गुप्त सहभागिता

 इक्लीसिया एक गुप्त सहभागिता है। 

इक्लीसिया मछली उद्योग की तरह हैः

आधुनिक चर्च एक व्यावसायिक संगठन की तरह है जहां हम खुले तौर पर हर एक को घंटियां बजाकर आमंत्रित करते हैं जिनमें बाहरी क्षेत्रो के लिये प्रचार अभियान और बडी आवाज करने वाली प्रचार सभाओं का आयोजन किया जा रहा है। जबकि, नये नियम की इक्लीसिया में लगातार वृद्धि के कारण सताव भी लहरों की तरह एक के बाद एक आता जाता था और इसलिये नये नियम की इक्लीसियाएं छोटे छोटे झुण्डों में गुप्त रीति से मिलती थी। वे अपने घरों पर मछली का चिन्ह लगाया करते थे। इब्रानी भाषा में मछली के लिये ‘‘इक्सथस’’ (ixthus = Ixque) शब्द आया है जो ‘‘प्रभु और उद्धारकर्ता, यीशु मसीह का परिवर्णी (Acronym) शब्द है।  इक्लीसिया का अर्थ है, सप्ताह के सातों दिन और दिन के चौबीसों घंटे (24 घंटे 7दिन), एक दूसरे के साथ सम्बन्धः  हम मसीह की देह है जो नसों, स्नायु, और अस्थि पंजरों द्वारा एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। हम परमेश्वर की ओर से दी जाने वाली वृद्धि से बढ़ने के लिये एक दूसरे के साथ जोड़े गए हैं (कुलुस्सियों 2ः19)। 

हम किसी इक्लीसिया को नही जातें, क्योंकि हम स्वंय इक्लीसिया हैं, चाहे हम किसी घर में लगातार होने वाली सभांए नहीं है जो विशेष दिन विशेष समय किसी विशेष अगुवे द्वारा ली जाती है। यह परमेश्वर का घराना है जिसमें दिन के चौबिस घंटे और सप्ताह के सातो दिन एक दूसरे के साथ सम्बन्ध रहता है। प्रार्थना, धर्मशास्त्र में खोजना, भोजन करना, प्रोत्साहन देना, चेतावनी देकर समझना, उपदेश द्वारा उत्साह बढ़ाना, भविष्यद्वाणी करना, आत्मिक गीतों द्वारा एक दूसरे से बातचीत करना, और एक दूसरे को शात्वना देना, ये सब बातें प्रेम पूर्वक की जाती हैं। यहां हम अपने जीवन और भौतिक आशीषों को एक दूसरे के साथ बांटते हैं। यहां पर कोई पुलपिट या प्रवचन मंच नहीं होता है जहां से किसी वक्ता द्वारा धर्मोपदेश, क्रमवार ज्ञान या धर्म सिद्धान्त सिखाए जाएं। यीशु ने कभी ऐसा नहीं किये। यह वह स्थान हैं जहां हम वास्तव में ‘‘एक दूसरे‘‘ के साथ व्यवहारिकता के कार्य को अंजाम दे सकते हैं और एक दूसरे का निर्माण कर सकते हैं। यह वह स्थान है जहां रबर सड़क से मिल जाती है ताकि तेज रफ़्तार पा ले। 

इस कलीसिया का आधारभूत सिद्धान्त प्रेम है, जैसा कि हमारे प्रभु ने सिखाया और व्यवहार में लाया। हम संसार में होते हैं परन्तु संसार के नहीं हैं। संसार हमें देखता है और जानता है कि हम अलग तरह के है। हम यहां संसार को बदलने के लिये हैं, जिसका आरम्भ हमसे और हमारे पड़ौस से होना चाहिये। (प्रेरितों के काम 2ः42-47; 4ः32-35; 1कुरिन्थियों 14ः26-32; यूहन्ना 13ः34-35; 17ः15,16; 1थिस्लुनीकियों 3ः12; 4ः18; 5ः11,13,15; रोमियों 12ः10;14ः13,19; 15ः7,14; गलातियों 5ः13; 6ः2; इफिसियो 4ः32, 5ः21; फिलिप्पियों 4ः2; कुलुस्सियों 3ः13,16; याकूब 5ः16; इब्रानियों 3ः13; 10ः24; 1पतरस 4ः9; 5ः5; 1यूहन्ना 1ः7; 3ः15,23; 4ः20,21)

