विवाह के भोज में सम्मानित स्थान का दृष्टान्त

विवाह के भोज में सम्मानित स्थान का दृष्टान्त

     सन्दर्भ :- लूका 14ः7-14 - जब उसने देखा, कि नेवताहारी लोग क्योंकर मुख्य मुख्य जगहें चुन लेते हैं तो एक दृष्टांत देकर उन से कहा। जब कोई तुझे ब्याह में बुलाए, तो मुख्य जगह में न बैठना, कहीं ऐसा न हो, कि उसने तुझ से भी किसी बड़े को नेवता दिया हो। और जिस ने तुझे और उसे दोनों को नेवता दिया है; आकर तुझ से कहे, कि इस को जगह दे, और तब तुझे लज्जित होकर सबसे नीची जगह में बैठना पड़े। पर जब बुलाया जाये, तो सबसे नीची जगह जा बैठ, कि जब वह , जिस ने तुझे नेवता दिया है आए, तो तुझ से कहे कि हे मित्र आगे बढ़कर बैठ; तब तेरे साथ बैठनेवालों के साम्हने तेरी बड़ाई होगी। क्योंकि जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो कोई अपने आप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा। 


     तब उसने अपने नेवता देने वाले से भी कहा, जब तू दिन का या रात का भोज करे, तो अपने मित्रों या भाइयों या कुटुम्बियों या धनवान पड़ोसियों को न बुला, कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुझे नेवता दें, और तेरा बदला हो जाए। परन्तु जब तू भोज करे, तो कंगालों, टुण्डों, लंगड़ो और अन्धों को बुला। तब तू धन्य होगा, क्योंकि उनके पास तुझे बदला देने को कुछ नहीं, परन्तु तुझे धर्मियों के जी उठने पर इस का प्रतिफल मिलेगा।

     प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- फरीसियों के किसी अधिकारी ने सब्त के दिन प्रभु यीशु मसीह को अपने घर पर दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया था। यह आमंत्रण उसके प्रति प्रेम, आदरभाव या आत्मीयता के कारण नहीं था। किन्तु वे उसकी घात में लगे थे। वह उनके हृदय के कपट और उसे किसी न किसी प्रकार फंसाने के इरादे से पूर्ण रूप से वाकिफ था। परन्तु, फिर भी उनकी उन शिक्षाओं का जो मनुष्यों को परमेश्वर से दूर कर रहीं थी, उन्हें उसे उन लोगों पर प्रगट करना भी जरूरी था।

     इस दृष्टांत के द्वारा वह वहां सभी प्रतिष्ठित उपस्थितों को बताना चाहता था कि सच्ची भक्ति और धार्मिकता व्यवस्था के प्रति ‘‘लकीर के फकीर’’ बनने में नहीं किन्तु परमेश्वर के सामने नम्र और दीन बनने में है। परमेश्वर पद, प्रतिष्ठा एवं पैसों से नहीं किन्तु सच्ची सेवा और जरूरतमंदों की भलाई से प्रसन्न होता है।

     विष्य-वस्तुः- फरीसियों के किसी अधिकारी के घर पर भोज हेतु प्रभु यीशु मसीह आमंत्रित था। उसने वहां देखा कि सभी आमंत्रित अपने लिए सम्मानित स्थान चुन रहें है। इस नजारे को देखकर उसने उन्हें यह दृष्टांत सुनाया कि यदि कोई तुम्हें विवाह के भोज में आमंत्रित करें तो पहले से जाकर सम्मानित स्थान पर नहीं बैठना। संभवतः कोई तुमसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति आंमत्रित किया गया हो और उसके कुछ विलम्ब से आने पर मेजबान तुमसे वह स्थान लेकर उस व्यक्ति को दे और तुम्हें उठकर अन्तिम स्थान पर बैठना पड़े और तुम सबके सामने अपमानित हो। इससे बेहतर होगा कि तुम पहले दीनतापूर्वक नीचे स्थान पर जाके बैठो, तब मेजबान स्वयं आकर तुमसे आगे बढ़कर बैठने को कहेगा और तुम उपस्थितों के बीच सम्मानित ठहरोगे।

     तब प्रभु यीशु मसीह ने दृष्टांत का सार बताया और कहा कि प्रत्येक जो अपने आपको ऊंचा समझता है वह नीचा किया जाएगा और जो कोई अपने आप को दीन करेगा वह सम्मानित किया जाएगा। फिर उसने मेजबान से यह भी कहा कि तू भोज में अपने भाइयों, मित्रों, सम्बन्धियों या धनी पड़ोसियों को न बुला जो बदले में तुझे भी भोजन पर आमंत्रित करें और तेरे उपकार का प्रतिफल तुझे चुका दें। परन्तु जब तू भोज करें तो कंगालों, टुण्डों, लंगड़ों और अन्धों को आमंत्रित कर जो तेरे उपकार का बदला चुकाने में असमर्थ हैं। ऐसे जरूरतमंदों की भलाई करने से परमेश्वर की ओर से तू आशीषित होगा और तुझे इसका प्रतिफल स्वर्ग में मिलेगा।

