भ्रांति - यीशु के भारत आने संबंधित
प्रभु यीशु के भारत आने की परिकल्पना केवल काल्पनिक निकली?
विगत कुछ वर्षो से इस परिकल्पना को बहुत अधिक प्रचार-प्रसार मिल रहा है कि मसीह क्रूस की मृत्यु से बचकर अपनी माता मरियम तथा शिष्य यूहन्ना के साथ भारत चले आए थे और शेष जीवन यहीं व्यतीत किया । इस परिकल्पना के अनुसार मृत्यु के पश्चात् यीशु मसीह को श्रीनगर के रोजबल में दफनाया गया और यह कब्र आज तक है। प्रमाणस्वरुप भविष्य पुराण में वर्णित उस घटना को प्रस्तुत किया जाता है जिसमें हिमालय पर्वत प्रदेश में श्वेत वस्त्र धारी महर्षि ईसा, राजा शालिवाहन से मिलकर कहते है. "मैं म्लेच्छ देश में कुंवारी कन्या से उत्पन्न परमेश्वर का पुत्र हूं सत्य, प्रेम तथा करुणा मेरा धर्म हैं। "इस परिकल्पना की सहायतार्थ कुछ विद्वान रुसी यात्री निकोलस नेलोविच द्वारा 1887 में लददाख भ्रमण की डायरी प्रस्तुत करते हैं जिसके अनुसार उतर भारत में मसीह के आने के प्रमाण पाये जाते हैं। निकोलस तथा उसके पश्चात् कलकता के स्वामी अभेदानन्द लद्दाख स्थित, प्रमुख मठ हेमिग्वें पहुंचे तो प्रधान लामा ने प्राचान पाण्डुलिपियों में से पढ़कर सुनाया कि यीशु बुध्दावतार है, समस्त लामाओं में श्रेष्ठ हैं, स्वयं बोधिसत्व है।इस परिकल्पना का सर्वाधिक समर्थक है मुस्लिम धर्म से निकला अहमदिया सम्प्रदाय ई. 1839 में जन्में गुलाम अहमद कादियानी साहब इसके जनक है। उन्होने दावा किया कि वे इस्लाम जगत द्वारा प्रतिष्ठित मेहंदी है और वे ही मसीह भी हैं, कुछ समय पश्चात उनके शिष्यों ने दावा किया कि वे कृष्णावतार हैं। गुलाम अहमद साहब के परस्पर विरोधी तथा इस्लाम विरोधी दावों के कारण उन्हें तथा उनके सम्प्रदाय को इस्लाम से खारिज कर दिया गया । कादियानी साहब कुरान के सूर अननिशा की 155 वीं आयत की परम्परागत मुस्लिम व्याख्या से सहमत नहीं थे कि ईसा को क्रूस की सजा से बचाकर संदेह आसमान मैं उठा लिया। यहां दृष्टव्य है कि इस आयत में सिर्फ इतना लिखा है कि बनी इस्त्रायल गफलत में है, उन्होने ईसा को कत्ल नहीं किया बल्कि उसे अल्लाह ने अपनी ओर उठा लिया। विनम्र निवेदन इतना ही है कि जो इतिहास मे वर्णित है और समस्त संसार मानता है कि यीशु को क्रूस पर यहूदियों (बनी इस्त्रायल) ने नहीं, अपितु रोमियों ने कत्ल किया था ।
कश्मीर की जिस कब्र को मसीह की बताया जा रहा हे उसके गहन वैज्ञानिक परीक्षण से यह सिध्द हो गया है कि यह हद से हद 500/600 वर्ष पुरानी है और दरअसल यह विख्यात कश्मीरी शासक जैनुलाबिदीन (ई. 1420-1470) के समय के प्रसिध्द मिश्री राजदूत "यूज आसफ” की है।
भविष्य पुराण में मसीह से संदर्भित खण्ड के सूक्ष्म अध्ययन व परीक्षण से यह सिध्द हो गया है कि यह प्रछिप्त अंश हैं। मूर्धन्य संस्कृतिमनीषियों के अनुसार यह मध्यकाल में जोडा गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती तो वेदों से इतर अन्य साहित्य को अविश्वसीय सिध्द कर ही चुके है। हाँ हजारों वर्ष पूर्व रचित वेदों तथा उपनिषदों में मसीह से संबंधित टिप्पणीयां सचमुच में गंभीर अंवेषण का विषय हैं।
स्वामी अभेदानंद तथा रुसी यात्री नेलोविच लद्दाख से कोई पुष्ट प्रमाण संसार के सामने नहीं रख पाये और तो और रुसी यात्री नेलाविच की समस्त लद्दाख यात्रा ही विवादास्पद है, उनके सारे यात्रा पथ में उनकी कहीं भी उपस्थिति बाद में प्रमाणित नहीं हो पाई। न तो किसी सरकारी रेस्ट हाऊस में और न किसी ग्राम में उनके विश्राम करने का और किसी से मिलने का कोई भी प्रमाण नहीं मिल पाया। पर फिर भी प्राचीन बौध्द साहित्य में मसीह का उल्लेख है तो उस पर गहन विचार अवश्व करना चाहिए।
