मिशन या उद्देश्य की घोषणाः एक चर्च या कलीसिया जो अपने उद्देश्य/अभिप्राय को नहीं पहिचानती और उसे स्पष्ट शब्दों में परिभाषित नहीं करती, वह अभिप्राय रहित कलीसिया है। अपनी सेवकाई के बिलकुल प्रारम्भ में ही यीशु ने सार्वजनिक रीति से अपने मिशन/उद्देश्य की घोषणा कर दिये थे। उन्हें यहां अत्याचार से दबे लोगों को स्वतंन्त्र करने और आत्मिक रूप से अंधों को सुसमाचार के द्वारा दृष्टि प्रदान करके पूरे विश्व को बदलने के लिये विशेष प्रतिभाशाली व्यक्तियों की आवश्यक्ता थी। (लूका 4ः18,19; रोमियों 12ः2)

विश्व बदलने वालों के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तियों की खोजः व्यापारिक लोग अपने कार्य के लिये बहुत प्रतिभाशाली व्यक्तियों की भरती करते हैं। कोई अगुवा अपनी कम्पनी के लिये यदि कोई बड़ा महत्वपूर्ण काम कर सकता है तो वह यह होगा कि वह उसमें सबसे अच्छे प्रबन्धन स्कूल से प्रशिक्षित व्यक्तियों को भरती कर दे। यहूदी लोग विश्व के सबसे पढ़े लिखे लोग थे। 2000 वर्ष पूर्व भी उनमें साक्षरता की दर लगभग 100 प्रतिशत थी, क्योंकि प्रत्येक यहूदी बच्चे को मदरसा जाना पड़ता था जहां रब्बी उन्हें पढ़ाना लिखना सिखाते थे। यहूदी लोग ‘‘किताबी लोग’’ कहलाते थे। यीशु प्रतिभा खोज करते गए जिन्होंने बाद में जगत को उलटा पुलटा कर दिये, परन्तु वे यरूशलेम नहीं गए जहां उस समय के सबसे प्रवीण शिक्षकों के द्वारा उत्साही जवान प्रशिक्षित किये जा रहे थे।
यीशु ने विद्वानों को अस्वीकार किया और काम करने वालों को चुनाः यीशु झील के किनारे गए और वहां से साधारण मछुवारों को चुनकर ले आए। अब हम सब जानते हैं कि समुद्री यात्रा करने वाले मछुवारे बहुत परिश्रमी होते हैं और वे गंदे बदबूदार असुविधापूर्ण और बड़ी तकलीफ की जगहों में बे समय काम करने के आदी होते हैं, वे बने बनाए भोजन पाने, नरम बिस्तर और परिवार के सुख से दूर रहते हैं। वे मौसम के खराब होने के बड़े जोखिम उठाते हैं और वे लोग समुद्र के जोखिम और बाजार की प्रतिस्पर्धात्मक दुनियां में जीवित रह सकते थे। एक मछुवारे की योग्यता का आंकलन इस आधार पर होता है कि उसने कितनी मछलियां पकड़ा है। यूहन्ना ने यीशु का आंकलन भ्ज्ञी इसीसे से किया। इसी प्रकार एक इक्लीसिया भी, ‘‘मछुवारों का झुण्ड’’ है और अन्त में उसका भी आंकलन केवल झुण्ड की गतिविधियों से नहीं होगा परन्तु कामों की सफलता के द्वारा। (मत्ती 4ः19; 11ः1-6)
यीशु ने एकाधिकार को तोड़ा और विविधता उत्पन्न कर दियेः यीशु ऐसे लोगों की खोज में थे जो उनके उत्पाद अर्थात ‘‘सुसमाचार के द्वारा उद्धार’’ के विश्व बाजार की सृष्टि करें और उस बाजार पर अपना पूरा अधिकार करलें। इसके लिये उन्हें एक बिलकुल नये किस्म के प्रतिभावान व्यक्तियों की जरूरत थी जो यरूशलेम के उच्च ‘‘बी’’ स्कूलों में नहीं मिल सकते थे जहां पर विध्यार्थी विशेष तौर से मन्दिर की सेवा के लिये है प्रशिक्षित किये जाते थे। यीशु योजना