कलीसिया (चर्च) में मूर्तिपूजक परम्परांए एंव विधर्म - भाग 4

 पवित्र भवन, ऊंचे घण्टाघर, क्रूस, रवि-वार (सन-डे), यहां तक कि प्रभु यीशु (लॉर्ड जीसस) और बहुत सी बातें हमारी मूर्तिपूजक विधर्मिता की बपौती हैं।

इक्लीसिया का प्रतिक चिन्ह दीवट (मेनोराह) ही  है। (प्रकाशित वाक्य 1ः20)

अनिवार्य पर्व

हमें आज्ञा दी गई है कि हम केवल धर्मशास्त्र के ही नियमों का पालन करें और उनमें कोई और परम्परा या रीति रिवाज न जोड़ें (1कुरिन्थियों 11ः1,2)। नई परम्पराओं को भिखारियों वाले तत्व कहा गया है (गलतियों 4ः8-10)। पौलूस आगे कहते जाते हैं, कि यदि कोई स्वर्गदूत भी आकर, किसी दूसरे प्रकार का सुसमाचार सुनाए तो वह भ्रमित हो (गलातियों 1ः8)।

याहशुआ उनके शिष्य और प्रारम्भिक इक्लीसिया, केवल तोराह (व्यवस्था) में दिये गए पर्वों को ही मानते थे, जैसे फसह, पहली उपज का पर्व, पिन्तेकुस्त और झोपड़ियों का पर्व इत्यादि। वे लोग लैन्ट, ईस्टर, शुभ शुक्रवार वेलेन्टाईन का दिन, हैलोवीन, क्रिसमस, सर्व सन्तों का दिन और अन्य दूसरे मूर्ति पूजक परम्पराओं और विधर्मिता से भरे त्योहार नहीं मानते थे। 

ईस्टर 

इस दिन मूर्तिपूजक लोग, सूर्य की उपासना करते थे, क्योंकि सूर्य उस दिन व समय में नक्षत्रिय विशुव (Celestial Equinox) में तौरूस (Taurus वृषभ, सांड़) को पार करता (मारता) है। यह इस्तार, अशेरा, अस्तार्ते, इत्यादि के स्मरण में मनाया जाता था जो बाबुल की स्वर्ग की रानी, सूर्य देवी और पृथ्वी माता कहलाती है, ये सब एक ही मूल के अलग अलग नाम हैं। लैंट (दिनों के लम्बे होने) के समय में काम वासना से 40 दिन के उपवास की घोषणा की गई क्योंकि उस समय ईस्टर रविवार के दिन, सूर्य देवता, पृथ्वी माता को गर्भधानित करने की क्रिया में थे।

नौ महीने बाद, 25 दिसम्बर के दिन पुनः सूर्य का जन्म होगा। मूर्तिपूजक याजकों ने उपवास काल के प्रथम दिन (भस्म बुधवारAsh Wednesday) को उसके व्याभिचार से उत्पन्न पुत्र तम्मूज की याद में, एक दूसरे के माथे पर राख (भस्म) माला और स्त्रियां, तम्मूज की याद में उस दिन रोईं, तम्मूज 40 वर्ष की उम्र में जंगली सुअर द्वारा मार डाला गया। ईस्टर हेम (सुअर) अभी भी व्यवस्थाविवरण 14ः8 के विरूद्ध होते हुए भी, खाया जाता है। याहवेह इन सबसे घृणा करते हैं। (यहेजकेल 8ः14-16)। इस महान दिन को, बाबुल की एक श्रापित वेश्या (प्रकाशितवाक्य 17ः1-7, 15-18) को समर्पित करना परमेश्वर की निन्दा करना हैं। यथार्थ में इसे पुनरूत्थान का दिन कहा जाना चाहिये, और इसे, पहिली उपज के पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिये। क्योंकि उस दिन याहशुआ, मृत्यु पर जय प्राप्त करके, प्रथम फल बना गए। (लैव्यवस्था 26ः23, यहेजकेल 8ः14-16; 1कुरिन्थियों 15ः20





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