यीशु के शिष्य यूहन्ना के बारे में भी कहा जाता है कि वे मसीह के साथ भारत आये थे, का एक भी प्रमाण समस्त आर्यावर्त में नहीं मिला। इसके उलटे उनकी मृत्युपरांत उपस्थिति इस्त्रायल एवं मध्यपूर्व में स्पष्टतः वर्णित है। सम्राट दोमित्थान (ई.सन् 51-96) जब सन् 91 में सिंहासनारूढ़ हुआ तो सर्वप्रथम उसने यूहन्ना को अमानवीय यातनाएं देकर खौलते तेल की कढाई में डालकर मृत्युदण्ड की सजा सुनाई, 16 मई 91 ई. को लातिनी द्वार के सामने हजारों दर्शको के सम्मुख रोमन सैनिको ने संत यूहन्ना को खोलते तेल में डाला। संत यूहन्ना की कुछ भी हानि नहीं हुई तो कंसर दोमित्यान ने उन्हें काले पानी की सजा सुनाकर 'पतमुस' नामक टापू पर निर्वासित कर दिया। यहीं पर संत यूहन्ना ने अपनी प्रसिध्द रचना प्रकाशित वाक्य' का सृजन किया। सम्राट नरवा के राज्यभिषेक के अवसर पर संत यूहन्ना की काले पानी की सजा खत्म हुई ओर उन्हें रोमन शासित राज्य में निवास करने की सुविधा प्राप्त हुई। संत यूहन्ना इफिसुस नगर में रहने लगे । यहाँ पर मसीह की शिक्षाओं का प्रचार करते हुए सक्रिय जीवन बीताते रहे। यहीं इनकी मृत्यु हुई। इसी प्रकार माता मरियम भी आजीवन इसराइल देश में रही। दृढ़ व स्पष्ट हैं कि वे यीशु के शिष्यों के साथ मृत्युपर्यन्त यीशु की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार इस्त्राइल देश में करती रही। संत यूहन्ना एवं भारत आए संत थोमा को छोडकर समस्त चेलों को रोमन शासको द्वारा वीभत्सतम तरीकों से सता - सताकर मारा गया। मात्र यूहन्ना ही अपने जीवन की पूर्णावस्था को प्राप्त हुए फिर प्राकृतिक मौत मरे ।
मसीह के एक शिष्य संत थोमा के भारत आने के सुस्पस्ट प्रमाण हैं। द. भारतीय सीरियाई खिस्त अपने को थोमा खिस्ती कहते हैं। उनकी दृढ़ परम्परा है कि उन्हें संत थोमा ने सुसमाचार सुनाया ओर बाद में वे मद्रास में शहीद हुए।
भारत में संत थोमा के मिशनरी कार्यों में एक बहुत ही रोचक वर्णन है कि भारत का एक राजा गुण्डाफोरस अपने लिए भव्य भवन बनाना चाहता था। उसने एक अच्छे भवन निर्माता को लाने के लिये एक मंत्री अबन्नेस को सीरिया भेजा । यरुशलेम में अबन्नेस की भेंट यीशु से हुई तो यीशु ने उसे अपने शिष्य थोमा का नाम बताया। थोमा मसीह की मृत्यु के पश्चात् भारत आए । राजा गुण्डाफोरस ने संत थोमा को अपार धनराशि भवन निर्माण के हेतु दी जो थोमा ने गरीबों में बांट दी। समय-समय पर थोमा को भवन निर्माण के उद्देश्य से राशि मिलती जिसे वे कंगालों, ज़रुरतमंदों में बांट देते थे। राजा ने जब भवन की प्रगति के विषय में थोमा से पूछा तो थोमा ने कहा कि उसने राजा के लिए स्वर्ग में अनुपम भवन बनवाया हैं। इस पर राजा और कई लोग मसीही हो गए। गुण्डाफोरस के पड़ोसी राजा मिसपेइस के राज्य में मिशनरी कार्य और चंगाई के आश्चर्य कर्मो से जनसामान्य के साथ पटरानी मिगदोनिया भी संत थोमा से प्रभावित होकर उनकी शिष्या बन गई, जिससे कुध्द होकर राजा ने संत थोमा को मरवाने का निश्चय कर लिया। जब संत थोमा मद्रास के निकट माइलापुर की पहाडी स्थल में प्रार्थनारत थे तो राजा के सिपाहियों ने उन्हें भालों से छेदकर मार डाला। चेन्नई (मद्रास) में इसी स्थल पर थोमा के अनुयाइयों ने उन्हें दफनाया और भव्य गिरजाघर बनवा दिया। चौथी सदी में थोमा की अस्थियों को निकालकर मैसोपोटामिया ले जाया गया, तत्पश्चात् अस्थिशेष को एडेस्सा स्थानांतरित किया गया। इसके स्मृति अवशेष आज अबूजी में आरतोना नामक स्थान में हैं। जहां उनका आदर किया जाता है।
