये सब वस्तुएँ तुम्हें मिल जाएँगी” (मत्ती 6:33) यीशु के इन वचनों में मसीही जीवन का पूरा सिद्धांत छिपा है - प्राथमिकता कौन है? बहुत से लोग परमेश्वर को मानते तो हैं, पर उसे प्रथम स्थान नहीं देते; परिणाम यह होता है कि वे भीड़ में मसीह को मानने वाले तो दिखते हैं, पर उनके जीवन में वे विशिष्टता और तेज नहीं दिखता जो एक वाचा‑जन के जीवन में होना चाहिए। मसीही और अविश्वासी के बीच साफ अंतर यह होना चाहिए कि मसीही हर बात में पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता को चुनता है, जबकि बाकी लोग सब कुछ अपने बल और अपनी बुद्धि से साधने की कोशिश करते हैं। दुनिया को हमारे जीवन में – विशेषकर आर्थिक, पारिवारिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में – स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई देना चाहिए। हम उसी तरह पैसे के लिए भागते‑भागते थक न जाएँ जैसे इस संसार के लोग भागते हैं, मानो सब कुछ केवल हमारी कमाई, हमारी योजना और हमारी ताक़त पर निर्भर हो। परमेश्वर ने अपने लोगों के साथ वाचा बाँधी है, और इस वाचा में केवल पापों की क्षमा ही नहीं, बल्कि देखभाल, सुरक्षा, मार्गदर्शन...

उद्धार का मूल: अनन्त जीवन

"क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।" (यूहन्ना 3:16)​ यह पद केवल एक परिचित बाइबिल वचन नहीं, बल्कि पूरे सुसमाचार का हृदय है। इसमें परमेश्वर के प्रेम, मसीह के बलिदान और विश्वासी के लिए अनन्त जीवन की महान प्रतिज्ञा संक्षेप में व्यक्त है।​ अधिकांश ईसाई यूहन्ना 3:16 को कंठस्थ तो ज़रूर जानते हैं, परन्तु इसके निहितार्थ को गहराई से समझ नहीं पाते। प्रायः इसका प्रयोग केवल इस घोषणा के लिए होता है कि, "परमेश्वर ने तुम्हारे पाप क्षमा कर दिए, ताकि तुम पुनर्जन्म लेकर नरक से बच सको।" यह बात अपने आप में सही है, पर अधूरी है, क्योंकि इस पद में उद्धार का अंतिम लक्ष्य केवल “नाश न होना” नहीं, बल्कि “अनन्त जीवन पाना” है।​ दुर्भाग्य से, बहुतों के लिए “अनन्त जीवन” एक धार्मिक वाक्यांश बन गया है, जिसका अर्थ बस इतना समझा जाता है कि “मरने के बाद स्वर्ग में सदा रहना।” परन्तु पवित्रशास्त्र दिखाता है कि अनन्त जीवन केवल भविष्य की कोई दूर की आशा नहीं, बल्कि वर्तमान की एक जीवित हकीकत है, जो उस क...

मन की प्रक्रियाएँ

“और तुम सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा” (यूहन्ना 8:32)। यह वचन हमें याद दिलाता है कि हमारे भीतर चलने वाला सबसे बड़ा युद्ध बाहरी परिस्थितियों से नहीं, बल्कि हमारे मन के भीतर के विचारों से जुड़ा है। शैतान के विरुद्ध असली युद्ध आपके विचारों, भावनाओं और निर्णयों के स्तर पर लड़ा जाता है, इसलिए परमेश्वर का वचन और भी अधिक आवश्यक हो जाता है।​ शैतान की एकमात्र वास्तविक शक्ति छल और झूठ है। वह लगातार झूठ बोलता है, डराता है, आरोप लगाता है और स्वयं को अपनी वास्तविक स्थिति से कहीं अधिक शक्तिशाली दिखाने की कोशिश करता है। परन्तु जब परमेश्वर का वचन आपके हृदय और मन में बसता है, तो सत्य उस हर झूठ को बेनकाब कर देता है और आपको भीतर ही भीतर स्वतंत्र करना शुरू कर देता है।​ यदि तुम सत्य को जानते हो, तो सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा, क्योंकि सत्य केवल एक विचार नहीं, बल्कि स्वयं यीशु मसीह है, जिसने कहा, “मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ” (यूहन्ना 14:6)। जब हम उसके वचन में बने रहते हैं, तो पवित्र आत्मा हमारे मन को नया बनाता है, पुराने झूठे विश्वासों, नकारात्मक सोच और भय की जंजीरों को तोड़ता है, और हम...

