कलीसिया (चर्च) में मूर्तिपूजक परम्परांए एंव विधर्म - भाग 2

पवित्र भवन, ऊंचे घण्टाघर, क्रूस, रवि-वार (सन-डे), यहां तक कि प्रभु यीशु (लॉर्ड जीसस) और बहुत सी बातें हमारी मूर्तिपूजक विधर्मिता की बपौती हैं।

इक्लीसिया का प्रतिक चिन्ह दीवट (मेनोराह) ही  है। (प्रकाशित वाक्य 1ः20)

तौरात

 (इब्रानी: תּוֹרָה, "आदेश" या "क़ानून") 

बहुत से जन सोचते हैं कि पुराना नियम याहशुआ (यीशु) में पूरा हो चुका है और इसलिये अब हमें उसका अनुसरण करने की आवश्यक्ता नहीं है। परन्तु याहशुआ, व्यवस्था को पूरा करने आए और उन्होंने कहे कि उसकी एक भी मात्रा बिना पूरा हुए नहीं बदली जा सकती है। केवल धार्मिक नियमानुसार की जाने वाली व्यवस्था जो प्रायश्चित के कार्य से सम्बन्धित है, जैसे मन्दिर में किये जाने वाले बलिदान, लेवीय याजकत्व और खतना इत्यादि, याहशुआ के प्रायश्चित के बलिदान के पूरा हो जाने के कारण, समाप्त कर दिये गए, जब वे छुटकारा देने वाले नहीं रहे। 

तथापि नीति-संगत व्यवस्था को, जो उन पापों को दर्शाते है, जैसे- मूर्तिपूजा, मापा-पिता का अनादर झूठ बोलना, हत्या, लालच, गरीबों और पड़ौसियों के प्रति व्यवहार जिनके कारण एक विश्वासी, खोए हुए समुदाय के लिये, नमक और ज्योति होता है, इन्हें रद्द नहीं किया गया है (मत्ती 5ः13-20)। अब हम मन्दिर हैं और वाचा का सन्दूक हमारे हृदय में वास करता है। दस आज्ञाओं का पालन करना और सब्त और पर्वों को मानाना, वाचा का मुख्य सार है। 

1229 सी. ई. (क्रिश्चियन एरा) के अनुसार, सामान्य जन (Laity) द्वारा धर्मशास्त्र का पढ़ा जाना निषिद्ध था, जिससे सारा संसार महा अंधकार में डुबा दिया गया। तोराह या आदेशित शिक्षांए और भविश्यद्वक्ताओं की पुस्तकें, इसलिये लिखी गई हैं कि उन्हें, बुलन्द आवाज में लोगों को पढ़कर सुनाया जाए, वे छुपाए जाने के लिये नहीं है, परन्तु ढांचागत चर्च ने झूठ, धोका और हत्या का उपयोग किया ताकि उसके नकली और बनावटी विश्वास को, जो कि दुष्टात्माओं की शिक्षाओं पर आधारित था, बचाया जा सके, जबकि आज्ञाओं का पालन करने वाले विश्वासियों ने अपने विश्वास के लिये मर जाना अधिक उचित समझा।

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