इसी के साथ प्रभु यीशु के एक अन्य शिरु बरतुल्यै नथानिएल का संबंध भी भारत से सिध्द होता हैं तीसरी सदी के इतिहासकार 'यूसेब' लिखता है कि जब सिकन्दरिया का पन्तेनुस (ई. 150-200) भारत आया तो उसे इब्रानी भाषा में लिखी मती रचित सुसमाचार प्राप्त हुई जो बरतुल्मै नथानिएल ने अपने भारत प्रवास के समय छोडी थी । बरतुल्मै समस्त आर्यावर्त में प्रचार करते रहे ओर आर्मेनिया पहुंचे तो वहां के राजा ने उन्हें मौत की सजा दी। अबनापुलिस नगर में बरतुल्म को जीवित अवस्था में उनकी खाल उतारकर मौत के घाट उतारा गया था। आर्मेनिया भारत का पड़ोसी राज्य है। पूर्व में यह गांधार प्रदेश कहलाता था ।
नोन्नस पनोपूलिसका (लगभग ई. 400 ) ने एक प्रसि काव्य लिखा । "दियानूस देवता की भारत यात्रा ।” कदाचित दियानूस देवता में मसीह को आरोपित कर दिया गया।
यूनानी खंड कालन्तर में मध्ययुग की एक अत्यंत ख्याति प्राप्त दन्तकथा के अनुसार एक भारतीय राजा एबेन्नर का पुत्र योसापात एक मसीही साधु के सम्पर्क में आया और मसीहियत तथा साधु के जीवन से प्रभावित होकर मसीही बन गया। योसापात बोधिसत्य का अपभ्रंश है।
अब यह प्रश्न अनुतरित नहीं रह जाता कि भारतीय जनमानस में ये विचार गहराई तक कैसे पैठ गए कि मसीह भारत आये थे? यह निर्विवाद सत्य कि यहूदी धर्म तथा यहूदी लोग मसीह से सदियों पहले ही भारत आ गए थें। ई.पू. 597 में इस्त्राएली राज्य के पतन के पश्चात् से ही इस्त्राइली लोगों को संसार भर में फैलना पड़ा। ईरानी (फारसी) राजाओं के उद्गम के साथ यहूदी भारत लाकर बसाए गए। यहां इनकी सुव्यवस्थित अपने निज देश में चलें गए। उनकी बस्तियां बस गई। सन् 1950 में इसराइल देश के जन्म के साथ संसार में फैले समस्त यहूदी अपने निज देश मे चलें गए। उनकी बस्तियाँ, उनके पूजास्थल व कुछ रह गए यहूदी आज भी हमारे देश में विभिन्न स्थलों में हैं। साथ ही भारतीय भी व्यापार के जरिये मध्यपूर्व की संस्कृति से सुपरिचित थे। अतः स्वयंसिध्द तथ्य है कि दोनों संस्कृतियों एक-दूसरे से अनभिज्ञ नहीं थी। यूरोप व अमेरिका से भी पहले सर्वप्रथम मसीही धर्म का प्रचार मसीह के निज शिष्यों द्वारा भारतवर्ष में हो चुका था । बहुत संभव है कि कालान्तर में ऊपर वर्णित कारणों में से किसी भी । कारणवश मसीह को भारत आने या मसिह के बुध्दावतार होने की परिकल्पना विकसित हुई हो । वस्तुतः मसीही धर्म हिन्दू संस्कृति के लिए विदेशी कतई नहीं हैं | मसीही धर्म की मूल आत्मा को जानने वाले इस तथ्य का समर्थन अवश्व करेगे कि दोनों स'यताओं, संस्कृतियों के मूल तत्व एक ही हैं । मसीही धर्मदर्शन आर्यदर्शन रूपी समुद्र का ही प्रतिरूप है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति से लिपी - पुती मसहहियत आज हमरे समक्ष विदेशी होकर खड़ी हैं। इस कृत्रिम पालिश को खरोच दें तो अन्दर आर्य धर्म दर्शन के मूल तत्व स्पस्टतः दृष्टिगोचर हो जायेंगे। पर इस कृत्य के लिए अपार नैतिक बल, वास्तविक एवं पवित्र इच्छा की आवश्यकता है।
लेखक - संजय पीटर
यीशु के कश्मीर आने की परिकल्पना का जन्म कैसे हुआ?