बना रहे थे कि उनके ‘‘पिता के कारोबार (व्यवसाय)’’ (लूका 2ः49) को वंशानुगत एकाधिकार के कुछ लोगों के हाथों से निकालकर विविधता में ले आएं और उसे पूरे विश्व के साधारण लोगों के हाथों में दे दें। इस कार्य के लिये बिलकुल अलग किस्म के प्रवीण लोगों की आवश्यक्ता थी जो आश्चर्य जनक रीति सब जगह अधिकाई के साथ उपलब्ध थे। यीशु जानते थे कि परमेश्वर पिता ने प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर अगुवाई करने की कला को रोप दिये हैं। उन्हें अब केवल उतनी ही आवश्यक्ता थी कि उन्हें बड़ी सावधानी के साथ पोषण और परामर्श दिया जाए और उन्हें फूलने फलने के लिये स्थान और सुअवसार मिलें।
यीशु ने आत्मघाती दस्ते बनाएः प्रतिभाशाली व्यक्तियों की भरती करना एक बात है उन्हें और सुसज्जित व तैयार करके रखना दूसरी बात है। लोग केवल उतने ही सक्ष्म होते हैं जितना उनका प्रशिक्षण होता है। प्रशिक्षण उपदेशों द्वारा ज्ञान को स्थानान्तरित करना नहीं है परन्तु यह प्रशिक्षण लेने वाले प्रशिक्षु का पूरी तरह बदल जाना है। यीशु एक आत्मघाती सेना बना रहे थे (यूनानी भाषा में गवाह Witness का अर्थ होता है शहीद Martyr ) अर्थात वे जो, उन्हें सौंपे गए कार्य को करने के लिये प्राण देने को भी तैयार रहते थे। उसके लिये प्रभु ने उन्हें कोई जोशीला भाषण नहीं दिये और न ही कोई आर्थिक इनाम देने का वादा। उन्हेंने कहे, ‘‘मेरे पीछे हो लो और मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुवे बनांउगा’’। उसने उन्हें प्रतिदिन मानव कटनी के खेतों में ले गए और उन्हें कार्य करते हुए व्यवहारिक अनुभव दिये। आत्मिक युद्ध लड़ने की विद्या सीखने का सबसे अच्छा स्थान हमारे व्यवहारिक यथार्थ जीवन संघर्ष के दुष्टआत्माओं से संघर्ष के गहरे अनुभव व स्थान है, और पाठशालाओं की कक्षाएं नहीं। तीन वर्षों के अन्त में न केवल उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ परन्तु उन्हें जगत के छोर तक जाने और सारी जातियों के लोगों को शिष्य बनाने के कार्य को लेने की प्रवीणता और रणनीतियां भी मिल गई।
यीशु का तरीका, आमने सामने मुकाबला करने का थाः जब कभी भी यीशु मन्दिर गए, उन्हें मन्दिर के अधिकारी के साथ विरोध परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, अन्त में उन्होंने कोड़ा निकाला और मन्दिर को साफ किया। वे फरिसियों और दूसरे धार्मिक अगुवों के साथ काफी कठोर थे और उन्होंने उनके मुंह पर उन्हें कपटी, करैत के बच्चों और चूना पुती हुई कब्र इत्यादि कहा। कपटी के यूनानी शब्द पोक्राईट (Hupoerite) का मूल अर्थ अभिनेता (Actor) है। आज चर्च धार्मिक अभिनेताओं से भरा हुआ है जो हर प्रकार के विशेष प्रभाव डालते हैं, वेशभूषा, पदनाम, और अपनी भूमिका से अलग अभिनय करने के लिये चेहरे की अलग अलग मुख मंगिमाएं बनाते हैं। यीशु ने हेरोद को लोमड़ी कहा, पतरस ने एक कदम और बढ़कर अपने सार्वजनिक प्रथम व्याख्यान में यहूदियों