धार्मिक व्यापार करने वालों के लिये, घरेलू इक्लीसियाएं बुरी खबर हैंः घरेलू इक्लीसियाएं सरकार के लिये बुरी खबर है क्योंकि वहां और भी उत्कृष्ट राज्य के कानून काम में लाए जाते हैं। नये नियम के समयों में इक्लीसिया में विस्फोटक वृद्धि हुई थी जिसके कारण उन्हें यहूदियों और अन्यजातियों दोनों का विरोध झेलना पड़ा था। वे बहुत चिन्तित थै और सोचते थे कि अब उनका धर्म समाप्त हो जाएगा और इससे याजकों की और उनकी जो धार्मिक पदों से जुड़े हुए थे भारी आर्थिक हानी होने वाली थी (प्रेरितों के काम 19ः23-32) प्रतिदिन या तो किसी को पीटा जाता था या कोई बंदीग्रह में डाला जाता था उनका घर लूट लिया जाता था। स्वाभाविक है कि वे परमेश्वर के साम्हने बहुत दोहाई देते होंगे। जब आधुनिक मिशन चर्च सुदूर चीन में महान इक्लीसिया अभियान के विषय में सुनते हैं तो वे बहुत खुश होते हैं, परन्तु जब यह उनके ही पिछवाड़े प्रारम्भ हो जाता है तो वह उनके लिये जोखिम बन जाता है और वे उसका विरोध करते है।

चीन ने नये नियम वाला नमूना चुनाः सन् 1900 के वर्ष में नंगी छाती वाले कट्टर मतान्ध लोगों ने जो अपने आप को मुक्केबाज़ कहते थे, 188 विदेशी मिशनरियों व धर्म प्रचारकों को और शान्कशी के तथा उत्तरीय चीन के स्थानीय मसीहियों में से 32,000 को मार डाला। 1947 में कम्युनिस्टों ने विदेशी मिशनरियों को निकाल दिया, धर्म मानना अपराध हो गया, चर्च की इमारतों पर कब्जा कर लिया गया और पास्टरों को बन्दीग्रहों में डाल दिया गया। 1958 के लगभग माओ की पत्नी जियांग क्विंग ने विदेशी यात्रियों से कहा कि, ‘‘चीन में मसीहियत अब अजायबघर (Museum) के इतिहास वाले कमरे में बन्द एक वस्तु हो गई है, वह मर चुकी है और उसे गाड़ा जा चुका है।’’ 1970 में यात्रियों को वहां कोई मसीही दिखाई नहीं देता था। वहां इक्लीसिया भूमिगत हो गई और प्रार्थना में लग गई। 55 वर्षो बाद, न केवल इक्लीसिया जीवित है वरन खूब फल फूल रही है। धर्म शहीदों के बहे खून के बीज से हजारों गुप्त घरेलू इक्लीसियाएं फल फूल रही हैं। विश्वासियों की संख्या जो 1947 में 10 लाख थी अब बढ़कर लगभग 10 करोड़ हो चुकी है। सताव के बावजूद लगभग 20,000 नये विश्वासी प्रतिदिन रेशमी मार्ग (Ancient Silk Road) से 100,000 धर्म प्रचारक मिशनरियों को भेजेंगे जो यरूशलेम तक जाएंगे। चीन की इक्लीसिया जो विश्व की सबसे बड़ी कलीसिया, ढांचा रहित नमूने (structure less) में है जिसमें कोई इमारत, परम्पराएं, रीतिरिवाज, या पेशेवर पुरोहित व पास्टर नहीं है, जिससे पवित्र आत्मा बिना किसी रूकावट के काम करता है। दुःख की बात है कि उसी समयावधी में करोड़ों डलरों और प्रचार की संवैधानिक स्वतंत्रता के बावजूद, कंकाल की तरह हो चुकी भारतीय कलीसिया केवल 250 लाख तक बढ़ सकी है, वह भी अधिकांशतः मसीहियों की संतानोंत्पत्ति के कारण। 

