पौलूस के तरीके

 पौलूस के तौर तरीके 

पौलूस भाषा और धर्मशास्त्र ज्ञान के साथ सुसज्जित थाः प्ररित पौलूस सब समयों का सबसे बड़ा धर्म सेवक (मिशनरी) हुआ है। उसके तरीके और नमूने जिन्हें उसने ठहराया है, आदर्श हैं, जो अनुकरणीय हैं। पौलूस के समय से, विश्व सुसमाचार कार्य हेतु सौकड़ों बड़ी बड़ी योजनाएं और कार्यक्रम हुए हैं परन्तु कोई भी सफल नहीं हुए। इसलिये हमें उस पुरूष और उसके तरीकों के विषय में गम्भीरता से देखने की आवश्यक्ता है। पौलूस एक यूनानी भाषा बोलने वाले नगर किलकिया में पाला पोसा व बड़ा था और वह यूनानी तथा इब्रानी दोनों ही भाषाओं को बालता था। बाद में उसने गमलीएल के आधीन वि़द्या प्राप्त की और धर्मशास्त्र अध्ययन में प्रवीणता प्राप्त की (प्रेरितों के काम 22ः3)। ये दोनों भाषाएं उसके लिये वरदान साबित हुई और उसमें कभी भी किसी और दूसरी भाषा में बोलने या अनुवाद करने की कोशिश नहीं की, यहां तक कि लेटिन भाषा में भी नहीं, जो उस समय की सरकार की भाषा थी। 

पौलूस एक उत्साही पुरूष था जिसने क्लेश सहाः पौलूस परमेश्वर के राज्य को सब जगह स्थापित हुआ देखने की लालसा से भरा हुआ था, और इसे पूरा करने के लिये वह रात दिन काम में जुटा रहता था। वह अपने लोगों को बचाने के लिये नरक कुण्ड तक जाने को तैयार था। (रोमियों 9ः1-3)। उसे दिये गए कार्य को पूर्ण करने के लिये वह अविश्वसनीय दुखों में से होकर गुजरा था। उसने भूख, बेघरपन, पिटाई, और कईबार बिना जुर्म कैदखाने में डाले जाने का दुख सहा। वह ठट्टों में उड़ाया गया, सताया गया, पीटा गया और मरा हुआ समझकर छोड़ दिया गया। कई बार उसके साथ पृथ्वी के कूड़े करकट की तरह व्यावहार किया गया। तथापि उसने यह सबकुछ अपने प्रभु के लिये सह लिया, क्योंकि उन्होंने अर्थात प्रभु ने भी इस सब दुखों को सहे थे और समस्त मानव जाति के लिये अपना रक्त बहादिये। पौलूस एक दौड़ में दौड़ रहा था एक अनन्त काल तक ठहरने वाले मुकुट को प्राप्त करने के लिये और इसके लिये कोई भी कीमत चुकाना उसके लिये बड़ी बात नहीं थी। वह ‘‘करो या मरो’’ पर विश्वास करता था। अभाग्यवश अब इक्लीसिया, गुनगुने लोगों में बदल गई है, ‘‘इसमें दिखावा करने वाले सामान्य लोग’’ हैं जिन्हें खोए हुओं को बचाने का कोई उत्साह नहीं है। यीशु ने चेतावनी दिये हैं कि यदि तू सरगर्म नहीं होगा तो मुझे उगल दिया जाएगा (1कुरिन्थियों 9ः16-23; 4ः9-13; फिलिप्पियों 3ः12-14; प्रकाशित वाक्य 3ः15,16)