इन दिनों यह परिकल्पना बड़ी प्रसिध्द पा रही है कि यीशु मसीह की मृत्यु क्रूस पर नही हुई, अपितु वे क्रूस से बचकर माता मरियम और कुछ शिष्यों के साथ भारत के प्रांत कश्मीर आ गए थें। यहाँ वे चुपचाप निवास करते रहे और यहीं पहले मरयिम और कुछ समय बाद यीशु ने देह त्यागी। इस कपोल कल्पित परिकल्पना के अनुसार माता मरियम ओर यीशु की कब्रें आज भी श्रीनगर में सुरक्षित हैं। लेकिन इस परिकल्पना का जन्म कैसे हुआ और इसमें लेशपात्र भी सच्चाई के अंश न होने के बावजूद यह प्रसिध्दी कैसे पा गई, इस संबंध में यहाँ कुछ महत्वपूर्ण, वैज्ञानिक खोजपरक तथ्य दिए जा रहे हैं।
ई. सन् 115 में रचित भविष्यपुराण के अनुसार एक बार राजा शालिवाहम हिमालय प्रदेश में भ्रमण कर रहे थे, तब ही उन्हें श्वेत रंग का लबादा पहने एक क्रिशी मिले। राजा के पूछने पर महात्मा ने कहा, 'ईश पुत्र च मा विद्धि कुमारी गर्भ संभवत्, म्लेच्छ धर्मस्य वक्तारं सत्यव्रत परायणम् । `अर्थात् 'मै कुंवारी स्त्री की कोख से म्लेच्छ देश में उत्पन्न परमेश्वर का पुत्र हूँ और सत्य, प्रेम तथा करुणा मेरा धर्म है।' इसी प्रकार कहा यजाता है कि निकोलइ नेलोविच नामक एक रुसी यात्री सन् 1887 में लद्दाख आया था। जहाँ एक बौध्द मठ के लामा ने उसे एक प्राचीन पाण्डुलिपी दिखाई। इसके अनुसार यीशु भारत आए थें । पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'विश्व इतिहास की एक झलक' में लिखा हे कि मध्य एशिया, कश्मीर, लद्दाख आदि स्थानों पर यीशु मसीह के इस स्थानों पर आने का आम विश्वास प्रचलित है।
दार्शनिक रजनीश और फैबरकैजर जैसे पश्चिमी विद्वानों ने भी यह परिकल्पना दी कि यहूदी धर्मगुरु बलपूर्वक यीशु को सजाए मौत दिलवाना चाहते थे, पर रोमी वायसराय पिलातुस यीशु को निर्दोष मानता था। अतः उसने षड्यंत्रपूर्वक पूर्छित हालत में यीशु को क्रूस से उतारकर मृत घोषित कर दिया और उनके चेले संत थोमा के साथ भारत भेज दिया और येरुशलेम मे यह बात फैला दी कि यीशु जीवित होकर भारत चले गए है। इस परिकल्पना के अनुसारयीशु कश्मीर में सबसे पहले पहलगाम आए। चूँकि यीशु स्वयं को चरवाहा कहते थे अतः इस गाँव का नाम भी पहलगाम अर्थात् 'गडरियों का गाँव' कहलाया । मार्ग की थकान और वृध्दावस्था के कारण माता मरियम की मृत्यु हो गई और उन्हें कश्मीर में दफनाया गया। कुछ वर्षो बाद यीशु का भी देहावसान हो गया और उन्हें भी वहीं दफनाया गया। दोनों कब्रें श्रीनगर के खानयार नामक स्थान पर आज भी सुरक्षित हैं पर कुछ विद्वान इनमें से एक कब्र कोई मूसा नबी की कब्र मानते हैं ।
इस परिकल्पना के पक्ष में ओशो रजनीश ने निम्न प्रमाण दिए-
1. उपरोक्त कब्र पर जो लिखाई है, वह हिब्रू भाषा है जो इसराइल में प्रचलित है।
2. कब्र का सिर काबे की ओर नही हैं। जबकि प्रत्येक मुस्लिम कब्र के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है।
3. कब्रों की देखभाल करने वाला परिवार यहूदी है। बाइबल के अनुसार मूसा नबी और यीशु की मृत्यु के बाद के शेष जीवन का वर्णन नहीं है। देश-विदेश के कई विद्वानों, वैज्ञानिकों ने इन कब्रों, मूसा और यीशु से संबंधित ऐतिहासिक सामग्रियों का सूक्ष्म अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि ये कब्रे ईसा, मूसा या मरियम की नहीं है। इस संबंध में उन्होने निम्नलिखित प्रमाण दिए-
1. किसी भी वैज्ञानिक ने इन कब्रों की अधिकतम आयु 600 वर्ष से अधिक निर्धारित नहीं की ।
2. कब्रों पर लेख हिब्र में नहीं, अरबी भाषा में है।
3. कब्रों की देखभाल करने वाला परिवार यहूदी नहीं, बल्कि आर्यमूल का कश्मीरी मूस्लिम परिवार है तथा
4. कब्र का सिर पश्चिम दिशा अर्थात् काबे-शरीफ की और ही है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि न केवल मुस्लिम कब्रों का सिर बल्कि मस्जिद का रुख भी काबा की ओर ही होना चाहिए। परंतु अपवादस्वरुप कुछ प्रमाण है जिनमें इन शर्तों का पालन नहीं हुआ है जैसे अजमेर के तारगढ स्थित हजरत शाह में शिष्य की कब्र का सिर कार्यों की ओर न होकर अपने गुरु की कब्र की तरफ है। वैसे ही कहा जाता हे कि मलाबार में एक मस्जिद के अवशेष का रुख मक्का के स्थान पर येरुशलेम (बैतुल मुकदस) की ओर है इसका कारण बताया जाता है कि हजरत मोहम्मद के समय, कुछ समय के लिए मक्का के स्थान पर येरुशलेम (सुलेमान राजा द्वारा बनाए यहोवा के मंदिर-मस्जिद-ए-अक्सा) की ओर मुँह करके नमाज अता करने का हुक्म हुआ था। उस समय जितनी भी मस्जिदें बनी, उनका रुख येरुशलेम की ओर था।