को हत्यारे कहा’’ (मत्ती 23ः14-33; प्रेरितों के काम 3ः15)। चर्च को स्वंय इन गैर कानूनी ढंाचे व संरचनाओं का सामना करना चाहिये इससे पहिले कि वे संसार के लिये भविष्यद्वाणी के वचन बन जाएं। चाहे शल्य क्रिया करने वाला डॉक्टर कितना भी दयालू क्यों न हो, उसे दिन के अन्त में मरीज को कहना ही होगा कि उसे कैंसर है जिसे उसे निकालना ही पड़ेगा नहीं तो वह उसका प्राण ले लेगा। यीशु एक महान चिकित्सक हैं जिनके पास शल्य चिकित्सा करने की पैनी छुरी है जो जातियों की चंगाई के लिये है। यीशु ने कभी भी आराम तलब विकल्प नहीं चुने कि वे ‘‘मनुष्यों को खुश करने वाले’’ बन जाते परन्तु वे मर गए कि संसार को पाप के विषय में दोषी करार दें। उन्होंने प्रतिज्ञा किये हैं कि जब सत्य का आत्मा आएगा तो वह तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा। (यूहन्ना 16ः8-14)। किसी ने आगे कहा है कि सत्य तुम्हें ऊंचा और सूखा (High and dry) छोड़ देगा। सत्य बहुत दुखदाई हो सकता है। आपका कुटुम्ब, मित्र, और समुदाय भी आपका इन्कार कर देंगे। दुल्हिन को बिना दाग धब्बे या झुर्रियों के होना चाहिये (इफिसियों 5ः27; गलातियों 1ः10)।
यीशु ने सर्वोच्च से निचले पद वाले धर्ममंत्रीय नमूने को व्यवहारिक कार्य वाले नमूने से बदल दियाः लौकिक/धर्म निरपेक्ष विश्व की तरह चर्च व मिशन ने भी धर्म तंत्रीय (पुरोहितों/का शासन) वाली प्रणाली अपना लिया जिसमें उच्च अधिकारी वर्ग है औश्र जिसमें सर्वोच्च पद से निचले पद वाली प्रंबध व्यवस्था होती है। और उनकी शक्ति के प्रतीक चिन्ह हैं बड़े बड़े भवन, बड़ी संख्या में कर्मचारी, कार्यालय, गाड़ियाँ, आधुनिक संगीत की ध्वनी प्रणाली, कम्प्यूटर, लेपटॉप और बहुत सारा पैसा। नये नियम की इक्लीसिया में उनकी एक मात्र शक्ति यह थी कि वे पवित्र आत्मा को पहिने हुए थे ताकि वे जगत को उलटा पुलटा कर सकें (लूका 24ः49; प्रेरितों के काम 1ः8) उत्तराधिकारी तैयार व सुसज्जित करना वैसा ही हो सकता है जैसा योनातन का प्रेम दाऊद के लिये था, जिसका अर्थ है कि सिंहासन के अपने न्याय संगत अधिकार को स्वेच्छा से वे देना (1शमूएल 18ः1-4)। यीशु ने अपने ही स्वार्थ को खोजने के नमूने को उलट दिया और परमेश्वर के दर्शन को पूर्ण करने के लिये आ गए। बद में पौलूस कहते है, ‘‘तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं’’ (1कुरिन्थियों 11ः1)। प्रभु की जीवन शैली के द्वारा और उनकी शिक्षाओं को अपना कर ही शिष्यों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिये था। दूसरे शब्दों में वह स्वंय ही कार्य का आदर्श नमूना था। प्रभु ने शिक्षक विद्यार्थी और जाति वर्ग के अन्तर को समाप्त कर दिया और उन्हें मित्र भाई और बहिन कहा (यूहन्ना 15ः5; लूका 8ः19-21; 22ः24-27)। उन्होंने सर्वोच्च से निचले पद वाली धर्मत तंत्रीय प्रबंध प्रणाली को उलट दिये और यीशु ने गुरू होकर अपने चेलों के पांव धोए (यूहन्ना 13ः5)। अन्त में उन्होंने एक और आखिरी पाठ सिखाया कि कप्तान को पहिला व्यक्ति होना चाहिये जो सबसे आगे खड़ा होकर गलियों का सामना करे और कहे, ‘‘अभियान और उद्धेश्य पूरा हुआ’’।