पौलूस का दर्शन जगत के छोर तक पहुंचने का थाः पौलूस ने कभी भी ऐसा विचार नहीं किया कि कहीं कही इक्लीसिया स्थापित करना है। आरम्भ ही से उसने चार रणनीतिक ‘‘प्रदेशों’’ को चुन लिया था; गलतिया, एशिया, मकिदुनिया और अखाया। अपनी सेवकाई के चौदह वर्षो में उसने क्रमानुसार इन प्रदेशों में इक्लीसियाएं स्थापित किया, जो लगातार बढ़ती गई और उन्होंने पूरे क्षेत्र’’ को सराबोर कर दिया (प्रेरितों के काम 13ः49)। ऐसा करने के लिये वह अपने प्रभु और स्वामि के पदचिन्हों पर चला। यीशु ने एक ही स्थान पर अपना ध्यान केन्दित नहीं किये थे परन्तु चारों तरफ के प्रदेशों की यात्रा किये थे (मरकुस 6ः54-56) यद्यपि पौलूस ने थोड़ी ही असैम्बलियों की स्थापना किये थे परन्तु वह यह कह सका कि उसने यरूशलेम से लेकर मकिदुनिया के कलीरिकुम तक सुसमाचार प्रचार कर दिया है और सुसमाचार के लिये अब कोई जगह नहीं बची है। वह ईमानदारी के साथ इस दावे को कर सका क्योंकि जिन प्रेरितीय इक्लीसियाओं को उसने स्थापित और पोषित किया था, वे इतनी उत्साही और प्रजनन के लिये उपजाऊ थीं कि वे बहुत जल्दी बढ़ेगी और उस पूरे इलाके को भर देंगी। अपने प्रभु की आज्ञा पर चलते हुए (प्रेरितों के काम 1ः8) प्रारम्भ ही से उसका दर्शन जगत के छोर तक पहुचने का था। वह स्पेन पहुंचना चाहता था क्योंकि वह सोचता था कि स्पेन जगत का छोर है। उसकी रणनीति थी कि वह और आगे के क्षेत्रों में बढ़ने वाली असैम्बलियों को स्थापित करे। यथार्थ में वह ऐसा करने में सफल भी हुआ (रोमियों 15ः19-24; 2कुरिन्थियों 10ः16)। ‘‘इस प्रकार इक्लीसियाएं विश्वास में स्थिर होती गईं, और गिनती में प्रतिदिन बढ़ती गई’’ (प्रेरितों के काम 16ः5)। 

पौलूस ने भिन्न भिन्न समुदायों के लिये भिन्न भिन्न रणनीतियों को अपनायाः जब कभी पौलूस ने किसी नगर में प्रवेश किया वह सब्त के दिन वहां के सिनेगॉग अर्थात यहूदियों के सभाग्रह में अवश्य जाता था। वहां वह उन्हें धर्मशास्त्र में से खोलकर बताता था कि यीशु ही वह मसीह है जिसकी वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। बहुत से यहूदियों ने उसका इन्कार किया और बहुत सी जगह उन्होंने उसे सताया और लगभग मार ही डाला (प्रेरितों के काम 14ः1-6; 19ः20; 17ः1-5)। तथापि पौलूस कुछ लोगों को बाहर निकालने में कामयाब हो जाता था जो उसे नई इक्लीसिया प्रारम्भ करने में सहायक होते थे। दूसरी बात है कि उसी सिनेगॉग में वहां अन्यजातीय ‘‘धर्मान्तरित’’ लोग भी होते थे (प्रेरितों के काम 13ः43) जिन्होंने खतना कराया था और पूरी तरह यहूदी धर्म अपना लिया था। उसी सिनेगॉग में परमेश्वर का भय मानने वाले’’ भी थे जो यहूदियों के परमेश्वर यहोवा पर विश्वास करते थे परन्तु जो रीति रिवाजों की प्रक्रिया को पूर्ण नहीं कर पाए थे। कुरनेलियुस परमेश्वर से डरने वाला व्यक्ति था (प्रेरितों के काम 10ः2)। अधिकांश लोग जो सिनेगॉग से बाहर आए वे अन्यजातीय पृष्ठभूमि में के थे। तीसरी बात है कि वहां कुछ अन्यजातीय लोग थे जिन्होंने उसे अगोरा (Agora) में सुना था जहां उसकी तम्बू बनाने की दूकान थी ये वे ही ‘‘सुनने वाले थे’’ जिनके पा पौलूस लौटकर गया था जब यहूदियों ने वचन सुनने से इन्कार कर दिया था। उसके विश्वासियों में का एक बड़ा भाग इसी प्रकार के लोगों में से था। (प्रेरितों के काम 18ः4-8)। उन्हें उसने मूर्तिपूजा, लुचपन के कामों वाली कामुकता, और दुष्टआत्माओं के कारण छाया, हुआ अंधकार इत्यादि के विरूद्ध प्रचार किया। आश्चर्यजनक रीति से यरूशलेम की महासभा ने सब्त, खतना, बलिदानों, पर्बों, और लेवीय याजकत्व को स्वीकृति नहीं दी (प्रेरितों के काम 15ः15,19,20)

