कलीसिया (चर्च) परम्परांए एंव विधर्म - धर्म विधियों व धर्म आदेशों के प्रभावी परिणाम - भाग 23

धर्म विधियों व धर्म आदेशों के प्रभावी परिणाम होते हैं 

   पवित्र भवन, ऊंचे घण्टाघर, क्रूस, रवि-वार (सन-डे), यहां तक कि प्रभु यीशु (लॉर्ड जीसस) और बहुत सी बातें हमारी मूर्तिपूजक विधर्मिता की बपौती हैं।

इक्लीसिया का प्रतिक चिन्ह दीवट (मेनोराह) ही  है। (प्रकाशित वाक्य 1ः20)

याहशुआ किसी नये धर्म का प्रारम्भ करने नहीं आए परन्तु अन्य जातियों की कलम साटने आए, एक जंगली जलपाई को इस्राएल की उत्तम चिकनाई वाली जलपाई की जड़ में सांटा गया, जिस प्रकार रूथ और राहब सांटी गई थी (रोमियों 11ः16-24) याहशुआ, व्यवस्था और भविष्यद्धक्ताओं को पूरा करने आए। उन्होंने कहे, ‘‘व्यवस्था से एक मात्रा या बिन्दू भी बिना पूरा हुए नहीं टलेगा (मत्ती 5ः17-20)।

दस आज्ञाएं आज भी एक न्याय प्रिय, दयालू और सदाचारी समाज के लिये पुख्ता आधार देती है। यदि आचरण के इस आदर्श विधि-संग्रह को पूरे विश्व में उपयोग में लाया जाए तो उसमें ऐसी शक्ति है कि पूरे पुलिस तन्त्र और कानूनी न्यायालयों के लिये फिर कोई काम नहीं रहेगा। 

याहशुआ हमारे सेवक शासक और राजा होने के आदर्श हैं। यदि उनका अनुसारण किया जाए और उनकी नई आज्ञा, ‘‘एक दूसरे से प्रेम करो’’ (यूहन्ना 13ः34,35) को माना जाए, तो गरीबी, भुखमरी, अकाल, बीमारियां एड्स सहित, प्राकृतिक विपदांए, शोषण और यहां तक कि दुष्टात्माएं तक गायब हो जाएंगी, क्योंकि वहां किसी का स्वार्थी कार्यक्रम नहीं परन्तु याहवेह का, ‘‘सारी वस्तुओं का परमेश्वर से मेल मिलाप कराने (कुलुस्सियों 1ः20) का कार्यक्रम, काम में लाया जाएगा, और उनका राज्य अभी इसी समय यहां होगा। याहशुआ ने हमें दस आज्ञाओं को मानने के लिये कहे हैं और दया को व्यवहारिकता में करने के लिये कहे हैं ताकि अनन्त जीवन में प्रवेश करने की योग्यता प्राप्त कर सकें। (मत्ती 19ः16-21

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