     व्याख्या :- प्रभु यीशु मसीह ने इस दृष्टान्त के द्वारा लोगों को  किसी औपचारिक भोज में अहंकार त्यागकर दीनतापूर्वक शिष्ट व्यवहार करने के निर्देश दिये। इस संबंध में अपमान और लज्जाजनक स्थिति से बचने का तरीका भी प्रभु यीशु मसीह ने लोगों को बताया। उस समय में धार्मिक अगुओं का समाज में सर्वोच्च स्थान था। इस पद पर होने के कारण लोगों का आदर और सम्मान पाकर धार्मिक अगुवे अत्याधिक घमंड करने लगे थे। उनके पास न्याय करने के एवं दण्ड देने के अधिकार भी होते थे। प्रायः धार्मिक अगुवे बहुत ही कठोर, स्वार्थी एवं लोभी किस्म के होते थे जिससे लोग उनसे घबराते थे और उनके दबाव में आकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उन्हें देखने पर झुक-झुक कर दण्डवत करते थे। (मत्ती 23ः6-7, मरकुस 12ः39, लूका 20ः26 के अनुसार) परमेश्वर से अधिक वे लोगों से स्वयं की ही महिमा और स्तुती करवाते और इसी में प्रसन्न रहते थे। वे आराधनालयों मे प्रमुख स्थान पर बैठते और जेवनार के समय सम्मानित स्थान के लिए लालायित रहते थे। वे पद, अधिकार एवं सम्मान के मद में स्वयं को बहुत बुद्धिमान समझने लगे थे और अभिमानी (रोमियों 12ः16 के अनुसार) हो गये थे। वे भूल गये थे कि परमेश्वर स्वयं अभिमानियों का सामना करता और दीनों पर अनुग्रह करता है। (1 पतरस 5ः5-6 के अनुसार) वे स्वयं को परमेश्वर के समान ही समझने लगे थे और इस मिथ्याभिमान में अन्य मनुष्यों को हेय दृष्टि से देखते थे। प्रभु यीशु मसीह ने उन्हें पहले भी यह चिताया था कि वे रब्बी न कहलाएं क्योंकि एक ही गुरू है और बाकी सब मनुष्य भाई हैं, परमेश्वर के पुत्र और पुत्रियां हैं। वह ही सबका पिता और सबका स्वामी है। (मत्ती 23ः8-10 के अनुसार) राजा सुलेमान की हिदायत तो उन्हें कंठस्थ होगी जिसमें उसने कहा था कि ‘‘राजा के सामने अपनी बड़ाई न करना और बड़े लोगों के स्थान में खड़ा न होना; क्योंकि जिस प्रधान का तू ने दर्शन किया हो उसके सम्हने तेरा अपमान न हो, वरन् तुझ से यह कहा जाय, आगे बढ़कर विराज। (नीति वचन 25ः6-7 के अनुसार) किन्तु व्यवहारिक रूप में वे इससे ठीक विपरीत व्यवहार करते थे, उन्हें उनकी यह कमजोरी प्रभु यीशु मसीह ने बड़ी खूबसूरती से इस दृष्टान्त के माध्यम से बतायी।

     उसने उन पर यह बात भी प्रगट की कि जो कोई अपने आपको ऊंचा करता है और परमेश्वर के सामने घमण्ड कर उसको तुच्छ जानता है’’ वह परमेश्वर के लिए घृणित है और उसके क्रोध और दण्ड का कारण ठहरता है। (नीतिवचन 16ः5 के अनुसार) ऐसे घमण्डी लोग कभी परमेश्वर की दया, प्रेम और अनुग्रह को समझ नहीं सकते और स्वीकार नहीं कर सकते। वे स्वयं के ईश्वर बन बैठने की भारी भूल करते हैं। ऐसे लोग समाजिक एवं आर्थिक रूप से भले ही बहुत सम्पन्न हों परन्तु आत्मिक रूप से निरे कंगाल होते है और परमेश्वर की दृष्टि में हीन ठहरते हैं। ऐसों का अन्त नीचा किया जाना है, किन्तु जो अपने आप को दीन करते हैं; वे परमेश्वर की दृष्टि में आदर के योग्य ठहरते हैं और परमेश्वर ऐसों को स्वर्ग के ऊंचे स्थानों में जगह देता है।