पौलूस ने चंगाई और दुष्टआत्माओं से छुटकारे के अभियान नहीं चलाएः पौलूस ने गलियों और नुक्कड़ों पर बहुत कम प्रचार किया और नही उसने कभी विशेष आयोजित चंगाई अभियानों मसे हिस्सा लिया। सभी चंगाईयां स्वतः प्रवर्तित जरूरत के अनुसार होती गई। अपनी मान्यता व विश्वास के अनुसार उसने कभी भी आश्चर्य कर्मों को परिवर्तन के लिये या इक्लीसिया की स्थापना के लिये काम में नहीं लाया, परन्तु तौभी यह काम अपने आप होता चला गया। उसने वास्तव में अपनी तम्बू बनाने की दूकान अगोरा के बाजार में प्रचार कार्य किया होगा। उसकी सारी औपचारिक सभाएं केवल उच्चवर्ग के इपिकूरी और स्तोईकी लोगों के लिये थी। लूका बहुत सावधानी के साथ उन जगहों का वर्णन करता है जहां पौलूस ठहरा और प्रचार किया। फिलिप्पी में वह लुदिया के घर में ठहरा, और इसलिये कि वहां कोई सिनेगॉग नहीं था, उसने वहां नदी के किनारे प्रचार किया (प्रेरितों के काम 17ः5-9)। इफिसुस में उसने तरन्नुम की पाठशाला में प्रचार किया (प्रेरितों के काम 19ः9)। कुरिन्थ में वह अक्विला के घर में रहा और तितुस यूस्तुस के घर में प्रचार किया (प्रेरितों के काम 18ः1-8)। पौलूस को हमेशा घरों में से खींच कर घसीटा गया, किसी खुले स्थान में प्रचार करने के कारण नहीं। 

पौलूस ने अन्यजातियों के बीच पूरे समय की पूर्णकालिक सेवा चुनाः यद्यपि पौलूस की यहूदियों के प्रति प्रेम भरी चिन्ता समाप्त नहीं हुई थी, उसने यहूदियों के हठीलेपन के कारण उनके लिये अपने हाथ धो लिये और अन्यजातियों के लिये पूरे समय की सेवकाई में चला गया (प्रेरितों के काम 18ः6,7)। दूसरा कारण यह भी था कि यहूदियों के मध्य सेवकाई के परिणाम में बहुत कम ऐसे फल थे जो स्थिर बने रहे। यह घरेलू सभाएं सभी’’ सुनने वालों’’ के लिये खुली रहती थी। ये सुनने वाले अधिकांशतः उस बाजार के स्थानों से थे जहां वह तम्बू बनाते समय अपने विश्वास के विषय में बताया करता था। और कुछ दूसरे भी थे जो वहां कौतूहल वश आते थे क्योंकि उन्होंने वहां आश्चर्यकर्म होने के विषय सुना था। उसके काम की जगह पर किये गए संवाद का बड़ा आश्चर्यजनक परिणाम यह हुआ कि उस पूरे क्षेत्र के लोगों ने सुसमाचार सुन लिया। 