बीमारू अकर्मण्य ढांचेः जब कलीसिया, जातियों को चेला बनाने के अपने लक्ष्य से भटक गई, तो उसने हवाई जहाज की तरह अपना संतुलन खो दिया और उसे उबड़ खाबड़ सतह पर आकस्मिक ध्वंस अवतरण (crash landing) करना पड़ा। उन्होंने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये अश्लीलता के साथ भव्य इमारतों को सजाया। उन्होंने प्रदर्शन करने वाले पुरूषों को राजसी रोमी दरबार से प्राप्त किया और रीति रिवाज यूनानी मूर्ति पूजक मन्दिरों से लिये है। उसने दर्शकों को आसनों (Pews) पर बैठा दिया, और मुख्य कार्य कर्त्ताओं (बड़े कलाकारों) को प्रवचन मंच अर्थात पुलपिट पर ले आए और दर्शकों और मुख्य कार्यकर्त्ताओं के बीच खाई पैदा कर दी। उन्होंने ऊंची ऊंची मीनारें (Lofly Steeples) बनाए ताकि परमेश्वर के पास पहुंच जाएं जबकि परमेश्वर ने अपने निवास स्थान अपने लोगों के हृदयों में बनाए है। इसने परमेश्वर के साथ नित प्रतिदिन चलने और भक्त लोगों के साथ सहभागिता को नष्ट कर दिया और उसे साप्ताहिक मनोरंजन में बदल दिया और उसे ही आराधना कहने लगे। इसने एक दूसरे की चिन्ता करने और आपस में बांटने का एक देह के अंगों जैसा व्यवहार नष्ट कर दिया और उसे एक सामुहिक व्यापार संगठन में बदल दिया। इससे भी खराब बात यह है कि वे समारोह प्रदर्शन के समय ‘‘हल्लेलूयाह’’ और प्रभु की स्तूति हो’’ चिल्लाते है परन्तु सप्ताह के बाकी दिनों में काम करने के लिये इन्कार करते हैं। कलीसिया को परमेश्वर के पास पहुंचने के लिये मीनार (Steeple) की आवश्यक्ता नहीं है परन्तु उन्हें आवश्यक है कि वे स्वंय तड़ित परिचालक (जो यंत्र आकाशीय बिजली को आकर्षित कर भूमि में पहुंचाता है) बन जाएं कि पवित्र आत्मा को लोगों के घरों और हृदयों में उतार लाएं।

कुछ विशेष देशों में केवल छोटी गुप्त इक्लीसियाएं ही विकल्प हैः कुछ प्रत्यक्ष कारणों से बहुत से मुस्लिम देशों में मसीही गुप्त रीति से काम करते हैं। वे छोटा झुण्ड अधिक उचित समझते है। यह ने केवल खतरे से बचाता है वरन दूसरे स्थानों में नई असैम्बलियां भी प्रारम्भ हो जाती है। प्राचीन, स्वंय अपनी जीविका कमाते हैं जबकि वे असैम्बलियों का संचालन भी करते हैं। इस प्रकार उन जगहों पर गुप्त असैम्बलियां प्रारम्भ होती जाती हैं जहां पहिले सुसमाचार नहीं प्रचारा गया था (रोमियों 15ः19-21)। 

युद्ध नीति के अनुसार काम करो (युद्ध कुशल बनो): एक चर्च जो कार्यक्रमों के दलदल में फंसा है, खोए हुओं को कोई भविष्य प्रदान नहीं करता। इक्लीसिया को पुरानी बातों को लेकर बूढ़ों से चिपके रहने के बदले अब नई पीढ़ी के विषयों पर संदेश देना चाहिये (1थिस.2ः7)। आज धरातल पर वास्तविकताएं बदल चुकी हैं और उसी प्रकार हमें भी बदलना चाहिये। यदि शिष्य नहीं बनाएंगे तो सताव की समस्या भी नहीं होगी। चर्च आ जाओ एक मात्र सताव झेल रहा है वह अदंरूनी है (गलातियों 1ः10; 1शमुएल 15ः22-28)। आने वाले महाक्लेश के समय को ध्यान में रखकर, केवल एक विकल्प बचा रहता है कि विभाजित होकर अभी ऐसे ही छोटी छोटी घरेलू इक्लीसियाओं में बढ़ते जाएं। इसमें इक्लीसिया में से ही मार्ग दर्शकों को अधिकार देना सम्मिलित है। जो बुद्धिमान हैं, वे अभी से इस विषय पर कार्य आरम्भ कर देंगे ताकि जब सताव की समस्याएं आएं, वे पहिले ही से रणनीतिक सुरक्षित स्थान पर हों। 

शिष्य बनाना लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। इक्लीसिया अन्तिम उत्पाद नहीं है, परन्तु यह शिष्यता का एक उत्पादन है। यक प्रक्रिया चलती रहना चाहिये जब तक पूरी जातियां शिष्य न बना जाएं।

अन्त में मनुष्यों को आत्माओं का युद्ध, विश्वासियों के गुणों और संख्या के आधार पर जीत लिया जाएगा। दुःख की बात है कि बहुत से चर्चो। कलीसियाओं के पास युद्ध की कोई रणनीति योजनांए नहीं हैं। 

इक्लीसिया परमेश्वर की सेना है जो केवल जय के गीतों को गाकर और हफते में एक बार किस्से कहानी सुनकर दुष्ट आत्माओं की शक्तियों से लड़ने के योग्य नहीं बन सकती। इक्लीसिया के लिये जरूरी है कि वह अपने घरों में से बाहर निकले और प्रतिदिन युद्ध भूमि का अभ्यास/कसरत करे। (2तीमुथियुस 2ः2,4,15,19)

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