प्रभु यीशु को पहचाने

लूका रचित सुसमाचार 24:13-35 देखो, उसी दिन उन में से दो जन इम्माऊस नाम एक गांव को जा रहे थे, जो यरूशलेम से कोई सात मील की दूरी पर था। और वे इन सब बातों पर जो हुईं थीं, आपस में बातचीत करते जा रहे थे। और जब वे आपस में बातचीत और पूछताछ कर रहे थे, तो यीशु आप पास आकर उन के साथ हो लिया। परन्तु उन की आंखे ऐसी बन्द कर दी गईं थी, कि उसे पहिचान न सके। उस ने उन से पूछा; ये क्या बातें हैं, जो तुम चलते चलते आपस में करते हो? वे उदास से खड़े रह गए। यह सुनकर, उनमें से क्लियुपास नाम एक व्यक्ति ने कहा; क्या तू यरूशलेम में अकेला परदेशी है; जो नहीं जानता, कि इन दिनों में उस में क्या क्या हुआ है?  उस ने उन से पूछा; कौन सी बातें? उन्होंने उस से कहा; यीशु नासरी के विषय में जो परमेश्वर और सब लोगों के निकट काम और वचन में सामर्थी भविष्यद्वक्ता था। और महायाजकों और हमारे सरदारों ने उसे पकड़वा दिया, कि उस पर मृत्यु की आज्ञा दी जाए; और उसे क्रूस पर चढ़वाया। परन्तु हमें आशा थी, कि यही इस्त्राएल को छुटकारा देगा, और इन सब बातों के सिवाय इस घटना को हुए तीसरा दिन है। और हम में से कई स्त्रियों ने भी हमें आश्चर्य में ...

जुनून और जोश के साथ वचन के लिए तरसें

बल्कि हमारे प्रभु और उद्धारकर्ता यीशु मसीह की कृपा और ज्ञान में बढ़ते जाओ ... (2 पतरस 3:18)। 1 पतरस 2:1-2 कहता है, “इसलिए सारी बुराई, और सारा धोखा, और पाखंड, और जलन, और सब बुरी बातें छोड़कर, नए जन्मे बच्चों की तरह वचन के सच्चे दूध की चाहत रखो, ताकि तुम उसके द्वारा बढ़ते जाओ।” इससे यह समझने में मदद मिलती है कि आध्यात्मिक रूप से कैसे बढ़ें और आपको कैसी ज़िंदगी जीनी चाहिए। आपको बुराई, धोखा, बेईमानी, दिखावा, जलन और बदनामी का हर निशान मिटा देना है।  लिविंग बाइबल इसे बहुत खूबसूरती से कहती है: “इसलिए अपनी नफ़रत की भावनाओं को निकाल दो। सिर्फ़ अच्छा होने का दिखावा मत करो! बेईमानी और जलन और दूसरों के बारे में पीठ पीछे बातें करना छोड़ दो” (1 पतरस 2:1)। इन चीज़ों में लगे रहने के बजाय, परमेश्वर कहता है, “…वचन के सच्चे दूध की चाहत रखो, ताकि तुम उसके ज़रिए बढ़ो” (1 पतरस 2:2)। वह चाहता है कि तुम अपने उद्धार में बढ़ो। अब जब तुमने मसीह को पा लिया है, तो वचन के लिए गहरी इच्छा रखो। परमेश्वर की बातों में बढ़ने की चाहत रखो। परमेश्वर के वचन को पूरी लगन और खुशी के साथ पाने की चाहत रखो। मैं इतने सालों में ...