5. डॉ. जी.एम. सूफी ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक कश्मीर का इतिहास' में लिखा है कि ईसा के नाम से प्रचारित यह कब्र असल में 'युजआसफ' नामक व्यक्ति की हे जो कश्मीर के बादशाह जैनुलाबिदीन (सन् 1420 से 1470 ई.) के समय मिस्त्र देश का राजदूत था ।
हम इस तथ्य से परिचित हैं कि प्रभु यीशु तथा प्रेरितों ने इन झूठे उपदेशको से सचेत रहने की शिक्षा पहले से ही दे दी थी। संतोष एवं हर्ष का विषय है कि इन ज्ञानवादियों के मत, वाद उनके जीवनकाल में ही विश्वासी मसिहीयों द्वारा गलत सिध्द कर दिए गए थे।
दरअसल इस कपोल-कल्पित परिकल्पना के जनक हे जनाब मिर्जा गुलाम- अहमद कादियानी साहब। इनका जन्म पंजाब प्रांत में गुरुदासपुर जिले मैं 1839 में तथा देहावसान 1908 में हुआ था। मिर्जा अहमद प्रकाण्ड विद्वान तथा महान् विभूति थे । उन्होने कई किताबें लिखी, सबसे प्रसिध्द पुस्तक ब्राहा-ए-अहमदिया है। उन्होने एक - नियमित भी चलाया जिसको माने वाले अहमदिया कहलाते है।
मिर्जा साहब कुरान शरीफ की सूर निशा की आयत क्रमांक 156 एवं 157 की परम्परागत व्याख्या तथा आम मुस्लिम विश्वास से असहमत थे, जिसके अनुसार यह माना जाता हे कि खुदा ने ईसा को सूली की सजा के बाद सदेह, जीवित आसमान पर उठा लिया था ओर आज भी सातवें आसमान पर विराजमान हैं। गुलाम साहब इस संदर्भ में यह विचार रखते हैं कि जब खुदा के सबसे प्यारे रसूल तथा अन्य पैगम्बरों, नबियों को मौत का स्वाद चखना पड़ा तब ईसा को सूली पर चढ़ाया तो गया पर जल्दी ही उन्हें मृत घोषित कर उतरवा भी लिया गया और चुपचाप इनकी चिकित्सा करवाकर खामोशी से ही पलस्तीन से बाहर पहुँचा दिया। ईसा वहाँ से भागकर कश्मीर आ गए थे जहाँ वे 125 वर्ष तक जीवित रहे। यहीं उनका देहांत हुआ और यहीं उन्हें दफनाया भी गया ।
मिर्जा साहब ने पहले तो स्वयं को मुजाहिद (सुधारक) बताया, वहीं दावा किया कि वे हजरत मेंहदी है और पुनःआने वाले मसीह भी वे ही हैं। मिर्जा साहब के माने वालों ने उन्हें श्रीकृष्ण भी सिध्द करने का प्रयास किया । जिन्होने धर्म के पतन पर धर्मरक्षार्थ अवतार लिया है। जनाब अहमद साहब के परस्पर विरोधाभास रखने वाले तथा विवादास्पद दावों पर विशेषकर नबुवत के दावे तथा ईसा की मृत्यु के संबंध में इनकी बचकानी विचारधारा से अधिकांश मुस्लिम जाति क्रोध से उबल उठी और इन्हें तथा इनके मतावलम्बियों को इस्लाम धर्म से खारिज कर दिया।
मिर्जा साहब तथा अन्य विद्वानों की मसीह से संबंधित इस परिकल्पना को अगर धार्मिक आस्थाओं, भावुकता से दूर हटकर निरपेक्ष दृस्टिकोण से देखें तो यह पूर्वाग्रह से ग्रसित कपोल कल्पना ही सिध्द होती है। जरा सोचें कि जब शक्ति सम्पन्न यहूदी धर्म गुरुओं ने यीशु मसीह को रोमी सरकार का विरोधी देशद्रोही कर दिया था तब कैसे रोमी वायसराय उनकी मदद करने का साहस कर सकता था। अगर एक क्षण को यह मान भी लें कि ऐसा हुआ भी था तो यीशु मसीह के खून के प्यासे शक्ति, साधन सम्पन्न यहूदी धर्मगुरु उनके द्वारा बहकाए, भरमार यहूदी जन, राजकर्मचारीगण क्या खामोश रहते । रातभर से शारिरिक मानसिक यातना सहते यीशु क्रूस पर दिनभर क्रूरतम सजा भोगते रहे, क्या एक दुर्बल व्यक्ति इतना कष्ट सहते हुए जीवित बच सकता था। एक राजसैनिक ने यीशु की छाती में भाला घोंपकर भली-भाँती यीशु की मृत्यु का परीक्षण कर लिया था ।
कब्र पर पहरेदारी धर्मसभा के सैनिक कर रहे थे । यीशु के गरीब, दीन-हीन और भयभीत शिष्य जो उन्हे छोडकर भाग गए थे, जिनमें खुल्लमखुल्ला किसी सार्वजनिक स्थल पर जाने का साहस भी नहीं रह गया था, कैसे वे लोग कड़ी पहरेदारी से यीशु की देह चूराने का दुःसाहस कर पाते । अगर ऐसा हो भी जाता तो क्या धर्मसभा, राजसभा तथा यहूदी जन शांत रहते । रहते। कैसे मसीही विश्वास फलता-फूलता। यहाँ तक कि न केवल बड़े-बड़े यहूदी धर्मगुरु बल्कि सारा रोमी साम्राज्य और मसीह के घोर विरोधियों ने भी मसीह पर विश्वास लाकर मसीहों धर्म में प्रवेश लिया।
मसीह का यह बलिदान कोई आकस्मिक घटना नहीं थी तो सृष्टि के आरंभ से ही परमेश्वर द्वारा निश्चित थी । सदियों से नबियों, भविष्वक्ताओं ने इसकी भविष्यवाणीयाँ की थी, जो अक्षरशः प्रभु यीशु के प्रत्येक कार्यों द्वारा पूरी हुई।
लेखक - संजय पीटर
अनेक पर्वाग्रहों के बाद भी क्यों मान्य हुआ मसीही मत इतना ?
