कलीसिया (चर्च) परम्परांए एंव विधर्म - चर्च को ब्राम्हणवाद से मुक्त करना - भाग 27

चर्च को ब्राम्हणवाद से मुक्त करना 

   पवित्र भवन, ऊंचे घण्टाघर, क्रूस, रवि-वार (सन-डे), यहां तक कि प्रभु यीशु (लॉर्ड जीसस) और बहुत सी बातें हमारी मूर्तिपूजक विधर्मिता की बपौती हैं।

इक्लीसिया का प्रतिक चिन्ह दीवट (मेनोराह) ही  है। (प्रकाशित वाक्य 1ः20)

हम में से बहुतों को यह भ्रम है कि मसीह विरोधी आएगा और यरूशलेम में पुनः मन्दिर बनाएगा और अपने आपको उसमें स्थापित करके आराधना स्वीकार करेगा (2थिस्सलुनिकियों 2ः3,4)। यथार्थ में हमारा उद्धारकर्ता मसैय्याह पहिले ही तीसरा मन्दिर बना रहे हैं, जो हाथों का बनाया हुआ नहीं है और जो हमारे जैसे जीवते पत्थरों द्वारा बनाया जा रहा है जो कभी नाश नहीं किया जा सकता (1पतरस 2ः5; दानियेल 2ः34,44)

तथापि पवित्र करके अलग किये गए पवित्र स्थान में वह, ‘‘घृणित वस्तु जो उजाड़ करा देती है’’ की जमीनी सत्यता पहिले से पूरा किया जा चुका कार्य है। जिसकी बुनियाद नीकुलईयों द्वारा सामान्य जनों (Laity) पर हावी होने के लिये की गई थी (प्रकाशित वाक्य 2ः6,15), जिसे रोमी सम्राट हेड्रियन भी कॉन्स्टेन्टाईन की तरह उच्च प्रजाति का मसीही था। उसने अलेक्जेंड्रिया में पहली सेमनरी प्रारम्भ किया, जिसमें क्लेमेंट और ओरिगेन जैसे विद्वान थे जो मिस्र के सूर्य देवता सेरापिस और ओमेन-रा की उपासना में लगे रहते थे। इस समन्वयवाद या समझौते को बढ़ाने के पीछे कॉन्स्टेन्टाईन (310-336) का दिमाग था, जो आजतक बिना किसी रूकावट के चालू है। यह स्त्री (चर्च), अब सचमुच ‘‘सूर्य (ओढ़नी) ओढ़े हुए है’’ अर्थात उज्जवल और चमकदार लूसीफर को (प्रकाशित वाक्य 12ः1)। आज कोई भी चर्च मूर्मिपूजक परम्पराओं और विधर्म से रहित नहीं है। 

चर्च में एक जाति प्रथा की बुराई घुस आई है, जहां प्रीस्टों व पुरोहितों की ऊंची जाति ने ब्राम्हणों की तरह, सामान्य जनों, लेमेन्स (अछूतों और दलितों) के अधिकारों और अवसरों को हड़प लिया है, जिन्हें सिर उठाने पर खामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे मसैय्याह की सच्ची इक्लीसिया में कोई सदस्य नही हैं, परन्तु सब राजकीय याजक हैं (1पतरस 2ः9)। दुःख की बात है कि हमारी आराधना में हमारे याहवेह, इलोहीम का सही सत्य नाम नहीं लिया जाता है, वे अपने आदर को किसी के भी साथ नहीं बांटते हैं, दुष्टात्मा-ईश्वरों के साथ तो बिलकुल भी नहीं (यशायाह 42ः8)। हमारी प्रार्थनाएं हमारे उद्धारकर्ता यहशुआ के नाम में नही मांगी जाती हैं यद्यपि आकाश के नीचे पृथ्वी पर और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें (प्रेरितों के काम 4ः12; यूहन्ना 15ः16)।

‘‘घृणित वस्तु जो उजाड़ करा देती है’’

 सचमुच यह ‘‘पुलपिट’’ में बहुत पक्की रीति से स्थापित कर दी गई है, जो हमारे हृदयों में पवित्र करके अलग किया गया स्थान है (2कुरिन्थियों 6ः16)। अभाग्यवश, मूर्ति पूजक विधर्मिता का तो परिवर्तन नहीं हुआ परन्तु मसीहियत का परिर्वतन, मूर्तिपूजक विधर्मिता में अवश्य हो गया है। चर्च की पहली प्राथमिकता है कि वह पश्चाताप करे और चर्च को ब्राम्हणवाद पैराणिक कल्पित बातों से मुक्त करें और सूर्य ओढ़ी हुई बाबुल की स्त्री अर्थात चर्च से बाहर आ जांए (प्रकाशित वाक्य 12ः1)। अपनी अनन्त वाचाओं को पुनः स्थापित करें और नई मश्कों में नया दाखमधु भरें जो बहुत जल्द याहवेह का राज्य पृथ्वी पर लाने के लिये एक उपयुक्त हथियार बन जाएगा। (होशे 2ः17; यिर्मियाह 16ः19-21; यशायाह 52ः6; जकर्याह 13ः2,9; सपन्याह 3ः9; योएल 2ः32; यूहन्ना 17ः26; मत्ती 4ः17; 24ः12-15)



Comments

Popular posts from this blog

पाप का दासत्व

श्राप को तोड़ना / Breaking Curses

भाग 6 सुसमाचार प्रचार कैसे करें?