     यहां यह बताना आवश्यक है कि दीनता का अर्थ कायरता या दब्बूपन कदापि नहीं। बल्कि यह एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा मनुष्य यह स्वीकार करता है कि वह पापों की क्षमा, उद्धार एवं अनन्त जीवन के लिए पूर्ण रूप से परमेश्वर पर निर्भर है। वह स्वयं की धार्मिकता के द्वारा कुछ अर्जित नहीं कर सकता। वह मान लेता है कि उसके जीवन का मालिक और स्वामी परमेश्वर है। वह सम्पूर्ण हृदय से उसकी सामर्थ पर भरोसा करता है। बाइबिल में दीनता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण स्वयं प्रभु यीशु मसीह है जिसने स्वयं को दीनता से पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अधीन किया और उसकी इच्छा को अपमान, अभाव, तिरस्कार आदि सहकर सभी विषम परिस्थितियों से साहसपूर्वक जूझकर यहां तक कि क्रूस की मृत्यु भी स्वीकार कर पूरा किया। तभी परमेश्वर ने उसे अति महान भी किया और वह नाम दिया जो सब नामों से श्रेष्ठ है। (फिलिप्पियों 2ः9 के अनुसार) परमेश्वर ने उसे स्वर्ग और पृथ्वी का सम्पूर्ण अधिकार दिया। (मत्ती 28ः18 के अनुसार) प्रभु यीशु मसीह ने अपने पहाड़ी उपदेश में भी सर्वप्रथम यही सर्वप्रमुख बात कही कि ‘‘धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।’’ (मत्ती 5ः3) मन की दीनता से ही हम विभिन्न परीक्षाओं एवं विपत्तियों से जूझकर भी परमेश्वर की इच्छा अपने जीवनों में पूरा करने का साहस और सामर्थ उससे प्राप्त करते हैं।

     प्रभु यीशु मसीह ने मेजबान को आमंत्रितों के संबंध में जो सलाह दी उसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि बिरादरी के सम्पन्न लोगों को कभी भोज के लिए आमंत्रित न किया जाए। सिर्फ कंगालों और अपंगों को ही भोज के लिए आमंत्रित किया जाए किन्तु यह कहा कि इस प्रकार के आयोजन मात्र दिखावे के लिए या विशिष्ट वर्ग के लिए ही न हों। बल्कि, अपने ऐसे आयोजनों में उन जरूरतमंदों को भी शामिल करो जो वास्तव में स्वयं तो तुम्हारे उपकार का बदला देने में असमर्थ हैं। वे भले ही तुम्हारे उपकार का बदला भौतिक रूप से न दे सकें परन्तु तुम्हें परमेश्वर की आशीषों का पात्र अवश्य बना देंगे। उनकी मदद तुम अपनी शान प्रगट करने के लिए नहीं किन्तु दीनता से परमेश्वर की इच्छा पूरी करने एवं उसे प्रसन्न करने के लिए करो, जिसका प्रतिफल वह अवश्य ही स्वर्ग में देगा।

     इस सलाह से उसका तात्पर्य था कि यदि तुम उनसे प्रेम करते हो जो तुम से प्रेम करते हैं तो तुम्हें क्या प्रतिफल मिलेगा ? यदि तुम केवल अपने भाइयों को ही नमस्कार करते हो तो कौन सा बड़ा कार्य करते हो ? क्या गैर यहूदी भी ऐसा ही नहीं करते ? (मत्ती 5ः46-48 के अनुसार) परन्तु अपेक्षा यह है कि शत्रुओं से प्रेम करो, जो सताएं उनके लिए प्रार्थना करो; ऐसे कार्यो से परमेश्वर प्रसन्न होता है। छोटे से छोटे जरूरतमंद भाइयों की कुछ भलाई करना, परमेश्वर के लिए कार्य करना होता है (मत्ती 25ः40 के अनुसार) क्योंकि इसमें प्रेम और दया का समावेश होता है और जब हम दूसरों से प्रेम करते हैं और भलाई करते हैं तो परमेश्वर की आज्ञा पूरी करते हैं और उसकी आशीषों और अनुग्रह के योग्य ठहरते हैं।

     (इस दृष्टांत से संबंधित शिक्षा केवल भोज के आयोजनों तक ही सीमित नहीं है किन्तु यह प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े तक सभी भले कार्यों से संबंधित है।)

     व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा :- 1. पद की चाह होना बुरा नहीं। ऊंचा पद भी मेहनत, लगन और परमेश्वर की आशीषों का प्रतीक है। किन्तु, ऊंचे पद पर पहुंचकर स्वयं को परमेश्वर के तुल्य या उससे बड़ा समझना विनाशकारी है।

     2. ऊंचे पद पर पहुंचकर स्वार्थी, बड़बोला और अभिमानी होकर दूसरों को तुच्छ जानकर नीचा नहीं दिखाना चाहिए बल्कि जरूरतमंदों की हर संभव मदद करना चाहिये।

     3. ऊंचे पद पर पहुंचकर भी हमें यह याद रखना चाहिए कि पापों की क्षमा और अनन्त जीवन ना ही हम कभी भी पद या पैसों से हासिल कर सकते हैं न हीं योग्यताओं से अर्जित कर सकते हैं न ही इस पर अपने अधिकार का दावा ही कर सकते हैं। अपने धन या पद के द्वारा हम अपने जीवन का एक पल भी नहीं बढ़ा सकते। इस सब बातों के लिए दीनतापूर्वक परमेश्वर की आधीनता स्वीकार करना ही बुद्धिमानी है।

     4. पद की चाह में धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक नियमों एवं सीमाओं को तोड़ना लज्जा एवं हानि का कारण होता है। इस बात को हम में से प्रत्येक को ध्यान में रखना है।


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