यीशु, उत्तराधिकार सम्बन्धी योजना बनाने में सफल रहेः अपनी मृत्यु और पुनरूत्थान के अतिरिक्त जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य प्रभु यीशु ने किये वह यह था कि उन्होंने अपने चेलों को प्रशिक्षित करने का कार्य पूर्ण कर दिया (यूहन्ना 17ः4)। हम अभी ‘‘प्रतिभाशाली अर्थ व्यवस्था’’ में रह रहे हैं। आपका कारोबार उतना ही अच्छा होगा जितनी अधिक प्रतिभांए आपकी कम्पनी में उपलब्ध हैं। क्योंकि काई भी सिद्ध नहीं है, जो सबसे उत्तम, मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) होता है वह चारों ओर से प्रवीण प्रतिभाओं से घिरा रहता है। एक बार जब चेले, ‘‘जातियों को शिष्य बनाने’’ की कला में प्रशिक्षित हो गए तब यीशु ने जो उनके प्रमुख थे उन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया। उन्होंने फिर उन्हें अपने नियंत्रण में नही रखें। इसका अर्थ यह नहीं था कि यीशु ने उन्हों छोड़ दिया। उन्होंने अपना आत्मा भेज दिये, परन्तु उसे भी उन्हें नियंत्रण में नहीं रखा, परन्तु उनके कार्यो में सहयोगी बन गया (यूहन्ना 14ः16-18; 15ः26,27;16ः7-12)। अधिकांशतः जब कोई करिश्माती अगुवा मरता है तो उसका अभियान भी समाप्त हो जाता है। यीशु और उनके चेलों के विषय में, वह अभियान न केवल सफल हुआ वरन आज वह सबसे बड़ा उ़द्यम है, अरबों रूपयों उत्पन्न कर रहा है और हजारों लोगों को नौकरी दे रहा है और लाखों के जीवनों को बदलने में लगा हुआ है।
प्रतिभाओं को खोजना प्रत्येक विश्वासी की धुन होना चाहियेः ज्ञान आधारित विश्व अर्थ व्यवस्था में जो निरन्तर प्रतिभाओं की खोज की धुन में रहती है वह यीशु के नमूने के मुकाबले कहीं पास भी नहीं फटकती है। जिस नमूने में यीशु साधारण लोगों को पूर्णतः बदल देते हैं। उन्होंने अपने चेलों को लक्ष्य लेकर चलने वाले उद्यमी बनाया जिन्होंने जगत को वास्तव में उलट पुलट कर दिया। साधारण पुरूषों और महिलाओं की छुपी प्रतिभाओं को काम पर लगाकर यीशु ने तकनीक, तरीके, और आर्थिक रीति से सक्षम सेवाओं को उप्तन्न किये। उन्होंने उनके अन्दर ऐसा जोश व उत्साह डाल दिये कि वे अपने प्रभु और मालिक का काम करने के लिये अपना पूरा जीवन लगाने को तैयार थे (प्रेरितों के काम 4ः18-20; 2तीमुथियुस 2ः2)। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यीशु के सभी चेले अपने प्रभु की तरह धर्म शहीद हुए।