अधोलोक के फाटक और प्रारम्भिक इक्लीसियाः शैतान ने यीशु को एक बहुत ऊंचे पहाड़ पर ले गया और वहां से सारे जगत के राज्य दिखाया यह दावा करते हुए कि यह सब उसका है (लूका 4ः5,6)। यूहन्ना कहते है कि पूरा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा हुआ है (1यूहन्ना 5ः18,19)। पौलूस कहता है कि नाश होने वालों की बुद्धियों को शैतान ने बन्द कर दिया है (2कुरिन्थियों 4ः4)। उन दिनों में दुष्ट आत्माएं सब जगह घूमती फिरती थी, पेड़ों पर नदियों जंगलों और पहाड़ों की चोटियों पर भी। ओलम्पिया, यूनानी देवताओ जैसे जियुस, अपोल्लो और हरमिस का रहने का स्थान था। अथेने सबसे अधिक मूर्तिपूजक नगर था। पौलूस ने अपनी बातों को अथेने के बुद्धि जीवियों के सामने, अथेना की सतर्क आंखों के सामने रखा जो अरियपगुस की ज्ञान की देवी थी। पोसईदोन (Poseidon god), एक समुद्र देवता था जो अपने हाथ में तीन कांटों वाला भाला (त्रिशूल) लिये हुए था। हजारों लोग वहां जानवरों का बलिदान चढ़ाने जाते थे। वहां के मन्दिर पुरोहितों और देवदासियों (Ritual Prostitutes) से भरे हुए थे। भूत सिद्धि व तांत्रिकी करने वाले, स्किकवा के पुत्रों जैसे लोग हर गली में मिल जाते थे। सच तो यह है कि दुष्टात्माओं की आराधना उपासना ही उस समय के लोगों का धर्म था। मूर्तिपूजा और कुछ नहीं वरन दुष्ट आत्माओं की उपासना है (1कुरिन्थियों 10ः19,20)। 

पौलूस ने आत्मिक युद्ध लड़ाः प्रभु ने पौलूस को काम करने का बहुत स्पष्ट विवरण दिया था, ‘‘कि तू उनकी (अन्य जातियों की) आंखो को खोले कि वे अंधकार से ज्योति की ओर और शैतान के अधिकार से परमेश्वर की ओर फिरें’’ (प्रेरितों के काम 26ः18)। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि पौलूस ने अपनी सेवकाई का काफी अधिक भाग फिलिप्पी की लड़की में समाई दुष्टात्मा से व इफिसिुस की डायना से लड़ने और जादुगरी (भूत विद्धि, तंत्रिकी) की पचास हजार रूपयों की पुस्तकों को जलाने में बिता दिया। वह यहूदियों और अन्यजातियों के दिमागों में रह रहे हिंसक दुष्टात्माओं से लड़ता रहा (यहेजकेल 14ः1-6; इब्रानियों 4ः12)। यीशु कहते हैं कि पहिले तुम्हें उस ‘‘बलवन्त’’ को बांधना चाहिये और तब उसकी सम्पत्ति को ले लेना चाहिये (मत्ती 12ः29)। पौलूस द्वारा सामर्थी प्रचार के परिणाम स्वरूप बहुत से बड़े चिन्ह और चमत्कार हुए (रोमियों 15ः19; 1कुरिन्थियों 2ः4,5)। उसने युद्ध के हथियारों का वर्णन किया, और यह भी कि उस अदृष्य शत्रु से कैसा लड़ा जाए। यद्यपि किसी आश्चर्य कर्म का वर्णन नहीं है जैसा कि अन्ताकिया में हुआ था, और थिस्सलूनिका और दूसरी जगहों पर भी, परन्तु यह सहजता से कहा जा सकता है कि पौलूस के द्वारा, ‘‘चिन्ह और चमत्कार और सामर्थ के काम’’ किये गए जिसके परिणाम स्वरूप इक्लीसियांए स्थापित की गई (इफिसियों 6ः10-18; 2कुरिन्थियों 10ः3-5; 12ः12)। आज भी इक्लीसिया को शीघ्रता से स्थापित करना, सामर्थ के काम और आत्मिक युद्ध के द्वारा ही होता है।

पौलूस के लिये कोई पांच सितारा होटल नहीं थेः पौलूस किसी नगर में पहुंचकर जो सबसे पहिला कार्य करता था, वह किसी सराय, में ठहरने का स्थान ढूंढ़ना था, क्योंकि वह खाने और ठहरने का पैसा स्वंय भरता था, जहां खटमल, जुंएं, चूहों की तो भरमार हुआ करती थी परन्तु वहां पानी और शौचालय की व्यवस्था नहीं होती थी। फिर दूसरी चीज जिसे वह ढूंढ़ता था वह था रणनीतिक स्थान, कोई भाड़ वाले स्थान (Agora) में या बाजार में जहां तम्बू बनाने की दूकान लगा सके। फिर अन्त में वह स्थानीय सिनेगॉग ढूंढ़ता था, जहां वह अगले सब्त के दिन प्रचार करेगा। कुछ जगहों पर दस यहूदी भी नहीं थे कि एक सिनेगॉग बना सकें, वहां वहा प्रार्थना करने का स्थान ढूंढ़ लेता था, जैसा उसने फिलिप्पी में किया था। हां, कुछ ही समय के बाद नये विश्वासी उसे अपने घरों में निमंत्रण देंगे वहां पर भी वह उन्हें खाने और ठहरने के लिये पैसा देने की जिद करता था। 