मसीह के पुनरुत्थान को झुठलाने की परम्परा की नींव प्रथम ईस्टर के. दिन से ही प्रारंभ हो गई थी। मसीह विरोधियों ने यह परिकल्पना गढ़ी कि मसीह क्रूस की मौत से बचकर अपनी माँ तथा दो चेलों यूहन्ना और थोमा के साथ भारत आ गए थे। इस यात्रा में उन्होने सर्वप्रथम दमिश्क में रुककर पौलुस का हृदय परिवर्तन किया । दमिश्क में जिस स्थान पर यीशु मसीह रुके थें, उसका नाम इसीलिए पड़ा जो आज तक प्रचलित है। फिर वहां से चलकर पाकिस्तान पहुंचे जहां वृध्द व रुग्ण माता मरियम की मौत हो गई जिन्हें पेशावर के समीप दफनाकर मसीह अपने चेलों के साथ अपना नाम बदलकर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर प्रेम संदेश देते रहे। प्रारंभ में समस्त भारतीयों ने उनका स्वागत किया पर बाद में मानव मात्र को एक समान मानने तथा दीन-दलित, शूद्रों के प्रति अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने पर मनुवादी उच्च वर्ग उनके खिलाफ हो गया अतः उन्हें अपनी जान बचाकर कश्मीर आना पडा। यहां आकर उन्होने विवाह किया और दाम्पत्य जीवन बिताते हुए। 125 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुए। मसीह की मृत देह को श्रीनगर के रोजाबल में दफनाया गया । यह कब्र को कुछ विद्वान माता मरियम की मानते हैं। तो महान दार्शनिक ओशो (रजनीश) इसे प्रसिध्द नबी "मूसा " की।
मसीही विरोधियों के अनुसार मसीह यीशु रोमी गवर्नर की सहायता से मूर्च्छितावस्था में ही क्रूस पर से मृत घोषित कर उतार लिए गए, जहां से उन्हें सुरक्षित रूप से फरार करवा दिया गया। इस परम्परा की कडी के आज के विरोधियों के मानस पूर्वजों, यहूदी याजकों, महायाजकों के अनुसार मसीह को मृत देह उनके चले चुरा ले गए थें
इस मत के उत्साही अनुयायी अपनी परिकल्पना के पक्ष में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत करते है
- बौध्द तथा हिन्दू धर्मशास्त्रों में मसीह का वर्णन,
- निकोलस नेलोविच तथा स्वामी विवेदानंद के लद्दाख प्रवास के संस्मरण तथा
- अहमदी सम्प्रदाय की विचारधारा । इन सब बिन्दूओं पर पूर्वाग्रह से रहित विचार मथन कर सत्य जानने का प्रयास करे ।
सबसे पहले याजको के आरोप पर ध्यान दें। खाली कब्र के बारे में आज तक कोई मसीह विरोधी सटीक जवाब नहीं दे पाया है। इस संदर्भ में याजकों ने आरोप लगाया कि मसीह के चेले मसीह की लाश चुरा ले गए। यह कितना मूर्खतापूर्वक बहाना है। जो चेले कपने गुरु के पकडवाए जाने पर उन्हें छोडकर भाग गए। पर वे छिप गए थें, यहूदियों के भय से वे मसीह के साथ अपने किसी संबंध का इन्कार करने लगे थे। भयभीत आंतकित अपने भविष्य के प्रति निराशा मग्नहृदयी, हताश जिनमें किसी सार्वजनिक स्थल में जाने का साहस भी नहीं बचा था, निरीह, अस्त-व्यस्त, साधन विहीन लोगों में क्या इतनी हिम्मत या सामर्थ थी कि वे चाक-चौकस सिपाहियों की मसीह के मुहरबंद के भारी पत्थर को हटाकर अपने प्रभु की लाश चुरा सकते थे। ये शिष्य अपने उच्च नैतिक स्तर के लिए भी प्रसिध्द हैं। तो क्या वे इतना बड़ा अनैतिक कार्य कर सकते थे? यहां विशेष रुप से उल्लेखनीय है कि मसीह का हर चेला, मसीह के मृतकोत्थान की दृढ गवाही देने के कारण विभिन्न वीभत्स तरीकों से शहीद हुआ। क्या ये लोग किसी झूठ पर अपनी जान कुर्बान कर सकते थें। क्या श्रध्दा, विश्वास व त्याग की पराकाष्ठा किसी झूठ पर आधारित हो सकती है ?