ढूंढों और तुम पाओगेः आज विश्व सामाजिक, आर्थिक और आत्मिक लूट पाट के लिये तैयार है, परन्तु बाजार को हथियाने के लिये उनके पास पर्याप्त प्रवीण प्रतिभाएं नही हैं। हमें प्रतिभाओं को ढूंढने की धुन में रहना चाहिये, उन्हें प्रतिस्पर्धात्मक रीति से पूरी तरह तैयार करके और सारे जरूरी संसाधन से सुसज्जित करके भेजें की वे जाएं और उन वस्तुओं को लूटलें जो उस बलवंत (शैतान) के नाजायज अधिकार में है (मत्ती 12ः29,30)। जो सबसे महत्वपूर्ण काम हम कर सकते हैं, वह यह है कि हम साधारण मिल मजदूरों की तरह लोगों को जिनके पास छुपी प्रतिभा है, खोजें और उन्हें तैयार करके सुसज्जित करें कि वे अनुग्रह और सामर्थ के असाधरण माध्यम बन जांए। जब प्रभु उनके साथ हैं, और हम उनकी राह से अलग हो जाएं, तो वे वैश्विक बाजार को हथिया लेंगे और संसार को भी जीत लेंगे ताकि सभी परमेश्वर के लोग शान्ति सदभाव, समानता, न्याय, प्रेम और धार्मिकता में रह सकें।
इक्लीसिया इसलिये बनी हुई है कि व सबसे अद्यम तुच्छ और नीच लोगों के लिये प्रार्थना करे, और जहां वे पूरी तरह बदले जाएं, सेवा के लिये तैयार व सुसज्जित किये जाएं, और प्रभु के असाधरण अनुग्रह के माध्यम के रूप में संसार में भेजे जांए कि वे पृथ्वी पर के अन्तिम अन्य जातीय व्यक्ति को भी छुड़ा कर बचालें। (यहेजकेल 3ः17-19; रोमियों 11ः25; मत्ती 24ः14) परमेश्वर ने केवल अपने भक्तों पर ही अपने भेद प्रगट किये हैं, कि अन्यजातियों को परमेश्वर के राज्य का वारिस बनना चाहिये (इफिसियों 1ः9;3ः3-6; कुलुस्सियों 1ः13)
यह पर्याप्त नहीं है कि हम स्वस्थ्य और शुद्ध सिद्धान्तों को जानते हैं; यहां तक कि शैतान भी उन्हें जानता हैं (याकूब 2ः19)। सिद्धान्त अपने आप में कोई मतलब के नहीं हैं, जब तक उनके आत्मिक लक्ष्य और तात्पर्य परिभाषित न किये जाएं और बाइबिल द्वारा दिये गए साधनों के द्वारा उनकी प्राप्ति के कार्य न किये जाएं (प्रेरितों के काम 26ः16-18)। वरदान और गुण सीमित हैं, इसलिये गुणों से भरपूर नये अगुवों का लगातार पोषण किया जाना चाहिये जैसा पौलूस ने किया। इक्लीसिया में कोई विशेष प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं होता, उसमें सच्चे नायक (हीरो) परामर्शदाता, संगठन को गतिशील बनाने वाले, और धर्म शहीद हैं।
पौलूस की शिष्य बनाने का सिलसिलेवार अनुक्रमः ‘‘और जो बातें तूने बहुत गवाहों के साम्हने मुझसे सुनी हैं, उन्हें विश्वासी मनुष्यों को सौंप दे, जो औरों को भी सिखाने के योग्य हों’’ (2तीमोथी 2ः2)।
सुसमाचार प्रचार द्वारा आत्माओं को बचाने का सबसे अच्छा और स्थाई रूप, प्रचार करना, शिक्षा देना, बपतिस्मा देना और शिष्य बनाना नहीं है परन्तु भेड़ों को झुण्ड में इकट्ठा करना है। यीशु ने ये सब कार्य किये, परन्तु उससे भी बडे़ इक्लीसिया स्थापना के कार्य को पवित्र आत्मा के लिये उनके अनुगामियों द्वारा किये जाने के लिये छोड़ दिया। (यूहन्ना 4ः1-2; 10ः16; प्रेरितों के काम 1ः8)
केवल जब इक्लीसियाएं, इक्लीसियाओं को उत्पन्न करने लगती हैं तभी यह स्वेच्छिक आपो आप होने वाला अभियान आरम्भ होता है, केवल यही एक मार्ग हैं जिससे उत्पत्ती 12ः3; मलाकी 1ः11, मत्ती 14ः6; हबक्कूक 2ः14, और प्रकाशित वाक्य 7ः9,10 पूरे हो जाएंगे।
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