रूपये पैसे के विषय में पौलूस दोषरहितः बहुत से सोचते हैं कि पवित्र सेवकाई, एक बुलाहट है, जिसमें चर्च की सहायता की आवश्यक्ता है जबकि संसारिकता का पीछा करना व्यावसायिकता है। पौलूस ने दोनों व्यवसायों को करने की जीवन शैली का आदर्श नमूना रखा, जबकि वह पूर्णकालिक सेवकाई से भी अधिक काम करता था। वह अपनी जीविका स्वंय कमाता था और अपनी आय से सेवकाई में भी सहायता करता था। वह जहां कहीं भी प्रचार के लिये जाता था, पैसा लेने से साफ मना कर देता था (प्रेरितों के काम 20ः33-35)। वह उनके विषय में बहुत नीचा विचार रखता था जिन्होंने धर्म का पैसा कमाने का धन्धा बना रखा था (फिलिप्पियों 1ः15-18)। परन्तु उसने उन्हें हतोत्साहित भी नहीं किया जो सुसमाचार प्रचार पर निर्भर हैं, और उसने विश्वासियों का प्रोत्साहन किया कि ऐसे लोगों की भरपूर सहायता किया करें (1तीमुथियुस 5ः17)। एक बार उसने अन्यजातीय और असैम्बली से, यरूशलेम की अकाल पीड़ित इक्लीसिया के लिये पैसे लिये थे, परन्तु उसने अपने साथ स्थानीय लोगों को लेकर सावधानी भी बरती, इस बात का निश्चय करने के लिये कि कोई दोष न लगाने पाएं (1कुरिन्थियों 16ः2-4)। उसने एक अच्छा नमूना दे दिया कि सभी रूपयों का हिसाब किताब बहुत सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिये और किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा नहीं। सभी असैम्बलियां जिनको उसने स्थापित किया था, आत्मिक रीति से स्वतंत्र थीं, और उन्हें  कोई बाहरी सहायता नहीं थी।

इक्लीसिया पापियों को पूर्णतः बदलकर धर्मी सन्त बना देने का केन्द्र हैः पुराने नियम के सभी कुलपति और भविष्यद्वक्ता हमारी ही तरह निर्बल थे। आदम फल खाने की परीक्षा में असफल हुआ, नूह दाखमधु पीकर अनियमित हुआ, इब्राहीम ने जो परमेश्वर का मित्र था अपनी ही पत्नि को मुसिबत में डाल दिया, मूसा ने जो व्यवस्था का देने वाला हुआ, हत्या की और कानून से भागने वाला बन गया, हारून ने जो महायाजक था, इस्राएल को मूर्तिपूजा कराने में अगुवाई करके घोर विश्वासघात किया, स्वर्ग से आग गिराने, और बड़ी दिलेरी के साथ बाल के 450 याजकों को घात करने के बाद लम्बी मेराथन दौड़ का रिकार्ड बना डाला जब एक महिला ईजबेल ने उसे मार डालने की धमकी दी। हमें दाऊद का जो परमेश्वर के मन के अनुसार मनुष्य था, वृतान्त जोड़ने की आवश्यक्ता नहीं है। यह फेहरिश्त लम्बी होती जाएगी। नये नियम की इक्लीसियाएं भी कोई पाक साफ भक्तों की बनी नहीं थी। कुरिन्थ की कलीसिया पर एक नजर डालने पर वहां व्याभिचार के काम और प्रभु की ब्यारी में पेटूपन और मतवाला होना, मुकदमें बाजी, वर्ग भेदभाव, दुष्टात्मा ग्रस्त लोग, कड़वी प्रतिद्वन्दिता इत्यादि प्रगट होती हैं। वास्तविकता में पापी लोगों के मध्य ‘‘इस प्रकार की भूमि’’ में इक्लीसिया की स्थापना और भी सरल होती है। प्रभु की प्रतिज्ञा यह है कि, ‘‘तुम्हारे पाप चाहे लाल रंग के हों तौभी वे हिम की नाई उजले हो जाएंगे’’ (यशायाह 1ः8)। पौलूस कहते हैं कि यह एक भेद की बात है कि पापी जन, धर्मी सन्त बन जाते हैं। यदि आपकी इक्लीसिया पृथ्वी पर के कूड़ा करकट (नीचों, तुच्छों) का स्वागत करती है और उन्हें परमेश्वर के राज्य के वारिसो में परिवर्तित कर देती है तो आप सही राह पर हैं, नहीं तो आपको नम्र होकर प्रार्थना करना होगा कि आप पर वह भेद प्रगट हो जाए (इफिसियों 3ः5,6)