माफ़ी और चंगाई

इसलिये तुम आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लो; और एक दूसरे के लिये प्रार्थना करो, जिस से चंगे हो जाओ; धर्मी जन की प्रार्थना के प्रभाव से बहुत कुछ हो सकता है। याकूब 5:16 ऊपर दी गई आयत में  परमेश्वर का एक नियम बताया गया है जिसे बहुत से लोग अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, और वह यह है कि ठीक होना सिर्फ़ प्रार्थना से ही नहीं, बल्कि हमारे दिल की सच्चाई, मसीह के शरीर में एक दूसरे के प्रति हमारी विनम्रता और प्यार से भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, जब आप मसीह में अपने साथी भाई या बहन को नाराज़ करते हैं, तो आपको तुरंत कहना चाहिए, “मुझे माफ़ कर दो; मैंने तुमसे जिस तरह बात की, वह गलत था; मैंने तुम्हें गलत समझा। मुझे माफ़ कर दो।” एक दूसरे के सामने अपनी गलतियाँ मानने का यही मतलब है। इसका मतलब है कि जब आपने किसी से सख्ती से बात की हो, किसी को गलत समझा हो, या अपने दिल में कोई नाराज़गी दबाए रखी हो, तो उसे मानने के लिए काफी विनम्र होना।  साथ ही, दूसरों की बुराई करने या उनकी बुराई करने के बजाय, आप उनके लिए प्रार्थना करें। बाइबल कहती है कि जब आप ऐसा करते हैं, तो इससे वे ठीक होते है...

यहूदी धर्म

तोराह यहूदी तोरह ( हिब्रू बाइबिल की पहली पांच पुस्तकें : उत्पत्ति , निर्गमन, लेविटस , संख्याएं और व्यवस्थाविवरण ) यहूदी धर्म के लिए एक सामान्य धार्मिक संदर्भ के रूप में कार्य करती है। पत्थरबाजी करके मौत की सज़ा देने की वह विधि है जिसका उल्लेख तोरह में सबसे अधिक बार किया गया है। हत्या करने के लिए पत्थर मारकर दंड देना  अपराध के रूप में वर्णित नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि पीड़ित के परिवार के एक सदस्य को हत्यारे को मारने की अनुमति दी गई थी।  पत्थर मारकर दंड देने के लिए, अपराध निम्नलिखित थे: जब परमेश्वर मूसा को दस आज्ञाएँ दे रहे थे, तब सिनाई पर्वत को छूना, ( निर्गमन 19:13 ) जो बैल किसी को मार डाले, उसे पत्थर मार देना चाहिए, ( निर्गमन 21:28 ) सब्बाथ का उल्लंघन, ( गिनती 15: 32-36 ) अपनी संतान को " मोलेख को " देना, ( लैव्यव्यवस्था 20:2-5 ) एक " परिचित आत्मा " होना (एक जादूगर होना ), या एक " जादूगर " होना, ( लैव्यव्यवस्था 20:27 ) लोगों को अन्य धर्मों में परिवर्तित करने का प्रयास, ( व्यवस्थाविवरण 13: 7-11 ) परमेश्वर को कोसना, ( लैव्यव्यवस्था 24: 10-16 ) मूर्तिपूजा ...

BEATITUDES FOR THE 2026 NEW YEAR

  Blessed are those who are not mere followers of Jesus but have become fishers of two-legged fish. (Matt. 4:19) Blessed are those who do not waste their time with the dumb sheep but intentionally seek and save lost sheep. (Luke 19:10; John 10:16) Blessed are those who are not just busy earning a living but are bi-vocational, earning their living as well as sowing gospel seed in the empty fields and reaping the harvest of thirtyfold, sixtyfold, and even hundredfold souls. (John 4:35; Luke 10:2) Blessed are those who are not just leaf-bearing branches but bearing abundant fruit. (John 15:1-8; Matt. 7:20) Blessed are those who are not just singing heavenly songs like the angels did on Christmas but offer sanctified sheep like the shepherds. (1Peter 2:5; Romans 15:16) Blessed are those who are not just laymen but know and function as Royal priests by planting house churches where Christ is not known. (1Peter 2:9; Romans 15:19,20) Blessed are those who are not embarrassed o...