अब रोमी गर्वनर की सहायता से मसीह की जीवन रक्षा हुई, वाले मत को देखें । कितना असम्भव है यह । रोमी गर्वनर, शासन को समर्पित, देशप्रेम व स्वामी भक्ति से ओत-प्रोत अनुशासित व्यक्ति था। रोमी लोग यहूदियों से सहज घृणा करते थे । यहूदियों की स्वातंत्रता प्रेम की भावना से आशंकित सदैव सजग रहते थें। उनके मन में यह भय समाया था कि लोकप्रिय मसीह कभी भी रोमी शासन के लिए महान खतरा बन सकते हैं। धर्मगुरुओं ने कुटिलता से मसीह को सम्राट कैसर का विरोधी सिध्द कर ही दिया था तो एक देशद्रोही की सहायता कर एक सफल कूटनीतिज्ञ राज्यपाल पिलातुस कैसे शासन व स्वयं को खतरे में डाल सकता था। यहूदी धर्मगुरु, यहूदी समाज, मसीह को क्रूस पर चढवाने के लिए पागल हो रहे थे, इन लोगों की मनोकामना के विरुध्द जाकर पिलातुस आजादी के मतवाले यहूदियों को एकजूट होकर किसी आन्दोलन छेड़ने का अवसर क्यों देता । इसी समय एक अन्य राजा हेरोदेस ने भी मसीह को मार डालने के लिए पिलातुस पर दबाव बनाए रखा था। इन परिस्थितियों में पिलातुस द्वारा मसीह को किसी भी तरह की सहायता देने या पहुँचाने की कल्पना मूर्खतापूर्वक नहीं लगती?
कुछ लोगों के अनुसार सिपाहियों ने मूर्च्छित मसीह को भूलवश मृत समझकर क्रूस पर से उतार लिया था । तथ्यों पर विचार करने पर यह आरोप भी बचकाना लगता है। क्रुर,युद्धोन्मादी रक्तपिपासु रोमी सैनिक जो मृत्यु के निकटतम संबंधी थे, क्या मूर्च्छित या मृत देह में फरक नहीं कर पाए ? जब मसीह रोमी शासन के विरोधी सिध्द हो गए थे प्रत्येक रोमी नागरिक रोमी सैनिक के निज शत्रु घोषित किए जा चुके थे, तब ऐसे महान दुश्मन के प्रति रोमियों की लापरवाही तथा कोमल भावनाएं रखना क्या संभव हो सकता था?
अगर ऐसा संभव हो भी गया होता तो क्या सत्यवादी यीशु स्वयं को मृत्युजंय के रूप में पेश करते ? कुछ मुस्लिम विश्वासानुसार मसीह को सदेह आसमान पर उठा लिया गया और उनके स्थान पर उनके पकडवाने वाले चेले की मुखाकृति मसीह की बन गई थी सो उसे मसीह समझकर क्रूस पर मारा गया। प्रश्न वहीं उठता है कि फिर उसकी लाश का क्या हुआ। क्यों कि मसीह की कब्र तो खाली थी ।
अब दमिश्क में रुककर पौलूस के हृदय परिवर्तन करने वाले सिध्दांत पर मनन करें।
शाऊल सन् 35 ई. में. दमिश्क पहुंचे थें । अर्थात् मसीह के क्रूसीकरण के लगभग 6 वर्षो के पश्चात् । दश्मिक में यहूदी बहुसंख्यक थे । क्या यहूदियों के चिरपरिचित मसीह द्वारा अपनी माँ व चेलों के साथ इतने दिनों तक यहूदियों से छिपकर, बचकर दमिश्क में निवास करते रहना सम्भव लगता है। जिस "मकामे ईसा " नामक स्थल के बारे में यह कहा जा रहा है कि अपने दमिश्क प्रवास में वहां यीशु मसीह ठहरे थे, उसकी असलियत यह हैं कि एक मुस्लिम विश्वास के अनुसार कयामत के पूर्व मसीह यहां पर सदेह, आसमान से उतारे जाएंगे यह विश्वास किया जाता है कि दमिश्क स्थित जामा मस्जिद की एक मीनार पर ईसा अ.स, सबसे पहले आसमान से उतरेगें, अतः इस मीनार को "मीनारे ईसा " तथा संपूर्ण स्थल को इसी कारण मकामे-ईसा कहा जाता है। कुछ मुस्लिम विद्वानों के अनुसार मसीह मक्का स्थित काबा शरीफ पर उतर जाएंगे। भारत में मसीह के आने के सिध्दांत का विश्लेषण किया जाए। तो यह भी सत्य प्रतीत नहीं होता हैं। भला, मसीह को भारत में अपने "यीशु” नाम से क्या खतरा था, जो वे अपना नाम बदलकर रहते । भविष्य पुराण में विर्णित मसीह के राजा शालीवाहन से भेंट वाले खण्ड को संस्कृत मनीषियों के द्वारा मध्यकाल में जोडा गया, सिध्द किया जा चुका है। महर्षि दयानंद सरस्वती तो वैदिक साहित्य से इतर अन्य साहित्य को अवश्विसनीय साबित कर ही चुके हैं। हां वेदों एवं उपनिषदों में मसीह का उल्लेख अवश्य गहन विश्लेषण का विषय है, जो मसीह के काल से सैकडों हजारों वर्ष पूर्व रचा गया ।
कश्मीर स्थित जिस कब्र को ईसा की कब्र बताया जा रहा हैं, उसके गहन वैज्ञानिक परीक्षणों से यह ज्ञात हो चुका है कि यह अधिक से अधिक 600 वर्ष पुरानी है और दरअसल यह प्रसिध्द कश्मीरी बादशाह "जैनुलाबिहीन ” (ई. 1420 से 1470) के समय में "यूब आसफ” नामक एक मिश्री राजदूत की है।