पौलूस की प्रासंगिक खोजः पौलूस की खोज में कम से कम तीन बातें थीं। प्रेरितों के काम का 17 वां अध्याय इस नमूने को उदाहरण देकर समझाता है। जब पौलूस अथेने को गया, सर्व प्रथम उसे वहां कटनी के खेत के जन सांख्यकीय आंकड़े प्राप्त हुए। उन स्थानों और लोगों पर ध्यान दीजिये जिनका उसने सर्वेक्षण किया सिनेगॉग का सभाग्रह और बाजार का स्थान जहां पर उसे सुसमाचार बांटने के लिये यहूदी और अन्यजातीय लोग मिले (पद 17)। दूसरा वहां उसने कटनी की शक्ति का आंकड़ा भी प्राप्त किया। वह पहिले वहां के धर्मान्तरित यहूदी और अन्यजातियों के पास गया। वे पहिले से ही सच्चे परमेश्वर को और धर्मशास्त्र को जानते थे, इसलिये पहिले उसने उन्हें जीता और उन्हें उस मूर्ति पूजक शहर में इक्लीसिया स्थापना के लिये एक पुल की तरह उपयोग में लाया। उसने वहां पर आत्मिक नक्शा भी बनाया। उसने अथेने के मनुष्यों से कहा, यह शहर अथेना देवी को समर्पित था, तो एक ऐसी वेदी भी पाई जिस पर लिखा था ‘‘अनजाने ईश्वर के लिये’’ (पद 23)। पौलूस ने वहां पिछले इतिहास का भी अध्ययन किया था कि वहां लगभग 500 वर्ष पहिले अकाल पड़ा था जिसे वहां के स्थानीय देवताओं को प्रसादित करके राजी करने पर भी नहीं टाला जा सका था। एक विद्वान पुरूष टेलिमाखुस ने जो मेन्टोर का शिष्य था, उसने कहा कि उन्हें अनजाने ईश्वर के लिये बलिदान चढ़ाना चाहिये। अथेने का रहने वाला प्रत्येक जन इस भेद भरे ईश्वर को जानने का इच्छुक था, इसलिये यह पौलूस की एक अत्यन्त उपयोगी प्रांसगिक खोज थी। खोज का मतलब गिनती का जोड़ तोड़ या आंकड़े जमा करना नहीं है परन्तु एक रणनीतिक संदेश है। उसे पद चिन्हों की आवश्यक्ता होती है कि उन पर चलकर मालिकाना हक प्राप्त कर सकें, नहीं तो इसकी कोई कीमत नहीं हैं। खोज, बाइबिल के लिये कोइ्र नई बात नहीं है। मूसा ने और यहोशू ने देश का और वहां के वासियों का हाल जानने के लिये भेदिये भेजे थे। नहेम्याह ने रात में शहर का गुप्त निरीक्षण किया। यीशु का भी अपने चेलों के साथ पूरे चालीस दिनों तक रणनीति सिखाने का सत्र चला जो परमेश्वर के राज्य के विषय में था (मरकुस 6ः30-31; प्रेरितों के काम 1ः3)। 

