कलीसिया (चर्च) में मूर्तिपूजक परम्परांए एंव विधर्म - भोजन के नियम - भाग 20

   पवित्र भवन, ऊंचे घण्टाघर, क्रूस, रवि-वार (सन-डे), यहां तक कि प्रभु यीशु (लॉर्ड जीसस) और बहुत सी बातें हमारी मूर्तिपूजक विधर्मिता की बपौती हैं।

इक्लीसिया का प्रतिक चिन्ह दीवट (मेनोराह) ही  है। (प्रकाशित वाक्य 1ः20)

 भोजन के नियम

पतरस ने स्वप्न में एक दर्शन देखा जिसमें सब प्रकार के अशुद्ध पशु और पक्षी भी उपस्थित थे। उससे कहा गया कि, ‘‘उठ मार और खा’’। परन्तु पतरस के अन्दर का यहूदी विद्रोह कर उठा। यद्यपि इस दर्शन का भोजन से कोई सम्बन्ध नहीं था। उसे एक अन्यजातीय कुरनेलियुस के घर से निमंत्रण आने वाला था। उसने इस बात को सबके साम्हने स्वीकारा, कि वह इस निमंत्रण को अस्वीकार कर देता, परन्तु दर्शन के कारण वह ऐसा नहीं कर सका। । 

"उन से कहा, तुम जानते हो, कि अन्यजाति की संगति करना या उसके यहां जाना यहूदी के लिये अधर्म है, परन्तु परमेश्वर ने मुझे बताया है, कि किसी मनुष्य को अपवित्र था अशुद्ध न कहूं"। (प्रेरितों के काम 10ः28)

शाऊल ने एक कदम और आगे बढ़कर कहा, कि आप बाजार में जो कुछ मिलता है, उसे मोल लेकर खा सकते हैं। बहुत सा मांस जो बाजार में बिकता था वह पहिले ही देवताओं को चढ़ाया जा चुका होता था। उसने कहा कि आप उसे मोल लेकर खा सकते हैं, परन्तु किसी विश्वासी को उससे ठोकर नहीं लगना चाहिये। हमारी खाने की आदत से किसी को ठोकर न लगे यह नये नियम का एक मार्ग दर्शक नियम है । 

"जो कुछ कस्साइयों के यहां बिकता है, वह खाओ और विवेक के कारण कुछ न पूछो।" (1कुरिन्थियों 10ः25; 8ः13)

तथापि खाने के लिये मना किया गया मांस, जैसे पुराने नियम में सुअर का मांस और खून और बहुत से अन्य मांसों को नहीं खाने के आदेशों का आदर करना चाहिये विशेष कर इन अंगो के मांस जैसे - मतिष्क (Brain), हड्डी का गूदा, चमड़ा कलेजी और गुर्दा इत्यादि जिनमें कोलेस्टरल और यूरिक एसिड इत्यादि की मात्रा अधिक होती है जिनसे हृदय रोगों को और गठिया इत्यादि को बढ़ावा मिलता है। कोशेर (स्वीकृत) भोजन अभी भी सबसे सुरक्षित भोजन है। भोजन करना एक धार्मिक कार्य है और सामान्य भोजन एक आराधना का प्रकार व सहभागिता है। यहूदी लोग भोजन के तुरन्त बाद एक छोटी आराधना करते थे जिसमें वे भोजन के बाद धन्यवाद देते थे  

"और तू पेट भर खाएगा, और उस उत्तम देश के कारण जो तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे देगा उसका धन्य मानेगा।"
(व्यवस्थाविवरण 8ः10) 

और भोजन देने वाले के प्रति एहसानमन्द व शुक्रगुजार होते थे और साथ ही साथ अच्छा शिष्टाचार भी निभाते थे ताकि पूरे कुटुम्ब को मेज पर उपस्थित रख सकें। यह पूरे कुटुम्ब को यह अवसर भी देता था कि वे अपने पूरे दिन भर की गवाहियों को आपस में बांट सकें, एक कौटुम्बिक इक्लीसिया की तरह। 

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