इस परिकल्पना के जनक जनाब गुलाम एहमद कादियानी साहब (ई. सन् 1839 से 1908) नामक विद्वान् पुरुष है। उन्होने पहले तो दावा किया था कि वे नबी हैं । फिर दावा किया कि वे हजरत कँहदी हैं, बाद में उनहोने स्वयं को धर्मरक्षार्थ अवतरित श्री कृष्णावतार भी बताया। उनके परस्पर विरोधी दावों, उनकी जीवन-शैली तथा सिध्दांतों के कारण उन्हें तथा उनके पंथ को ईस्लाम से निष्कासित किया जा चुका है।
निकोलस नेलोविच तथा स्वामी अभेदानन्द लद्दाख से अपने साथ कोई पुष्ठ प्रमाण लाकर प्रस्तुत नहीं कर पाए । गोया कि जांच पडताल के पश्चात् यह सि हो गया है कि ई. सन् 1887 में निकोलस नेलोविच नामक कोई रुसी यात्री लद्दाख या कश्मीर नही आया। पर फिर भी बौध्द साहित्य में मसीह का वर्णन तथा मसीह का वर्णन तथा मसीह के बुध्दावतार होने वाले मत पर तथ्य व प्रमाणों के देखते हुए विचार करना भी जरुरी है।
(1) तीसरी शताब्दी में फारस देश में मानी (या मानेस) नामक महापुरुष (ई. 216 से276) ने एक पंथ चलाया जिसे मानिरवीवार कहते हैं। जिसके अनुसार धर्म का उद्देश्य एवं अभ्यास यह है कि शैतान" ने प्रकाश जगत से जिन ज्योतिकणों को चुराकर मानव मस्तिस्क में बंद कर दिए है, उन कणों को मुक्त करें "|मानी के अनुसार समस्त नबी, अवतार, तथागत बुध्द, यीशु और स्वयं वह इसी काम के लिए पृथ्वी पर भेजे गए। इस धर्म की प्रथाएं बहुत कुछ आर्यधर्म से मिलती जुलती हैं । यह धर्म रोम, अफ्रीका से लेकर सुदूर पूर्व तक फैल गया, तुर्किस्तान तथा चीन में तो यह 13 वीं सदी तक रहा। फारस के राजा के विरोध के कारण मानी जान बचाकर भारत आए और वर्षो तक यहाँ अपने धर्म का प्रचार करते रहें।
(2) योसपात - एक प्राचीन दंतकथा के अनुसार यह एक भारतीय राजा एबन्नेर का पुत्र था, जिसे "बरलाम” नामक साधु ने मसीही बनाया था, जो योसापात नाम महात्मा बुध्द के एक नाम "बोधिसत्व" का अपभ्रंश है ।
(3) नोन्नस पनोपुलिसका (लगभग 400 ई. सन्) ने एक यूनानी रचना लिखी "दियानूस देवता की भारत यात्रा” सम्भवतः कालान्तर में दियानुस देवता में मसीह को आरोपित किया गया ।
बहुत सम्भव हैं कि ऊपर वर्णित किसी भी कारण से यीशु मसीह के बुध्दावतार होने व उनके भारत आने की भ्रांति उत्पन्न हुई । यूं तो बाइबिल के पुराने नियम नामक खण्ड में अनेकों नबियों ने सैकडों, हजारों वर्ष पूर्व मसीह से संबंधित अनेकों भविष्यवाणीयाँ की हैं। इसी प्रकार मसीह के अनुयाइयों ने भी विस्तारपूर्वक इन घटनाओं का वर्णन किया हैं, पर अविश्वासी लोग इन से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार बाइबिल में फेरबदल किया गया हैं। यहां स्मरण रखना होगा कि संसार के विभिन्न स्थलों से मिल रही विभिन्न कालों की प्राचीन पाण्डुलिपियों तथा वर्तमान में उपलब्ध बाइबिल मे निश्चित भी अन्तर नहीं है। फिर भी संशयवादी बाईबिल के प्रमाणों को नहीं भी माने तो भी अनगिनत मसीही तथा गैर मसीही इतिकासकारों ने अपनी रचनाओं मैं इन सभी घटनाओं का सविस्तार वर्णन किया है। इनमें से कई रचनाकार मसीह चा उनके चेलों के समकालीन थे। कई रचनाकार तो रोमी शासन के प्रतिष्ठित पदाधिकारी थे, कई विद्वान लेखक अन्य धर्मो के सम्मानी गुरुजन थे।
यीशु मसीह की क्रूस पर मृत्यु तथा तीसरे दिन उनके जी उठने की हकीकत से उनके घोर विरोधी यहूदी जन, मसीह के घृणा करने वाले यहूदी धर्मगुरु नागरिक और शनैःशनैः समस्त रोमी शासन परिचित होता गया और मसीही मत में आता गया । यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है। आज भी मसीही मत के घोर विरोधी भी सत्य के झण्डे के नीचे आते जाते हैं। जरुरत है कि निरपेक्ष रूप से पूर्वाग्रहरहित होकर प्रत्येक बिन्दुओं का विश्लेषण पूरी ईमानदारी से किया जाए।
लेखक - संजय पीटर
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