संकट की परिस्थितियां, बदलाव लाती हैंः साधारणतः कोई भी बदलाव विद्वानों के उपदेशों के परिणाम स्वरूप नहीं होते हैं, परन्तु यह तभी होता है, जब एक व्यक्ति या समाज संकट की परिस्थितियों में से गुजरता है। अथेने में कोई संकट की स्थिति नहीं थी, इसलिये कोई बदलाव सम्भव नहीं था, इसलिये पौलूस ने वहां का अभियान रद्द कर दिया (प्रेरितों के काम 17ः16-34)। इसके विपरीत पौलूस को कुरिन्थ में अच्छे परिणाम प्राप्त हुए जहां पर उन दिनों में बड़ी खलबली मची हुई थी क्योंकि उन्हीं समयों में सम्राट क्लौदियुस ने सारे यहूदियों को रोम से निष्काषित कर दिया था और वे लोग कुरिन्थ में शरणार्थी होकर आ गए थे। इन्ही में अक्विला और प्रिस्किल्ला भी शामिल थे (प्रेरितों के काम 18ः2)। शक्तियों के टकराव से भी संकट उत्पन्न होता है जिसके द्वारा बदलाव होते हैं, जैसा कि इफिसुस में हुआ था (प्रेरितों के काम 19ः26,27)। 

पौलूस ने असैम्बलियों पर नियंत्रण नहीं कियाः पौलूस की कोशिशों के द्वारा, सैकड़ों इक्लीसियाएं स्थापित की गई थी, परन्तु इस महान व्यक्ति के श्रेय के विषय में यह कहा जा सकता है कि उसने अभी उनका नियंत्रण करने की कोशिश नहीं किया यहां तक कि उसने दूर से या अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी नहीं किया। सारा प्रशासन स्थानीय विश्वासियों के हाथ में था और उसने उन पर किसी बाहरी व्यक्ति को नही थोपा (प्रेरितों के काम 14ः33; तीतुस 1ः5)। इसका अर्थ यह नहीं कि उसने उन्हें रद्द कर दिया। परन्तु उसने वहां अपने सबसे विश्वास योग्य सिपाही को जैसे तीमुथियुस या तीतुस को भेजा, और कुछ समय बाद वह स्वंय भी वहां जाएगा और उनकी समस्याओं का हल करेगा। यहां तक कि यदि वह उन्हें ताड़ना भी देता था तो एक पिता की तरह देता था, न कि किसी निरंकुश तानाशाह की तरह (1कुरिन्थियों 4ः15)। वह पत्रियां लिखकर भेजते थे जिन्हें सार्वजनिक रूप से सबके बीच में ऊंची आवाज से पढ़ा जाता था। पौलूस ने कभी भी इक्लीसियाओं को स्थानीय लोगांें के सुपुर्द नहीं किया क्योंकि पहिले स्थान पर वे उसकी नहीं थी। स्थानीय विश्वासियों के सुपुर्द नहीं करने से इक्लीसियाएं अस्वस्थ्य, कमजोर और दूसरों पर आधारित हो जाती हैं।

पौलूस की परम्पराएंः यीशु ने कहा, ‘‘मेरे पीछे हो लो’’ और यह कहकर एक लक्ष्य निर्धारित कर दिया, ‘‘मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुवे बनाउंगा।’’ पौलूस कहते हैं, ‘‘तुम मेरी सी चाल चलो, जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं’’। उसने कुरिन्थ की इक्लीसिया की प्रशंसा किया कि उसने उन परम्पराओं का वैसा ही पालन किया जैसी वे उन्हें डांट भी लगाया जिसे एक साधारण साथ में बांटकर खाए जाने वाला भोजन होना चाहिए था, परन्तु उन्होंने उसे पेटूपन और पियक्कड़ होने की पार्टी बना दिया था। आधुनिक चर्चों ने इसे और भी उलटा कर दिया है और उसे एक पवित्र संस्कार बना दिया जिसे केवल एक क्लर्जी। पास्टर ही दे सकता है (1कुरिन्थियों 11ः1,2,20-26) उसने उन्हें आराधना के लिये विशेष दिन मनाने के लिये और इन दुर्बल भिखारी जैसे लोगों के दासत्व में जाने के लिये डांटा (गलातियों 1ः8;4ः9-11; कुलुस्सियों 2ः16-23)। उसने गलतिया और थिस्सलूनिके की इक्लीसियाओं को यह स्पष्ट निर्देश दिये कि जो परम्परांए उन्हें सौंपी गई हैं उन्हें थामे रहें और उसमें अपनी ओर से कुछ न जोड़े नहीं तो वे श्रापित हो जाएंगे (1थिस्सलुकियों 2ः15)। दुःख की बात है कि हमने बहुत सी परम्पराएं जोड़ दी है जिनमें खोए हुओं को बचाने के लिये कोई गुण नहीं है। हमें एक ही परम्परा की जरूरत है कि मनुष्यों को मछुवारे बनाते जांए। 

पौलूस हमारी भूमिका का आदर्शः पौलूस का मुख्य कार्य यह था कि वह यहूदियों और अन्यजातियों के बीच की अलग करने वाली दीवार को कटा दे। उन्हें आपस में मिला देने की उसकी सफलता एक आश्चर्य कर्म था। उसे यह सफलता मिली क्योंकि उसने मसीह पर और अन्यजातियों के बीच उसकी सेवा पर ध्यान केन्द्रित किया (प्रेरितों के काम 28ः28)। पौलूस जानता था कि,‘‘मसीह हममें अन्यजातियों के लिये महिमा की आशा है’’। भूमिका के आदर्श नमूने के रूप में उसने इक्लीसिया से कहा, ‘‘वे बातें जो तुमने मुझसे सीखीं, सुनी, पाई और मुझमें देखी है, उन्हीं को किया करो,‘‘। उसने तीमुथियुस से कहा कि मेरी इन शिक्षाओं को विश्वासयोग्य व्यक्तियों के साथ मिलकर बढ़ा दे। वह उनके लिये जच्चा की सी पीडाएं सहता रहा जब तक उनमें मसीह का रूप बन गया’’। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि वह ऐसा महान मसीही था जिसने विश्व के इतिहास की दिशा बदल डाला। तथापि पौलूस ने इतिहास को साधारण स्याही से नहीं लिखा परन्तु पसीने और खून से (कुलुस्सियों 1ः27; फिलिप्पियों 4ः9; 2तीमुथी 2ः2; 1तीमु.2ः1-4;गलातियों 4ः19)। 

अपनी आंखे उठाकर अवसरों की खिड़कियों को देखोः जब परमेश्वर ने इब्राहीम से आंख उठाकर देखने को कहा तो उसने मिस्र देश तक का क्षेत्र देखा और परमेश्वर ने उसे वह पूरा देश देने की प्रतिज्ञा किये। विश्वास के द्वारा वह उस प्रतिज्ञा के देश में फिरा और उसमें उसने वेदियां बनाया और उन पर बलिदान चढ़ाया। उसके बहुत बाद में यीशु ने अपने चेलों से कहे कि वे अपनी आंखे उठाकर देखें। उन्होंने देखा कि सामरी राह देख रहे हैं कि हम अपनी आंखे उठाकर देखें और अपने चारों ओर से गरीबों, अशक्तों, और मौखिक परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। उनके लिये लिखित वचन का कोई अर्थ नहीं है। किताबों की संस्कृति, आबादी के केवल 10 प्रतिशत लोगों से बातें कर सकती है, परन्तु कहानी के द्वारा बातें करने वाला सीधे 90 प्रतिशत लोगों से बातें करता है। अनपढ़ का मतलब निर्बुद्धि नहीं है। उनमें से बहुत से जन बहुत ज्ञानी होते हैं। आपको कलीसिया की स्थापना करने के लिये पढ़े लिखे होने की आवश्यक्ता नहीं है। फरीसियों के ज्ञान के दर्जे के हिसाब से तो यीशु भी अनपढ़ हैं, 30 करोड़ भारत वर्ष में है जिनमें से अधिकांशतः उत्तरी भारत में वर्ष में विषेश कर महिलाओं के मध्य में है। यीशु ऐऐ लोगों के बीच में दृष्टान्त व कहानी कहने के द्वारा जाना पसन्द करते थे, और पौलूस ने भी उनके मध्य काम करना पसन्द किया (मत्ती 13ः34; 1कुरिन्थियों 1ः26-31)

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